कब्र पर अज़ान देना (हिंदी)

इस मसले पर मुख़ालेफिन के हस्बे जैल  एतराज़ है इंशाअल्लाह इसके अलावा और न मिलेंगे
(1 ) कब्र पर अज़ान देना बिदअत  है  और हर बिदअत हराम लिहाज़ा यह भी हरज़ हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम से साबित नहीं वही पुराना सबक
जवाब :हम पहले साबित कर चुके की बाद दफ़न जिक्रुल्लाह तस्बीह तकबीर हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम से साबित है और जिसकी असल साबित हो वह सुन्नत है उस पर ज्यादती करना मना नहीं फुक़हा फरमाते है की हज में तल्बीह के जो अलफ़ाज़ हदीस से मन्क़ूल है उसमे कमी न करे अगर कुछ बड़ा दे तो जायज़ है(हिदायह )अज़ान में तकबीर भी हे और कुछ ज्यादा भी लिहाज़ा ये सुन्नत से साबित है और अगर बिदअत भी हे तो हसना है
फतावा रशीदिया में हे किसी ने देवबंदी सरदार रशीद अहमद गंगोही से किसी मुसीबत के वक़्त बुखारी शरीफ का खत्म करना कुरुने सलासा से साबित हे या नहीं और बिदअत हे या नहीं
जवाब  :कुरुने सलासा में बुखारी तालीफ़ नहीं हुई थी मगर इसका खत्म दुरुस्त है की जिक्रे खेर के बाद दुआ कुबूल  होती है इसकी असल शरह से साबित है बिदअत नहीं (फतावा रशीदिया जिल्द 1 स. 89 )
इसी किताब में है खाना तरीके मोईन पर खिलाना बिदअत है अगरचे सवाब पहुंचेगा ( फतावा रशीदिया जिल्द 1  स. 88 )
अब बताए खत्म बुखारी और बर्सी की फातिहा पर सवाब क्यों हो रहा है यह तो बिदअत है और हर बिदअत हराम, है हराम पर सवाब कैसा ?
नोट जरुरी : मदरसा  देवबंद में मुसीबत के वक़्त ख़त्मे बुखारी वह के तलबा से कराया जाता है अहले हाजत तलबा को शीरनी देते है और रूपया नफा में रहा कम अर्ज़ कम 15 रूपया वसूल किया जाता है शायद ये बिदअत इसलिए जाएज़ हे की मदरसा को रूपया की जरुरत है और ये हुसूल जर का जरिया है अब कब्र मोमिन पर अज़ान क्यों हराम ?
(2) शामी ने बाबुल अज़ान में जहा के मोके शुमार किए है वह अज़ान कब्र का भी जिक्र फ़रमाया मगर साथ ही फ़रमाया लाकिन्ना रद्दहू इब्नु हज़रिन फी शरहिल उबाबे  इस अज़ान की इब्ने हजर  ने शरह उबाब में तरदीद कर दी मालूम हुआ की अज़ाने कब्र मरदूद है
जवाब : अव्वलन तो इब्ने हज़र शाफ़ई मज़हब है बहुत से ओलमा जिनमे कुछ अहनाफ भी शामिल है फरमाते है अज़ाने कब्र सुन्नत है और इमाम इब्ने हज़र शाफ़ेई हे इसकी तरदीद  करते है तो बताओ हनफ़ियो को मसला जम्हूर पर अमल करना होगा की कॉल शाफ़ई पर ! इमाम इब्ने हज़र ने भी अज़ाने कब्र को मना न किया बल्कि इसको सुन्नत होने का इनकार  किया यानि यह सुन्नत नहीं अगर में कहु बुखारी छापना सुन्नत नहीं बिलकुल दुरुस्त है क्यों की हुज़ूर सल्लल्लाहो अलहि वसल्लम के ज़माने में बुखारी नहीं थी और न प्रेस थी लेकिन इसका मतलब यह नहीं जाएज़ भी नहीं शामी ने इस मोके पर फ़रमाया वक़द यसुन्नुल आजानु इन मोको पर अज़ान सुन्नत है आगे फ़रमाया इसकी इब्ने हज़ार ने तरदीद की तो किस चीज़ की तरदीद हुई सुन्नियत की शामी समझने के लिया अक़्ल और ईमान की जरुरत है ! यह मान भी लो अल्लामा इब्ने हज़र ने खुद अज़ान की तरदीद की तो क्या किसी अलीम के तरदीद करने से कराहत या हुरमत साबित हो सकती है हरगिज़ नहीं  बल्कि इसके लिए दलीले शरई की जरुरत है बिल दलीले शरई कराहते तज़ीही भी साबित नहीं होती शामी बहस मुस्तहब्बतिल वुजू में है तर्क मुस्तहब से कराहत  साबित नहीं  होती क्यों की कराहत के लिए ख़ास की जरुरत है
मुस्तहब के तर्क से यह लाज़िम नहीं आता की वह मकरूह हो जाए बगैर ख़ास मुमानेअत के (शामी जिल्द 1 स. 302 )
क्यों की कराहत हुक्मे शरई है इसके लिए ख़ास दलीले की जरुरत है आप तो अज़ाने कब्र को हराम फरमाते है फुक़हा बगैर ख़ास मुमानेअत के किसी चीज़ को मकरूह ए तज़ीही भी नहीं मानते अगर कहा जाए की शामी ने अज़ाने कब्र को कीला से बयान किया और कीला जुअफ की अलामत है तो जवाब ये है की फ़िक़ह में कीला जुअफ के लिया लाज़िम नहीं शामी किताबुस्सोम में है फताबिरुल मुसन्निफ़े बेकीला लेसा  यलज  मुज्जु अफा इसी तरफ शामी  बहस दफ़ने मैयत में जिक्र मअल जनाज़ा के लिया फ़रमाया कीला तहरीमन व कीला तजिहन देखो यह दोनों कॉल थे और दोनों कीला से नक़ल किया  आलमगीरी किताबुल वक़्फ़े बहसु मसिजुद में है व कीला हुवा मस्जिदन अबदन वहुवल अस ह्हु  यह सही कॉल कीला से बयान किया मालूम हुआ कीला दलीले जुअफ नहीं और अगर मान भी लिया जाए तो भी इस अज़ान को सुन्नत कहना जुअफ होगा न की न जाइज़ क्यों की ये सुन्नत ही का कॉल है हम भी अज़ाने कब्र सुन्नत नहीं कहते सिर्फ जायज़ और मुस्तहब कहते है
(3 ) फुक़हा फरमाते हे क़ब्र पर जा कर सिवाए फातिहा के कुछ न करे और अज़ाने कब्र फातिहा के अलावा है लिहाज़ा हराम है!बहरू राइक में है  यानि मैयत को कब्र में उतारते वक़्त अज़ान देना सुन्नत नहीं जैसा की आज कल मुरव्वज है और इब्ने हज़र ने इसकी तसरीह फरमा दी की यह बिदअत है और जो कोई इसको सुन्नत जाने वह दुरुस्त नहीं कहता  दुरुल बहहर में है जो बिदते हिंदुस्तान में शाया हो गई उनमे से दफ़न के बाद कब्र में अज़ान देना है तोशिह शरह ताक़िह में महमूद बल्खी अलिरहमा फरमाते है कब्र पर अज़ान देना कुछ नहीं मोलवी इस्हाक़ साहब मेअते मसाइल में फरमाते है कब्र पर अज़ान देना मकरूह है क्यों की ये साबित नहीं जो सुन्नत से साबित नहीं वह मकरूह होता है
जवाब: बहरू राइक  का यह फरमाना की कब्र पर जा कर सिवाए जियारत व दुआ और कुछ करना मकरूह है बिलकुल दुरुस्त है वह ज़ियारते कुबुर के वक़्त फरमाते है यानि जब वह जियारत के नियत से जाए तो कब्र को चूमना सजदा करना वगेरह नाजायज़ काम न करे और यहाँ गुफ्तुगू है दफ़न के वक़्त ये जियारत का वक़्त नहीं  दफ़न भी इस में शामिल है तो लाजिम  होगा मैयत को कब्र में उतारना तख्ता देना मिटटी डालना और बाद दफ़न तलकीन करना जिसको फतवा रशीदिया में भी जाएज़ कहा है सब मना हों पस मुर्दे को जंगल में रख कर फातिहा पढ़ कर भाग आना  चाहिए और ज़ियारते कब्र के वक़्त मना काम करना मना है वही इबारत बहरूराईक का मकसूद है वरना मुर्दो को सलाम करना या उनके कुबुर पर सब्जा या फूल बिल इख़्तिलाफ़ जाएज़ है  !हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम से साबित है ! और बहरूराईक में फरमा  रहे है की वहा बजुज़ जियारत और खड़े  दुआ करने के कुछ भी न करे मोलवी अशरफ साब की हिफज़ुल ईमान में एक सवाल है की शाह वलीउल्लाह साहब कश्फे कुबुर का तरीका बयां फरमाते है  यानि इसके बाद सात चक्कर तवाफ़ करे और उसमे तकबीर  कहे और दाहिनी तरफ से शरू करे कब्र के पाँव की तरफ अपना रुखसार रखे तो क्या कब्र का तवाफ़ और सजदा जाएज़ है
इसका जवाब  हिफज़ुल ईमान स. 6  : यह तवाफ़ इस्तेलाही नहीं है  जो की ताजीम और तबर्रुक के लिया किया जाता है और जिसकी मुमानेअत नुसूरे शरई या से साबित है बल्कि तवाफ़ ए लुग़वी है यानि इसके इर्द गिर्द फिरना वास्ते पैदा करने मुसाबिते रूही के साहिबे कब्र के साथ और लेन फ़ुयूज़ है इसकी नज़ीर हज़रत जाबिर के किस्से में वारिद हुई है जबकि उनके वालिद मक़रूज़ हो कर वफ़ात पा  गए  और क़र्ज़ खवाओ ने हज़रत जाबिर को तंग किया उन्होंने हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम से अर्ज़ किया की बाग़ में तशरीफ़ ला कर रिआयत करा दीजिये हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम बाग़ में रौनक अफ़रोज़ हुए और छुआरों का अम्बार लगवा कर बड़े अंबार के गिर्द तीन बार फिरे यह हुज़ूर का फिरना कोई तवाफ़ न था बल्कि इस में असर पहुचने के लिए इसके चारो तरफ फिर गए
इसी तरह कशफ़ुल कुबुर के अमल में है कहिया अगर अज़ाने कब्र इसलिए माना है की काबे पर बजुज़ जियारत व दुआ के कोई काम जाएज़ नहीं तो कब्र का तवाफ़ और फैज़ लेना क्यों जाएज़ है लिहाज़ा बहरूराईक की जाहिरी इबारत आपके मुआफिक नहीं पुर  लुफ्त  बात यह हे की हफ़ज़ूल ईमान की इस इबारत से मालूम हुआ की कब्रो से फैज़ मिलता है और फैज़ के लिया वह जाना और तवाफ़ करना कब्र पर रुख्सारा रखना जाएज़ है उसकी को  तक़वीयतुल ईमान  में शिर्क कहा है ! शामी को तोशिह की इबारतों का जवाब सवाल 1 पर गुजर गया इसमें सुन्नतो का इंकार है न की जवाज का
(4 ) अज़ान तो नमाज़ की इत्तिला के लिया है दफ़न के वक़्त कोसी नमाज़ हो रही है जिसकी इत्तला देना मंज़ूर है यह अज़ान बेकार है पस नाजायज़ है


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