वैदिक धार्मिक ग्रन्थों
में
मुहम्मद तथा अहमद का उल्लेख
आज के इस पोस्ट में हम आपकी सेवा में कुछ ऐसे प्रमाण पेश कर रहे हैं जिन से सिद्ध होता है कि “कल्कि अवतार” अथवा“नराशंस” जिनके सम्बन्ध में वैदिक धार्मिक ग्रन्थों ने भविष्यवाणी की है वह मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ही हैं। क्योंकि कुछ स्थानों पर स्पष्ट रूप में “मुहम्मद” और “अहमद” का वर्णन भी आया है।
1. देखिए
भविष्य
पुराण (323:5:8)
» “एक दूसरे देश में एक आचार्य अपने मित्रों के साथ आएगा उनका नाम महामद होगा। वे रेगिस्तानी क्षेत्र में आएगा।”
2. श्रीमदभग्वत
पुराण: उसी प्रकार श्रीमदभग्वत पुराण (72-2) में
शब्द “मुहम्मद” इस प्रकार आया है: “अज्ञान हेतु कृतमोहमदान्धकार नाशं विधायं
हित हो दयते विवेक”
• अर्थात: “मुहम्मद के द्वारा अंधकार दूर होगा और ज्ञान तथा आध्यात्मिकता का प्रचनल होगा।”
3. यजुर्वेद
(18-31) में है -
“वेदाहमेत पुरुष महान्तमादित्तयवर्ण तमसः प्रस्तावयनाय”
• अर्थात: “वे अहमद महान व्यक्ति हैं, यूर्य के समान अंधेरे को समाप्त करने वाले, उन्हीं को जान कर प्रलोक में सफल हुआ जा सकता है। उसके अतिरिक्त सफलता तक पहूँचने का कोई दूसरा मार्ग नहीं।”
4. इति
अल्लोपनिषद में अल्लाह और मुहम्मद का वर्णन -
आदल्ला बूक मेककम्। अल्लबूक निखादकम् ।। 4 ।।अलो
यज्ञेन हुत हुत्वा अल्ला सूय्र्य चन्द्र सर्वनक्षत्राः ।। 5 ।।अल्लो ऋषीणां सर्व दिव्यां इन्द्राय पूर्व
माया परमन्तरिक्षा ।। 6 ।।अल्लः
पृथिव्या अन्तरिक्ष्ज्ञं विश्वरूपम् ।। 7 ।।इल्लांकबर इल्लांकबर इल्लां इल्लल्लेति इल्लल्लाः ।। 8 ।।ओम् अल्ला इल्लल्ला अनादि स्वरूपाय अथर्वण
श्यामा हुद्दी जनान पशून सिद्धांतजलवरान् अदृष्टं कुरु कुरु फट ।। 9 ।।असुरसंहारिणी हृं द्दीं अल्लो रसूल
महमदरकबरस्य अल्लो अल्लाम्इल्लल्लेति इल्लल्ला ।। 10 ।।इति अल्लोपनिषद
• अर्थात: ‘‘अल्लाह ने सब ऋषि भेजे
और चंद्रमा, सूर्य एवं तारों को पैदा किया। उसी ने सारे
ऋषि भेजे और आकाश को पैदा किया। अल्लाह ने ब्रह्माण्ड (ज़मीन और आकाश) को बनाया।
अल्लाह श्रेष्ठ है, उसके
सिवा कोई पूज्य नहीं। वह सारे विश्व का पालनहार है। वह तमाम बुराइयों और मुसीबतों
को दूर करने वाला है। मुहम्मद अल्लाह के रसूल (संदेष्टा) हैं, जो इस संसार का पालनहार है। अतः घोषणा करो कि
अल्लाह एक है और उसके सिवा कोई पूज्य नहीं।’’
इस श्लोक का वर्णन करने के पश्चात डा0 एम. श्रीवास्तव अपनी
पुस्तक “हज़रत
मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) और भारतीय धर्मग्रन्थ” मे लिखते हैं: (बहुत थोड़े से विद्वान, जिनका संबंध विशेष रूप से आर्यसमाज से बताया
जाता है, अल्लोपनिषद् की गणना उपनिषदों में नहीं करते
और इस प्रकार इसका इनकार करते हैं, हालांकि
उनके तर्कों में दम नहीं है। इस कारण से भी वैदिक धर्म के अधिकतर विद्वान और मनीषी
अपवादियों के आग्रह पर ध्यान नहीं देते। गीता प्रेस (गोरखपुर) का नाम वैदिक धर्म
के प्रमाणिक प्रकाशन केंद्र के रूप में अग्रगण्य है। यहां से प्रकाशित ‘‘कल्याण’’ (हिन्दी पत्रिका) के अंक अत्यंत प्रामाणिक
माने जाते हैं। इसकी विशेष प्रस्तुति ‘‘उपनिषद अंक’’ में 220 उपनिषदों
की सूची दी गई है, जिसमें
अल्लोपनिषद् का उल्लेख 15वें नंबर पर किया गया है।14वें नंबर पर अमत बिन्दूपनिषद् और 16वें
नंबर पर अवधूतोपनिषद् (पद्य) उल्लिखित है। डा.वेद प्रकाश उपाध्याय ने भी
अल्लोपनिषद को प्रामाणिक उपनिषद् माना है। - (‘देखिए: वैदिक साहित्य: एक विवेचन, प्रदीप प्रकाशन, पृ. 101, संस्करण 1989।)
इस्लाम के बारे
में भारतीय ग़ैर-मुस्लिम विद्वानों के विचार
इस्लाम के बारे में दुनिया के बेशुमार विद्वानों, विचारकों, साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों और
इतिहासकारों आदि ने अपने विचार व्यक्त किए हैं। इनमें हर धर्म, जाति, क़ौम और देश के लोग रहे
हैं। यहाँ उनमें से सिर्फ़ भारतवर्ष के कुछ विद्वानों के विचार उद्धृत किए जा रहे
हैं:
हुजुर रहमतुल लिल आलमीन
(सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम)
की
शान, बाबा गुरु नानक जी की नज़र में
इस्लामी भाईयो! पूरा क़ुरआन हमारे नबी
(सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की अ़ज़मत और महानता को बयान करता है। तमाम सहाबा, तमाम ताबेअ़ीन, तमाम तब्अ़े ताबेअ़ीन, तमाम सालेहीन, तमाम ग़ौसो ख़्वाजा, क़ुतूबो अब्दाल, तमाम मोजद्दीदन वग़ैरा ने
नबी-ए-पाक की अ़ज़मत को तस्लीम किया। अपने तो अपने ग़ैरों ने भी हुज़ूर
(सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की महानता को तस्लीम किया है। उन्हीं में से एक नाम
गुरु नानक का भी है।
गुरु नानक कहते हैं कि…
सलाह़त मोहम्मदी मुख ही आखू नत! ख़ासा बंदा सजया सर मित्रां
हूं मत!!
» अर्थात:-
ह़ज़रत मोहम्मद की तारीफ़ और हमेशा करते चले जाओ। आप अल्लाह तआला के ख़ास बंदे और
तमाम नबीयों और रसूलों के सरदार हैं।
(जन्म साखी विलायत वाली, पेज नम्बर 246, जन्म साखी श्री गुरु नानक देव जी, प्रकाशन गुरु नानक यूनीवर्सिटी, अमृतसर, पेज नम्बर 61)
नानक जी ने इस बारे में ये बात भी साफ़-साफ़
बयान किया है कि दुनिया की निजात (मुक्ति) और कामयाबी अल्लाह तआला ने हज़रत
मोहम्मद के झण्ड़े तले पनाह लेने से वाबस्ता कर दिया है। गोया कि वही लोग निजात पाऐंगे, जो हज़रत मोहम्मद की
फ़रमाबरदारी इख़्तियार करेंगे और हज़रत मोहम्मद की ग़ुलामी में ज़िन्दगी बसर करने
का वादा करेंगे।
चुनांचे नानक कहते हैं कि…
सेई छूटे नानका हज़रत जहां पनाह!
» अर्थात:
निजात उन लोगों के लिए ही मुक़र्रर है, जो हज़रत मोहम्मद की पनाह में
आऐंगे और उनकी ग़ुलामी में ज़िन्दगी बसर करेंगे। (जन्म साखी विलायत वाली, प्रकाषन 1884 ईस्वी, पेज 250)
नानक जी के इस बयान के पेशे नज़र गुरु अर्जून
ने यह कहा है कि..
अठे पहर भोंदा, फिरे खावन, संदड़े सूल!
दोज़ख़ पौंदा, क्यों रहे, जां
चित न हूए रसूल!!
» अर्थात:
जिन लोगों के दिलों में हज़रत मोहम्मद की अ़क़ीदत और मोहब्बत ना होगी, वह इस दुनिया मे आठों पहर
भटकते फिरेंगे और मरने के बाद उन को दोज़ख़ मिलेगी। (गुरु ग्रन्थ साहब, पेज नम्बर 320)
नानक ने इन बातों के पेशे नज़र ही दूसरे
लोगों को ये नसीहत की है कि …
मोहम्मद मन तूं, मन किताबां चार! मन ख़ुदा-ए-रसूल नूं, सच्चा ई दरबार!!
» अर्थात: हज़रत
मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ) पर ईमान लाओ और चारों आसमानी किताबों को
मानो। अल्लाह और उस के रसूल पर ईमान लाकर ही इन्सान अपने अल्लाह के दरबार में
कामयाब होगा। (जन्म साखी भाई बाला, पेज नम्बर 141)
एक और जगह पर नानक जी ने कहा कि …
ले पैग़म्बरी आया, इस दुनिया माहे! नाऊं मोहम्मद मुस्तफ़ा, हो आबे परवा हे!!
» अर्थात: जिन
का नाम मोहम्मद है, वह इस दुनिया में पैग़म्बर बन कर तशरीफ़ लाए
हैं और उन्हें किसी भी शैतानी ताक़त का ड़र या ख़ौफ़ नहीं है। वह बिल्कुल बे परवा
हैं। (जन्म साखी विलायत वाली, पेज नम्बर 168)
एक और जगह नानक ने कहा कि…
अव्वल नाऊं ख़ुदाए दा दर दरवान रसूल! शैख़ानियत रास करतां, दरगाह पुवीं कुबूल!!
» अर्थात: किसी
भी इन्सान को हज़रत मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ) की इजाज़त हासिल किए
बग़ैर अल्लाह तआला के दरबार में रसाई हासिल नहीं हो सकती। (जन्म साखी विलायत वाली, पेज नम्बर 168)
एक और मक़ाम पर गुरु नानक ने कहा है कि…
हुज्जत राह शैतान दा, कीता जिनहां कुबूल! सो दरगाह ढोई, ना लहन भरे, ना शफ़ाअ़त रसूल!!
» अर्थात: जिन
लोगों ने शैतानी रास्ता अपना रखा है और हुज्जत बाज़ी से काम लेते हैं। उन्हें
अल्लाह के दरबार में रसाई हासिल ना हो सकेगी। ऐसे लोग हज़रत मोहम्मद (सल्लल्लाहु
अलैहि व सल्लम) की शफ़ाअ़त से भी महरुम रहेंगे। शफ़ाअ़त उन लोगों के लिए है, जो शैतानी रास्ते छोड़कर
नेक नियत से ज़िन्दगी बसर करेंगे। (जन्म साखी भाई वाला, पेज नम्बर 195)
एक सिक्ख विद्वान डॉ. त्रिलोचन सिंह लिखते
हैं कि…
“हज़रत मोहम्मद नूं गुरु नानक जी रब दे महान पैग़म्बर मन्दे सुन”। (जिवन चरित्र गुरु नानक, पेज नम्बर 305)
अल ग़रज़, गुरु नानक हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ) को अल्लाह तआला का ख़ास पैग़म्बर ख़ातमुल मुरसलीन (आख़री रसूल) और ख़ातमुल अंम्बिया (आख़री पैग़म्बर) तसलीम करते थे और तमाम नबीयों का सरदार समझते थे। गुरु नानक के नज़दीक दुनिया की निजात, हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ) के झण्ड़े तले जमा होने से जुड़ी है।
पहला नाम खुदा का दूजा नाम रसूल ।
तीजा कलमा पढ़ नानका दरगे पावें क़बूल ।
डेहता नूरे मुहम्मदी
डेगता नबी रसूल ।
नानक
कुदरत देख कर दुखी गई सब भूल |
ऊपर की पंक्तियों को गौर से पढ़िए फिर सोचिए
कि स्पष्ट रूप में गुरू नानक जी ने अल्लाह और मुहम्मद सल्ललाहो अलैहि वसल्लम का
परिचय कराया है। और इस्लाम में प्रवेश करने के लिए यही एक शब्द बोलना पड़ता है कि
मैं इस बात का वचन देता हूं कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई सत्य पूज्य नहीं। औऱ मैं इस
बात का वचन देता हूं कि मुहम्मद सल्ल0 अल्लाह के अन्तिम संदेष्टा और दूत हैं।
न इस्लाम में प्रवेश करने के लिए खतना कराने की आवशेकता है और न ही गोश्त खाने की जैसा कि कुछ लोगों में यह भ्रम पाया जाता है। यही बात गरू नानक जी ने कही है और मुहम्मद सल्ल0 को मानने की दावत दी है। परन्तु किन्हीं कारणवश खुल कर सामने न आ सके और दिल में पूरी श्रृद्धा होने के साथ मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के संदेष्टा होने को स्वीकार करते थे।
स्वामी विवेकानंद
(विश्व-विख्यात धर्मविद्)
इस्लाम के बारे में विचार
“मुहम्मद साहब (इन्सानी) बराबरी, इन्सानी भाईचारे और तमाम
मुसलमानों के भाईचारे के पैग़म्बर थे। … जैसे ही कोई व्यक्ति इस्लाम स्वीकार करता है
पूरा इस्लाम बिना किसी भेदभाव के उसका खुली बाहों से स्वागत करता है, जबकि कोई दूसरा धर्म ऐसा
नहीं करता। …
हमारा
अनुभव है कि यदि किसी धर्म के अनुयायियों ने इस (इन्सानी) बराबरी को दिन-प्रतिदिन
के जीवन में व्यावहारिक स्तर पर बरता है तो वे इस्लाम और सिर्फ़ इस्लाम के अनुयायी
हैं। मुहम्मद
साहब ने अपने जीवन-आचरण से यह बात सिद्ध कर दी कि मुसलमानों में भरपूर बराबरी और
भाईचारा है। यहाँ वर्ण, नस्ल, रंग या लिंग (के भेद) का कोई प्रश्न ही नहीं। इसलिए हमारा पक्का विश्वास
है कि व्यावहारिक इस्लाम की मदद लिए बिना वेदांती सिद्धांत—चाहे वे कितने ही उत्तम और अद्भुत हों विशाल
मानव-जाति के लिए मूल्यहीन (Valueless) हैं …”(टीचिंग्स ऑफ विवेकानंद, पृष्ठ-214, 215, 217, 218) अद्वैत
आश्रम, कोलकाता-2004)
मुंशी प्रेमचंद (प्रसिद्ध
साहित्यकार)
इस्लाम के बारे में विचार
“जहाँ तक हम जानते हैं, किसी धर्म ने न्याय को इतनी महानता नहीं दी जितनी इस्लाम ने। इस्लाम की बुनियाद न्याय पर रखी गई है। वहाँ राजा और रंक, अमीर और ग़रीब, बादशाह और फ़क़ीर के लिए ‘केवल एक’ न्याय है। किसी के साथ रियायत नहीं किसी का पक्षपात नहीं। ऐसी सैकड़ों रिवायतें पेश की जा सकती है जहाँ बेकसों ने बड़े-बड़े बलशाली आधिकारियों के मुक़ाबले में न्याय के बल से विजय पाई है। ऐसी मिसालों की भी कमी नहीं जहाँ बादशाहों ने अपने राजकुमार, अपनी बेगम,यहाँ तक कि स्वयं अपने तक को न्याय की वेदी पर होम कर दिया है। संसार की किसी सभ्य से सभ्य जाति की न्याय-नीति की, इस्लामी न्याय-नीति से तुलना कीजिए, आप इस्लाम का पल्ला झुका (भारी) हुआ पाएँगे।’’
“जिन दिनों इस्लाम का झंडा कटक से लेकर
डेन्युष तक और तुर्किस्तान से लेकर स्पेन तक फ़हराता था मुसलमान बादशाहों की
धार्मिक उदारता इतिहास में अपना सानी (समकक्ष) नहीं रखती थी। बड़े से बड़े राज्यपदों
पर ग़ैर-मुस्लिमों को नियुक्त करना तो साधारण बात थी, महाविद्यालयों के कुलपति
तक ईसाई और यहूदी होते थे…”
“यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि इस (समता) के विषय में इस्लाम ने अन्य सभी सभ्यताओं को बहुत पीछे छोड़ दिया है। वे सिद्धांत जिनका श्रेय अब कार्ल मार्क्स और रूसो को दिया जा रहा है वास्तव में अरब के मरुस्थल में प्रसूत हुए थे और उनका जन्मदाता अरब का वह उम्मी (उम्मी: उम्म और या नस्बती से उम्मी बना है उम्म से मुराद उम्मुल क़ुरा (मक्का मुकर्रमा) है उम्मी मतलब मक्की या मक्का शरीफ़ मे पैदा होने वाले या उम्मा अरबिया से उम्म बना है जो लिखने पढने में खासतौर पर अलग थे यानि बे पढ़े लिखे जमा-अत में पैदा होने वाले या उम्म मअनी’ माँ है यानी शानदार माँ वाले कि सैयदा अमीना जैसी शान व शौकत वाली बीबी जो हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की माँ है वैसी माँ पैदा न हो ! बे मिसाल नबी की बे मिसाल माँ उम्मी के मअनी हैं माँ के पेट से अलीम व आरिफ पैदा होने वाले जिन की दामन पर किसी की शागिर्दी किसी की मुरीदी किसी से फैज़ लेने का धब्बा नहीं ! (हवाला अल- नाबियुल उम्मी- शैखुल इस्लाम सैयद मदनी मियां जिलानी) था जिसका नाम मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) है। मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ) के सिवाय संसार में और कौन धर्म प्रणेता हुआ है जिसने ख़ुदा के सिवाय किसी मनुष्य के सामने सिर झुकाना गुनाह ठहराया है…?”
“कोमल वर्ग के साथ तो इस्लाम ने जो सलूक किए
हैं उनको देखते हुए अन्य समाजों का व्यवहार पाशविक जान पड़ता है। किस समाज में
स्त्रियों का जायदाद पर इतना हक़ माना गया है जितना इस्लाम में? … हमारे विचार में वही
सभ्यता श्रेष्ठ होने का दावा कर सकती है जो व्यक्ति को अधिक से अधिक उठने का अवसर
दे। इस लिहाज़ से भी इस्लामी सभ्यता को कोई दूषित नहीं ठहरा सकता।”
“हज़रत (मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—कोई मनुष्य उस वक़्त तक मोमिन (सच्चा मुस्लिम) नहीं हो सकता जब तक वह अपने भाई-बन्दों के लिए भी वही न चाहे जितना वह अपने लिए चाहता है। … जो प्राणी दूसरों का उपकार नहीं करता ख़ुदा उससे ख़ुश नहीं होता। उनका यह कथन सोने के अक्षरों में लिखे जाने योग्य है.
‘‘ईश्वर की समस्त सृष्टि उसका परिवार है वही प्राणी ईश्वर का (सच्चा) भक्त है जो ईश्वर के बन्दों के साथ नेकी करता है।’’ अगर तुम्हें ईश्वर की बन्दगी करनी है तो पहले उसके बन्दों से मुहब्बत करो।’’
“सूद (ब्याज) की पद्धति ने संसार में जितने
अनर्थ किए हैं और कर रही है वह किसी से छिपे नहीं है। इस्लाम वह अकेला धर्म है
जिसने सूद को हराम (अवैध) ठहराया है …”
अन्नादुराई (डी॰एमके॰ के
संस्थापक, भूतपूर्व
मुख्यमंत्री तमिलनाडु)
इस्लाम के बारे में विचार
“इस्लाम के सिद्धांतों और धारणाओं की जितनी
ज़रूरत छठी शताब्दी में दुनिया को थी, उससे कहीं बढ़कर उनकी ज़रूरत आज दुनिया को है, जो विभिन्न विचारधाराओं की
खोज में ठोकरें खा रही है और कहीं भी उसे चैन नहीं मिल सका है।
इस्लाम केवल एक धर्म नहीं है, बल्कि वह एक जीवन-सिद्धांत और अति उत्तम जीवन-प्रणाली है। इस जीवन-प्रणाली को दुनिया के कई देश ग्रहण किए हुए हैं।
जीवन-संबंधी इस्लामी दृष्टिकोण और इस्लामी
जीवन-प्रणाली के हम इतने प्रशंसक क्यों हैं? सिर्फ़ इसलिए कि इस्लामी जीवन-सिद्धांत
इन्सान के मन में उत्पन्न होने वाले सभी संदेहों ओर आशंकाओं का जवाब संतोषजनक ढंग
से देते हैं।
अन्य धर्मों में शिर्क (बहुदेववाद) की शिक्षा
मौजूद होने से हम जैसे लोग बहुत-सी हानियों का शिकार हुए हैं। शिर्क के रास्तों को
बन्द करके इस्लाम इन्सान को बुलन्दी और उच्चता प्रदान करता है और पस्ती और उसके
भयंकर परिणामों से मुक्ति दिलाता है।
इस्लाम इन्सान को सिद्ध पुरुष और भला मानव
बनाता है। ख़ुदा ने जिन बुलन्दियों तक पहुँचने के लिए इन्सान को पैदा किया है, उन बुलन्दियों को पाने और
उन तक ऊपर उठने की शक्ति और क्षमता इन्सान के अन्दर इस्लाम के द्वारा पैदा होती
है।’’
इस्लाम की एक अन्य ख़ूबी यह है कि उसको जिसने
भी अपनाया वह जात-पात के भेदभाव को भूल गया।
मुदगुत्तूर (यह तमिलनाडु का एक गाँव है जहाँ
ऊँची जात और नीची जात वालों के बीच भयानक दंगे हुए थे।) में एक-दूसरे की गर्दन
मारने वाले जब इस्लाम ग्रहण करने लगे तो इस्लाम ने उनको भाई-भाई बना दिया। सारे
भेदभाव समाप्त हो गए। नीची जाति के लोग नीचे नहीं रहे, बल्कि सबके सब प्रतिष्ठित
और आदरणीय हो गए। सब समान अधिकारों के मालिक होकर बंधुत्व के बंधन में बंध गए।
इस्लाम की इस ख़ूबी से मैं बहुत प्रभावित हुआ
हूँ। बर्नाड शॉ, जो
किसी मसले के सारे ही पहलुओं का गहराई के साथ जायज़ा लेने वाले व्यक्ति थे, उन्होंने इस्लाम के उसूलों
का विश्लेषण करने के बाद कहा था: ‘‘दुनिया में बाक़ी और क़ायम रहने वाला दीन
(धर्म) यदि कोई है तो वह केवल इस्लाम है।’’
आज 1957 ई॰ में जब हम मानव-चिंतन को जागृत करने और
जनता को उनकी ख़ुदी से अवगत कराने की थोड़ी-बहुत कोशिश करते हैं तो कितना विरोध होता
है। चौदह सौ साल पहले जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ) ने यह संदेश दिया कि
बुतों को ख़ुदा न बनाओ। अनेक ख़ुदाओं को पूजने वालों के बीच खड़े होकर यह ऐलान किया
कि बुत तुम्हारे ख़ुदा नहीं हैं। उनके आगे सिर मत झुकाओ। सिर्फ एक स्रष्टा (इश्वर)
ही की उपासना करो।
इस ऐलान के लिए कितना साहस चाहिए था, इस संदेश का कितना विरोध
हुआ होगा। विरोध के तूफ़ान के बीच पूरी दृढ़ता के साथ आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम
) यह क्रांतिकारी संदेश देते रहे, यह आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ) की महानता
का बहुत बड़ा सुबूत है।
इस्लाम अपनी सारी ख़ूबियों और चमक-दमक के साथ
हीरे की तरह आज भी मौजूद है। अब इस्लाम के अनुयायियों का यह कर्तव्य है कि वे
इस्लाम धर्म को सच्चे रूप में अपनाएँ। इस तरह वे अपने रब की प्रसन्नता और ख़ुशी भी
हासिल कर सकते हैं और ग़रीबों और मजबूरों की परेशानी भी हल कर सकते हैं। और मानवता
भौतिकी एवं आध्यात्मिक विकास की ओर तीव्र गति से आगे बढ़ सकती है।’’ (मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व
सल्लम ) का जीवन-चरित्रा’ पर
भाषण 7 अक्टूबर 1957 ई॰)
प्रोफ़ेसर के॰ एस॰
रामाकृष्णा राव
(अध्यक्ष, दर्शन-शास्त्र विभाग, राजकीय कन्या विद्यालय मैसूर, कर्नाटक)
इस्लाम के बारे में विचार
‘‘पैग़म्बर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम )
की शिक्षाओं का ही यह व्यावहारिक गुण है, जिसने वैज्ञानिक प्रवृत्ति को जन्म दिया।
इन्हीं शिक्षाओं ने नित्य के काम-काज और उन कामों को भी जो सांसारिक काम कहलाते
हैं आदर और पवित्राता प्रदान की। क़ुरआन कहता है कि इन्सान को ख़ुदा की इबादत के
लिए पैदा किया गया है, लेकिन ‘इबादत’ (पूजा) की उसकी अपनी अलग परिभाषा है। ख़ुदा की
इबादत केवल पूजा-पाठ आदि तक सीमित नहीं, बल्कि हर वह कार्य जो अल्लाह के आदेशानुसार
उसकी प्रसन्नता प्राप्त करने तथा मानव-जाति की भलाई के लिए किया जाए इबादत के
अंतर्गत आता है।
इस्लाम ने पूरे जीवन और उससे संबद्ध सारे मामलों को पावन एवं पवित्र घोषित किया है। शर्त यह है कि उसे ईमानदारी,न्याय और नेकनियती के साथ किया जाए। पवित्र और अपवित्र के बीच चले आ रहे अनुचित भेद को मिटा दिया। क़ुरआन कहता है कि अगर तुम पवित्र और स्वच्छ भोजन खाकर अल्लाह का आभार स्वीकार करो तो यह भी इबादत है।
पैग़म्बरे इस्लाम मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व
सल्लम ) ने कहा है कि यदि कोई व्यक्ति अपनी पत्नी को खाने का एक लुक़्मा खिलाता है
तो यह भी नेकी और भलाई का काम है और अल्लाह के यहाँ वह इसका अच्छा बदला पाएगा।
पैग़म्बर की एक और हदीस है— “अगर कोई व्यक्ति अपनी कामना और ख़्वाहिश को
पूरा करता है तो उसका भी उसे सवाब मिलेगा। शर्त यह है कि इसके लिए वही तरीक़ा अपनाए
जो जायज़ हो।”
एक साहब जो आपकी बातें सुन रहे थे, आश्चर्य से बोले, “हे अल्लाह के पैग़म्बर वह तो केवल अपनी
इच्छाओं और अपने मन की कामनाओं को पूरा करता है। आपने उत्तर दिया, ‘यदि उसने अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए अवैध
तरीक़ों और साधनों को अपनाया होता तो उसे इसकी सज़ा मिलती, तो फिर जायज़ तरीक़ा अपनाने
पर उसे इनाम क्यों नहीं मिलना चाहिए?’
धर्म की इस नयी धारणा ने कि, ‘धर्म का विषय पूर्णतः अलौकिक जगत के मामलों
तक सीमित न रहना चाहिए, बल्कि इसे लौकिक जीवन के उत्थान पर भी ध्यान
देना चाहिए; नीति-शास्त्रा
और आचार-शास्त्र के नए मूल्यों एवं मान्यताओं को नई दिशा दी। इसने दैनिक जीवन में
लोगों के सामान्य आपसी संबंधों पर स्थाई प्रभाव डाला। इसने जनता के लिए गहरी शक्ति
का काम किया, इसके
अतिरिक्त लोगों के अधिकारों और कर्तव्यों की धारणाओं को सुव्यवस्थित करना और इसका
अनपढ़ लोगों और बुद्धिमान दार्शनिकों के लिए समान रूप से ग्रहण करने और व्यवहार में
लाने के योग्य होना पैग़म्बरे इस्लाम की शिक्षाओं की प्रमुख विशेषताएँ हैं। यहाँ यह
बात सतर्कता के साथ दिमाग़ में आ जानी चाहिए कि भले कामों पर ज़ोर देने का अर्थ यह
नहीं है कि इसके लिए धार्मिक आस्थाओं की पवित्रता एवं शुद्धता को कु़र्बान किया
गया है। ऐसी बहुत-सी विचारधाराएँ हैं, जिनमें या तो व्यावहारिता के महत्व की बलि
देकर आस्थाओं ही को सर्वोपरि माना गया है या फिर धर्म की शुद्ध धारणा एवं आस्था की
परवाह न करके केवल कर्म को ही महत्व दिया गया है।
इनके विपरीत इस्लाम सत्य आस्था एवं सतकर्म
(के सामंजस्य) के नियम पर आधारित है। यहाँ साधन भी उतना ही महत्व रखते हैं जितना
लक्ष्य। लक्ष्यों को भी वही महत्ता प्राप्त है जो साधनों को प्राप्त है। यह एक जैव
इकाई की तरह है, इसके
जीवन और विकास का रहस्य इनके आपस में जुड़े रहने में निहित है। अगर ये एक-दूसरे से
अलग होते हैं तो ये क्षीण और विनष्ट होकर रहेंगे। इस्लाम में ईमान और अमल को
अलग-अलग नहीं किया जा सकता। सत्य ज्ञान को सत्कर्म में ढल जाना चाहिए। ताकि अच्छे
फल प्राप्त हो सके।
‘जो लोग ईमान रखते हैं और नेक अमल करते हैं, केवल वे ही स्वर्ग में जा
सकेंगे’ यह
बात क़ुरआन में कितनी ही बार दोहराई गयी है। इस बात को पचास बार से कम नहीं
दोहराया गया है। सोच-विचार और ध्यान पर उभारा अवश्य गया है, लेकिन मात्र ध्यान और
सोच-विचार ही लक्ष्य नहीं है। जो लोग केवल ईमान रखें, लेकिन उसके अनुसार कर्म न
करें उनका इस्लाम में कोई मक़ाम नहीं है। जो ईमान तो रखें लेकिन कुकर्म भी करें
उनका ईमान क्षीण है। ईश्वरीय क़ानून मात्र विचार-पद्धति नहीं, बल्कि वह एक कर्म और
प्रयास का क़ानून है। यह दीन (धर्म) लोगों के लिए ज्ञान से कर्म और कर्म से परितोष
द्वारा स्थाई एवं शाश्वत उन्नति का मार्ग दिखलाता है।
लेकिन वह सच्चा ईमान क्या है, जिससे सत्कर्म का आविर्भाव
होता है, जिसके
फलस्वरूप पूर्ण परितोष प्राप्त होता है? इस्लाम का बुनियादी सिद्धांत ऐकेश्वरवाद है ‘अल्लाह बस एक ही है, उसके अतिरिक्त कोई इलाह
नहीं’ इस्लाम का मूल मंत्र है।
इस्लाम की तमाम शिक्षाएँ और कर्म इसी से जुड़े हुए हैं। वह केवल अपने अलौकिक
व्यक्तित्व के कारण ही अद्वितीय नहीं, बल्कि अपने दिव्य एवं अलौकिक गुणों एवं
क्षमताओं की दृष्टि से भी अनन्य और बेजोड़ है।’’ (मुहम्मद, इस्लाम के पैग़म्बर’ मधुर संदेश संगम, नई दिल्ली, 1990)
वेनगताचिल्लम अडियार
(अब्दुल्लाह अडियार)
इस्लाम के बारे में विचार
जन्म: 16, मई 1938
● वरिष्ठ तमिल लेखक; न्यूज़ एडीटर: दैनिक ‘मुरासोली’
● तमिलनाडु के 3 मुख्यमंत्रियों के सहायक
● कलाइममानी अवार्ड (विग जेम ऑफ आर्ट्स)
तमिलनाडु सरकार; पुरस्कृत 1982
● 120 उपन्यासों, 13 पुस्तकों, 13 ड्रामों के लेखक
● संस्थापक, पत्रिका ‘नेरोत्तम’
‘‘औरत के अधिकारों से अनभिज्ञ अरब समाज में
प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने औरत को मर्द के बराबर दर्जा दिया। औरत
का जायदाद और सम्पत्ति में कोई हक़ न था, आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने विरासत में
उसका हक़ नियत किया। औरत के हक़ और अधिकार बताने के लिए क़ुरआन में निर्देश उतारे
गए।
माँ-बाप और अन्य रिश्तेदारों की जायदाद में औरतों को भी वारिस घोषित किया गया। आज सभ्यता का राग अलापने वाले कई देशों में औरत को न जायदाद का हक़ है न वोट देने का। इंग्लिस्तान में औरत को वोट का अधिकार 1928 ई॰ में पहली बार दिया गया। भारतीय समाज में औरत को जायदाद का हक़ पिछले दिनों में हासिल हुआ।
लेकिन हम देखते हैं कि आज से चौदह सौ वर्ष
पूर्व ही ये सारे हक़ और अधिकार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ) ने औरतों को
प्रदान किए। कितने बड़े उपकारकर्ता हैं आप।
आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की शिक्षाओं
में औरतों के हक़ पर काफ़ी ज़ोर दिया गया है। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने ताकीद
की कि लोग कर्तव्य से ग़ाफ़िल न हों और न्यायसंगत रूप से औरतों के हक़ अदा करते रहें।
आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह भी नसीहत की है कि औरत को मारा-पीटा न जाए।
औरत के साथ कैसा बर्ताव किया जाए, इस संबंध में नबी
(सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की बातों का अवलोकन कीजिए:
1. अपनी पत्नी को मारने वाला अच्छे आचरण का नहीं
है।
2. तुममें से सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति वह है जो अपनी
पत्नी से अच्छा सुलूक करे।
3. औरतों के साथ अच्छे तरीक़े से पेश आने का
ख़ुदा हुक्म देता है, क्योंकि वे तुम्हारी माँ, बहन और बेटियाँ हैं।
4. माँ के क़दमों के नीचे जन्नत है।
5. कोई मुसलमान अपनी पत्नी से नफ़रत न करे। अगर
उसकी कोई एक आदत बुरी है तो उसकी दूसरी अच्छी आदत को देखकर मर्द को ख़ुश होना
चाहिए।
6. अपनी पत्नी के साथ दासी जैसा व्यवहार न करो।
उसको मारो भी मत।
7. जब तुम खाओ तो अपनी पत्नी को भी खिलाओ।
8. पत्नी को ताने मत दो। चेहरे पर न मारो। उसका
दिल न दुखाओ। उसको छोड़कर न चले जाओ।
9. पत्नी अपने पति के स्थान पर समस्त अधिकारों
की मालिक है।
10. अपनी पत्नियों के साथ जो अच्छी तरह बर्ताव
करेंगे, वही
तुम में सबसे बेहतर हैं।
मर्द को किसी भी समय अपनी काम-तृष्णा की ज़रूरत पेश आ सकती है। इसलिए कि उसे क़ुदरत ने हर हाल में हमेशा सहवास के योग्य बनाया है जबकि औरत का मामला इससे भिन्न है। माहवारी के दिनों में, गर्भावस्था में (नौ-दस माह), प्रसव के बाद के कुछ माह औरत इस योग्य नहीं होती कि उसके साथ उसका पति संभोग कर सके।
सारे ही मर्दों से यह आशा सही न होगी कि वे बहुत ही संयम और नियंत्रण से काम लेंगे और जब तक उनकी पत्नियाँ इस योग्य नहीं हो जातीं कि वे उनके पास जाएँ, वे काम इच्छा को नियंत्रित रखेंगे। मर्द जायज़ तरीक़े से अपनी ज़रूरत पूरी कर सके, ज़रूरी है कि इसके लिए राहें खोली जाएँ और ऐसी तंगी न रखी जाए कि वह हराम रास्तों पर चलने पर विवश हो। पत्नी तो उसकी एक हो, आशना औरतों की कोई क़ैद न रहे। इससे समाज में जो गन्दगी फैलेगी और जिस तरह आचरण और चरित्रा ख़राब होंगे इसका अनुमान लगाना आपके लिए कुछ मुश्किल नहीं है।
व्यभिचार और बदकारी को हराम ठहराकर
बहुस्त्रीवाद की क़ानूनी इजाज़त देने वाला बुद्धिसंगत दीन इस्लाम है।
एक से अधिक शादियों की मर्यादित रूप में
अनुमति देकर वास्तव में इस्लाम ने मर्द और औरत की शारीरिक संरचना, उनकी मानसिक स्थितियों और
व्यावहारिक आवश्यकताओं का पूरा ध्यान रखा है और इस तरह हमारी दृष्टि में इस्लाम
बिल्कुल एक वैज्ञानिक धर्म साबित होता है। यह एक हक़ीक़त है, जिस पर मेरा दृढ़ और अटल
विश्वास है।
इतिहास में हमें कोई ऐसी घटना नहीं मिलती कि अगर किसी ने इस्लाम क़बूल करने से इन्कार किया तो उसे केवल इस्लाम क़बूल न करने के जुर्म में क़त्ल कर दिया गया हो, लेकिन कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट के बीच संघर्ष में धर्म की बुनियाद पर बड़े पैमाने पर ख़ून-ख़राबा हुआ। दूर क्यों जाइए, तमिलनाउु के इतिहास ही को देखिए, मदुरै में ज्ञान समुन्द्र के काल में आठ हज़ार समनर मत के अनुयायियों को सूली दी गई, यह हमारा इतिहास है।
अरब में प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ) शासक थे तो वहाँ यहूदी भी आबाद थे और ईसाई भी, लेकिन आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ) ने उन पर कोई ज़्यादती नहीं की।
हिन्दुस्तान में मुस्लिम शासकों के ज़माने में
हिन्दू धर्म को अपनाने और उस पर चलने की पूर्ण अनुमति थी। इतिहास गवाह है कि इन
शासकों ने मन्दिरों की रक्षा और उनकी देखभाल की है।
मुस्लिम फ़ौजकशी अगर इस्लाम को फैलाने के लिए
होती तो दिल्ली के मुस्लिम सुल्तान के ख़िलाफ़ मुसलमान बाबर हरगिज़ फ़ौजकशी न करता।
मुल्कगीरी उस समय की सर्वमान्य राजनीति थी। मुल्कगीरी का कोई संबंध धर्म के प्रचार
से नहीं होता। बहुत सारे मुस्लिम उलमा और सूफ़ी इस्लाम के प्रचार के लिए
हिन्दुस्तान आए हैं और उन्होंने अपने तौर पर इस्लाम के प्रचार का काम यहाँ अंजाम
दिया, उसका
मुस्लिम शासकों से कोई संबंध न था, इसके सबूत में नागोर में दफ़्न हज़रत शाहुल
हमीद,अजमेर के शाह मुईनुद्दीन
चिश्ती वग़ैरह को पेश किया जा सकता है।
इस्लाम अपने उसूलों और अपनी नैतिक शिक्षाओं
की दृष्टि से अपने अन्दर बड़ी कशिश रखता है, यही वजह है कि इन्सानों के दिल उसकी तरफ़
स्वतः खिंचे चले आते हैं। फिर ऐसे दीन को अपने प्रचार के लिए तलवार उठाने की
आवश्यकता ही कहाँ शेष रहती है?
Note: श्री वेनगाताचिल्लम
अडियार ने बाद में (6 जून 1987 को) इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था। और ‘अब्दुल्लाह अडियार’ नाम रख लिया था।
श्री अडियार से प्रभावित
होकर जिन लोगों ने इस्लाम धर्म स्वीकार किया उनमें उल्लेखनीय विभूतियाँ हैं :
1) श्री
कोडिक्कल चेलप्पा, भूतपूर्व
ज़िला सचिव, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़
इंडिया (अब ‘कोडिक्कल शेख़ अब्दुल्लाह’)
2) वीरभद्रनम, डॉ॰ अम्बेडकर के सहपाठी (अब ‘मुहम्मद बिलाल’)
3) स्वामी
आनन्द भिक्खू—बौद्ध भिक्षु (अब ‘मुजीबुल्लाह’)
श्री अब्दुल्लाह अडियार के पिता वन्कटचिल्लम
और उनके दो बेटों ने भी इस्लाम स्वीकार कर लिया था। (इस्लाम माय फ़सिनेशन’ एम॰एम॰आई॰ पब्लिकेशंस, नई दिल्ली, 2007)
विशम्भर नाथ पाण्डे
भूतपूर्व राज्यपाल, उड़ीसा
इस्लाम के बारे में विचार
क़ुरआन ने मनुष्य के आध्यात्मिक, आर्थिक और राजकाजी जीवन को
जिन मौलिक सिद्धांतों पर क़ायम करना चाहा है उनमें लोकतंत्र को बहुत ऊँची जगह दी गई
है और समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व-भावना के स्वर्णिम
सिद्धांतों को मानव जीवन की बुनियाद ठहराया गया है।
क़ुरआन ‘‘तौहीद’’ यानी एकेश्वरवाद को दुनिया की सबसे बड़ी सच्चाई बताता है। वह आदमी की ज़िन्दगी के हर पहलू की बुनियाद इसी सच्चाई पर क़ायम करता है। क़ुरआन का कहना है कि जब कुल सृष्टि का ईश्वर एक है तो लाज़मी तौर पर कुल मानव समाज भी उसी ईश्वर की एकता का एक रूप है। आदमी अपनी बुद्धि और अपनी आध्यात्मिक शक्तियों से इस सच्चाई को अच्छी तरह समझ सकता इै। इसलिए आदमी का सबसे पहला कर्तव्य यह है कि ईश्वर की एकता को अपने धर्म-ईमान की बुनियाद बनाए और अपने उस मालिक के सामने, जिसने उसे पैदा किया और दुनिया की नेमतें दीं, सर झुकाए। आदमी की रूहानी ज़िन्दगी का यही सबसे पहला उसूल है।
एकेश्वरवाद के सिद्धांत पर ही आधारित क़ुरआन
ने दो तरह के कर्तव्य हर आदमी के सामने रखे हैं—एक, जिन्हें वह ‘हक़ूक़-अल्लाह’ अर्थात ईश्वर के प्रति
मनुष्य के कर्तव्य कहता है और दूसरे, जिन्हें वह ‘हक़ूक़-उल-अबाद’ अर्थात मानव के प्रति-मानव
के कर्तव्य। हक़ूक़-अल्लाह में नमाज़, रोज़ा, हज, ज़कात, आख़रत और देवदूतों (फ़रिश्तों) पर विश्वास जैसी
बातें शामिल हैं, जिन्हें हर व्यक्ति देश काल के अनुसार अपने
ढंग से पूरा कर सकता है।
क़ुरआन ने इन्हें इन्सान के लिए फ़र्ज़ बताया
है इसे ही वास्तविक इबादत (ईश्वर पूजा) कहा है। इन कर्तव्यों के पूरा करने से आदमी
में रूहानी शक्ति आती है।
‘हक़ूक़-अल्लाह’ के साथ ही क़ुरआन ने ‘हक़ूक़-उल-अबाद’ अर्थात मानव के प्रति मानव के कर्तव्य पर भी ज़ोर दिया है और साफ़ कहा है कि अगर ‘हक़ूक़-अल्लाह’ के पूरा करने में किसी तरह की कमी रह जाए तो ख़ुदा माफ़ कर सकता है, लेकिन अगर‘हक़ूक़-उल-अबाद’ के पूरा करने में ज़र्रा बराबर की कमी रह जाए तो ख़ुदा उसे हरगिज़ माफ़ न करेगा। ऐसे आदमी को इस दुनिया और दूसरी दुनिया, दोनों में, ख़िसारा अर्थात् घाटा उठाना होगा। क़ुरआन का यह पहला बुनियादी उसूल हुआ।
क़ुरआन का दूसरा उसूल यह है कि ‘हक़ूक़-अल्लाह’ यानी नमाज़ रोज़ा, ज़कात और हज आदमी के
आध्यात्मिक (रूहानी) जीवन और आत्मिक जीवन (Spiritual Life) से संबंध रखते हैं। इसलिए इन्हें ईमान
(श्रद्धा), ख़ुलूसे
क़ल्ब (शुद्ध हृदय) और बेग़रज़ी (निस्वार्थ भावना) के साथ पूरा करना चाहिए, यानी इनके पूरा करने में
अपने लिए कोई निजी या दुनियावी फ़ायदा निगाह में नहीं होनी चाहिए। यह केवल अल्लाह
के निकट जाने के लिए और रूहानी शक्ति हासिल करने के लिए हैं ताकि आदमी दीन-धर्म की
सीधी राह पर चल सके। अगर इनमें कोई भी स्वार्थ या ख़ुदग़रज़ी आएगी तो इनका वास्तविक
उद्देश्य जाता रहेगा और यह व्यर्थ हो जाएँगे।
आदमी की समाजी ज़िन्दगी का पहला फ़र्ज़ क़ुरआन में ग़रीबों, लाचारों, दुखियों और पीड़ितों से सहानुभूति और उनकी सहायता करना बताया गया है। क़ुरआन ने इन्सान के समाजी जीवन की बुनियाद ईश्वर की एकता और इन्सानी भाईचारे पर रखी है। क़ुरआन की सबसे बड़ी ख़ूबी यह है कि वह इन्सानियत के, मानवता के, टुकड़े नहीं करता। इस्लाम के इन्सानी भाईचारे की परिधि में कुल मानवजाति, कुल इन्सान शामिल हैं और हर व्यक्ति को सदा सबकी अर्थात् आखिल मानवता की भलाई, बेहतरी और कल्याण का ध्येय अपने सामने रखना चाहिए। क़ुरआन का कहना है कि सारा मानव समाज एक कुटुम्ब है। क़ुरआन की कई आयतों में नबियों और पैग़म्बरों को भी भाई शब्द से संबोधित किया गया है।
मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) साहब हर समय की नमाज़ के बाद आमतौर पर यह कहा करते थे— “मैं साक्षी हूँ कि दुनिया के सब आदमी एक-दूसरे के भाई हैं।” यह शब्द इतनी गहराई और भावुकता के साथ उनके गले से निकलते थे कि उनकी आँखों से टप-टप आंसू गिरने लगते थे।
इससे अधिक स्पष्ट और ज़ोरदार शब्दों में
मानव-एकता और मानवजाति के एक कुटुम्ब होने का बयान नहीं किया जा सकता। कु़रआन की
यह तालीम और इस्लाम के पैग़म्बर की यह मिसाल उन सारे रिवाजों और क़ायदे-क़ानूनों और
उन सब क़ौमी,मुल्की, और नसली…गिरोहबन्दियों
को एकदम ग़लत और नाजायज़ कर देती है जो एक इन्सान को दूसरे इन्सान से अलग करती हैं
और मानव-मानव के बीच भेदभाव और झगड़े पैदा करती हैं। (‘पैग़म्बर मुहम्मद, कु़रआन और हदीस, इस्लामी दर्शन’ गांधी
स्मृति एवं दर्शन समिति, नई
दिल्ली, 1994)
तरुण विजय सम्पादक, हिन्दी साप्ताहिक ‘पाञ्चजन्य’
(राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पत्रिका)
इस्लाम के बारे में विचार
‘‘…क्या इससे इन्कार मुम्किन है कि पैग़म्बर
मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) एक ऐसी जीवन-पद्धति बनाने और सुनियोजित करने
वाली महान विभूति थे जिसे इस संसार ने पहले कभी नहीं देखा? उन्होंने इतिहास की काया
पलट दी और हमारे विश्व के हर क्षेत्र पर प्रभाव डाला। अतः अगर मैं कहूँ कि इस्लाम
बुरा है तो इसका मतलब यह हुआ कि दुनिया भर में रहने वाले इस धर्म के अरबों (Billions) अनुयायियों के पास इतनी
बुद्धि-विवेक नहीं है कि वे जिस धर्म के लिए जीते-मरते हैं उसी का विश्लेषण और
उसकी रूपरेखा का अनुभव कर सके। इस धर्म के अनुयायियों ने मानव-जीवन के लगभग सारे
क्षेत्रों में बड़ा नाम कमाया और हर किसी से उन्हें सम्मान मिला…।’’
‘‘हम उन (मुसलमानों) की किताबों का, या पैग़म्बर (सल्लल्लाहु
अलैहि व सल्लम ) के जीवन-वृत्तांत का, या उनके विकास व उन्नति के इतिहास का अध्ययन
कम ही करते हैं… हममें
से कितनों ने तवज्जोह के साथ उस परिस्थिति पर विचार किया है जो मुहम्मद के, पैग़म्बर बनने के समय, 14 शताब्दियों पहले विद्यमान
थे और जिनका बेमिसाल, प्रबल मुक़ाबला उन्होंने किया?जिस प्रकार से एक अकेले व्यक्ति के दृढ़
आत्म-बल तथा आयोजन-क्षमता ने हमारी ज़िन्दगियों को प्रभावित किया और समाज में उससे
एक निर्णायक परिवर्तन आ गया, वह असाधारण था। फिर भी इसकी गतिशीलता के
प्रति हमारा जो अज्ञान है वह हमारे लिए एक ऐसे मूर्खता के सिवाय और कुछ नहीं है
जिसे माफ़ नहीं किया जा सकता।’’
‘‘पैग़म्बर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अपने बचपन से ही बड़ी कठिनाइयाँ झेलीं। उनके पिता की मृत्यु, उनके जन्म से पहले ही हो गई और माता की भी, जबकि वह सीर्फ़ छः (६) वर्ष के थे। लेकिन वह बहुत ही बुद्धिमान थे और अक्सर लोग आपसी झगड़े उन्हीं के द्वारा सुलझवाया करते थे। उन्होंने परस्पर युद्धरत क़बीलों के बीच शान्ति स्थापित की और सारे क़बीलों में ‘अल-अमीन’ (विश्वसनीय) कहलाए जाने का सम्मान प्राप्त किया जबकि उनकी आयु मात्रा 35 वर्ष थी।
इस्लाम का मूल-अर्थ ‘शान्ति’ था…। शीघ्र ही ऐसे अनेक व्यक्तियों ने इस्लाम ग्रहण कर लिया, उनमें ज़ैद जैसे गु़लाम (Slave)भी थे, जो सामाजिक न्याय से वंचित थे। मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ) के ख़िलाफ़ तलवारों का निकल आना कुछ आश्चर्यजनक न था, जिसने उन्हें (जन्म-भूमि ‘मक्का’ से) मदीना प्रस्थान करने पर विवश कर दिया और उन्हें जल्द ही 900 की सेना का, जिसमें 700 ऊँट और 300 घोड़े थे मुक़ाबला करना पड़ा। 17 रमज़ान, शुक्रवार के दिन उन्होंने (शत्रु-सेना से) अपने300 अनुयायियों और 4 घोड़ों (की सेना) के साथ बद्र की लड़ाई लड़ी। बाक़ी वृत्तांत इतिहास का हिस्सा है। शहादत, विजय,अल्लाह की मदद और (अपने) धर्म में अडिग विश्वास!’’ (आलेख (‘Know Thy Neighbor, It’s Raman’ अंग्रेज़ी दैनिक ‘एशियन एज’, 17 नवम्बर 2003 से उद्धृत)
एम॰ एन॰ रॉय संस्थापक-कम्युनिस्ट पार्टी, मैक्सिको कम्युनिस्ट पार्टी, भारत
इस्लाम के बारे में विचार
‘‘इस्लाम के एकेश्वरवाद के प्रति अरब के
बद्दुओं के दृढ़ विश्वास ने न केवल क़बीलों के बुतों को ध्वस्त कर दिया बल्कि वे
इतिहास में एक ऐसी अजेय शक्ति बनकर उभरे जिसने मानवता को बुतपरस्ती की लानत से
छुटकारा दिलाया। ईसाइयों के, संन्यास और चमत्कारों पर भरोसा करने की घातक
प्रवृत्ति को झिकझोड़ कर रख दिया और पादरियों और हवारियों (मसीह के साथियों) के
पूजा की कुप्रथा से भी छुटकारा दिला दिया।’’
‘‘सामाजिक बिखराव और आध्यात्मिक बेचैनी के घोर
अंधकार वाले वातावरण में अरब के पैग़म्बर की आशावान एवं सशक्त घोषणा आशा की एक
प्रज्वलित किरण बनकर उभरी। लाखों लोगों का मन उस नये धर्म की सांसारिक एवं
पारलौकिक सफलता की ओर आकर्षित हुआ। इस्लाम के विजयी बिगुल ने सोई हुई निराश
ज़िन्दगियों को जगा दिया। मानव-प्रवृति के स्वस्थ रुझान ने उन लोगों में भी हिम्मत
पैदा की जो ईसा के प्रतिष्ठित साथियों के पतनशील होने के बाद संसार-विमुखता के
अंधविश्वासी कल्पना के शिकार हो चुके थे। वे लोग इस नई आस्था से जुड़ाव महसूस करने
लगे। इस्लाम ने उन लोगों को जो अपमान के गढ़े में पड़े हुए थे एक नई सोच प्रदान की।
इसलिए जो उथल-पुथल पैदा हुई उससे एक नए समाज का गठन हुआ जिसमें प्रत्येक व्यक्ति
को यह अवसर उपलब्ध था कि वह अपनी स्वाभाविक क्षमताओं के अनुसार आगे बढ़ सके और
तरक़्क़ी कर सके। इस्लाम की जोशीली तहरीक और मुस्लिम विजयताओं के उदार रवैयों ने
उत्तरी अफ़्रीक़ा की उपजाऊ भूमि में लोगों के कठिन परिश्रम के कारण जल्द ही हरियाली
छा गई और लोगों की ख़ुशहाली वापस आ गई…।’’
‘‘…ईसाइयत के पतन ने एक नये शक्तिशाली धर्म के उदय को ऐतिहासिक ज़रूरत बना दिया था। इस्लाम ने अपने अनुयायियों को एक सुन्दर स्वर्ग की कल्पना ही नहीं दी बल्कि उसने दुनिया को पराजित करने का आह्वान भी किया। इस्लाम ने बताया कि जन्नत की ख़ुशियों भरी ज़िन्दगी इस दुनिया में भी संभव हैं। मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ) ने अपने लोगों को क़ौमी एकता के धागे में ही नहीं पिरोया बल्कि पूरी क़ौम के अन्दर वह भाव और जोश पैदा किया कि वे हर जगह इन्क़िलाब का नारा बुलन्द करे जिसे सुनकर पड़ोसी देशों के शोषित/पीड़ित लोगों ने भी इस्लाम का आगे बढ़कर स्वागत किया। इस्लाम की इस सफलता का कारण आध्यात्मिक भी था, सामाजिक भी था और राजनीतिक भी।
इसी बात पर ज़ोर देते हुए गिबन कहता है: ज़रतुश्त की व्यवस्था से अधिक स्वच्छ एवं पारदर्शी और मूसा के क़ानूनों से कहीं अधिक लचीला मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ) का यह धर्म, बुद्धि एवं विवेक से अधिक निकट है। अंधविश्वास और पहेली से इसकी तुलना नहीं की जा सकती जिसने सातवीं शताब्दी में मूसा की शिक्षाओं को बदनुमा बना दिया था…।’’
‘‘…हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) का धर्म एकेश्वरवाद पर
आधारित है और एकेश्वरवाद की आस्था ही उसकी ठोस बुनियाद भी है। इसमें किसी प्रकार
के छूट की गुंजाइश नहीं और अपनी इसी विशेषता के कारण वह धर्म का सबसे श्रेष्ठ
पैमाना भी बना। दार्शनिक दृष्टिकोण से भी एकेश्वरवाद की कल्पना ही इस धर्म की
बुनियाद है। लेकिन एकेश्वरवाद की यह कल्पना भी अनेक प्रकार के अंधविश्वास को जन्म
दे सकती है यदि यह दृष्टिकोण सामने न हो कि अल्लाह ने सृष्टि की रचना की है और इस
सृष्टि से पहले कुछ नहीं था।
प्राचीन दार्शनिक, चाहे वे यूनान के यहों या
भारत के, उनके
यहां सृष्टि की रचना की यह कल्पना नहीं मिलती। यही कारण है कि जो धर्म उस प्राचीन
दार्शनिक सोच से प्रभावित थे वे एकेश्वरवाद का नज़रिया क़ायम नहीं कर सके। जिसकी वजह
से सभी बड़े-बड़े धर्म, चाहे वह हिन्दू धर्म हो, यहूदियत हो या ईसाइयत, धीरे-धीरे कई ख़ुदाओं को
मानने लगे। यही कारण है कि वे सभी धर्म अपनी महानता खो बैठे। क्योंकि कई ख़ुदाओं की
कल्पना सृष्टि को ख़ुदा के साथ सम्मिलित कर देती है जिससे ख़ुदा की कल्पना पर ही
प्रश्न चिन्ह लग जाता है। इससे पैदा करने की कल्पना ही समाप्त हो जाती है, इसलिए ख़ुदा की कल्पना भी
समाप्त हो जाती है। यदि यह दुनिया अपने आप स्थापित हो सकती है तो यह ज़रूरी नहीं कि
उसका कोई रचयिता भी हो और जब उसके अन्दर से पैदा करने की क्षमता समाप्त हो जाती है
तो फिर ख़ुदा की भी आवश्यकता नहीं रहती।
मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ) का धर्म इस कठिनाई को आसानी से हल कर लेता है। यह ख़ुदा की कल्पना को आरंभिक बुद्धिवादियों की कठिनाइयों से आज़ाद करके यह दावा करता है कि अल्लाह ने ही सृष्टि की रचना की है। इस रचना से पहले कुछ नहीं था। अब अल्लाह अपनी पूरी शान और प्रतिष्ठा के साथ विराजमान हो जाता है। उसके अन्दर इस चीज़ की क्षमता एवं शक्ति है कि न केवल यह कि वह इस सृष्टि की रचना कर सकता है बल्कि अनेक सृष्टि की रचना करने की क्षमता रखता है। यह उसके शक्तिशाली और हैयुल क़ैयूम होने की दलील है। ख़ुदा को इस तरह स्थापित करने और स्थायित्व प्रदान करने की कल्पना ही मुहम्मद(सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ) का कारनामा है।
अपने इस कारनामे के कारण ही इतिहास ने उन्हें
सबसे स्वच्छ एवं पाक धर्म की बुनियाद रखने वाला माना है। क्योंकि दूसरे सभी धर्म
अपने समस्त भौतिक/प्राभौतिक कल्पनाओं, धार्मिक बारीकियों और दार्शनिक
तर्कों/कुतर्कों के कारण न केवल त्रुटिपूर्ण धर्म हैं बल्कि केवल नाम के धर्म हैं…।’’
‘‘…यह बात तो बिल्कुल स्पष्ट है कि भारत में
मुसलमानों की विजय के समय ऐसे लाखों लोग यहां मौजूद थे जिनके नज़दीक हिन्दू क़ानूनों
के प्रति व़फादार रहने का कोई औचित्य नहीं था। और ब्राह्मणों की कट्टर धार्मिकता
एवं परम्पराओं की रक्षा उनके नज़दीक निरर्थक थे। ऐसे सभी लोग अपनी हिन्दू विरासत को
इस्लाम के समानता के क़ानून के लिए त्यागने को तैयार थे जो उन्हें हर प्रकार की
सुरक्षा भी उपलब्ध करा रहा था ताकि वे कट्टर हिन्दुत्ववादियों के अत्याचार से
छुटकारा हासिल कर सके ।
फिर भी हैवेल (Havel) इस बात से संतुष्ट नहीं
था। हार कर उसने कहा: ‘‘यह इस्लाम का दर्शनशास्त्र नहीं था बल्कि
उसकी सामाजिक योजना थी जिसके कारण लाखों लोगों ने इस धर्म को स्वीकार कर लिया। यह
बात बिल्कुल सही है कि आम लोग दर्शन से प्रभावित नहीं होते। वे सामाजिक योजनाओं से
अधिक प्रभावित होते हैं जो उन्हें मौजूदा ज़िन्दगी से बेहतर ज़िन्दगी की ज़मानत दे
रहा था। इस्लाम ने जीवन की ऐसी व्यवस्था दी जो करोड़ों लोगों की ख़ुशी की वजह बना।’’
‘‘ईरानी और मुग़ल विजेयताओं के अन्दर वह
पारम्परिक उदारता और आज़ादपसन्दी मिलती है जो आरंभिक मुसलमानों की विशेषता थी। केवल
यह सच्चाई कि दूर-दराज़ के मुट्ठी भर हमलावर इतने बड़े देश का इतनी लंबी अवधि तक
शासक बने रहे और उनके अक़ीदे को लाखों लोगों ने अपनाकर अपना धर्म परिवर्तन कर लिया, यह साबित करने के लिए काफ़ी
है कि वे भारतीय समाज की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा कर रहे थे। भारत में मुस्लिम
शक्ति केवल कुछ हमलावरों की बहादुरी के कारण संगठित नहीं हुई थी बल्कि इस्लामी
क़ानून के विकासमुखी महत्व और उसके प्रचार के कारण हुई थी। ऐसा हैवेल जैसा मुस्लिम
विरोधी इतिहासकार भी मानता है। मुसलमानों की राजनैतिक व्यवस्था का हिन्दू सामाजिक
जीवन पर दो तरह का प्रभाव पड़ा। इससे जाति-पाति के शिकंजे और मज़बूत हुए जिसके कारण
उसके विरुद्ध बग़ावत शुरू हो गई। साथ ही निचली और कमज़ोर जातियों के लिए बेहतर जीवन
और भविष्य की ज़मानत उन्हें अपना धर्म छोड़कर नया धर्म अपनाने के लिए मजबूर करती
रही। इसी की वजह से शूद्र न केवल आज़ाद हुए बल्कि कुछ मामलों में वे ब्राह्मणों के
मालिक भी बन गए।’’ (‘हिस्टोरिकल रोल ऑफ इस्लाम ऐन एस्से ऑन
इस्लामिक कल्चर’/ क्रिटिकल क्वेस्ट पब्लिकेशन कलकत्ता-1939 से उद्धृत)
राजेन्द्र नारायण लाल
(एम॰ ए॰ {इतिहासकार} काशी
हिन्दू विश्वविद्यालय)
इस्लाम के बारे में विचार
‘‘संसार के सब धर्मों में इस्लाम की एक विशेषता
यह भी है कि इसके विरुद्ध जितना भ्रष्ट प्रचार हुआ किसी अन्य धर्म के विरुद्ध नहीं
हुआ । सबसे पहले तो महाईशदूत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ) साहब की जाति
कु़रैश ही ने इस्लाम का विरोध किया और अन्य कई साधनों के साथ भ्रष्ट प्रचार और
अत्याचार का साधन अपनाया। यह भी इस्लाम की एक विशेषता ही है कि उसके विरुद्ध जितना
प्रचार हुआ वह उतना ही फैलता और उन्नति करता गया तथा यह भी प्रमाण है—इस्लाम के ईश्वरीय सत्य-धर्म होने का। इस्लाम
के विरुद्ध जितने प्रकार के प्रचार किए गए हैं और किए जाते हैं उनमें सबसे उग्र यह
है कि इस्लाम तलवार के ज़ोर से फैला, यदि ऐसा नहीं है तो संसार में अनेक धर्मों के
होते हुए इस्लाम चमत्कारी रूप से संसार में कैसे फैल गया?
इस प्रश्न या शंका का संक्षिप्त उत्तर तो यह
है कि जिस काल में इस्लाम का उदय हुआ उन धर्मों के आचरणहीन अनुयायियों ने धर्म को
भी भ्रष्ट कर दिया था। अतः मानव कल्याण हेतु ईश्वर की इच्छा द्वारा इस्लाम सफल हुआ
और संसार में फैला, इसका साक्षी इतिहास है…।’’
‘‘…इस्लाम को तलवार की शक्ति से प्रसारित होना
बताने वाले (लोग) इस तथ्य से अवगत होंगे कि अरब मुसलमानों के ग़ैर-मुस्लिम विजेता
तातारियों ने विजय के बाद विजित अरबों का इस्लाम धर्म स्वयं ही स्वीकार कर लिया।
ऐसी विचित्र घटना कैसे घट गई? तलवार की शक्ति जो विजेताओं के पास थी वह
इस्लाम से विजित क्यों हो गई…?’’
‘‘…मुसलमानों का अस्तित्व भारत के लिए वरदान ही
सिद्ध हुआ। उत्तर और दक्षिण भारत की एकता का श्रेय मुस्लिम साम्राज्य, और केवल मुस्लिम साम्राज्य
को ही प्राप्त है। मुसलमानों का समतावाद भी हिन्दुओं को प्रभावित किए बिना नहीं
रहा। अधिकतर हिन्दू सुधारक जैसे रामानुज, रामानन्द, नानक, चैतन्य आदि मुस्लिम-भारत की ही देन है। भक्ति
आन्दोलन जिसने कट्टरता को बहुत कुछ नियंत्रित किया, सिख धर्म और आर्य समाज जो
एकेश्वरवादी और समतावादी हैं, इस्लाम ही के प्रभाव का परिणाम हैं। समता संबंधी
और सामाजिक सुधार संबंधी सरकारी क़ानून जैसे अनिवार्य परिस्थिति में तलाक़ और पत्नी
और पुत्री का सम्पत्ति में अधिकतर आदि इस्लाम से ही प्रेरित हैं…।’’ (‘इस्लाम
एक स्वयंसिद्ध ईश्वरीय जीवन व्यवस्था’
पृष्ठ 40,42,52 से
उद्धृत साहित्य
सौरभ, नई दिल्ली, 2007 ई॰)
लाला काशी राम चावला
इस्लाम के बारे में विचार
‘‘…न्याय ईश्वर के सबसे बड़े गुणों में से एक
अतिआवश्यक गुण है। ईश्वर के न्याय से ही संसार का यह सारा कार्यालय चल रहा है।
उसका न्याय सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के कण-कण में काम कर रहा है। न्याय का शब्दिक अर्थ
है एक वस्तु के दो बराबर-बराबर भाग, जो तराज़ू में रखने से एक समान उतरें, उनमें रत्ती भर फर्क न हो
और व्यावहारतः हम इसका मतलब यह लेते हैं कि जो बात कही जाए या जो काम किया जाए वह
सच्चाई पर आधारित हो, उनमें तनिक भी पक्षपात या किसी प्रकार की
असमानता न हो…।’’
‘‘…इस्लाम में न्याय को बहुत महत्व दिया गया है और कु़रआन में जगह-जगह
मनुष्य को न्याय करने के आदेश मौजूद हैं। इसमें जहाँ गुण संबंधी ईश्वर के विभिन्न
नाम आए हैं, वहाँ
एक नाम आदिल अर्थात् न्यायकर्ता भी आया है। ईश्वर चूँकि स्वयं न्यायकर्ता है, वह अपने बन्दों से भी
न्याय की आशा रखता है। पवित्र क़ुरआन में है कि ईश्वर न्याय की ही बात कहता है और
हर बात का निर्णय न्याय के साथ ही करता है…।’’
‘‘…इस्लाम में पड़ोसी के साथ अच्छे व्यवहार पर बड़ा बल दिया गया है।
परन्तु इसका उद्देश्य यह नहीं है कि पड़ोसी की सहायता करने से पड़ोसी भी समय पर काम
आए, अपितु
इसे एक मानवीय कर्तव्य ठहराया गया है, इसे आवश्यक क़रार दिया गया है और यह कर्तव्य
पड़ोसी ही तक सीमित नहीं है बल्कि किसी साधारण मनुष्य से भी असम्मानजनक व्यवहार न
करने की ताकीद की गई है…।’’
‘‘…निस्सन्देह अन्य धर्मों में हर एक मनुष्य को
अपने प्राण की तरह प्यार करना, अपने ही समान समझना, सब की आत्मा में एक ही
पवित्र ईश्वर के दर्शन करना आदि लिखा है। किन्तु स्पष्ट रूप से अपने पड़ोसी के साथ
अच्छा व्यवहार करने और उसके अत्याचारों को भी धैर्यपूर्वक सहन करने के बारे में जो
शिक्षा पैग़म्बरे इस्लाम मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ) ने खुले शब्दों में
दी है वह कहीं और नहीं पाई जाती…।’’(‘इस्लाम, मानवतापूर्ण ईश्वरीय धर्म’ पृ॰ 28,41,45 से
उद्धृत मधुर
सन्देश संगम, नई दिल्ली, 2003 ई॰)
पेरियार ई॰ वी॰ रामास्वामी
(राज्य सरकार द्वारा पुरस्कृत, पत्रकार, समाजसेवक व नेता, तमिलनाडु)
इस्लाम के बारे में विचार
‘‘हमारा
शूद्र होना एक भयंकर रोग है, यह कैंसर जैसा है। यह अत्यंत पुरानी शिकायत
है। इसकी केवल एक ही दवा है, और वह है इस्लाम। इसकी कोई दूसरी दवा नहीं
है। अन्यथा हम इसे झेलेंगे, इसे भूलने के लिए नींद की गोलियाँ लेंगे या
इसे दबा कर एक बदबूदार लाश की तरह ढोते रहेंगे। इस रोग को दूर करने के
लिए उठ खड़े हों और इन्सानों की तरह सम्मानपूर्वक आगे बढ़ें कि केवल इस्लाम ही एक
रास्ता है…।’’
अरबी भाषा में इस्लाम का अर्थ है शान्ति, आत्म-समर्पण या
निष्ठापूर्ण भक्ति। इस्लाम का मतलब है सार्वजनिक भाईचारा,बस यही इस्लाम है। सौ या दो सौ वर्ष पुराना
तमिल शब्द-कोष देखें। तमिल भाषा में कदावुल देवता (Kadavul) का अर्थ है एक ईश्वर, निराकार, शान्ति, एकता, आध्यात्मिक समर्पण एवं
भक्ति। ‘कदावुल’ (Kadavul) द्रविड़ शब्द है। अंग्रेज़ी
भाषा का शब्द गॉड (God) अरबी भाषा में ‘अल्लाह’ है। ….भारतीय मुस्लिम इस्लाम की
स्थापना करने वाले नहीं बल्कि उसका एक अंश हैं…।’’
‘‘मलायाली मोपले (Malayali Mopillas), मिस्री, जापानी, और जर्मन मुस्लिम भी
इस्लाम का अंश हैं। मुसलमान एक बड़ा गिरोह है। इन में अफ़्रीक़ी, हब्शी और नेग्रो मुस्लिम भी
है। इन सारे लोगों के लिए अल्लाह एक ही है, जिसका न कोई आकार है, न उस जैसा कोई और है, उसके न पत्नी है और न
बच्चे, और
न ही उसे खाने-पीने की आवश्यकता है।’’
‘‘जन्मजात समानता, समान अधिकार, अनुशासन इस्लाम के गुण
हैं। अन्तर के कारण यदि हैं तो वे वातावरण, प्रजातियाँ और समय हैं। यही कारण है कि संसार
में बसने वाले लगभग साठ करोड़ मुस्लिम एक-दूसरे के लिए जन्मजात भाईचारे की भावना
रखते हैं। अतः जगत इस्लाम का विचार आते ही थरथरा उठता है…।’’
‘‘इस्लाम की स्थापना क्यों हुई? इसकी स्थापना अनेकेश्वरवाद
और जन्मजात असमानताओं को मिटाने के लिए और ‘एक ईश्वर, एक इन्सान’ के सिद्धांत को लागू करने
के लिए हुई, जिसमें
किसी अंधविश्वास या मूर्ति-पूजा की गुंजाइश नहीं है। इस्लाम इन्सान को विवेकपूर्ण
जीवन व्यतीत करने का मार्ग दिखाता है…।’’
‘‘इस्लाम की स्थापना बहुदेववाद और जन्म के आधार
पर विषमता को समाप्त करने के लिए हुई थी। ‘एक ईश्वर और एक मानवजाति’ के सिद्धांत को स्थापित
करने के लिए हुई थी; सारे अंधविश्वासों और मूर्ति पूजा को ख़त्म
करने के लिए और युक्ति-संगत, बुद्धिपूर्ण (Rational) जीवन जीने के लिए नेतृत्व
प्रदान करने के लिए इसकी स्थापना हुई थी…।’’(‘द वे ऑफ
सैल्वेशन’ पृ॰ 13,14,21 से
उद्धृत /18 मार्च 1947 को
तिरुचिनपल्ली में दिया गया भाषण /अमन पब्लिकेशन्स, दिल्ली, 1995 ई॰)
डॉ॰ बाबासाहब भीमराव
अम्बेडकर
(बैरिस्टर, अध्यक्ष-संविधान निर्मात्री सभा)
इस्लाम
के बारे में विचार
“इस्लाम धर्म सम्पूर्ण एवं सार्वभौमिक धर्म है
जो कि अपने सभी अनुयायियों से समानता का व्यवहार करता है (अर्थात् उनको समान समझता
है). यही कारण है कि सात करोड़ अछूत हिन्दू धर्म को छोड़ने के लिए सोच रहे हैं और
यही कारण था कि गाँधी जी के पुत्र (हरिलाल) ने भी इस्लाम धर्म ग्रहण किया था. यह
तलवार नहीं थी कि इस्लाम धर्म का इतना प्रभाव हुआ बल्कि वास्तव में यह थी सच्चाई
और समानता जिसकी इस्लाम शिक्षा देता है …”
‘दस स्पोक अम्बेडकर’ चौथा खंड—भगवान दास पृष्ठ 144-145 से
उद्धृत
कोडिक्कल चेलप्पा
(बैरिस्टर, अध्यक्ष-संविधान
सभा)
इस्लाम के बारे में विचार
‘‘…मानवजाति के लिए अर्पित, इस्लाम की सेवाएं महान
हैं। इसे ठीक से जानने के लिए वर्तमान के बजाय 1400 वर्ष पहले की परिस्थितियों पर दृष्टि डालनी
चाहिए, तभी
इस्लाम और उसकी महान सेवाओं का एहसास किया जा सकता है। लोग शिक्षा, ज्ञान और संस्कृति में
उन्नत नहीं थे। साइंस और खगोल विज्ञान का नाम भी नहीं जानते थे। संसार के एक
हिस्से के लोग, दूसरे
हिस्से के लोगों के बारे में जानते न थे। वह युग ‘अंधकार युग’ (Dark-Age) कहलाता है, जो सभ्यता की कमी, बर्बरता और अन्याय का दौर
था, उस
समय के अरबवासी घोर अंधविश्वास में डूबे हुए थे। ऐसे ज़माने में, अरब मरुस्थलदृजो विश्व के
मध्य में है जहा (पैग़म्बर) मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ) पैदा हुए।’’
पैग़म्बर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम )
ने पूरे विश्व को आह्वान दिया कि ‘‘ईश्वर ‘एक’ है और सारे इन्सान बराबर हैं।’’ (इस एलान पर) स्वयं उनके
अपने रिश्तेदारों, दोस्तों और नगरवासियों ने उनका विरोध किया और
उन्हें सताया।’’
‘‘पैग़म्बर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम)
हर सतह पर और राजनीति, अर्थ, प्रशासन, न्याय, वाणिज्य, विज्ञान, कला, संस्कृति और समाजोद्धार में सफल हुए और एक
समुद्र से दूसरे समुद्र तक, स्पेन से चीन तक एक महान, अद्वितीय संसार की संरचना
करने में सफलता प्राप्त कर ली।
इस्लाम
का अर्थ है ‘शान्ति
का धर्म’। इस्लाम का अर्थ ‘ईश्वर के विधान का
आज्ञापालन’ भी
है। जो व्यक्ति शान्ति-प्रेमी हो और क़ुरआन में अवतरित ‘ईश्वरीय विधान’ का अनुगामी हो, ‘मुस्लिम’ कहलाता है। क़ुरआन सिर्फ ‘एकेश्वरत्व’ और ‘मानव-समानता’की ही शिक्षा नहीं देता बल्कि आपसी भाईचारा, प्रेम, धैर्य और आत्म-विश्वास का
भी आह्नान करता है।
इस्लाम के सिद्धांत और व्यावहारिक कर्म वैश्वीय शान्ति व बंधुत्व को समाहित करते हैं और अपने अनुयायियों में एक गहरे रिश्ते की भावना को क्रियान्वित करते हैं। यद्यपि कुछ अन्य धर्म भी मानव-अधिकार व सम्मान की बात करते हैं, पर वे आदमी को, आदमी को गु़लाम बनाने से या वर्ण व वंश के आधार पर, दूसरों पर अपनी महानता व वर्चस्व का दावा करने से रोक न सके। लेकिन इस्लाम का पवित्र ग्रंथ स्पष्ट रूप से कहता है कि किसी इन्सान को दूसरे इन्सान की पूजा करनी, दूसरे के सामने झुकना, माथा टेकना नहीं चाहिए।
हर
व्यक्ति के अन्दर क़ुरआन द्वारा दी गई यह भावना बहुत गहराई तक जम जाती है। किसी के
भी, ईश्वर
के अलावा किसी और के सामने माथा न टेकने की भावना व विचारधारा, ऐसे बंधनों को चकना चूर कर
देती है जो इन्सानों को ऊँच-नीच और उच्च-तुच्छ के वर्गों में बाँटते हैं और
इन्सानों की बुद्धि-विवेक को गु़लाम बनाकर सोचने-समझने की स्वतंत्रता का हनन करते
हैं। बराबरी और आज़ादी पाने के बाद एक व्यक्ति एक परिपूर्ण, सम्मानित मानव बनकर, बस इतनी-सी बात पर समाज
में सिर उठाकर चलने लगता है कि उसका ‘झुकना’ सिर्फ अल्लाह के सामने होता है।
बेहतरीन मौगनाकार्टा (Magna Carta) जिसे मानवजाति ने पहले कभी
नहीं देखा था, ‘पवित्र
क़ुरआन’ है।
मानवजाति के उद्धार के लिए पैग़म्बर मुहम्मद द्वारा लाया गया धर्म एक महासागर की
तरह है। जिस तरह नदियाँ और नहरें सागर-जल में मिलकर एक समान, अर्थात सागर-जल बन जाती
हैं उसी तरह हर जाति और वंश में पैदा होने वाले इन्सान—वे जो भी भाषा बोलते हों,उनकी चमड़ी का जो भी रंग हो—इस्लाम ग्रहण करके, सारे भेदभाव मिटाकर और
मुस्लिम बनकर ‘एक’ समुदाय (उम्मत), एक अजेय शक्ति बन जाते
हैं।’’
‘‘ईश्वर की सृष्टि में सारे मानव एक समान हैं।
सब एक ख़ुदा के दास और अन्य किसी के दास नहीं होते चाहे उनकी राष्ट्रीयता और वंश
कुछ भी हो, वह
ग़रीब हों या धनवान।
‘‘वह सिर्फ़ ख़ुदा है जिसने सब को बनाया है।’’
ईश्वर की नेमतें तमाम इन्सानों के हित के लिए
हैं। उसने अपनी असीम, अपार कृपा से हवा, पानी, आग, और चाँद व सूरज (की रोशनी
तथा ऊर्जा) सारे इन्सानों को दिया है। खाने, सोने, बोलने, सुनने, जीने और मरने के मामले में उसने सारे
इन्सानों को एक जैसा बनाया है। हर एक की रगों में एक (जैसा) ही ख़ून प्रवाहित रहता
है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि सभी इन्सान एक ही माता-पिता आदम और हव्वा की
संतान हैं अतः उनकी नस्ल एक ही है, वे सब एक ही समुदाय हैं। यह है इस्लाम की
स्पष्ट नीति। फिर एक के दूसरे पर वर्चस्व व बड़प्पन के दावे का प्रश्न कहाँ उठता है?
इस्लाम ऐसे दावों का स्पष्ट रूप में खंडन
करता है। अलबत्ता, इस्लाम इन्सानों में एक अन्तर अवश्य करता है, ‘अच्छे’ इन्सान और ‘बुरे’ इन्सान का अन्तर; अर्थात्, जो लोग ख़ुदा से डरते हैं, और जो नहीं डरते, उनमें अन्तर। इस्लाम एलान
करता है कि ईशपरायण व्यक्ति वस्तुतः महान, सज्जन और आदरणीय है। दरअस्ल इसी अन्तर को
बुद्धि-विवेक की स्वीकृति भी प्राप्त है। और सभी बुद्धिमान, विवेकशील मनुष्य इस अन्तर
को स्वीकार करते हैं।
इस्लाम किसी भी जाति, वंश पर आधारित भेदभाव को
बुद्धि के विपरीत और अनुचित क़रार देकर रद्द कर देता है। इस्लाम ऐसे भेदभाव के
उन्मूलन का आह्वान करता है।’’
‘‘वर्ण, भाषा, राष्ट्र, रंग और राष्ट्रवाद की अवधारणाएँ बहुत सारे
तनाव, झगड़ों
और आक्रमणों का स्रोत बनती हैं। इस्लाम ऐसी तुच्छ, तंग और पथभ्रष्ट अवधारणाओं
को ध्वस्त कर देता है।’’ (‘लेट् अस मार्च टुवर्ड्स इस्लाम’ पृष्ठ 26-29, 34 - 35 से
उद्धृत इस्लामिया
एलाकिया पानमनानी, मैलदुतुराइ, तमिलनाडु, 1990 ई॰ /श्री कोडिक्कल चेलप्पा ने
बाद में इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था)
स्वामी विवेकानंद
(विश्व-विख्यात धर्मविद्)
इस्लाम के बारे में विचार
“मुहम्मद साहब (इन्सानी) बराबरी, इन्सानी भाईचारे और तमाम
मुसलमानों के भाईचारे के पैग़म्बर थे। … जैसे ही कोई व्यक्ति इस्लाम स्वीकार करता है
पूरा इस्लाम बिना किसी भेदभाव के उसका खुली बाहों से स्वागत करता है, जबकि कोई दूसरा धर्म ऐसा
नहीं करता।
हमारा अनुभव है कि यदि किसी धर्म के
अनुयायियों ने इस (इन्सानी) बराबरी को दिन-प्रतिदिन के जीवन में व्यावहारिक स्तर
पर बरता है तो वे इस्लाम और सिर्फ़ इस्लाम के अनुयायी हैं।
मुहम्मद साहब ने अपने जीवन-आचरण से यह बात
सिद्ध कर दी कि मुसलमानों में भरपूर बराबरी और भाईचारा है। यहाँ वर्ण, नस्ल, रंग या लिंग (के भेद) का
कोई प्रश्न ही नहीं।
इसलिए हमारा पक्का विश्वास है कि व्यावहारिक
इस्लाम की मदद लिए बिना वेदांती सिद्धांत—चाहे वे कितने ही उत्तम और अद्भुत हों विशाल
मानव-जाति के लिए मूल्यहीन (Valueless) हैं” (टीचिंग्स ऑफ
विवेकानंद, पृष्ठ-214, 215, 217, 218) अद्वैत आश्रम, कोलकाता-2004)
संत
प्राणनाथ जी
इस्लाम के बारे में विचार
(मारफत सागर क़यामतनामा) में कहते हैं –
आयतें हदीसें सब कहे, खुदा एक मुहंमद
बरहक।
और न कोई आगे पीछे, बिना मुहंमद
बुजरक ।
अर्थात: क़ुरआन
हदीस यही कहती है कि अल्लाह मात्र एक है और मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का
संदेश सत्य है इन्हीं के बताए हुए नियम का पालन करके सफलता प्राप्त की जा सकती है।
मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को माने बिना सफलता का कोई पथ नहीं।
श्री तुलसी दास जी
इस्लाम के बारे में विचार
श्री वेद व्यास जी ने 18 पुराणों में से एक पुराण
में काक मशुण्ड जी और गरूड जी की बात चीत को संस्कृत में लेख बद्ध किया है जिसे
श्री तुलसी दास जी इस बात-चीत को हिन्दी में अनुवाद किया है। इसी अनुवाद के 12वें स्कन्द्ध 6 काण्ड में कहा गया है कि
गरुड़ जी सुनो-
यहाँ न पक्ष बातें
कुछ राखों। वेद पुराण
संत मत भाखों।।
देश अरब भरत लता सो होई। सोधल भूमि गत सुनो धधराई।।
अर्थात: इस अवसर पर मैं किसी का पक्ष न लूंगा। वेद पुराण
और मनीषियों का जो धर्म है वही बयान करूंगा। अरब भू-भाग जो भरत लता अर्थात् शुक्र
ग्रह की भांति चमक रहा है उसी सोथल भूमि में वह उत्पन्न होंगे।
इस प्रकार हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व
सल्लम की विशेषताओं का उल्लेख करने के बाद अन्तिम पंक्ति में कहते हैं -
तब तक जो सुन्दरम चहे कोई।
बिना मुहम्मद पार न कोई।
यदि कोई सफलता प्राप्त करना चाहता है तो
मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को स्वीकार ले। अन्यथा कोई बेड़ा उनके बिना पार
न होगा।
मुंशी प्रेमचंद (प्रसिद्ध साहित्यकार)
इस्लाम के बारे में विचार
“जहाँ तक हम जानते हैं, किसी धर्म ने न्याय को
इतनी महानता नहीं दी जितनी इस्लाम ने। …इस्लाम की बुनियाद न्याय पर रखी गई है। वहाँ
राजा और रंक, अमीर
और ग़रीब, बादशाह
और फ़क़ीर के लिए ‘केवल
एक’ न्याय
है। किसी के साथ रियायत नहीं किसी का पक्षपात नहीं। ऐसी सैकड़ों रिवायतें पेश की जा
सकती है जहाँ बेकसों ने बड़े-बड़े बलशाली आधिकारियों के मुक़ाबले में न्याय के बल से
विजय पाई है। ऐसी मिसालों की भी कमी नहीं जहाँ बादशाहों ने अपने राजकुमार, अपनी बेगम,यहाँ तक कि स्वयं अपने तक को न्याय की वेदी पर
होम कर दिया है। संसार की किसी सभ्य से सभ्य जाति की न्याय-नीति की, इस्लामी न्याय-नीति से
तुलना कीजिए, आप
इस्लाम का पल्ला झुका(भारी) हुआ पाएँगे…।’’
“जिन दिनों इस्लाम का झंडा कटक से लेकर डेन्युष तक और तुर्किस्तान से लेकर स्पेन तक फ़हराता था मुसलमान बादशाहों की धार्मिक उदारता इतिहास में अपना सानी (समकक्ष) नहीं रखती थी। बड़े से बड़े राज्यपदों पर ग़ैर-मुस्लिमों को नियुक्त करना तो साधारण बात थी, महाविद्यालयों के कुलपति तक ईसाई और यहूदी होते थे…”
“यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि इस (समता) के विषय
में इस्लाम ने अन्य सभी सभ्यताओं को बहुत पीछे छोड़ दिया है। वे सिद्धांत जिनका
श्रेय अब कार्ल मार्क्स और रूसो को दिया जा रहा है वास्तव में अरब के मरुस्थल में
प्रसूत हुए थे और उनका जन्मदाता अरब का वह उम्मी (अनपढ़, निरक्षर व्यक्ति) था जिसका
नाम मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ) है। मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम )
के सिवाय संसार में और कौन धर्म प्रणेता हुआ है जिसने ख़ुदा के सिवाय किसी मनुष्य
के सामने सिर झुकाना गुनाह ठहराया है…?”
“कोमल वर्ग के साथ तो इस्लाम ने जो सलूक किए हैं उनको देखते हुए अन्य समाजों का व्यवहार पाशविक जान पड़ता है। किस समाज में स्त्रियों का जायदाद पर इतना हक़ माना गया है जितना इस्लाम में? … हमारे विचार में वही सभ्यता श्रेष्ठ होने का दावा कर सकती है जो व्यक्ति को अधिक से अधिक उठने का अवसर दे। इस लिहाज़ से भी इस्लामी सभ्यता को कोई दूषित नहीं ठहरा सकता।”
“हज़रत (मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—कोई मनुष्य उस वक़्त तक मोमिन (सच्चा मुस्लिम) नहीं हो सकता जब तक वह अपने भाई-बन्दों के लिए भी वही न चाहे जितना वह अपने लिए चाहता है। … जो प्राणी दूसरों का उपकार नहीं करता ख़ुदा उससे ख़ुश नहीं होता। उनका यह कथन सोने के अक्षरों में लिखे जाने योग्य है.
‘‘ईश्वर की समस्त सृष्टि उसका परिवार है वही प्राणी ईश्वर का
(सच्चा) भक्त है जो ईश्वर के बन्दों के साथ नेकी करता है।’’ …अगर तुम्हें ईश्वर की
बन्दगी करनी है तो पहले उसके बन्दों से मुहब्बत करो।’’
“सूद (ब्याज) की पद्धति ने संसार में जितने
अनर्थ किए हैं और कर रही है वह किसी से छिपे नहीं है। इस्लाम वह अकेला धर्म है
जिसने सूद को हराम (अवैध) ठहराया है …” (‘इस्लामी सभ्यता’ साप्ताहिक प्रताप विशेषांक दिसम्बर 1925)
हज़रत मुहम्मद और बौद्ध
धर्म ग्रन्थ
(डा. एम.ए.श्रीवास्तव)
डा. एम. ए. श्रीवास्तव नें एक पुस्तक
लिखी (हज़रत मुहम्मद सलल्लाहो अलैहि वसल्लम और भारतीय धर्मग्रन्थ) अपनी इस
पुस्तक की भूमिका में वह लिखते हैं- हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) के आगमन
की पूर्व सूचना हमें बाइबिल, तौरेत और अन्य धर्मग्रन्थों में मिलती है, यहाँ तक कि भारतीय धर्मग्रन्थों में भी आप (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) के आने की
भविष्यवाणियाँ मिलती हैं। वैदिक, बौद्ध और जैन धर्म की पुस्तकों में इस प्रकार
की पूर्व-सूचनाएं मिलती हैं। इस पुस्तिका में सबको एकत्र करके पेश करने का प्रयास
किया गया है। इस पुस्तक से एक भाग हम आपकी सेवा में
प्रस्तुत कर रहे हैं आशा है कि इस से लाभांवित होंगे।
अंतिम बुद्ध-मैत्रेय और मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) बौद्ध ग्रन्थों में
जिस अंतिम बुद्धि मैत्रेय के आने की भविष्यवाणी की गई है, वे हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) ही सिद्ध होते हैं। ‘बुद्ध’ बौद्ध धर्म की भाषा में ऋषि होते हैं।
गौतम बुद्ध ने अपने मृत्यु के समय अपने प्रिय शिष्य आनन्दा से कहा था कि – “नन्दा! इस संसार में मैं न तो प्रथम बुद्ध हूं और न तो अंतिम बुद्ध हूं। इस जगत् में सत्य और परोपकार की शिक्षा देने के लिए अपने समय पर एक और ‘बुद्ध’ आएगा। यह पवित्र अन्तःकरणवाला होगा। उसका हृदय शुद्ध होगा। ज्ञान और बुद्धि से सम्पन्न तथा समस्त लोगों का नायक होगा। जिस प्रकार मैंने संसार को अनश्वर सत्य की शिक्षा प्रदान की, उसी प्रकार वह भी विश्व को सत्य की शिक्षा देगा। विश्व को वह ऐसा जीवन-मार्ग दिखाएगा जो शुद्ध तथा पूर्ण भी होगा। नन्दा! उसका नाम मैत्रेय होगा। -(Gospel Of Buddha, By Carus, P-217)
बुद्ध का अर्थ ‘बुद्धि से युक्त’ होता है। बुद्ध मनुष्य ही होते हैं, देवता आदि नहीं। (It is only a Human Being that can be a Buddha, a deity cannot.
‘Mohammad in the Buddhist Scriptures P.1′) मैत्रेय का अर्थ ‘दया से युक्त’ होता है।
मैत्रेय की
मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) से समानताअंतिम बुद्ध मैत्रेय में बुद्ध की सभी
विशेषताओं का पाया जाना स्वाभाविक है।
गौतम बुद्ध की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार
हैं।
1. वह ऐश्वर्यवान् एवं धनवान होता है।
2. वह सन्तान से युक्त होता है।
3. वह स्त्री और शासन से युक्त रहता है।
4. वह अपनी पूर्ण आयु तक जीता है। - (Warren,P. 79)
5. वह अपना काम खुद करता है। - (The Dhammapada, S.B.E Vol. X.P.P. 67)
6. बुद्ध केवल
धर्म प्रचारक होते हैं। - (The Tathgatas Are Only
Preaches, ‘The Dhammapada S.B.E. Vol X. P.67)
7. जिस समय बुद्ध एकान्त में रहता है, उस समय ईश्वर उसके साथियों के रूप में देवताओं और राक्षसों को भेजता है। - (Saddharma-Pundrika,
S.B.E. Vol XXI., P. 225)
8. संसार में एक समय में केवल एक ही बुद्ध रहता
है। - (The Life And Teachings
Of Buddha, Anagarika Dhammapada P. 84)
9. बुद्ध के अनुयायी पक्के अनुयायी होते हैं, जिन्हें कोई भी उनके मार्ग से विचलित नहीं कर सकता। - (Dhammapada, S.B.E.
Vol. X. P. 67)
10. उसका कोई व्यक्ति गुरु न होगा। - (History Of Buddha, By
Beal, P.241)
11. प्रत्येक बुद्ध अपने पूर्णवर्ती बुद्ध का
स्मरण कराता है और अपने अनुयायियों को ‘मार’ से बचने की चेतावनी देता है। - (Dhammapada, S.B.E.
Vol. X1, P. 64)
मार का अर्थ बुराई और विनाश को फैलनेवाला होता है। इसे शैतान कहते हैं।
12. सामान्य पुरुषों की अपेक्षा बुद्धों की गर्दन
की हड्डी अत्यधिक दृढ़ होती थी, जिससे वे गर्दन मोड़ते समय अपने पूरे शरीर को
हाथी की तरह घुमा लेते थे।
अंतिम बुद्ध मैत्रेय की इनके अलावा अन्य
विशेषताएं भी हैं। मैत्रेय के दयावान होने और बोधि वृक्ष के नीचे सभा का आयोजन
करनेवाला भी बताया गया है। इस वृक्ष के नीचे बुद्ध को ज्ञान प्राप्ति होती है। डा.
वेद प्रकाश उपाध्याय ने यह सिद्ध किया है ये सभी विशेषताएँ मुहम्मद
(सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) के जीवन में मिलती है। तथा अंतिम बुद्ध मैत्रेय हज़रत
मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) ही हैं।
ईसा (अलैहिस्सलाम) के जीवन
की कुछ झलकियां
Isa (Alaihis
Salam) (ईसा : उन पर अल्लाह की शान्ती हो) को अल्लाह ने कुरआन मजीद में जो स्थान दिया
है जो आदर-सम्मान दिया है, बिल्कुल वह
इसके अधिकार तथा ह़कदार हैं और इस बात की पुष्टि बाइबल भी करता है परन्तु सेकड़ो
बाइबल का वजूद बाइबल (Bible) के असुरक्षित
होने पर प्रमाणित करता है। लोगों ने अपने स्वाद के लिए पवित्र बाइबल में विभिन्न
कालों में परिवर्तन करते रहे। जिस के कारण बाइबल की संख्याँ बढ़ती गई। बाइबल के
असुरक्षित होन की बात को ईसाई विद्धवान भी मानते है और पवित्र कुरआन के सुरक्षित
होने को भी मानते हैं । प्रोफेसर के एस
रामाकृष्णा राव अपनी किताब “इस्लाम के
पैग़म्बर हजरत मुहम्मद” में कहते हैं। “मेरे लेख का विषय एक विशेष धर्म के
सिद्धान्तों से है। वह धर्म ऐतिहासिक है और उसके पैगेम्बर का व्यक्तित्व भी
ऐतिहासिक है। यहां तक कि सर विलियम जैसा इस्लामी विरोधी आलोचक भी कुरआन के बारे
में कहता है,” शायाद संसार में (कुरआन के अतिरिक्त) कोई अन्य
पुस्तक ऐसी नहीं है, जो बारह शताब्दियों तक अपने विशुद्ध मूल के
साथ इस प्रकार सुरक्षित हो। ” मैंने इस में इतना और बढ़ा सतका हूं कि
पैगेम्बर मुहम्मद भी एक ऐसे अकेले ऐतिहासिक व्यक्ति हैं जिन के जीवन की एक एक घटना
को बड़ी सावधानी के साथ बिल्कुल शुद्ध रूप में बारीक से बारीक विवरण के साथ आने
वाली नस्लों के लिए सुरक्षित कर लिया गया है।” (असली पुस्तक इंलिश में है, इस्लाम के पैग़म्बर हजरत मुहम्मद-5) यह है एक हिन्दु और ईसाई विद्धवान की टिप्पणी
जो कुरआन और इस्लाम के पैगेम्बर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के प्रति दिया
है।,
ईसा (अलैहिस्सलाम) दाउद (अलैहिस्सलाम) के वंश
में से हैं, और माता का नाम मर्यम और नाना का नाम इमरान है, अल्लाह तआला के कृपा और आदेश से जब मरयम (अलैहस्सलाम) को एक बहुत महान पुत्र
जन्म लेने की शुभ खबर दिया तो उस समय मरयम (अलैहस्सलाम) बहुत दुखी और परेशान थीं, चिंतित थीं कि समाज के लोग उस पर आरोप लगाऐंगे, उस की बात पर
कोई विश्वास नहीं करेगा, कि यह बच्चा बिना बाप के अल्लाह तआला के आदेश
से जन्म लिया है, तो अल्लाह तआला ने चमत्कार करते हुए उस नीव
जन्म शीशु को बोलने की क्षमता प्रदान की और अपने माता के निर्दोश और पवित्र होने
की घोषणा और भविष्य में अल्लाह का नबी होने का ऐलान किया जैसा कि मरयम
(अलैहस्सलाम) का किस्सा इस प्रकार कुरआन करीम में बयान हुआ है।
अल-कुरान : जब अल्लाह के आदेश से फरिशता मानव रूप में मरयम (अलैहस्सलाम) के पास आये तो
मरयम (अलैहस्सलाम) बहुत डर गईं और अल्लाह का वास्ता देने लगी तो फरिशते ने उत्तर
दिया तुम डरो मत, हम मानव नहीँ, हम फरिशते है, अल्लाह के आदेश से तुम्हें एक लड़के की शुभ खबर देने आये हैं, उस पर मरयम (अलैहस्सलाम) बहुत आश्चर्य होई, जैसा कि पवित्र कुरआन में मरयम (अलैहस्सलाम)
और फरिशते के बीच होने वाली बात चीत इस प्रकार व्यक्त किया हैः
“और ऐ नबी! इस
किताब में मरयम का हाल बयान करो, जब कि वह अपने लोगों से अलग हो कर पुर्व की ओर
(इबादतगाह) एकान्तवासी हो गई थी, और परदा डाल कर उसने छिप बैठी थी, इस हालत में हमने उसके पास अपना एक (फरिशता) भेजा और वह उसके सामने एक पूरे
इनसान के रुप में प्रकट हो गया,
- मरयम यकायक
कहने लगी, कि यदि तू कोई ईश्वर से डरने वाला आदमी है, तो मैं तुझ से करूणामय ईश्वर की पनाह माँगती
हूँ,
- उसने कहा, मैं तो तेरे रब्ब का भेजा हुआ हूँ, और इसलिए भेजा गया हूँ कि तुझे एक पवित्र लड़का दूँ,
- मरयम ने कहा, मुझे कैसे लड़का होगा जब कि मुझे किसी मर्द ने छुआ तक नहीं है, और मैं कोई बदकार औरत नहीं हूँ,
- फरिश्ते ने कहा, ऐसा ही होगा, तेरा रब कहता है कि ऐसा करना मेरे लिए बहुत
आसान है और हम यह इस लिए करेंगे कि लड़के को लोगों के लिए एक निशानी बनाऐ और अपनी
ओर से एक दयालुता। और यह काम होकर रहना है।
- मरयम को उस
बच्चे का गर्भ रह गया, और वह उस गर्भ को लिए हुए एक दूर के स्थान पर
चली गई,
- फिर प्रसव-
पीड़ा ने उसे एक खजूर के पेड़ के नीचे पहुंचा दिया, वह कहने लगी, क्या ही अच्छा होता कि मैं इससे पहले ही मर जाती, और मेरा नामो-निशान न रहता,
फरिश्ते ने
पाँयती से उसको पुकार कहा, गम न कर, तेरे रब ने तेरे निचे एक स्त्रोत बहा दिया है,- और तू तनिक इस पेड़ के तने को हिला, तेरे ऊपर रस भरी ताजा खजूरें टपक पड़ेंगी,- अतः तू खा और पी और अपनी आँखे ठण्डी कर, फिर अगर कोई आदमी तुझे दिखाई दे तो उससे कह दे, कि मैं ने करूणामय (अल्लाह) के लिए रोज़े की मन्नत मानी है, इस लिए आज मैं किसी से न बोलूँगी,
- फिर वह उस
बच्चे को लिए हुए अपनी क़ौम में आई, लोग कहने लगे, ऐ मरयम! यह तू
ने बड़ा पाप कर डाला,- ऐ हारून की बहन, न तेरा बाप कोई
बुरा आदमी था और न तेरी माँ ही कोई बदकार औरत थीं,
- मरयम ने बच्चे
की ओर इशारा कर दिया, लोगों ने कहा, हम इससे क्या
बात करें जो अभी जन्म लिया हुआ बच्चा है,
- बच्चा बोल उठा, मैं अल्लाह का बन्दा हूँ, उसने मुझे किताब दी, और नबी बनाया, – और बरकतवाला किया जहाँ भी रहूँ, और नमाज़ और ज़कात की पाबन्दी का हुक्म दिया, जब तक मैं ज़िन्दा रहूँ,- और अपनी माँ का हक अदा करनेवाला बनाया, और मुझ को ज़ालिम और अत्याचारी नहीं बनाया,- और सलाम है मुझ पर जबकि मैं पैदा हुआ और जबकि मैं मरूँ और जबकि मैं ज़िन्दा कर के उठाया जाऊँ,- यह है मरयम का बेटा ईसा और यह है उस के बारे में वह सच्ची बात जिसमें लोग शक रक रहे हैं।” –(सूराः मरयमः 16-34)
पवित्र कुरआन के अनुसार ईस (यीशु) (अलैहिस्सलाम) की कुछ और विशेषताएः
» (1) ईसा (उन पर अल्लाह की शान्ती हो) को अल्लाह ने बिना बाप के पैदा किया। अल्लाह
का कथन है।
अल-कुरान: “और जब फरिश्तों
ने कहा ऐ मरयम, अल्लाह तुझे अपने एक आदेश की खुशखबरी देता है, उसका नाम मसीह ईसा बिन मरयम होगा, दुनिया और आखिरत में प्रतिष्ठित होगा, अल्लाह के निकटवर्ती बन्दों में गिना जाएगा, लोगों से पालन
में (पैदाईश के बाद ही) भी बात करेगा और बड़ी उम्र को पहुंच कर भी और वह एक नेक
व्यक्ति होगा। यह सुनकर मरयम बोली, पालनहार, मुझे बच्चा केसे होगा? मुझे किसी मर्द ने हाथ तक नहीं लगाया। उत्तर मिला, ऐसा ही होगा, अल्लाह जो चाहता है पैदा करता है। वह जब किसी
काम के करने का फैसला करता है तो कहता है कि, हो जा, और वह हो जाता है।” – (सूराः आलिइमरान, आयत क्रमांकः47)
» (2) आदम और ईसा (उन दोनों पर अल्लाह की शान्ती हो) के बीच समानता भी है और फर्क यह
कि अल्लाह तआला ने आदम को मिट्टी अर्थात बिना माता-पिता के उत्पन्न किया और ईसा
(उन दोनों पर अल्लाह की शान्ती हो) को बिना पिता के उत्पन्न किया। अल्लाह तआला का
कथन हैः
♥ अल-कुरान : “अल्लाह के
नजदीक ईसा की मिसाल आदम जैसी है कि अल्लाह ने उसे मिट्टी से पैदा किया और आदेश
दिया कि हो जा और वह हो गया।” – (आले-इमरानः59)
» (3) निःसंदेह ईसा (उन पर अल्लाह की शान्ती हो) अल्लाह के कलमे और (रूह़) हुक्म से
पैदा हुए थे। अल्लाह तआला का कथन हैः
अल-कुरान: “मरयम का बेटा मसीह ईसा इसके सिवा कुछ न था कि अल्लाह का रसूल था और एक आदेश था
जो अल्लाह ने मरयम की ओर भेजा और एक आत्मा थी अल्लाह की ओर से (जिसने मरयम के गर्भ
में बच्चे का रूपधारण किया)” – (सूराः अन्निसाः 171)
» (4) अल्लाह तआला ने ईसा (उन पर अल्लाह की शान्ती हो) को संबोधित करते हुए अपने
कृतज्ञा को याद दिलाया जो एहसान अल्लाह ने उन पर तथा उनके माता पर किया था। अल्लाह
का कथन हैः
अल-कुरान :
“फिर कल्पना करो
उस अवसर की जब अल्लाह कहेगा कि ऐ मरयम के बेटे ईसा, याद कर मेरी उस
नेमत को जो मैं ने तुझे और तेरी माँ को प्रदान की थी। मैंने पवित्र आत्मा से तेरी
सहायता की, तू पालने में भी लोगों से बातचीत करता था और
बड़ी उम्र को पहुंचकर भी, मैंने तुझको किताब और गहरी समझ और तौरात और
इंजील की शिक्षा दी, तू मेरी अनुमति से मिट्टी का पुतला पंक्षी के
रूप का बनाता और उस में फूंकता था और वह मेरी अनुमति से पंक्षी बन जाता था, तू पैदाइशी अंधे और कोढ़ी को मेरे अनुमति से अच्छा करता था, तू मुर्दों को मेरे अनुमति से जिन्दा करता था, फिर जब तू बनी
इस्राईल के पास खुली निशानियाँ लेकर पहुँचा और जिन लोगों को सत्य से इन्कार था
उन्होंने कहा कि ये निशानियाँ जादुगिरी के सिवा और कुछ नहीं है” – (सूराः अल-माइदाः 110)
» (5) जो लोग अल्लाह को छोड़ कर ईसा (उन पर अल्लाह की शान्ती हो) की पूजा तथा इबादत
करते हैं। तो अल्लाह ईसा (उन पर अल्लाह की शान्ती हो) से प्रश्न करेंगे कि तुमने
लोगों को अपनी इबादत की ओर निमन्त्रित किया। तो ईसा (उन पर अल्लाह की शान्ती हो)
इस का इन्कार करेंगे और लोगों को ही दोषी ठहराएंगे। अल्लाह तआला ने पवित्र कुआन
में फरमायाः
अल-कुरान : “सारांश यह कि जब अल्लाह कहेगा कि, ऐ मरयम के बेटे ईसा, क्या तूने लोगों से कहा था कि अल्लाह के सिवा मुझे और मेरी माँ को भी इश्वर
बना लो, तो वह जवाब में कहेंगे कि, पाक है अल्लाह, मेरा यह काम न
था कि वह बात कहता जिसके कहने का मुझे अधिकार न था, अगर मैं ने ऐसी
बात कही होती तो आप को जरूर मालूम होता, आप जानते हैं जो कुछ मेरे दिल में है और मैं
नहीं जानता जो कुछ आपके दिल में है, आप तो सारी छिपी हकीकतों के ज्ञात है।” – (सूरह माइदाः 116)
» (6) ईसा (उन पर अल्लाह की शान्ती हो) ने लोगों को एक अल्लाह की पूजा तथा इबादत की
ओर निमन्त्रण किया था। पवित्र कुरआन में अल्लाह और ईसा (उन पर अल्लाह की शान्ती
हो) के बीच होने वाली बात चीत को इस प्रकार बयान किया है।
अल-कुरान :
“मैंने उनसे
उसके सिवा कुछ नहीं कहा जिसका आपने आदेश दिया था, यह कि अल्लाह
की इबादत करो जो मेरा रब्ब भी है और तुम्हारा रब्ब भी। मैं उसी समय तक उनका
निगराँन था जब तक मैं उनके बीच था। जब आपने मुझे वापस बुला लिया तो आप उनपर
निगराँन थे और आप तो सारी ही चीजों पर निगराँन हैं। अब अगर आप उन्हें सजा दें तो
वे आपके बन्दें हैं और अगर माफ कर दें तो आप प्रभुत्वशाली और तत्त्वदर्शी हैं।” – (सूराः अल-माइदाः 118)
» (7) ईसा (उन पर अल्लाह की शान्ती हो) ने अपने सन्देष्टा होनो का एलान किया और
भविष्यवाँणी की कि मेरे पक्षपात एक सन्देष्टा आने वाला होगा जिस का नाम “अहमद” होगा।
♥ अल-कुरान: “और याद करो मरयम के बेटे ईसा की वह बात जो
उसने कही थी कि ऐ, इसराइल के बेटों! मैं तुम्हारी ओर अल्लाह का
भेजा हुआ रसूल हूँ, पुष्टि करनेवाला हूँ, उस तौरात की जो मुझ से पहले आई हुई मौजूद है, और खुशखबरी
देने वाला हूँ, एक रसूल की जो मेरे बाद आएगा जिसका नाम अहमद
होगा।” – (सूराः अस-सफ्फ,6)
» 8) जब ईसा (उन पर अल्लाह की शान्ती हो) ने अपने अनुयायियों से भय और अधर्मपन को
महसूस किया तो ऐलान किया कि कौन धर्म के लिए मेरी सहायता करेगा? गोया कि ईसा (अलैहि सलाम) भी मानव और मनुष्य थे जिन्हें सहायक की आवश्यकता थी
ताकि धर्म के प्रचार के लिए उनके मददगार और सहयोगी रहेः
अल-कुरान :
“जब ईसा ने
महसूस किया कि इसराईल की संतान अधर्म और इनकार पर आमादा हैं तो उनेहों ने कहाः कौन
अल्लाह के मार्ग में मेरा सहायक होता है? हवारियों (साथियों) ने उत्तर दिया, हम अल्लाह के सहायक हैं, हम अल्लाह पर ईमान लाए, गवाह रहो कि हम मुस्लिम (अल्लाह के आज्ञाकारी) हैं।” – (सूराः आले-इमरानः52)
» 9) अल्लाह तआला ने ईसा (अलैहिस सलाम) को खबर दे दिया था कि तुम को हम अपने पास
बुलाने वाले हैं। और लोगों के षड़यन्त्र से सुरक्षित रखेंगे जैसा कि अल्लाह तआला
का कथन है।
अल-कुरान: “जब उसने कहा ऐ ईसा! अब मैं तुझे वापस ले लूंगा और तुझको अपनी ओर उठा लूंगा और
जिन्हों तेरा इनकार किया है उनसे (उनकी संगत से और उनके गंदे वातावरण में उनके साथ
रहने से) तुझे पाक कर दूँगा और तेरे अनुयायियों को क़ियामत तक उन लोगों के ऊपर
रखूँगा जिन्होंने तेरा इनकार किया है।” – (सूराः
आले-इमरानः 55)
» 10) अल्लाह तआला ने यहुदीयों के आस्था का इनकार किया जो वह कहते हैं कि यीशु
(जीसस) को हमने क़त्ल कर दिया और क्रिस्चन के आस्था का भी इनकार किया जो वह कहते
हैं कि यीशु (जीसस) लोगों को पापों से मुक्ति देने के लिए अपने आप को बलिदान कर
दिया बल्कि इन चिज़ों से ऊंचा और बेहतर आस्था पेश किया जो यीशु (जीसस) के स्थान को
प्रमेश्वर के पास बड़ा करता है। अल्लाह तआला का कथन कुरआन शरीफ में है।
अल-कुरान :
“और वह खुद कहा
कि हमने मसीह ईसा (यीशु या जीसस) मरयम के बेटे अल्लाह के रसूल का क़त्ल कर दिया, हालाँकि वास्तव में इन्हों ने न उनकी हत्या की, न सूली पर
चढ़ाया बल्कि मामला इनके लिए संदिग्ध कर दिया गया, और जिन लोगों
ने इसके विषय में मतभेद किया है वह भी वास्तव में शक में पड़े हुए हैं, उनके पास इस मामले में कोई ज्ञान नहीं हैं, केवल अटकल पर चल रहे हैं, उन्हों ने मसीह को यक़ीनन क़त्ल नहीं किया–बल्कि अल्लाह ने उसको अपनी ओर उठा लिया, अल्लाह ज़बरदस्त त़ाक़त रखने वाला और तत्त्वदर्शी है।” – (सूराः अन्निसाः157- 158)
एक संदेश: सम्पूर्ण धर्म वालों के लिए कल्याण इसी में है
कि केवल एक अल्लाह की उपासना में सब एकजुट हो कर सहमत हो जाए। और अपने सृष्टिकर्ता
के साथ किसी को भी तनिक साझीदार और हिस्सेदार न बनाएँ। जैसा कि अल्लाह ने आदेश
दिया है।
कहो, “ऐ किताब वालो! आओ एक ऐसी बात की ओर जिसे हमारे और तुम्हारे बीच समान मान्यता प्राप्त है; यह कि हम अल्लाह के अतिरिक्त किसी की बन्दगी न करें और न उसके साथ किसी चीज़ को साझी ठहराएँ और न परस्पर हममें से कोई एक-दूसरे को अल्लाह से हटकर रब बनाए।” फिर यदि वे मुँह मोड़े तो कह दो, “गवाह रहो, हम तो मुस्लिम (आज्ञाकारी) है।” – (सूराः आले-इमरानः 64)
हज़रत ईसा (अलैही सलाम) का मिशन था लोगों को शैतान की गुलामी और गुनाहों की
दलदल से निकालना। इसके लिए वे चाहते थे कि लोग दीनदारी का दिखावा न करें बल्कि
सचमुच दीनदार बनें। इसीलिए उन्होंने कहा कि…..
» मति: “अरे कपटी यहूदी धर्मशास्त्रियों और फरीसियों! तुम्हारा जो कुछ है, तुम उसका दसवाँ भाग, यहाँ तक कि अपने पुदीने, सौंफ और जीरे तक के दसवें भाग को परमेश्वर को देते हो। फिर भी तुम व्यवस्था की
महत्वपूर्ण बातों यानी न्याय, दया और विश्वास का तिरस्कार करते हो। तुम्हें
उन बातों की उपेक्षा किये बिना इनका पालन करना चाहिये था। 24 ओ अंधे रहनुमाओं! तुम अपने पानी से मच्छर तो छानते हो पर ऊँट को निगल जाते हो। - (मत्ती 23 : आयत 23 व 24)
यहां पर भी हज़रत ईसा (अलैही सलाम) ने शरीअत को रद्द नहीं किया बल्कि लोगों को
डांटा कि वे शरीअत के अहम हुक्मों पर अमल नहीं कर रहे हैं।
हज़रत ईसा (अलैही सलाम) का मिशन था ‘सत्य पर गवाही देना‘. उन्होंने कहा कि
» मति : “हे सब परिश्रम करने वालो और बोझ से दबे हुए
लोगो, मेरे पास आओ। मैं तुम्हें विश्राम दूंगा। मेरा जूआ अपने ऊपर उठा लो और मुझसे
सीखो।- (मत्ती 11 : आयत 28 व 29)
हज़रत ईसा
(अलैही सलाम) का जूआ लादने के लिए ज़रूरी था कि जो जूआ उन पर पहले से लदा है वे उसे
उतार फेंके, लेकिन जो फ़रीसी वग़ैरह इन ग़रीब लोगों पर अपना
जूआ लादे हुए थे वे कब चाहते थे कि लोग उनके नीचे से निकल भागें।
» मति की इंजील : ‘तब फ़रीसियों ने
बाहर जाकर यीशु के विरोध में सम्मति की, कि यीशु का वध किस प्रकार करें। - (मत्ती 12 : आयत 14)
नक़ली खुदाओं की दुकानदारी का ख़ात्मा था हज़रत
ईसा (अलैही सलाम) का मिशन !
नबी के आने से
नक़ली खुदाओं की खुदाई का और उनके जुल्म का ख़ात्मा होना शुरू हो जाता है, इसलिये इनसानियत के दुश्मन हमेशा नबी का विरोध करते हैं और आम लोगों को भरमाते
हैं।
तब नबी का उसके
देश में निरादर किया जाता है, उसे उसके देश से निकाल दिया जाता है और यरूशलम
का इतिहास है कि वहां के लोगों ने बहुत से नबियों को क़त्ल तक कर डाला।
हज़रत ईसा
(अलैही सलाम) के साथ किया गया शर्मनाक बर्ताव और उन्हें क़त्ल करने की नाकाम कोशिश
भी उसी परम्परा का हिस्सा थी।
हज़रत ईसा (अलैही सलाम) का मिशन, खुदा का मिशन था और खुदा के कामों को रोकना
किसी के बस में है नहीं. आखि़रकार जब
ईसा (अलैही सलाम) के काम में रूकावट डाली गई और उन्हें ज़ख्मी कर दिया गया तो
उन्हें कुछ वक्त के लिए आराम की ज़रूरत पड़ी। अल्लाह तआला ने उन्हें दुनिया से उठा
लिया, सशरीर और ज़िन्दा। लेकिन उनके उठा लिए जाने से अल्लाह तआला का मिशन तो रूकने
वाला नहीं था। सो ईसा (अलैही सलाम) ने दुनिया से जाने से पहले कहा था कि……
» यूहन्ना : ‘मैं तुमसे सच
कहता हूं कि मेरा जाना तुम्हारे लिए अच्छा है। जब तक मैं नहीं जाऊंगा तब तक वह
सहायक तुम्हारे पास नहीं आएगा। परन्तु यदि मैं जाऊंगा तो मैं उसे तुम्हारे पास भेज
दूंगा। जब वह आएगा तब संसार को पाप, धार्मिकता और न्याय के विषय में निरूत्तर
करेगा।’- (यूहन्ना 16 : आयत 6-8)
» यूहन्ना : ‘मुझे तुमसे और भी बहुत सी बातें कहनी हैं। परन्तु अभी तुम उन्हें सह नहीं
सकते। परन्तु जब वह अर्थात् सत्य का आत्मा आएगा तब तुम्हें सम्पूर्ण सत्य का मार्ग
बताएगा। वह मेरी महिमा करेगा , क्योंकि जो मेरी बातें हैं, वह उन्हें तुम्हें बताएगा। - (यूहन्ना 16 : आयत 12-14)
हज़रत ईसा
(अलैही सलाम) की भविष्यवाणी पूरी हुई और दुनिया में हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि
वसल्लम) तशरीफ़ लाए। उन्होंने गवाही दी कि ईसा कुंवारी मां के बेटे थे और मसीह थे।
खुदा के सच्चे नबी थे, मासूम थे। वे ज़िन्दा आसमान पर उठा लिए गए और
दोबारा ज़मीन पर आएंगे और मानव जाति के दुश्मन ‘दज्जाल‘ (एंटी क्राइस्ट) का अंत करेंगे। जो बातें मसीह
कहना चाहते थे लेकिन कह नहीं पाए, वे सब बातें पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो
अलैहि वसल्लम) ने दुनिया को बताईं और उन्होंने संसार को पाप, धार्मिकता और न्याय के विषय में निरूत्तर किया।
आज ज़मीन पर 153 करोड़ से ज़्यादा मुसलमान आबाद हैं। हर एक मुसलमान सिर्फ़ उनकी गवाही की वजह से
ही ईसा को खुदा का नबी और मसीह मानते हैं। मरियम को पाक और उनकी पैदाइश को खुदा का
करिश्मा मानते हैं। क्या ईसा (अलैही सलाम) के बाद दुनिया में हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो
अलैहि वसल्लम) के अलावा कोई और पैदा हुआ है जिसने ईसा (अलैही सलाम) की सच्चाई के
हक़ में इतनी बड़ी गवाही दी हो और खुदा की शरीअत को ज़मीन पर क़ायम किया हो ?
जमजम का पानी
शताब्दियों पहले बीबी हाजरा (रज़ी अल्लाहू अन्हा) अपने नवजात बच्चे इस्माइल (अलैही सलाम) की प्यास बुझाने के लिए पानी की तलाश के लिए सफा और मरवा पहाडिय़ों के बीच दौड़ लगाती है। इसी दौरान मासूम इस्माइल (अलैही सलाम) अपनी एडिय़ों को रेत पर रगड़ते हैं। अल्लाह के करम से उस जगह पानी निकलने लगता है। फिर यह जगह कुएं का रूप ले लेती है जो जाना जाता है जमजम का पानी। हम आपको रूबरू करवा रहे हैं उस इंजीनियर शख्स से जिसने करीब चालीस साल पहले खुद आब ए जमजम का निरीक्षण किया था।
जमजम पानी का सैंपल यूरोपियन लेबोरेट्री में भेजा गया । जांच में जो बातें आई उससे साबित हुआ कि जमजम पानी इंसान के लिए रब की बेहतरीन नियामत है। आम पानी से अलग इसमें इंसानों के लिए बड़े-बड़े फायदे छिपे हैं। इंजीनियर तारिक हुसैन की जुबानी हज का मौका आने पर मुझे करिश्माई पानी जमजम की याद ताजा हो जाती है।
चलिए मै आपको देता हूं मेरे द्वारा किए गए इसके अध्ययन से जुड़ी जानकारी। 1971 की बात है। मिस्र के एक डॉक्टर ने यूरोपियन प्रेस को लिखा कि मक्का का जमजम पानी लोगों के पीने योग्य नहीं है। मैं तुरंत समझा गया था कि मिस्र के इस डॉक्टर का प्रेस को दिया यह बयान मुसलमानों के खिलाफ पूर्वाग्रह से ग्रसित है। दरअसल इसके इस बयान का आधार था कि काबा समुद्रतल से नीचे है और यह मक्का शहर के बीचोंबीच स्थित है। इस वजह से मक्का शहर का गंदा पानी नालों से इस कुएं में आकर जमा होता रहता है।
यह खबर सऊदी शासक किंग फैसल तक पहुंची। उनको यह बहुत ज्यादा अखरी और उन्होंने मिस्र के इस डॉक्टर के इस प्रोपेगण्डे को गलत साबित करने का फैसला किया। उन्होंने तुरंत सऊदिया के कृषि और जलसंसाधन मंत्रालय को इस मामले की जांच करने और जमजम पानी का एक सैंपल चैक करने के लिए यूरोपियन लेबोरेट्री में भी भेजे जाने का आदेश दिया। मंत्रालय ने जेद्दा स्थित पावर डिजॉलेशन प्लांट्स को यह जिम्मेदारी सौंपी। मैं यहां केमिकल इंजीनियर के रूप में कार्यरत था और मेरा काम समुद्र के पानी को पीने काबिल बनाना था। मुझे जमजम पानी को चैक करने की जिम्मेदारी सौपी गई। मुझे याद है उस वक्त मुझे जमजम के बारे में कोई अंदाजा नहीं था। ना यह कि इस कुएं में किस तरह का पानी है। मैं मक्का पहुंचा और मैंने काबा के अधिकारियों को वहां आने का अपना मकसद बताया। उन्होंने मेरी मदद के लिए एक आदमी को लगा दिया। जब हम वहां पहुंचे तो मैंने देखा यह तो पानी का एक छोटा कुण्ड सा था। छोटे पोखर के समान। 18 बाई 14 का यह कुआं हर साल लाखों गैलन पानी हाजियों को देता है। और यह सिलसिला तब से ही चालू है जब से यह अस्तित्व में आया। यानी कई शताब्दियों पहले हजरत इब्राहीम के वक्त से ही।
मैंने अपनी खोजबीन शुरू की और कुएं के विस्तार को समझने की कोशिश की। मैंने अपने साथ वाले बंदे को कुएं की गहराई मापने को कहा। वह शावर ले गया और पानी में उतरा। वह पानी में सीधा खड़ा हो गया। मैंने देखा पानी का स्तर उसके कंधों से थोड़ा ही ऊपर था। उस शख्स की ऊंचाई लगभग पांच फीट आठ इंच थी। उस शख्स ने सीधा खड़ा रहते हुए उस कुएं में एक कोने से दूसरे कोने की तरफ खोजबीन की कि आखिर इसमें पानी किस तरफ से आ रहा है। पानी की धारा कहां है जहां से पानी निकल रहा है। (उसे पानी में डूबकी लगाने की इजाजत नहीं थी।) उसने बताया कि वह नहीं खोज पाया कि पानी किस जगह से निकलता है।
पानी आने की जगह ना मिलने पर मैंने दूसरा तरीका सोचा। हमने उस कुएं से पानी निकालने के लिए बड़े पंप लगा दिए ताकि वहां से तेजी से पानी निकल सके और पानी के स्रोत का पता लग सके। मुझे हैरत हुई कि ऐसा करने पर भी हमें इस कुएं में पानी आने की जगह का पता नहीं चल पाया। लेकिन हमारे पास सिर्फ यही एकमात्र तरीका था जिससे यह जाना जा सकता था कि आखिर इस पानी का प्रवेश किधर से है। इसलिए मैंने पंप से पानी निकालने के तरीके को फिर से दोहराया और मैंने उस शख्स को निर्देश दिया कि वह पानी में खड़े रहकर गौर से उस जगह को पहचानने की कोशिश करे। अच्छी तरह ध्यान दें कि कौनसी जगह हलचल सी दिखाई दे रही है। इस बार कुछ समय बाद ही उसने हाथ उठाया और खुशी से झूम उठा और बोल पड़ा-अलहम्दु लिल्लाह मुझे कुएं में पानी आने की जगह का पता चल गया। मेरे पैरों के नीचे ही यह जगह है जहां से पानी निकल रहा है। पंप से पानी निकालने के दौरान ही उसने कुएं के चारों तरफ चक्कर लगाए और उसने देखा कि ऐसा ही कुएं में दूसरी जगह भी हो रहा है। यानी कुएं में हर हिस्से से पानी के निकलने का क्रम जारी है। दरअसल कुएं में पानी की आवक हर पॉइंट से समान रूप से थी और इसी वजह से जमजम के कुएं के पानी का स्तर लगातार एक सा रहता है। और इस तरह मैंने अपना काम पूरा किया और यूरोपियन लेबोरेट्री में जांच के लिए भेजने के लिए पानी का सैंपल ले आया।
काबा से रवाना
होने से पहले मैंने वहां के अधिकारियों से मक्का के आसपास के कुओं के बारे में
जानकारी ली। मुझे बताया गया कि इनमें से ज्यादातर कुएं सूख चुके हैं। मैं जेद्दा
स्थित अपने ऑफिस पहुंचा और बॉस को अपनी यह रिपोर्ट सौंपी। बॉस ने बड़ी दिलचस्पी के
साथ रिपोर्ट को देखा लेकिन बेतुकी बात कह डाली कि जमजम का यह कुआं अंदर से रेड सी
से जुड़ा हो सकता है। मुझे उनकी इस बात पर हैरत हुई कि ऐसे कैसे हो सकता है? मक्का इस समंदर से करीब 75 किलोमीटर दूर है और मक्का शहर के बाहर स्थित
कुएं करीब- करीब सूख चुके हैं।
!! यूरोपियन
लेबोरेट्री ने आबे जमजम के नमूने की जांच की और हमारी लेब में भी इस पानी की जांच
की गई। दोनो जांचों के नतीजे तकरीबन समान थे। !!
!! जमजम पानी में कैल्शियम और मैग्नेशियम
!!
जमजम के पानी और मक्का शहर के अन्य पानी में केल्शियम और मैग्रेशियम साल्ट्स
की मात्रा का फर्क था। जमजम में ये दोनों तत्व ज्यादा थे। शायद यही वजह थी कि जमजम
का पानी यहां आने वाले कमजोर हाजी को भी उर्जस्वित और तरोताजा बनाए रखता है।
!! जमजम पानी में
फ्लोराइड !!
महत्वपूर्ण बात यह थी कि जमजम के पानी में पाया जाने वाला फ्लोराइड अपना महत्वपूर्ण प्रभावी असर रखता है। यह फ्लोराइड कीटाणुनाशक होता है। सबसे अहम बात यह है कि यूरोपियन लेबोरेट्री ने अपनी जांच के बाद बताया कि यह पानी पीने के लिए एकदम उपयुक्त है। और इस तरह मिस्र के डॉक्टर का जमजम के बारे में फैलाया गया प्रोपेगण्डा गलत साबित हुआ। इस रिपोर्ट की जानकारी जब शाह फैसल को दी गई तो वे बेहद खुश हुए और उन्होंने यूरोपियन प्रेस को यह जांच रिपोर्ट भिजवाने के आदेश दिए।
जमजम पानी की
रासायनिक संरचना के अध्ययन से देखने को मिला कि यह तो ईश्वर का अनुपम उपहार है।
सच्चाई यह है कि आप जितना अधिक इस पानी को जांचते हैं उतनी नई और महत्वपूर्ण बातें
सामने आती हैं और आपके ईमान में बढ़ोतरी होती जाती है।
!! आइए मैं आपको
जमजम के पानी की चंद खूबियों के बारे में बताता हूं- !!
१. कभी नहीं सूखा- जमजम का यह
कुआं कभी भी नहीं सूखा। यही नहीं इस कुएं ने जरूरत के मुताबिक पानी की आपूति की
है। जब-जब जितने पानी की जरूरत हुई, यहां पानी
उपलब्ध हुआ।
२. एक सी साल्ट
संरचना – इस पानी के साल्ट की संरचना हमेशा एक जैसी रही
है। इसका स्वाद भी जबसे यह अस्तित्व में आया तब से एक सा ही है।
३. सभी के लिए
फायदेमंद – यह पानी सभी को सूट करने वाला और फायदेमंद
साबित हुआ है। इसने अपनी वैश्विक अहमियत को साबित किया है। दुनियाभर से हज और उमरा
के लिए मक्का आने वाले लोग इसको पीते हैं और इनको इस पानी को लेकर कोई शिकायत नहीं
रही। बल्कि ये इस पानी को बड़े चाव से पीते हैं और खुद को अधिक ऊर्जावान और
तरोताजा महसूस करते हैं।
४. यूनिवर्सल
टेस्ट – अक्सर देखा गया है कि अलग-अलग जगह के पानी का
स्वाद अलग-अलग होता है लेकिन जमजम पानी का स्वाद यूनिवर्सल है। हर पीने वाले को इस
पानी का स्वाद अलग सा महसूस नहीं होता है।
५. कोई जैविक विकास नहीं- इस पानी को कभी रसायन डालकर शुद्ध करने की जरूरत नहीं होती जैसा कि अन्य पेयजल के मामले में यह तरीका अपनाया जाता है। यह भी देखा गया है कि आमतौर पर कुओं में कई जीव और वनस्पति पनप जाते हैं। कुओं में शैवाल हो जाते हैं जिससे कुएं के पानी में स्वाद और गंध की समस्या पैदा हो जाती है। लेकिन जमजम के कुए में किसी तरह का जैविक विकास का कोई चिह्न भी नहीं मिला।
!! आब-ए-जमजम से मोरक्को के महिला की एक इबरतनाक हकीकत !!
आब ए जमजम के करिश्मे की दास्तां सुनिए इस मोरक्को की महिला से जो कैसर से
पीडि़त थीं। वे अल्लाह के दर पर पहुंची और शिफा की नीयत से आब ए जमजम का इस्तेमाल
किया। अल्लाह ने उसे इस लाइलाज बीमारी से निजात दी। मोरक्को की लैला अल हेल्व खुद
बता रही है अपनी स्टोरी-नौ साल पहले मुझे मालूम हुआ कि मुझे कैंसर है। सभी जानते
है कि इस बीमारी का नाम ही कितना डरावना है और मोरक्को में हम इसे राक्षसी बीमारी
के नाम से जानते हैं।
अल्लाह पर मेरा
यकीन बेहद कमजोर था। मैं अल्लाह की याद से पूरी तरह से गाफिल रहती थी। मैंने सोचा
भी नहीं था कि कैंसर जैसी भयंकर बीमारी की चपेट में आ जाऊंगी। मालूम होने पर मुझे
गहरा सदमा लगा। मैंने सोचा दुनिया में कौनसी जगह मेरी इस बीमारी का इलाज हो सकता
है? मुझे कहां जाना चाहिए? मैं निराश हो गई। मेरे दिमाग में खुदकुशी का
खयाल आया लेकिन…..मैं अपने शौहर और बच्चों को बेहद चाहती थी। उस
वक्त मेरे दिमाग में यह नहीं था कि अगर मैंने खुदकुशी की तो अल्लाह मुझे सजा देगा।
जैसा कि पहले मैंने बताया अल्लाह की याद से मैं गाफिल ही रहती थी। शायद अल्लाह इस बीमारी के बहाने ही मुझे हिदायत देना चाह रहा था।
मैं बेल्जियम गई और वहां मैंने कई डॉक्टरों को दिखाया। उन्होंने मेरे पति को बताया कि पहले मेरे स्तनों को हटाना पड़ेगा, उसके बाद बीमारी का इलाज शुरू होगा। मैं जानती थी कि इस चिकित्सा पद्धति से मेरे बाल उड़ जाएंगे। मेरी भौंहें और पलकों के बाल जाते रहेंगे और चेहरे पर बाल उग जाएंगे। मैं ऐसी जिंदगी के लिए तैयार नहीं थी।
मैंने डॉक्टर को इस तरह के इलाज के लिए साफ इंकार कर दिया और कहा कि किसी दूसरी चिकित्सा पद्धति से मेरा इलाज किया जाए जिसका मेरे बदन पर किसी तरह का दुष्प्रभाव ना हो। डॉक्टर ने दूसरा तरीका ही अपनाया। मुझ पर इस इलाज का कोई दुष्प्रभाव नहीं हुआ। मैं बहुत खुश थी। मैं मोरक्को लौट आई और यह दवा लेती रही। मुझे लगा शायद डॉक्टर गलत समझ बैठे और मुझे कैंसर है ही नहीं।
तकरीबन छह महीने बाद मेरा वजन तेजी से गिरने लगा। मेरा रंग बदलने लगा और मुझे लगातर दर्द रहने लगा। मेरे मोरक्कन डॉक्टर ने मुझे फिर से बेल्जियम जाने की सलाह दी। मैं बेल्जियम पहुंची। लेकिन अब मेरा दुर्भाग्य था। डॉक्टर ने मेरे शौहर को बताया कि यह बीमारी मेरे पूरे बदन में फैल गई है। फैंफड़े पूरी तरह संक्रमित हो गए और अब उनके पास इसका कोई इलाज नहीं है। डॉक्टरों ने मेरे पति से कहा कि बेहतर यह है कि आप अपनी बीवी को वापस अपने वतन मोरक्को ले जाएं ताकि वहां आराम से उनके प्राण निकल सके।
यह सुन मेरे
पति को बड़ा सदमा लगा। बेल्जियम से लौटते वक्त हम फ्रांस चले गए इस उम्मीद से कि
शायद वहां इस बीमारी का इलाज हो जाए। लेकिन फ्रांस में बेल्जियम की चिकित्सा से ज्याद कुछ नहीं
मिला। फिर मैंने मजबूरन अस्पताल में भर्ती होकर अपने स्तन हटवाने और सर्जीकल
थैरेपी लेने का फैसला किया जिसके बारे में हमें डॉक्टर पहले ही कह चुका था, लेकिन तब मैं तैयार ना थी।
इस बीच मेरे शौहर को खयाल आया कि हम कुछ भूल रहे हैं। कुछ ऐसा जो हरदम हमारे
खयालों से दूर रहा है। अल्लाह ने मेरे शौहर के दिल में खयाल पैदा किया कि वे मुझे
मक्का स्थित काबा शरीफ ले जाएं। जहां जाकर वे अल्लाह से दुआ करें। अल्लाह से उनकी
बीमारी को दूर करने की इल्तिजा कर सके।
अल्लाहु अकबर, ला इलाहा इलल्लाह (अल्लाह सबसे बड़ा है। अल्लाह के सिवाय कोई इबादत के लायक नहीं) कहते हुए हम पेरिस से मक्का के लिए रवाना हो गए। मैं बेहद खुशी थी क्योंकि मैं पहली बार काबा शरीफ जा रही थी। मैंने पेरिस से पवित्र कुरआन की एक कॉपी खरीद ली थी। हम मक्का पहुंचे। जब मैंने हरम शरीफ में प्रवेश किया और काबा की तरफ मेरी पहली नजर पड़ी तो मैं जोर से रो पड़ी। मैं रो पड़ी क्योंकि मैं शर्मिंदा थी कि मैंने बिना उस मालिक की इबादत के यूं ही अपनी जिंदगी के इतने साल बर्बाद कर दिए।
मैंने कहा- ऐ मेरे मालिक मेरा इलाज करने में डॉक्टर असमर्थ हैं। सब बीमारी का इलाज तेरे पास है। तृ ही शिफा देने वाला है। मेरे सामने सारे दरवाजे बंद हो गए हैं, सिवाय तेरे दर के। तेरे दर के अलावा मेरा अब कोई ठिकाना नहीं है। अब तो मुझे तेरे ही दर से उम्मीद है। ऐ मेरे मालिक मेरे लिए तू अपना दरवाजा बंद ना कर। मैं काबा के चारों तरफ चक्कर काटती रही और अल्लाह से यह दुआ करती रही।
मैंने कहा-
मेरे मौला तू मुझे नाउम्मीद और खाली हाथ मत लौटाना। जैसा कि मैं पहले ही बता चुकी हूं कि मैं
अल्लाह और उसकी इबादत के मामले में पूरी तरह दूर रही थी इसलिए मैं उलमा के पास गई
और इबादत से जुड़ी किताबें हासिल की जिनसे मैं अच्छी तरह समझ सकूं। उन्होंने मुझे
ज्यादा से ज्यादा कुरआन पढऩे का मशविरा दिया। उन्होंने मुझे ज्यादा से ज्यादा जमजम
का पानी पीने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि मैं ज्यादा से ज्यादा अल्लाह का नाम लू
और मुहम्मद (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) पर दुरूद भेजूं। मैंने इस मुकाम पर शांति और
सुकून महसूस किया। मैंने अपने शौहर से होटल में जाकर ठहरने के बजाय हरम शरीफ में
ही रुकने की इजाजत चाही। उन्होंने मुझे हरम शरीफ में ठहरने की इजाजत दे दी।
हरम शरीफ में
मेरे नजदीक ही कुछ मिस्री और तुर्क की महिलाएं थी। जब उन्होंने मुझे इस हालत में
देखा तो मुझसे जाना कि मेरे साथ क्या परेशानी है? मैंने अपनी
बीमारी के बारे में उनको बताया और बताया कि मैंने जिंदगी में सोचा भी नहीं था कि
मैं कभी काबा शरीफ आऊंगी और उससे इतनी करीब हो पाऊंगी। यह जानकर वे महिलाएं मेरे
पास रहीं और उन्होंने अपने-अपने शौहर से मेरे साथ हरम शरीफ में ही ठहरने की इजाजत
ले ली। इस दौरान हम बहुत कम सोईं और बहुत कम खाया। लेकिन हमने जमजम का पानी खूब
पीया।
» हदीस : और जैसा कि हमारे प्यारे नबी (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) ने फरमाया है कि जमजम का पानी जिस नियत से पीया जाए वैसा ही फायदा पहुंचाता है। यदि इस पानी को बीमारी से निजात की नीयत से पीया जाए तो अल्लाह उसको बीमारी से निजात देता है और अगर आप इसको प्यास बुझाने की नीयत से पीते हैं तो यह आपकी प्यास बुझाता है। (तबरानी शरीफ)
यही वजह है कि
हमने भूख महसूस नहीं की। हम वहीं रुके रहे और तवाफ करते रहे, कुरआन पढ़ते रहे। हम रात और दिन ऐसा ही करते।
जब मैं हरम आई थी तो बहुत पतली थी। मेरे बदन के उपरी हिस्से में सूजन थी। इस
हिस्से में खून और मवाद थी। कैंसर मेरे बदन के ऊपरी हिस्से में पूरी तरह फैल गया
था। इस वजह से मेरे साथ वाली बहनें मेरे बदन के ऊपरी हिस्से को जमजम पानी से धोया
करती थी। लेकिन मैं बदन के इस हिस्से को छूने से भी डरती थी। अल्लाह की इबादत और
उसके प्रति पूरी तरह समर्पण के बावजूद मैं अपनी बीमारी को याद कर भयभीत रहती थी।
इसी वजह से मैं अपने बदन को बिना छूए ही साफ करती थी।
पांचवे दिन
मेरे साथ रह रही बहनों ने जोर देकर कहा कि मुझे अपने पूरे बदन को जमजम पानी से
धोना चाहिए। शुरुआत में तो मैंने ऐसा करने से साफ मना कर दिया। लेकिन मुझे अहसास
हुआ मानो कोई मुझ पर दबाव बनाकर ऐसा ही करने के लिए कह रहा हो। मैं जिन अंगों को
धोने से बचती थी उनको जमजम से धोने के लिए कोशिश शुरु की। लेकिन मैं फिर घबरा गई
लेकिन मैंने फिर से महसूस किया कि मानो कोई मुझ पर दवाब डालकर इन्हें धोने के लिए
कह रहा हो। मैं फिर से झिझक गई।
तीसरी बार
मैंने जोर देकर अपना हाथ मेरे शरीर के ऊपरी हिस्से पर रख दिया और फिर पूरे शरीर पर
फिराया। कुछ अविश्वसनीय सा महसूस हुआ। यह क्या? ना सूजन, ना खून और ना ही मवाद?
जो कुछ मैंने
महसूस किया मैं उस पर भरोसा नहीं कर पाई। मैंने अपने हाथों से अपने बदन के ऊपरी
अंगों को फिर से जांचा। सच्चाई यही थी जो मैंने महसूस किया था। मेरे बदन में
कंपकंपी छूट गई। अचानक मेरे दिमाग में आया अल्लाह सुब्हान व तआला तो सबकुछ करने की
ताकत रखता है। मैंने अपनी साथ की सहेली को मेरे बदन को छूने और सूजन जांचने के लिए
कहा।
उसने ऐसा ही
किया। वे सब अचानक बोल पड़ीं- अल्लाहु अकबर, अल्लाहु अकबर।
मैं अपने शौहर को बताने के लिए होटल की तरफ दौड़ पड़ी। मैंने उनसे मिलते ही कहा-
देखो अल्लाह का करम।
मैंने उन्हें
बताया कि यह सब कैसे हुआ। वे भरोसा ही नहीं कर पाए। वे रो पड़े, फिर रो पड़े। उन्होंने मुझसे कहा कि क्या
तुम्हें पता है कि डॉक्टरों का पक्का यकीन था कि तुम ज्यादा से ज्यादा तीन हफ्ते
तक ही जिंदा रह पाओगी?
मैंने कहा-सब
कुछ अल्लाह के हाथ में है और सब कुछ उसी की रजा से होता है। सिवाय अल्लाह के कोई
नहीं जानता कि किसी शख्स के साथ भविष्य में क्या होने वाला है।
हम एक हफ्ते तक
अल्लाह के घर काबा में ठहरे। मैंने अल्लाह का उसके इस बेहद करम के लिए बहुत-बहुत
शुक्रिया अदा किया। उसके बाद हम पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) की
मस्जिद (मस्जिद ए नबवी) के लिए मदीना चले गए। वहां से हम फ्रांस के लिए रवाना हो
गए। वहां डॉक्टर्स मुझे देखकर भ्रमित हो गए और उन्हें बेहद आश्चर्य हुआ। उन्होंने उत्सुकता से मुझसे पूछा-आप वही महिला
हैं?
मैंने फख्र के
साथ कहा- हां, मैं वही हूं और यह रहे मेरे शौहर। हम अपने
पालनहार की तरफ लौट आए हैं। और अब हम सिवाय एक अल्लाह के किसी और से नहीं डरते।
उसी ने मुझे यह नई जिंदगी दी है। डॉक्टर्स ने मुझे बताया कि मेरा केस उनके लिए
बड़ा मुश्किल था।
फिर डॉक्टर्स
ने कहा कि वे मेरी फिर से जांच करना चाहते हैं। लेकिन उन्होंने जांच के बाद कुछ भी
नहीं पाया। पहले मुझे बदन में सूजन की वजह से सांस लेने में
परेशानी होती
थी लेकिन जब मैंने काबा पहुंचकर अल्लाह से शिफा की दुआ की तो मेरी यह परेशानी जाती
रही।
मैंने प्यारे
नबी (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) और उनके साथियों की जीवनियां पढी। यह सब पढ़कर मैं
जोर जोर से रो पड़ती- मैंने अपनी अब तक की जिंदगी यूं ही गुजार दी? मैं अब तक अल्लाह और उसके प्यारे रसूल
(सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) से दूर क्यों रही? यह सब सोच कर
कई-कई बार रो पड़ती – मेरे मौला तू
मुझे , मेरे शौहर और सारे मुसलमानों को माफ कर दे और
मुझे अपनी अच्छी बंदी के रूप में कबूल कर। - लैला अल हेल्व (मोरक्को)
पवित्र क़ुरआन की चुनौती
तमाम संस्कृतियों में मानवीय शक्ति वचन और रचनात्मक
क्षमताओं की अभिव्यक्ति के प्रमुख साधनों में साहित्य और शायरी (काव्य रचना) सर्वोरि
है। विश्व इतिहास में ऐसा भी ज़माना गु़ज़रा है जब समाज में साहित्य और काव्य को वही
स्थान प्राप्त था जो आज विज्ञान और तकनीक को प्राप्त है।
गै़र-मुस्लिम भाषा-वैज्ञानिकों की सहमति है कि
अरबी साहित्य का श्रेष्ठ सर्वोत्तम नमूना पवित्र क़ुरआन है यानी इस ज़मीन पर अरबी सहित्य
का सर्वोत्कृष्ठ उदाहरण क़ुरआन -ए पाक ही है। मानव जाति को पवित्र क़ुरआन की चुनौति
है कि इन क़ुरआनी आयतों (वाक्यों) के समान कुछ बनाकर दिखाए उसकी चुनौती है :
‘‘और अगर तुम्हें इस मामले में संदेह हो कि यह
किताब जो हम ने अपने बंदों पर उतारी है, यह हमारी है या नहीं
तो इसकी तरह एक ही सूरत (क़ुरआनी आयत) बना लाओ, अपने सारे साथियों
को बुला लो एक अल्लाह को छोड़ कर शेष जिस – जिस की चाहो सहायता
ले लो, अगर तुम सच्चे हो तो यह काम कर दिखाओ, लेकिन अगर तुमने ऐसा नहीं किया और यकी़नन कभी नहीं कर सकते, तो डरो उस आग से जिसका ईधन बनेंगे इंसान और पत्थर। जो तैयार की गई है मुनकरीन
हक़ (सत्य को नकारने वालों)के लिये (अल – क़ुरआन: सूर 2, आयत 23
से 24 )
पवित्र क़ुरआन स्पष्ट शब्दों में सम्पूर्ण मानवजाति
को चुनौती दे रहा है कि वह ऐसी ही एक सूरः बना कर तो दिखाए जैसी कि क़ुरआन में कई स्थानों
पर दर्ज है । सिर्फ एक ही ऐसी सुरः बनाने की चुनौति जो अपने भाषा सौन्दर्य मृदुभषिता, अर्थ की व्यापकता
औ चिंतन की गहराई में पवित्र क़ुरआन की बराबरी कर सके, आज तक
पूरी नहीं की जा सकी ।
यद्यपि आधुनिक युग का तटस्थ व्यक्ति भी ऐसे किसी
धार्मिक ग्रंथ को स्वीकार नहीं करेगा जो अच्छी साहित्यिक व काव्यात्मक भाषा का उपयोग
करने के बावजूद यह कहता हो कि धरती चप्टी है। यह इस लिये है कि हम एक ऐसे युग में जी
रहे हैं जहां इंसान के बौद्धिक तर्क और विज्ञान को आधारभूत हैसियत हासिल है। बहुत से
लोग ऐसे भी हैं जो अल्लाह द्वारा पवित्र क़ुरआन के अस्तित्व की प्रामाणिकता में उसकी
असाधारण और सर्वोत्तम साहित्यिक भाषा को पर्याप्त प्रमाण नहीं मानेंगे । कोई भी ऐसा
ग्रंथ जो आसमानी होने और अल्लाह द्वारा प्रदत्त होने का दावेदार हो, उसे अपने प्रासंगिक
तर्कों की दृढ़ता के आधार पर ही स्वीकृति के योग्य होना चाहिये ।
प्रसिद्ध भौतिकवादी दर्शनशास्त्री और नोबल पुरस्कार
प्राप्त वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टाइन के अनुसार ‘‘धर्म के बिना
विज्ञान लंगड़ा है और धर्म के बिना विज्ञान अंधा है ‘‘इसलिये
अब हम पवित्र क़ुरआन का अध्ययन करते हुए यह जानने का प्रयत्न करते हैं कि आधुनिक विज्ञान
और पवित्र क़ुरआन में परस्पर अनुकूलता है या प्रतिकूलता ?
यहां याद रखना ज़रूरी है कि पवित्र क़ुरआन कोई
वैज्ञानिक किताब नहीं है बल्कि यह‘‘निशानियों‘‘ (signs) की, यानि आयात की किताब है। पवित्र क़ुरआन में छह हज़ार
से अधिक ‘‘निशानियां‘‘ (आयतें / वाक्य)
हैं, जिनमें एक हज़ार से अधिक वाक्य विशिष्ट रूप से विज्ञान एवं
वैज्ञानिक विषयों पर बहस करती हैं । हम जानते हैं कि कई अवसरों पर विज्ञान‘‘
यू टर्न ‘‘लेता है यानि विगत – विचार के प्रतिकूल बात कहने लगता है । अत: मैंने इस किताब में केवल सर्वमान्य
वैज्ञानिक वास्तविकताओं को ही चुना है जबकि ऐसे विचारों व दृष्टिकोण पर बात नहीं की
है जो महज़ कल्पना हो और पुष्टि के लिये वैज्ञानिक प्रमाण न हो।
अंतरिक्ष – विज्ञान /Astrology
सृष्टि की संरचना: ‘‘बिग बैंग ‘‘अंतरिक्ष विज्ञान के विशेषज्ञों ने सृष्टि की व्याख्या एक ऐसे सूचक (phenomenon)
के माध्यम से करते हैं और जिसे व्यापक रूप ‘‘से
बिग बैंग‘‘(big bang) के रूप में स्वीकार किया जाता है। बिग बैंग
के प्रमाण में पिछले कई दशकों की अवधि में शोध एवं प्रयोगों के माध्यम से अंतरिक्ष
विशेषज्ञों की इकटठा की हुई जानकारियां मौजूद है ‘बिग बैंग‘
दृष्टिकोण के अनुसार प्रारम्भ में यह सम्पूर्ण सृष्ठि प्राथमिक रसायन
(primary nebula) के रूप में थी फिर एक महान विस्फ़ोट यानि बिग
बैंग (secondary separation) हुआ जिस का नतीजा आकाशगंगा के रूप
में उभरा, फिर वह आकाश गंगा विभाजित हुआ और उसके टुकड़े सितारों,
ग्र्रहों, सूर्य, चंद्रमा
आदि के अस्तित्व में परिवर्तित हो गए कायनात, प्रारम्भ में इतनी
पृथक और अछूती थी कि संयोग (Chance) के आधार पर उसके अस्तित्व
में आने की ‘‘सम्भावना: (probability) शून्य
थी । पवित्र क़ुरआन सृष्टि की संरचना के संदर्भ से निम्नलिखित आयतों में बताता है:
‘‘क्या वह लोग जिन्होंने (नबी
स.अ.व. की पुष्टि) से इन्कार कर दिया है ध्यान नहीं करते कि यह सब आकाश और धरती परस्पर
मिले हुए थे फिर हम ने उन्हें अलग किया‘‘(अल – क़ुरआन: सुर: 21, आयत 30)
इस क़ुरआनी वचन और ‘‘बिग बैंग‘‘
के बीच आश्चर्यजनक समानता से इनकार सम्भव ही नहीं! यह कैसे सम्भव है
कि एक किताब जो आज से 1400 वर्ष पहले अरब के रेगिस्तानों में व्यक्त हुई अपने अन्दर
ऐसे असाधारण वैज्ञानिक यथार्थ समाए हुए है?
आकाशगंगा की
उत्पत्ति से पूर्व प्रारम्भिक वायुगत रसायन: वैज्ञानिक
इस बात पर सहमत हैं कि सृष्टि में आकाशगंगाओं के निर्माण से पहले भी सृष्टि का सारा
द्रव्य एक प्रारम्भिक वायुगत रसायन (gas) की अवस्था में था,
संक्षिप्त यह कि आकाशगंगा निर्माण से पहले वायुगत रसायन अथवा व्यापक
बादलों के रूप में मौजूद था जिसे आकाशगंगा के रूप में नीचे आना था. सृष्टि के इस प्रारम्भिक
द्रव्य के विश्लेषण में गैस से अधिक उपयुक्त शब्द ‘‘धुंआ‘‘
है। निम्नांकित आयतें क़ुरआन में सृष्टि की इस अवस्था को धुंआ शब्द से
रेखांकित किया है।
‘‘फिर वे आसमान की ओर ध्यान आकर्षित
हुए जो उस समय सिर्फ़ धुआं था उस (अल्लाह) ने आसमान और ज़मीन से कहा:अस्तित्व में आजाओ
चाहे तुम चाहो या न चाहो‘‘दोनों ने कहा: हम आ गये फ़र्मांबरदारों (आज्ञाकारी लोगों)
की तरह‘‘(अल ..कु़रआन: सूर: 41 ,,आयत 11)
एक बार फिर, यह यथार्थ
भी ‘‘बिग बैंग‘‘ के अनुकूल है जिसके बारे
में हज़रत मुहम्मद मुस्तफा़ (स.अ.व. ) की पैग़मबरी से पहले किसी को कुछ ज्ञान नहीं
था (बिग बैंग दृष्टिकोण बीसवीं सदी यानी पैग़मबर काल के 1300 वर्ष बाद की पैदावार है)
अगर इस युग में कोई भी इसका जानकार नहीं था तो फिर इस ज्ञान का स्रोत क्या हो सकता
है?
धरती की अवस्था: गोल या चपटी
प्राराम्भिक ज़मानों में लोग विश्वस्त थे कि ज़मीन
चपटी है,
यही कारण था कि सदियों तक मनुष्य केवल इसलिए सुदूर यात्रा करने से भयाक्रांति
करता रहा कि कहीं वह ज़मीन के किनारों से किसी नीची खाई में न गिर पडे़! सर फ्रांस
डेरिक वह पहला व्यक्ति था जिसने 1597 ई0 में धरती के गिर्द ( समुद्र मार्ग से ) चक्कर
लगाया और व्यवहारिक रूप से यह सिद्ध किया कि ज़मीन गोल (वृत्ताकार ) है। यह बिंदु दिमाग़
में रखते हुए ज़रा निम्नलिखित क़ुरआनी आयत पर विचार करें जो दिन और रात के अवागमन से
सम्बंधित है:
‘‘क्या तुम देखते नहीं हो कि
अल्लाह रात को दिन में पिरोता हुआ ले आता है और दिन को रात में ‘‘(अल-.क़ुरआन: सूर: 31 आयत 29)
यहां स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है कि अल्लाह
ताला ने क्रमवार रात के दिन में ढलने और दिन के रात में ढलने (परिवर्तित होने )की चर्चा
की है ,यह केवल तभी सम्भव हो सकता है जब धरती की संरचना गोल (वृत्ताकार ) हो। अगर
धरती चपटी होती तो दिन का रात में या रात का दिन में बदलना बिल्कुल अचानक होता । निम्न
में एक और आयत देखिये जिसमें धरती के गोल बनावट की ओर इशारा किया गया है: उसने आसमानों और ज़मीन को
बरहक़ (यथार्थ रूप से )उत्पन्न किया है ,, वही दिन पर रात और रात पर दिन को लपेटता है।,,(अल.-क़ुरआन: सूर:39 आयत 5)
यहां प्रयोग किये गये अरबी शब्द ‘‘कव्वर‘‘ का अर्थ है किसी एक वस्तु को दूसरे पर लपेटना या overlap करना या (एक
वस्तु को दूसरी वस्तु पर) चक्कर देकर ( तार की तरह ) बांधना। दिन और रात को एक दूसरे
पर लपेटना या एक दूसरे पर चक्कर देना तभी सम्भव है जब ज़मीन की बनावट गोल हो ।
ज़मीन किसी गेंद की भांति बिलकुल ही गोल नहीं बल्कि
नारंगी की तरह (geo-spherical) है यानि ध्रुव (poles) पर से थोडी सी चपटी है। निम्न आयत में ज़मीन के बनावट की व्याख्या यूं की गई हैः
‘‘और फिर ज़मीन को उसने बिछाया ‘‘(अल क़ुरआन: सूर 79 आयत 30)
यहां अरबी शब्द ‘‘दहाहा‘‘ प्रयुक्त है, जिसका आशय ‘‘शुतुरमुर्ग़‘‘ के अंडे के रूप, में धरती की
वृत्ताकार बनावट की उपमा ही हो सकता है। इस प्रकार यह माणित हुआ कि पवित्र क़ुरआन में
ज़मीन के बनावट की सटीक परिभाषा बता दी गई है, यद्यपि पवित्र कुरआन के अवतरण काल में आम विचार
यही था कि ज़मीन चपटी है।
चांद का प्रकाश प्रतिबिंबित प्रकाश है
प्राचीन संस्कृतियों में यह माना जाता था कि चांद
अपना प्रकाश स्वयं व्यक्त करता है। विज्ञान ने हमें बताया कि चांद का प्रकाश प्रतिबिंबित
प्रकाश है फिर भी यह वास्तविकता आज से चौदह सौ वर्ष पहले पवित्र क़ुरआन की निम्नलिखित
आयत में बता दी गई है। बड़ा पवित्र
है वह जिसने आसमान में बुर्ज ( दुर्ग ) बनाए और उसमें एक चिराग़ और चमकता हुआ चांद आलोकित किया ।( अल. क़ुरआन ,सूर: 25 आयत 61)
पवित्र क़ुरआन में सूरज के लिये अरबी शब्द ‘‘शम्स‘‘ प्रयुक्त हुआ है। अलबत्ता सूरज को ‘सिराज‘ भी कहा जाता है जिसका अर्थ है मशाल (torch) जबकि अन्य अवसरों पर उसे ‘वहाज‘ अर्थात् जलता हुआ चिराग या प्रज्वलित दीपक कहा गया
है। इसका अर्थ ‘‘प्रदीप्त‘ तेज और महानता‘‘ है। सूरज के लिये उपरोक्त तीनों स्पष्टीकरण उपयुक्त
हैं क्योंकि उसके अंदर प्रज्वलन combustion का ज़बरदस्त कर्म निरंतर जारी रहने के कारण तीव्र
ऊष्मा और रौशनी निकलती रहती है।
चांद के लिये पवित्र क़ुरआन में अरबी शब्द क़मर
प्रयुक्त किया गया है और इसे बतौर‘ मुनीर प्रकाशमान बताया गया है ऐसा शरीर जो ‘नूर‘ (ज्योति) प्रदान
करता हो। अर्थात, प्रतिबिंबित रौशनी देता हो। एक बार पुन: पवित्र क़ुरआन द्वारा चांद के बारे में
बताए गये तथ्य पर नज़र डालते हैं, क्योंकि निसंदेह चंद्रमा का अपना कोई प्रकाश नहीं है बल्कि वह सूरज के प्रकाश से
प्रतिबिंबित होता है और हमें जलता हुआ दिखाई देता है। पवित्र क़ुरआन में एक बार भी
चांद के लिये‘,
सिराज वहाज, या दीपक जैसें
शब्दों का उपयोग नहीं हुआ है और न ही सूरज को , नूर या मुनीर‘,, कहा गया है। इस से स्पष्ट होता है कि पवित्र क़ुरआन
में सूरज और चांद की रोशनी के बीच बहुत स्पष्ट अंतर रखा गया है, जो पवित्र
क़ुरआन की आयत के अध्ययन से साफ़ समझ में आता है। निम्नलिखित आयात में सूरज और चांद की रोशनी के बीच
अंतर इस तरह स्पष्ट किया गया है: वही है जिस ने सूरज को उजालेदार बनाया और चांद को चमक दी ।,,( अल-क़ुरआन: सूरः 10,, आयत 5 ,,)
क्या देखते नहीं हो कि अल्लाह ने किस प्रकार सात आसमान एक के
ऊपर एक बनाए और उनमें चांद को नूर ( ज्योति ) और सूरज को चिराग़ (दीपक) बनाया ।( अल- क़ुरआन: सूर:71 आयत 15
से 16 )
इन पवित्र आयतों के अध्य्यन से प्रमाणित होता है
कि महान पवित्र क़ुरआन और आधुनिक विज्ञान में धूप और चाँदनी की वास्तविकता
के बारे में सम्पूर्ण सहमति है ।
सूरज घूमता है
एक लम्बी अवधि तक यूरोपीय दार्शिनिकों और वैज्ञानिकों
का विश्वास रहा है कि धरती सृष्टि के केंद्र में चुप खड़ी है और सूरज सहित सृष्टि की प्रत्येक वस्तु
उसकी परिक्रमा कर रही है। इसे धरती का केंद्रीय दृष्टिकोण‘ भूकेन्द्रीय
सिद्धांत geo-centric-theory
भी कहा जाता
है जो बतलीमूस- काल, दूसरी सदी ईसा पूर्व से लेकर 16 वीं सदी ई. तक सर्वमान्य वैज्ञानिक दृष्टिकोण रहा
है, पुन: 1512 ई0 में निकोलस कॉपरनिकस ने ‘‘अंतरिक्ष में ग्रहों की गति के सौर-..केंद्रित ग्रह- गति सिद्धांत heliocentric theory of
planetary motion का प्रतिपादन किया जिसमें कहा गया था कि सूरज सौरमण्डल के केंद्र में यथावत है
और अन्य तमाम ग्रह उसकी परिक्रमा कर रहे है: 1609 ई0 में एक जर्मन वैज्ञानिक जोहानस
कैप्लर ने astronomic
nova (खगोलीय तंत्र)
नामक एक किताब प्रकाशित कराई। जिसमें विद्वान लेखक ने, न केवल यह
सिद्ध किया कि सौरमण्डल के ग्रह दीर्ध वृत्तीय:elliptical अण्डाकार धुरी पर सूरज की परिक्रमा
करते हैं बल्कि उसमें यह प्रमाणिकता भी अविष्कृत है कि सारे ग्रह अपनी धुरियों (axis) पर अस्थाई
गति से घूमते हैं। इस अविष्कृत ज्ञान के आधार पर यूरोपीय वैज्ञानिकों के लिये सौरमण्डल
की अनेक व्यवस्थाओं की सटीक व्याख्या करना सम्भव हो गया। रात और दिन के परिवर्तन की
निरंतरता के इन अविष्कारों के बाद यह समझा जाने लगा कि सूरज यथावत है और धरती की तरह
अपनी धुरी पर परिक्रमा नहीं करता। मुझे याद है कि मेरे स्कूल के दिनों में भूगोल की
कई किताबों में इसी ग़लतफ़हमी का प्रचार किया गया था। अब ज़रा पवित्र क़ुरआन की निम्न
आयतों को ध्यान से देखें: ”और वह अल्लाह ही है, जिसने रात और दिन की रचना की और सूर्य और चांद को उत्पन्न किया,, सब एक. एक फ़लक (आकाश ) में
तैर रहे हैं।“( अल-क़ुरआन: सूर: 21 आयत 33
)
ध्यान दीजिए कि उपरोक्त आयत में अरबी शब्द ‘‘यस्बहून‘‘ प्रयुक्त किया गया है जो सब्हा से उत्पन्न है जिसके साथ
एक ऐसी हरकत की वैचारिक संकल्पना जुडी़ हुई है जो किसी शरीर की सक्रियता से उत्पन्न
हुई हो। अगर आप धरती पर किसी व्यक्ति के लिये इस शब्द का उपयोग करेंगे तो इसका अर्थ
यह नहीं होगा कि वह लुढक रहा है बल्कि इसका आशय होगा कि अमुक व्यक्ति दौड़ रहा है अथवा
चल रहा है अगर यह शब्द पानी में किसी व्यक्ति के लिये उपयोग किया जाए तो इसका अर्थ
यह नहीं होगा कि वह पानी पर तैर रहा है बल्कि इसका अर्थ होगा कि ,,अमुक व्यक्ति
पानी में तैराकी: Swimming कर रहा है। इस प्रकार जब इस शब्द,, ’यसबह’ का किसी आकाशीय शरीर (नक्षत्र) सूर्य के लिये उपयोग करेंगे तो इसका अर्थ केवल यही
नहीं होगा कि वह शरीर अंतरिक्ष में गतिशील है बल्कि इसका वास्तविक अर्थ कोई ऐसा साकार
शरीर होगा जो अंतरिक्ष में गति करने के साथ साथ अपने धु्रव पर भी घूम रहा हो। आज स्कूली
पाठयक्रमों में अपनी जानकारी ठीक करते हुए यह वास्तविक्ता शामिल कर ली गई है कि सूर्य
की ध्रुवीकृत परिक्रमा की जांच किसी ऐसे यंत्र से की जानी चाहिये जो सूर्य की परछाई
को फैला कर दिखा सके इसी प्रकार अंधेपन के ख़तरे से दो चार हुए बिना सूर्य की परछाई
का शोध सम्भव नहीं। यह देखा गया है कि सूर्य के धरातल पर धब्बे हैं जो अपना एक चक्कर
लगभग 25 दिन में पूरा कर लेते है । मतलब यह की सूर्य को अपने ध्रुव के चारों ओर एक
चक्कर पूरा करने में लगभग 25 दिन लग जाते है। इसके अलावा सूर्य अपनी कुल गति 240 किलो
मीटर प्रति सेकेण्ड की रफ़तार से अंतिरक्ष की यात्रा कर रहा है। इस प्रकार सूरज समान
गति से हमारे देशज मार्ग आकाशगंगा की परिक्रमा बीस करोड़ वर्ष में पूरी करता है।
न सूर्य के बस में है कि वह चांद को जाकर पकड़े और न ‘रात,‘‘, ‘दिन पर वर्चस्व ले जा सकती है ,, यह सब एक एक आकाश में तैर रहे हैं।,,(अल-क़ुरआन: सूर: 36 आयत 40 )
यह पवित्र आयत एक ऐसे आधारभूत यथार्थ की तरफ़ इशारा
करती है जिसे आधुनिक अंतरिक्ष विज्ञान ने बीती सदियों में खोज निकाला है यानि चांद और सूरज की मौलिक
‘‘परिक्रमा orbits का अस्तित्व
अंतिरक्ष में सक्रिय यात्रा करते रहना है।
‘वह निश्चित
स्थल fixed place जिसकी ओर सूरज
अपनी सम्पूर्ण मण्डलीय व्यवस्था सहित यात्रा पर है। आधुनिक अंतरिक्ष विज्ञान द्वारा
सही-सही पहचान ली गई है।
इसे सौर ,कथा solar epics का नाम दिया गया है। पूरी सौर व्यवस्था वास्तव में अंतरिक्ष के उस स्थल की ओर गतिशील
है जो हरक्यूलिस नामक ग्रह Elphalerie area में अवस्थित है और उसका वास्तविक स्थल हमें ज्ञात
हो चुका है।
चांद अपनी धुरी पर उतनी ही अवधि में अपना चक्कर
पूरा करता जितने समय में वह धरती की एक परिक्रमा पूरी करता है। चांद को अपनी
एक ध्रुवीय परिक्रमा पूरी करने में 29.5 दिन लग जाते हैं । पवित्र क़ुरआन की आयत में
वैज्ञानिक वास्तविकताओं की पुष्टि पर आश्चर्य किये बिना कोई चारा नहीं है। क्या हमारे
विवेक में यह सवाल नहीं उठता कि आखिर ‘‘क़ुरआन में प्रस्तुत ज्ञान का स्रोत और ज्ञान
का वास्तविक आधार क्या है?‘‘
सूरज बुझ जाएगा
सूरज का प्रकाश एक रसायनिक क्रिया का मुहताज है
जो उसके धरातल पर विगत पांच अरब वर्षों से जारी है भविष्य में किसी अवसर पर यह कृत
रूक जाएगा और तब सूरज पूर्णतया बुझ जाएगा जिसके कारण धरती पर जीवन की समाप्ति हो जाए पवित्र क़ुरआन सूरज
के अस्तित्व की पुष्टि इस प्रकार करता है:
‘‘और सूरज वह अपने ठिकाने की
तरफ़ चला जा रहा है यह ब्रहम्ज्ञान के स्रोत महाज्ञानी का बांधा हुआ गणित है‘‘(अल-क़ुरआन: सुर: 36 आयत 38) विशेष: इसी प्रकार की बातें पवित्र क़ुरआन के सूर:
13 आयत 2,,सूर: 35, आयत 13 सूर: 39 आयत 5 एवं 21 में भी बताई गई हैं, यहां अरबी शब्द‘‘ मुस्तकिर: ठिकाना का प्रयुक्त हुआ है जिस का अर्थ
है पूर्व से संस्थापित ‘समय‘ या ‘स्थल‘ यानी इस आयत
में अल्लाह ताला कहता है कि सूरज पूर्वतः निश्चित स्थ्ल की ओर जा रहा है ऐसा पूर्व
निश्चित समय के अनुसार ही करेगा अर्थात् यह कि सूरज भी समाप्त हो जाएगा या बुझ जाएगा।
अन्तर तारकीय द्रव
पिछले ज़माने में संगठित अंतरिक्ष व्यवस्थओं से
बाहर वाहृय अंतरिक्ष: वायुमण्डल को सम्पूर्ण रूप से ‘ख़ाली: vacuum माना जाता था इसके बाद अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने
इस अंतरिक्ष्य प्लाविक के द्रव्यात्मक पुलों (bridge) की खोज की जिसे प्लाविक plasma कहा जाता है
जो सम्पूर्ण रूप से लोनाइज़्ड गैस lionized-gas पर आधारित होते हैं और जिसमें सकारात्मक
प्रभाव वाले,,
अकेले:loni और स्वतंन्न
इलैक्ट्रनों की समान संख्या होती है। द्रव की तीन जानी पहचानी अवस्थाओं यानी ठोस ,तरल और ज्वलनशील तत्वों के अतिरिक्त
प्लाविक को चौथी अवस्था भी कहा जाता है निम्नलिखित आयत में पवित्र क़ुरआन अंतरिक्ष
के प्लाविक द्रव या अन्त: इस्पात द्रव्य:intra steels material की ओर संकेत करता है ।
‘‘वह जिस ने छह दिनों में ज़मीन
और आसमानों और उन सारी वस्तुओं का निर्माण पूरा कर दिया जो आसमान और ज़मीन के बीच में हैं। (अल-क़ुरआन, सूर: 25 आयत 59)
किसी के लिये यह विचार भी हास्यास्पद होगा कि वायुमण्डल
अंतरिक्ष एवं आकाशगंगा के द्रव्यों का अस्तित्व 1400 वर्ष पहले से ही हमारे ज्ञान में था।
सृष्टि का फैलाव
1925 ई0 में अमरीका
के अंतरिक्ष वैज्ञानिक एडोन हबल adone hubble ने इस संदर्भ में एक प्रामाणिक खोज उपलब्ध कराया था
कि सभी आकाशगंगा एक दूसरे से दूर हट रहे हैं अर्थात सृष्टि फैल रही है सृष्टि व्यापक
हो रही है। यह एक वैज्ञानिक यथार्थ है इस बारे में पवित्र क़ुरआन में सृष्टि की संरचना
के संदर्भ से अल्लाह फ़रमाता है: ‘‘आसमान को हम ने अपने ज़ोर से बनाया है और हम इसकी कुदरत: प्रभुत्व
रखे है (या इसे फैलाव
दे रहे हैं) (अल-क़ुरआन: सूर: 51 आयत 47 )
अरबी शब्द वासिऊन का सही अनुवाद इसे फैला रहे हैं
बनता है तो यह आयत सृष्टि के ऐसे निर्माण की ओर संकेत करती है जिसका फैलाव
निरंतर जारी है ।
वर्तमान युग का प्रसिद्ध अंतरिक्ष वैज्ञानिक स्टीफ़न
हॉकिगं अपने शोधपत्र: समय का संक्षिप्त इतिहास: a brief history of time
में लिखता
हैः यह ‘‘खोज ! कि सृष्टि
फैल रही है बीसवी सदी के महान बौद्धिक और चिंतन क्रांतियों में से एक है,, अब ध्यान दीजिये
कि पवित्र क़ुरआन नें सृष्टि के फैलाव की कथा उसी समय बता दी थी जब मनुष्य ने दूरबीन
तक का अविष्कार नहीं किया था। इसके बावजूद संदिग्ध विवेक रखने वाले कुछ लोग, यह कह सकते
हैं कि पवित्र क़ुरआन में आंतरिक्ष यथार्थ का मौजूद होना आश्चर्य की बात नहीं क्योंकि
अरबवासी इस ज्ञान के प्रारम्भिक विशेषज्ञ थे।
अंतरिक्ष विज्ञान में अरबों के प्राधिकरण की सीमा
तक तो उनका विचार ठीक है लेकिन इस बिंदु को समझने में वे नाकाम हो चुके हैं कि अंतरिक्ष विज्ञान में अरबों
के उत्थान से भी सदियों पहले ही पवित्र क़ुरआन का अवतरण हो चुका था इसके अतिरिक्त ऊपर
वर्णित बहुत से वैज्ञानिक यथार्थ जैसे बिग बैंग से सृष्टि के प्रारम्भन आदि की जानकारी
से तो अरब उस समय भी अनभिज्ञ ही थे जब वह विज्ञान और तकनीक के विकास और उन्नति की सर्वोत्तम
ऊंचाई पर थे अत: पवित्र क़ुरआन में वर्णित वैज्ञानिक यथार्थ को अरबवासियों की विशेषज्ञता
नहीं मान जा सकता। दरअस्ल इसके प्रतिकूल सच्चाई यह है कि अरबों ने अंतरिक्ष विज्ञान
में इसलिये उन्नति की क्योंकि अंतरिक्ष और सृष्टि के निर्माण विषयक जानकारियां पवित्र
क़ुरआन में आसानी से उप्लब्ध हो गए थे। इस विषय को पवित्र क़ुरआन में महत्वपूर्ण स्थान
प्रदान किया गया है।
प्राकृतिक-विज्ञान/ Natural Science
परमाणु भी विभाजित किये जा सकते हैं प्राचीन काल में परमाणुवाद: atomism के दृष्टिकोण शीर्षक से एक सिद्ध दृष्टिकोण को व्यापक धरातल पर स्वीकर किया जाता
था यह दृष्टिकोण आज से 2300 वर्ष पहले यूनानी दर्शनशास्न्नी विमाक्रातिस vimacratis ने पेश किया
था विमाक्रातिस और उसके वैचारिक अनुयायी की संकल्पना थी कि, द्रव्य की
न्यूनतम इकाई परमाणु है प्राचीन अरब वासी भी इसी संकल्पना के समर्थक थे। अरबी शब्द, ‘‘ज़र्रा: अणु
का
मतलब वही था
जिसे यूनानी ‘ऐटम‘ कहते थे। निकटतम इतिहास में विज्ञान ने यह खोज की है कि ‘,परमाणु‘‘ को भी विभाजित
करना सम्भव है,
परमाणु के
विभाजन योग्य होने की कल्पना भी बीसवीं सदी की वैज्ञानिक सक्रियता में शामिल है। चौदह
शताब्दि पहले अरबों के लिये भी यह कल्पना असाधारण होती। उनके समक्ष ज़र्रा अथवा ‘अणु‘ की ऐसी सीमा
थी जिसके आगे और विभाजन सम्भव नहीं था लेकिन पवित्र क़ुरआन की निम्नलिखित आयत में अल्लाह
ने परमाणु सीमा को अंतिम सीमा मानने से इन्कार कर दिया है।
मुनकरीन ( विरोधी ) कहते हैं: क्या बात है कि क़यामत हम पर नहीं
आ रही हैं? कहो! क़सम है मेरे अंतर्यामी
परवरदिगार (परमात्मा) की वह तुम पर आकर रहेगी उस से अणु से बराबर कोई वस्तु न तो आसमानों
में छुपी हुई है न धरती पर: न अणु से बड़ी और न उस से छोटी ! यह सबकुछ एक सदृश दफ़तर
में दर्ज है। (अल-कु़रआन: सूर: 34 आयत 3)
विशेष: इस प्रकार का संदेश पवित्र क़ुरआन की सूर:
10 आयत 61 में भी वर्णित है। यह पवित्र आयत हमें अल्लाह तआला के आलिमुल गै़ब
अंतर्यामी होने यानि प्रत्येक अदृश्य और सदृश्य वस्तु के संदर्भ से महाज्ञानी
होने के बारे में बताती है फिर यह आगे बढ़ती है और कहती है कि अल्लाह तआला हर चीज़
का ज्ञान रखते हैं चाहे वह परमाणु से छोटी या बड़ी वस्तु ही क्यों न हो। तो प्रमाणित
हुआ कि यह पवित्र आयत स्पष्ट रूप से रेखांकित करती है कि, परमाणु से
संक्षिप्त वस्तु भी अस्तित्व में है और यह एक ऐसा यथार्थ है जिसे अभी हाल ही में आधुनिक
वैज्ञानिकों ने सिद्ध किया है।
जल विज्ञान / Hydrology /जल चक्र
आज हम जिस संकल्पना को ‘जल- चक्र:water cycle नाम से जानते हैं उसकी संस्थापना: 1580 ई0 में बरनॉर्ड प्लेसी bemard placy ने की थी। उसने
बताया-किस प्रकार समुद्रों से जल का वाष्पीकरण evaporation होता है, और तत्पश्चात
किस प्रकार वह ठंडा होकर बादलों के रूप में परिवर्तित होता है फिर उसके बाद, शुष्क खुश्क
वातावरण में आगे की ओर उड़ते हुए ऊंचाई की तरफ़ बढ़ता है उसमें जल का ‘‘संघनन: condensation होता है और वर्षा होती है। उसी वर्षा
का पानी झीलों,
झरनों, नदियों और
नहरों में अपना आकार लेता है और अपनी गति से बहता हुआ वापिस समुद्र में चला जाता है इसी प्रकार यह जल-चक्र जारी रहता
है सातवीं सदी ईसा पूर्व में थैल्ज thelchz नामक एक यूनानी दार्शनिक को विश्वास था कि सामुद्रिक
धरातल पर एक बारीक जल-बूंदों की फुहार spray उत्पन्न होती है जिसे हवा उठा लेती है और ख़ुश्की
के दूर दराज़ क्षेत्रों तक ले जाकर वर्षा के रूप में छोड़ देती है, जिसे बारिश
कहते हैं इसके अलावा पुराने समये में लोग यह भी नहीं जानते थे कि ज़मीन के नीचे पानी
का स्रोत क्या है? उनका विचार था कि वायु शक्ति के अंतर्गत समंदर का पानी उपमहाद्वीप (सूखी धरती )
में भीतरी भागों में समा जाता है उनका विश्वास था कि पानी एक गुप्त मार्ग से अथवा गहरे-अंधेरे
greet abyss से आता है।
समुद्र से मिला हुआ या काल्पनिक मार्ग प्लेटो-.काल से ‘‘टॉरटॉरस, कहलाता था
यहां तक कि अटठारहवीं सदी के महान चिंतक‘ डिकारते descartres भी इन्ही विचारों से सहमति व्यक्त
की है।
उन्नीसवीं सदी ईसवी तक ‘अरस्तू Aristotle का दृष्टिकोण ही अधिक प्रचलित रहा। उसदृष्टिकोण
के अनुसार,
पहाड़ों की
बर्फीली गुफा़ओं में बर्फ़ के संघनन से पानी उत्पन्न होता है इस प्रक्रिया को condensation (रिस्ते हुए
पानी का भंडारण) कहते हैं, जिससे वहां ज़मीन के नीचे झीलें बनती है और जो पानी का मुख्य स्रोत (चश्मः ) हैं।
आज हमें यह मालूम हो चुका है कि बारिश का पानी ज़मीन पर मौजूददरारों के रास्ते बह..बह
कर ज़मीन के नीचे पहुंचता है और चश्म: जलकुण्ड की उत्त्पत्ति होती है। पवित्र क़ुरआन
में इस बिंदु की व्याख्या इस प्रकार है:
क्या तुम नहीं देखते कि अल्लाह ने आसमान से पानी बरसाया फिर
उसको स्रोतों चश्मों और दरियाओं के रूप में ज़मीन के अंदर जारी
किया फिर उस पानी के माध्यम से वह नाना प्रकार की खेतियां (कृषि ) उत्पन्न करता है
जो विभिन्न प्रजाति के है‘‘ ।(अल-क़ुरआन सूर: 39 आयत 21 )
‘‘आसमान से पानी बरसाता है
फिर उसके माध्यम से धरती को उसकी ‘मृत्यु‘(बंजर होने) के बाद जीवन प्रदान
करता है । यक़ीनन उसमें बहुत सी निशानियां हैं उन लोगों के लिये जो विवेक से काम लेते
हैं । (अल-क़ुरआन: सूर 30 आयत 24)
‘‘और आसमान से हम ने ठीक गणित
के अनुकूल एक विशेष मात्रा में पानी उतारा और उसको धरती पर ठहरा दिया हम उसे जिस प्रकार चाहें विलीन (ग़ायब)
कर सकते हैं। (अल-क़ुरआन: सूर:23 आयत ...18)
कोई दूसरा ग्रन्थ जो 1400 वर्ष पुराना हो पानी के
जलचक्र की ऐसी सटीक व्याख्या नहीं करता । ‘वाष्पीकरण: evaporation ‘‘,कसम है‘ वर्षा‘‘ ,,बरसाने वाले आसमान की‘‘ । ( अल-क़ुरआन: सूर: 86 आयत 11 )
वायु द्वारा बादलों का गर्भाधान: Impregnate ‘‘,और हम ही हवाओं
को लाभदायक बनाकर चलाते हैं फिर आसमान से पानी बरसाते औरतुमको उससे तृप्त: सैराब करते हैं‘‘ ।
यहां अरबी शब्द ,लवाक़िह, का उपयोग किया गया है जो ,लाक़िह, का बहुवचन है और लाक़िहा का विशेषण है अर्थात, ‘‘बार -आवर यानी
‘भर देना‘ अथवा गर्भाधान।
इसी वाक्यांश में ‘बार-आवर का तात्पर्य यह कि वायु बादलों को एक दूसरे के समीप ढकेलती हैं जिसके कारण
बादल के पानी में परिवर्तित होने की क्रिया गतिशील होती है, उक्त गतिशीलता
के नतीजे में बिजली चमकने और बारिश होने की घटना क्रिया होती है। कुछ इसी प्रकार के
स्पष्टीकरण पवित्र क़ुरआन की अन्य आयतों में भी मिलते हैं: ‘‘क्या तुम देखते नहीं कि अल्लाह बादल को -धीरे ..धीरे चलाता है, और फिर उसके टुकड़ों को आपस में जोड़ता
है। फिर उसे समेट कर एक भारी अब्र (मेघ )बना देता है,फिर तुम देखते हो कि उसके ख़ोल (ग़िलाफ़ ) में से वर्षा की बूंदें
टपकती चली आती हैं और वह आसमान से: उन पहाडों की बदौलत जो उसमें ऊंचे हैं: ओले बरसाता
है ,,फिर जिसे चाहता है उससे नुक़सान पहुंचाता है और जिसे चाहता है
उनसे बचा लेता है उसकी बिजली की चमक निगाहों को आश्चर्य से भर देती है। (अल-क़ुरआन: सूर: 24 आयत ..43)
‘‘अल्लाह ही है जो हवाओं को
भेजता है और वह बादल उठाती हैं फिर वह उन बादलों कोआसमान में फैलाता है जिस तरह चाहता
है और उन्हें टुकडों में विभाजित कर देता है, फिर तुम देखते हो कि बारिश
की बूंदें बादल में से टपकती चली आती हैं। यह बारिश जब वह अपने बन्दों में से जिस पर
चाहता है। बरसाता है तो अकस्मात वे प्रसन्न चित्त हो जाते हैं,, (अल-कुरआन: सूर 30,, आयत .48)
पवित्र क़ुरआन में वर्णित ऊपर चर्चित व्याख्या जल
विज्ञान hydrology पर उप्लब्ध नवीन अध्ययन की भी पुष्टि करते हैं।
महान ग्रंथ पवित्र क़ुरआन की विभिन्न आयतों में जल चक्र का वर्णन किया गया है,, उदाहरणतया:
सूर: 7 आयत ..57 सूर: 13 आयत 17 ,, सूर: 25 आयत.. 48 से 49,,
सूर 35 आयत ..9 सूर 3ः आयत. 34 सूर 45 आयत:.5..
सूरे: 50 आयत 9 से 11,, सूरः 56 आयत ..68 से 70 और सूर: 67 आयत ..30
,।
भू-विज्ञान / Earth science
तंबुओं के खूंटों की प्रकार, पहाड़ भू-विज्ञान में.. ‘बल पड़ने, folding की सूचना नवीनतम शोध का यथार्थ है। पृथ्वी के ‘पटल crust में बल पड़ने
के कारणों से ही पर्वतों का जन्म हुआ। पृथ्वी की जिस सतह पर हम रहते हैं किसी ठोस छिलके
या पपड़ी की तरह है, जब कि पृथ्वी की भीतरी परतें layer बहुत गर्म और गीली हैं यही कारण है कि धरती का
भीतरी भाग सभी प्रकार के जीव के लिये उपयुक्त नहीं है। आज हमें यह मालूम हो चुका है
कि पहाड़ों की उत्थापना के अस्थायित्व stability का सम्बंध पृथ्वी की परतों में बल
(दरार) पड़ने की क्रिया से बहुत गहरा है क्योंकि यह पृथ्वी के पटल पर पड़ने वाले ‘‘बल flods ही हैं जिन्होंने
ज़न्ज़ीरों की तरह पहाड़ों को जकड़ रखा है। भू विज्ञान विशेषज्ञों के अनुसार पृथ्वी
की अर्द्धव्यासः radius की आधी मोटाई यानि 6.035 किलो मीटर है और पृथ्वी के धरातल जिसपर हम रहते हैं उसके
मुक़ाबले में बहुत ही पतली है जिसकी मोटाई 2 किलो मीटर से लेकर 35 किलो मीटर तक है
इसलिये इसके थरथराने या हिलने की सम्भावना भी बहुत असीम है ऐसे में पहाड़ किसी तंबू
के खूंटों की तरह काम करते हैं जो पृथ्वी के धरातल को थाम लेते हैं और उसे अपने स्थल
पर अस्थायित्व प्रदान करते हैं। पवित्र क़ुरआन भी यही कहता है: क्या यह घटना (वाक़िया) नहीं
है कि हम ने पृथ्वी को फ़र्श बनाया और पहाड़ों को खूंटों की तरह गाड़ दिया (अल-क़ुरआन: सूर 78 आयत ..6से 7)
यहां अरबी शब्द ‘‘औताद‘‘ का ‘अर्थ‘ भी खूंटा ही निकलता है वैसे ही खूंटे जैसा कि तंबुओं को बांधे रखने के लिये
लगाए जाते हैं पृथ्वी के दरारों folds या सलवटों की हुई बुनियादें भी यहीं गहरे छुपी हैं। earth नामक अंग्रेजी़
किताब विश्व के अनेक विश्व विद्यालयों में भू-विज्ञान के बुनियादी उदाहरणों पर आधारित
पाठयक्रम की पुस्तक है इसके लेखकों में एक नाम डा. फ्रेंकप्रेस का भी है, जो 12 वर्षा
तक अमरीका के विज्ञान-अकादमी के निदेशक रहे जबकि पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति जिमीकार्टर
के शासन काल में राष्ट्रपति के वैज्ञानिक सलाहकार भी थे इस किताब में वह पहाडों की
व्याख्या:कुल्हाड़ी के फल जैसे स्वरूप wedge-shape से करते हुए बताते हैं कि पहाड़ स्वयं
एक व्यापकतम अस्तित्व का एक छोटा हिस्सा होता है जिसकी जड़ें पृथ्वी में बहुत गहराई
तक उतरी होती हैं। संदर्भ ग्रंथ:earth फ्रेंकप्रेस और सिल्वर पृष्ट 435 ,, earth science टॉरबुक और लिटकन्ज पृष्ट 157
ड़ॉ॰ फ्रेंकप्रेस के अनुसार पृथ्वी-पटल की मज़बूती
और उत्थापना के अस्थायित्व में पहाड़ बहुत महत्पूर्ण भूमिका निभाते है।
पर्वतीय कार्यों की व्याख्या करते हुए पवित्र क़ुरआन
स्पष्ट शब्दों में बताता है कि उन्हें इसलिये बनाया गया है ताकि यह पृथ्वी को कम्पन
से सुरक्षित रखें। ‘‘और हम ने पृथ्वी में पहाड़
जमा दिये ताकि वह उन्हे लेकर ढ़ुलक न जाए‘‘ । (अल..क़ुरआन: सूर: 21 आयात.. 31)
इसी प्रकार का वर्णन सूर 31: आयत. 10 और सूर: 16
.. आयत 15 में भी अवतरित हुए हैं अतः पवित्र क़ुरआन के उप्लब्ध बयानों में आधुनिक
भू विज्ञान की जानकारियां पहले से ही मौजूद हैं।
पहाड़ों को मज़बूती से जमा दिया गया है
पृथ्वी की सतह अनगिनत ठोस टुकडों यानि ‘प्लेटा‘ में टूटी हुई है जिनकी औसतन मोटाई तकरीबन 100 किलो मीटर है। यह
प्लेटें आंशिक रूप से पिंघले हुए हिस्से पर मानो तैर रही हैं। उक्त हिस्से को उद्दीपक
गोले aestheno sphere कहा जाता है।
पहाड़ साधारणतया प्लेटों के बाहरी सीमा पर पाए जाते है। पृथ्वी का धरातल समुद्रों के
नीचे 5 किलो मीटर मोटा होता है जबकि सूखी धरती से सम्बद्ध प्लेट की औसत मोटाई 35 किलो
मीटर तक होती है। अलबत्ता पर्वतीय श्रृंख्लाओं में पृथ्वी के धरातल की मोटाई 80 किलो
मीटर तक जा पहुंचती है, यही वह मज़बूत बुनियादें है जिनपर पहाड़ खड़े है। पहाड़ों की मज़बूत बुनियादों
के विषय में पवित्र क़ुरआन ने कुछ यूं बयान किया है ‘‘और पहाड़ इसमें उत्थापित किये
( गाड़ दिये )। (अल.क़ुरआन: सूर: 79 आयत ..32 )
इसी प्रकार का संदेश सूरः 88 आयत .19 में भी दिया
गया है ।
अतः प्रमाणित हुआ कि पवित्र क़ुरआन में पहाड़ों
के आकार. प्रकार और उसकी उत्थापना के विषय में दी गई जानकारी पूरी तरह आधुनिक काल
के भू वैज्ञानिक खोज और अनुसंधानों के अनुकूल है।
समुद्र विज्ञान / Oceanography
मीठे और खारे पानी के बीच ‘आड़‘ ‘‘दो समंदरों को उसने छोड़
दिया कि परस्पर मिल जाएं फिर भी उनके बीच एक पर्दा (दीवार ) है। जिसका वह उल्लंघन नहीं
करते‘‘ ।,,(अल-क़ुरआन: सूर 55 आयत ..19 से 20 )
आप देख सकते हैं कि इन आयतों के अरबी वाक्यांशों में शब्द ‘बरज़ख‘ प्रयुक्त हुआ है जिसका अर्थ रूकावट या दीवार है
यानि partition इसी क्रम में
एक अन्य अरबी शब्द ‘मरज‘ भी आया हैः
जिसका अर्थ हैः ‘वह दोनों परस्पर मिलते और समाहित होते हैं‘। प्रारम्भिक काल में पवित्र क़ुरआन के भाष्यकारों
के लिये यह व्याख्या करना बहुत कठिन था कि पानी के दो भिन्न देह से सम्बंधित दो विपरीतार्थक
आशयों का तात्पर्य क्या है ? अर्थात यह दो प्रकार के जल हैं जो आपस में मिलते भी हैं और उनके बीच दीवार भी है।
आधुनिक विज्ञान ने यह खोज कर ली है कि जहां-जहां दो भिन्न समुद्र oceans आपस में मिलते
है वहीं वहीं उनके बीच ‘‘दीवार‘
भी होती है।
दो समुद्रों को विभाजित करने वाली दीवार यह है कि उनमें से एक समुद्र की लवणता:salinity जल यानि तापमान
और रसायनिक अस्तित्व एक दूसरे से भिन्न होते हैं । (संदर्भ: principles of oceanography devise पृष्ठ
.92-93)
आज समुद्र विज्ञान के विशेषज्ञ ऊपर वर्णित पवित्र
आयतों की बेहतर व्याख्या कर सकते हैं। दो समुद्रो के बीच जल का अस्तित्व (प्राकृतिक
गुणों के कारण ) स्थापित होता
है जिससे गुज़र कर एक समंदर का पानी दूसरे समंदर में प्रवेश करता है तो वह अपनी मौलिक विशेषता खो देता
है, और दूसरे जल
के साथ समांगतात्मक मिश्रण: Homogenous Mixture बना लेता है। यानि एक तरह से यह रूकावट किसी अंतरिम
सममिश्रण क्षेत्र का काम करती है। जो दोनों समुद्रों के बीच स्थित होती है। इस बिंदु
पर पवित्र क़ुरआन में भी बात की गई है:
‘‘और वह कौन है जिसने पृथ्वी
को ठिकाना बनाया और उसके अंदर नदियां जारी कीं और उसमें (पहाडों की) खूंटियां उत्थापित कीं ‘‘और पानी के दो भण्डारों के बीच पर्दे बना दिये? क्या अल्लाह के साथ कोई और ख़ुदा भी ( इन कार्यों में शामिल
) है ? नहीं, बल्कि उनमें से अकसर लोग
नादान हैं‘(अल-क़ुरआन .सूर: 27 ..आयात ..61 )
यह स्थिति असंख्य स्थलों पर घटित होती है जिनमें
Gibralter के क्षेत्र में रोम-सागर और अटलांटिक महासागर का
मिलन स्थल विशेष रूप से चर्चा के योग्य है। इसी तरह दक्षिण अफ़्रीका में,‘‘अंतरीप-स्थल
cape point और‘ अंतरीप प्रायद्वीप‘‘cape peninsula में भी पानी
के बीच, एक उजली पटटी
स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है जहां एक दूसरे से अटलांटिक महासागर और हिंद महासागर
का मिलाप होता है। लेकिन जब पवित्र क़ुरआन ताज़ा और खारे पानी के मध्य दीवार या रूकावट
की चर्चा करता है तो साथ-.साथ एक वर्जित क्षेत्र के बारे में भी बताता है:
”और वही जिसने दो समुद्रों को मिला कर रखा है एक
स्वादिष्ट और मीठा दूसरा कड़वा और नमकीन, और उन दोनों के बीच एक पर्दा है, एक रूकावट जो उन्हें मिश्रित होने से रोके हुए है‘‘। (अल-क़ुरआन सूर: 25 आयत.53)
आधुनिक विज्ञान ने खोज कर ली है कि साहिल के निकटस्थ
समुद्री स्थलों पर जहां दरिया का ताजा़ मीठा और समुद्र का नमकीन पानी परस्पर मिलते हैं वहां का वातावरण
कदाचित भिन्न होता हैं जहां दो समुद्रों के नमकीन पानी आपस में मिलते हैं। यह खोज हो
चुकी है कि खाड़ियों के मुहाने या नदमुख:estuaries में जो वस्तु ताजा़ पानी को खारे
पानी से अलग करती है वह घनत्व उन्मुख क्षेत्रः Pcynocline zoneहै जिसकी बढ़ती
घटती रसायनिक प्रक्रिया मीठे और खारे पानी के विभिन्न परतों layers को एक दूसरे
से अलग रखती है। ( संदर्भः oceanography
ग्रूस: पृष्ठ 242 और Introductory oceanography थरमनः पुष्ठ 300 से 301 )
रूकावट के इस पृथक क्षेत्र के पानी में नमक का अनुपात
ताज़ा पानी और खारे पानी दोनों से ही भिन्न होता है , ( संदर्भ: oceanography ,ग्रूसः पृष्ठ 244
और Introductry oceanography ‘‘थरमन: पुष्ठ 300 से 301)
इस प्रसंग का अध्ययन कई असंख्य स्थलों पर किया गया
है, जिसमें मिस्र म्हलचज की खा़स चर्चा है जहां दरियाए नील, रोम सागर में
गिरता है। पवित्र क़ुरआन में वर्णित इन वैज्ञानिक प्रसंगों की पुष्टि ‘डॉ. विलियम एच‘ ने भी की है
जो अमरीका के कोलवाडोर यूनीवर्सिटी में समुद्र-विज्ञान और भू-विज्ञान के प्रोफे़सर
हैं।
समुद्र की गहराइयों में अंधेरा
समुद्र-विज्ञान और भू-विज्ञान के जाने माने विशेषज्ञ
प्रोफेसर दुर्गा राव जद्दा स्थित शाह अब्दुल अजी़ज़ यूनिवर्सिटी, सऊदी अरब में प्रोफ़ेसर रह चुके हैं। एक बार उन्हें निम्नलिखित पवित्र आयत की समीक्षा
के लिये कहा गया:
‘‘या फिर उसका उदाहरण ऐसा है
जैसे एक गहरे समुद्र में अंधेरे के ऊपर एक मौज छाई हुई है, उसके ऊपर एक और मौज और उसके ऊपर बादल अंधकार पर अंधकार छाया
हुआ है, आदमी अपना हाथ निकाले तो
उसे भी न देखने पाए। अल्लाह जिसे नूर न बख्शे उसके लिये फिर कोई नूर नहीं। ‘‘(अल-क़ुरआन: सूर 24 आयत ..40
)
प्रोफे़सर राव ने कहा – वैज्ञानिक अभी हाल में ही आधुनिक यंत्रों की सहायता
से यह पुष्टि
करने के योग्य हुए हैं कि समुद्र की गहराईयों में अंधकार होता है। यह मनुष्य के बस
से बाहर है कि वह 20 या 30 मीटर से ज़्यादा गहराई में अतिरिक्त यंत्र्रों और समानों
से लैस हुए बिना डुबकी लगा सके इसके अतिरिक्त, मानव शरीर में इतनी सहन शक्ति नहीं है कि जो 200
मीटर से अधिक गहराई में पडने वाले पानी के दबाव का सामना करते हुए जीवित भी रह सके।
यह पवित्र आयत तमाम समुद्रों की तरफ़ इशारा नहीं करती क्योंकि हर समुद्र को परत दर
परत अंधकार,
का साझीदार
करार नहीं दिया जा सकता अलबत्ता यह पवित्र आयत विशेष रूप से गहरे समुद्रों की ओर आकर्षित
करती है क्योंकि पवित्र क़ुरआन की इस आयत में भी ‘‘विशाल और गहरे समुद्र के अंधकार ‘का उदाहरण दिया गया है गहरे समुद्र
का यह तह दर तह अंधकार दो कारणों का परिणाम है।
प्रथम: आम रौशनी की एक किरण सात रंगों से मिल कर
बनती है। यह सात रंग क्रमशःबैंगनी, नीला, आसमानी, हरा, पीला, नारंजी, लाल (Vigor) ,है। रौशनी की किरणें जब जल में प्रवेश करती हैं
तो प्रतिछायांकन की क्रिया से गुज़रती हैं ऊपर से नीचे की तरफ़ 10 से 15 मीटर के बीच
जल में लाल रंग आत्मसात हो जाता है। इस लिये अगर कोई गो़ताखोर पानी में पच्चीस मीटर
की गहराई तक जा पहुंचे और ज़ख़्मी हो जाए तो वह अपने खू़न में लाली नहीं देख पाएगा, क्योंकि लाल
रंग की रौशनी उतनी गहराई तक नहीं पहुंच सकती। इसी प्रकार 30 से 50 मीटर तक की गहराई
आते-आते नीली रौशनी भी पूरे तौर पर आत्मसात हो जाती है, आसमानी रौशनी
50 से 110 मीटर तक हरी रौशनी 100 से 200 मीटर तक पीली रौशनी 200 मीटर से कुछ ज़्यादा
तक जब कि नारंजी और बैंगनी रोशनी इससे भी कुछ अघिक गहराई तक पहुंचते पहुंचते पूरे तौर
पर विलीन हो जाती है। पानी में रंगों के इस प्रकार क्रमशः विलीन होने के कारण समुद्र
भी परत दर परत अंधेरा करता चला जाता है, यानि अंधेरे का प्रकटीकरण भी रौशनी की परतों (layers) के रूप में
होता है । 1000 मीटर से अधिक की गहराई में पूरा अंधेरा होता है ।(संदर्भ: oceans एल्डर और प्रनिटा पृष्ठ
27 )
द्वितीय: धूप की किरणें बादलों में आत्मसात हो जाती
हैं, जिसके परिणाम स्वरूप रौशनी की किरणें इधर उधर बिखेरती
है। और इसी कारण से बादलों के नीचे अंधेरे की काली परत सी बन जाती है। यह अंधेरे की
पहली परत है। जब रौशनी की किरणें समुद्र के तल से टकराती हैं तो वह समुद्री लहरों की
परत से टकरा कर पलटती हैं और जगमगाने जैसा प्रभाव उत्पन्न करती हैं, अतः यह समुद्री
लहरें जो रौशनी को प्रतिबिंबित करती हैं अंधेरा उत्पन करने का कारण बनती हैं। गै़र
प्रतिबिंबित रौशनी, समुद्र की गहराईयों में समा जाती हैं, इसलिये समुद्र के दो भाग हो गये परत के विशेष
लक्षण प्रकाश और तापमान हैं जब कि अंधेरा समुद्री गहराईयों का अनोखा लक्षण है इसके
अलावा समुद्र के धरातल और या पानी की सतह को एक दूसरे से महत्वपूर्ण बनाने वाली वस्तु
भी लहरें ही हैं। अंदरूनी मौजें समुद्र के गहरे पानी और गहरे जलकुण्ड का घेराव करती
हैं क्योंकि गहरे पानी का वज़न अपने ऊपर (कम गहरे वाले) पानी के मुक़ाबले में ज़्यादा
होता है। अंधेरे का साम्राज्य पानी के भीतरी हिस्से में होता है। इतनी गहराई में जहां
तक मछलियों की नज़र भी नहीं पहुंच सकती जबकि प्रकाश का माध्यम स्वयं मछलियों का शरीर
होता हैं इस बात को पवित्र क़ुरआन बहुत ही तर्कसंगत वाक्यों में बयान करते हुए कहता
हैः
उन अंधेरों
के समान है, जो बहुत गहरे
समुद्र की तह में हों, जिसे ऊपरी सतह
की मौजों ने ढांप
रखा हो ,,दूसरे शब्दों
में, उन लहरों के
ऊपर कई प्रकार की लहरें हैं यानि वह लहरें जो समुद्र की सतह पर पाई जाती हैं। इसी क्रम
में पवित्र आयत का कथन है ‘‘फिर ऊपर से बादल छाये हुए हों, तात्पर्य कि अंधेरे हैं जो ऊपर की ओर परत दर परत
हैं जैसी कि व्याख्या की गई है यह बादल परत दर परत वह रूकावटें हैं जो विभिन्न परतों
पर रौशनी के विभन्न रंगों को आत्मासात करते हुए अंधेरे को व्यापक बनाती चली जाती हैं।
प्रोफ़ेसर दुर्गा राव ने यह कहते हुए अपनी बात पूरी
की ‘‘1400 वर्ष पूर्व कोई साधारण मानव इस बिंदु पर इतने विस्तार
से विचार नहीं कर सकता था इसलिये यह ज्ञान अनिवार्य रूप से किसी विशेष प्राकृतिक माध्यम
से ही आया प्रतीत होता है।
‘‘और वही है जिसने पानी से
एक मानव पैदा किया,
फिर उससे
पीढ़ियां और ससुराल के दो पृथक कुल गोत्र (सिलसिले) चलाए। तेरा रब बड़े ही अधिकारों
वाला है।, (अल-क़ुरआन: सूर:25 आयत ...54)
क्या यह सम्भव था कि चौदह सौ वर्ष पहले कोई भी इंसान
यह अनुमान लगा सके कि हर एक जीव जन्तु पानी से ही अस्तित्व में आई है? इसके अलावा क्या यह सम्भव था कि अरब के रेगिस्तानों से सम्बंध
रखने वाला कोई व्यक्ति ऐसा कोई अनुमान स्थापित कर लेता? वह भी ऐसे
रेगिस्तानों का रहने वाला जहां पानी का हमेशा अभाव रहता हो।
वनस्पति विज्ञान Botany / नर और मादा
पौघे
प्राचीन काल के मानवों को यह ज्ञान नहीं था कि पौधों
में भी जीव जन्तुओं की तरह नर (पुरूष) मादा (महिला) तत्व होते हैं। अलबत्ता आधुनिक वनस्पति विज्ञान यह
बताता है कि पौधे की प्रत्येक प्रजाति में नर एवं मादा लिंग होते हैं। यहां तक कि वह
पौधे जो उभय लिंगी (unisexual) होते हैं उनमें भी नर और मादा की विशिष्टताएं
शामिल होती हैं । ‘‘और ऊपर से पानी बरसाया और फिर
उसके द्वारा अलग õ अलग प्रकार की पैदावार (जोड़ा) निकाला‘‘(अल-क़ुरआन सूर 20: आयत 53
)
फलों में नर और मादा का अंतर
‘‘उसी ने हर प्रकार के फलों
के जोड़े पैदा किये हैं। (अल. क़ुरआन सूर: 20 आयत. 53)
उच्च स्तरीय पौधों: superior plants मे नस्लीय उत्पत्ति
की आखिरी पैदावार और उनके फल:fruits
होते हैं।
फल से पहले फूल बनते हैं जिसमें नर और मादा ,,अंगों organs यानि पुंकेसर:stamens और डिम्ब:ovulesहोते है जब कोई pollen ज़रदाना: पराग
यानि प्रजनक वीर्य कोंपलों से होता हुआ फूल की अवस्था तक पहुंचता है तभी वह फल में
परिवर्तित होने के योग्य होता है यहां तक कि फल पक जाए और नयी नस्ल को जन्म देने वाले
बीज बनने की अवस्था प्राप्त कर ले । इसलिये सारे फल इस बात का प्रमाण हैं कि पौधों
में भी नर और मादा जीव होते हैं । फूल की नस्ल भी वनस्पति है।वनस्पति भी एक जीव है
और इस सच्चाई को पवित्र क़ुरआन बहुत पहले बयान कर चुका है: ‘‘और हर वस्तु के हम ने जोडे़ बनाए हैं शायद कि तुम
इससे सबक़ लो‘‘। (अल.क़ुरआन सूर: 51 आयत 49)
पौधों के कुछ प्रकार अनुत्पादक:Non-fertilized फूलों से भी
फल बन सकते हैं जिन्हें Porthenocarpic
fruit पौरूष.-विहीन
फल कहते हैं। ऐसे फलों मे केले, अनन्नास,
इंजीर, नारंगी, और अंगूर आदि
की कई नस्लें हैं। यद्यपि उन पौधों में प्रजनन-..चरित्र: sexual characteristics
मौजूद होता
है।
प्रत्येक वस्तु को जोडों में बनाया गया है
इस पवित्र आयत में प्रत्येक ‘वनस्पति‘ के जोडों में बनाए जाने की प्रमाणिकता बयान की गई है। मानवीय जीवों पाश्विक
जीवों वानस्पतेय जीवों और फलों के अलावा बहुत सम्भव है कि यह पवित्र आयत उस बिजली की
ओर भी संकेत कर रही हो जिस में नकारात्मक ऊर्जा: negative charge वाले इलेक्ट्रॉनों और सकारात्मक ऊर्जाः
positive वाले केंद्रों
पर आधारित होते हैं इनके अलावा भी अन्य जोड़े हो सकते हैं। ‘‘पाक है वह ज़ात (अल्लाह) जिसने सारे प्राणियों के
जोडे़ पैदा किये चाहे वह धरती के
वनस्पतियों में से हो या स्वयं उनकी अपने जैविकीय नस्ल में से या उन वस्तुओं में से
जिन्हें यह जानते तक नहीं।‘‘(अल-क़ुरआन सूर: 36 आयत 36)
यहां अल्लाह फ़रमाता है कि हर चीज़ जोडों के रूप
में पैदा की गई है जिनमें ऐसी वस्तुएं भी शामिल हैं जिन्हें आज का मानव नहीं
जानता और हो सकता है कि आने वाले कल में उसकी खोज कर ले।
जीव विज्ञान /Zoology
पशुओं और परिंदों का समाजी जीवन: धरती पर चलने
वाले किसी पशु और हवा में परों से उड़ने वाले किसी परिंदे को देख लो यह सब तुम्हारे ही जैसी नस्लें
हैं और हम ने उनका भाग्य लिखने में कोई कसर नहीं छोड़ी हैः फिर यह सब अपने रब की ओर
समेटे जाते हैं। (अल-क़ुरआन सूर: 6 आयत: 38)
शोध से यह भी प्रमाणित हो चुका है कि पशु और परिंदे
भी समुदायों: communities के रूप में
रहते हैं। अर्थात उनमें भी एक सांगठनिक आचार व्यवस्था होती है। वह मिल जुल कर रहते
और काम भी करते हैं।
परिन्दों की उड़ान
‘‘क्या उन लोगों ने कभी परिन्दों
को नहीं देखा कि आकाश मण्डल में किस प्रकार सुरिक्षत रहते हैं अल्लाह के सिवा किसने उनको थाम
रखा है? इसमें बहुत सी निशनियां हैं
उन लोगों के लिये जो ईमान लाते है(अल-क़ुरआन: सूर: 16 आयत 79.)
एक और आयत में परिन्दों पर कुछ इस अंदाज़ से बात
की गई है ‘‘यह लोग अपने
ऊपर उड़ने वाले परिन्दों को पर फैलाते और सुकेड़ते नहीं देखते ?
रहमान् के सिवा कोई नहीं जो उन्हें थामे हुए हो वही प्रत्येक
वस्तु का निगहबान है (अल-क़ुरआन: सूरह:79 आयत 19 )
अरबी शब्द ‘अमसक‘ का‘ शाब्दिक अर्थ‘ हैः किसी के हाथ में हाथ देना रोकना‘ थामना या किसी की कमर पकड़ लेना। उपर्युक्त आयात में
युमसिकुहुन्न‘‘
की अभिव्यक्ति
है कि अल्लाह तआला अपनी प्रकृति और अपनी शक्ति से परिन्दों को हवा में थामे रखता है।
इन पवित्र रब्बानी आयतों में इस सत्य पर जो़र दिया गया है कि परिन्दों की कार्य क्षमता
पूर्णतया उन विधानों पर निर्भर है जिसकी रचना अल्लाह तआला ने की और जिन्हें हम प्राकृतिक
नियमों के नाम से जानते हैं।
आधुनिक विज्ञान से यह भी प्रमाणित हो चुका है कि
कुछ परिन्दों में उड़ान की बेमिसाल और दोषमुक्त क्षमता का सम्बंध उस व्यापक
और संगठित ‘‘योजनाबंदी‘‘:programming से है जिसमें
परिन्दों के दैहिक कार्य शामिल हैं। जैसे हज़ारों मील दूर तक स्थानान्तरण:transfer करने वाले
परिन्दों की प्रजनन प्रक्रिया genetic codes में उनकी यात्रा का सारा विवरण मौजूद है जो उन
परिन्दों को उड़ान के योग्य बनाती है और यह कि वह अल्प आयु में भी लम्बी यात्रा के
किसी अनुभव के बिना और किसी शिक्षक या रहनुमा के बिना ही हज़ारों मील की यात्रा तय
कर लेते हैं और अन्जान रास्तों से उड़ान करते चले जाते हैं बात यात्रा की एक तरफ़ा
समाप्ति पर ही ख़त्म नहीं होती बल्कि वे सब परिन्दे एक नियत तिथि और समय पर अपने अस्थाई
घर से उड़ान भरते हैं और हज़ारों मील वापसी की यात्रा कर के एक बार फिर अपने घोंसलों
तक बिल्कुल ठीक õठीक जा पहुंचते हैं।
प्रोफेसर हॅम्बर्गर ने अपनी किताब पावर एण्ड फ़्रीजिलिटी
में ‘‘मटन बर्ड नामक एक परिन्दे का उदाहरण दिया है जो प्रशान्त
महासागर के इलाक़ों में पाया जाता है स्थानान्तरण करने वाले ये पक्षी 24000 कि.मी.
की दूरी 8 के आकार में अपनी परिक्रमा से पूरी करते हैं ये परिन्दे अपनी यात्रा हर महीने
में पूरी करते है और प्रस्थान बिंदु तक अधिक से अधिक एक सप्ताह विलम्ब से वापिस पहुंच
जाते हैं। ऐसी किसी यान्ना के लिये बहुत ही जटिल जानकारी का होना अनियार्य है जो उन परिन्दों की विवेक कोशिकाओं में सुरिक्षत होनी चाहिए
। यानी एक नीतीबद्धकार्यक्रम
परिन्दे के मस्तिष्क में और उसे पूरा करने की शक्ति शरीर में उप्लब्ध होती है। अगर
परिन्दे में कोई प्रोग्राम है तो क्या इससे यह ज्ञान नहीं मिलता कि इसे आकार देने वाला
कोई प्रोग्रामर भी यक़ीनन है?
शहद की मक्खी और उसकी योग्यता
‘‘और देखो तुम्हारे रब ने मधुमक्खी पर यह बात ‘‘वह्यः खुदाई आदेश‘‘ कर दी कि पहाड़ों में और वृक्षों और छप्परों पर चढ़ाई हुई लताओं में, अपने छत्ते बना और हर प्रकार के फलों का रस चूस और अपने रब द्वारा
‘‘हमवार: तैयार‘ राहों पर चलती रह। उस मक्खी
के अंदर से रंग बिरंगा एक शर्बत निकलता है जिस में ‘शिफ़ा: कल्याण है लोगों के लिए यक़ीनन उसमें भी एक निशानी है
उन लोगों के लिये जो विचार चिंतन करते है।‘‘ (अल-क़ुरआन.. सूर: 16 आयत .68. 69 )
वॉनफ़र्श ने मधुमक्खियों की कार्य विधि और उनमें
संपर्क व संप्रेषण:communication के शोध पर 1973 ई0 का नोबुल पुरस्कार प्राप्त किया
है।यदि किसी मधुमक्खी को जब कोई नया बाग़ या फूल दिखाई देता है तो वह अपने छत्ते में
वापिस जाती है और अपने संगठन की अन्य सभी मधुमक्खियों को उस स्थल की दिशा और वहां पहुंचाने
वाले मार्ग के विस्तृत नक्शे से आगाह करती है। मधुमक्खी संदेशा पहुंचाने या संप्रेषण
का यह काम एक विशेष प्रकार की शारिरिक गतिविधि से लेती है जिन्हें मधुमक्खी नृत्य:bee dance कहा जाता है। जा़हिर है कि यह कोई साधारण नृत्य
नहीं होता बल्कि इसका उद्देश्य मधु की कामगार मक्खियों:worker bees को यह समझाना
होता है कि फल किस दिशा में हैं और उस स्थल तक पहुंचने के लिये उन्हें किस तरह की उड़ान
भरनी होगी यद्यपि मधुमक्खियों के बारे में सारी जानकारी हम ने आधुनिक तकनीकी छायांकन
और दूसरे जटिल अनुसंधानों के माध्यम से ही प्राप्त की है लेकिन आगे देखिये कि उपरोक्त
पवित्र्र आयतों में पवित्र महाग्रंथ क़ुरआन ने कैसी स्पष्ट व्याख्या के साथ बताया है
कि अल्लाह ताला ने मधुमक्खी को विशेष प्रकार की योग्यता, निपुणता और क्षमता प्रदान की है जिस से परिपूर्ण
होकर वह अपने रब के बताए हुए रास्ते को तलाश कर लेती है और उस पर चल पड़ती है। एक और
ध्यान देने योग्य बात यह है कि उपरोक्त पवित्र आयत में मधुमक्खी को मादा मकोड़े के
रूप में रेखांकित किया गया है जो अपने भोजन की तलाश में निकलती है, अन्य शब्दों में सिपाही या कामगार मधुमक्खियां भी
मादा होती हैं।
एक दिलचस्प यथार्थ यह है कि शेक्सपियर के नाटक ‘हेनरी दि फ़ोर्थ, में कुछ पात्रमधुमक्खियों के बारे में बाते करते
हुए कहते हैं कि शहद की मक्खियां सिपाही होती हैं और यह उनका राजा होता है। ज़ाहिर
है कि शेक्सपियर के युग में लोगों का ज्ञान सीमित था वे समझते थे कि कामगार मक्खियां
नर होती हैं और वे मधु के राजा मक्खी ‘नर‘ के प्रति उत्तरदायी होती हैं परंतु यह सच नहीं, शहद की कामगार
मक्खियां मादा होती हैं और शहद की बादशाह मक्खी ‘राजा मक्खी‘ को नहीं ‘रानी मक्खी‘ को अपने कार्य निषपादन की रपट पेश करती हैं। अब
इस बारे में क्या कहा जाए कि पिछले 300 वर्ष के दौरान होने वाले आधुनिक अनुसंधानों
के आधार पर ही हम यह सब कुछ आपके सामने खोज कर ला पाए हैं ।
मकड़ी का जाला: अस्थायी घर
‘‘जिन लोगों ने अल्लाह को छोड़ कर दूसरे संरक्षक बना
लिये हैं उनकी मिसाल मकड़ी जैसी है, जो अपना घर बनाती हैं और सब घरों में ज़्यादा ‘कमजो़र घर‘मकड़ी का घर होता है । काश
यह लोग ज्ञान रखते ।‘‘(अल-क़ुरआन सूरः 29 आयत 41)
मकड़ी के जाले को नाज़ुक और कमज़ोर मकान के रूप
में रेखांकित करने के अलावा, पवित्र क़ुरआन ने मकड़ी के घरेलू सम्बंधों के कमज़ोर नाज़ुक और अस्थाई होने पर
जो़र दिया है। यह सहीं भी है क्योंके अधिकतर ऐसा होता है मकड़ी अपने, नर:mateको मार डालती
है । यही उदाहरण ऐसे लोगों की कमज़ोरियों की ओर संकेत करते हुए भी दिया गया है जो दुनिया
और आखि़रत: परलोक में सुरक्षा व सफ़लता प्राप्ति के लिये अल्लाह को छोड़ कर दूसरों
से आशा रखते हैं।
चींटियों की जीवनशैली और परस्पर सम्पर्क
‘‘पैग़म्बर सुलेमान अलैहिस्सलाम के लिये जिन्नातों, इंसानों, परिन्दों की सेनाऐं संगठित की गई थीं और वह व्यवस्थित विधान के अंतर्गत रखे
जाते थे एक बार वह उनके साथ जा रहा था यहां तक कि जब तमाम सेनाएं चींटियों की वादी
में पहुंचीं तो एक चींटी ने कहाः ‘‘ए चींटियो! अपने बिलों में
घुस जाओं कहीं ऐसा न हो कि सुलेमान और उसकी सेना तुम्हें कुचल ड़ालें और उन्हें पता
भी न चले। ‘‘(अल-क़ुरआन: सूर: 27 आयत. 17.18 )
हो सकता है कि अतीत में कुछ लोगों ने पवित्र क़ुरआन
में चींटियों की उपरोक्त वार्ता देख कर उस पर टिप्पणी की हो और कहा हो कि चींटियां तो केवल कहानियों की
किताबों में ही बातें करती हैं। अलबत्ता निकटतम वर्षो में हमें चींटियों की जीवन शैली
उनके परस्पर सम्बंध और अन्य जटिल अवस्थाओं का ज्ञान हो चुका है। यह ज्ञान आधुनिक काल
से पूर्व के मानव समाज को प्राप्त नहीं था। अनुसंधान से यह रहस्य भी खुला है कि वह ‘‘जीव: कीट ‘‘पतंग, कीड़-मकोड़े जिनकी जीवन शैली मानव समाज से असाधरण रूप
से जुड़ी है वह चींटियां ही हैं। इसकी पुष्टि चींटियों के बारे में निम्नलिखित नवीन
अनुसंधानों से भी होती है:
क, चींटियां भी अपने मृतकों को मानव समाज की तरह दफ़नाती
हैं।
ख, उनमें कामगारों के विभाजन की पेचीदा व्यवस्था
है जिसमें मैनेजर ,सुपरवाईज़र,फोरमैन और
मज़दूर आदि शामिल हैं।
ग, कभी कभार वह आपस में मिलती है और बातचीतःchat भी करती हैं।
घ, उनमें विचारों का परस्पर आदान प्रदान communication की विकसित व्यवस्था
मौजूद है।
च, उनकी कॉलोनियों में विधिवत बाज़ार होते हैं जहां
वे अपने वस्तुओं का विनिमय करती हैं।छ, सर्द मौसम में लम्बी अवधि तक भूमिगत रहने के लिये
वह अनाज के दानों का भंडारण भी करती हैं और यदि कोई दाना फूटने लगे यानि पौधा बनने लगे तो वह फ़ौरन
उसकी जड़ें काट देती हैं । जैसे उन्हें यह पता हो कि अगर वह उक्त दाने को यूंही छोड़
देंगी तो वह विकसित होना प्रारम्भ कर देगा । अगर उनका सुरक्षित किया हुआ अनाज भंडार
किसी भी कारण से उदाहरण स्वरूप वर्षा में गीला हो जाए तो वह उसे अपने बिल से बाहर ले
जाती हैं और धूप में सुखाती हैं। जब अनाज सूख जाता है तभी वह उसे बिल में वापस ले जाती
हैं। यानि यूं लगता है ,जैसे उन्हें यह ज्ञान हो कि नमी के कारण अनाज के दाने से जड़ें निकल पड़ेंगी जिसके
कारण वह दाने खाने के योग्य नहीं रह जाएंगे।
चिकित्सा-विज्ञान
Medical Science
‘‘मधुः शहद‘‘:मानवजाति के लिये, ‘शिफ़ाः रोग मुक्ति शहद की मक्खी कई प्रकार के फूलों
और फलों का रस चूसती हैं और उसे अपने ही शरीर के अंदर शहद में परिवर्तित करती हैं।
इस शहद यानि मधु को वह अपने छत्ते के बने घरों: cells में इकटठा करती हैं। आज से केवल कुछ सदी पहले
ही मनुष्य को यह ज्ञात हुआ कि मधु वास्तव में मधुमक्खियों के पेट belly से निकलता
है, किन्तु प्रस्तुत
यथार्थ पवित्र क़ुरआन ने 1400 वर्ष पहले ही निम्न पवित्र आयत में बयान कर दी थीं:
‘‘हर प्रकार के फलों का रस चूस, और अपने रब द्वारा तैयार किए हुए मार्ग पर चलती रहे। उस मक्खी के अंदर से एक रंग बिरंगा शरबत निकलता है जिसमें
शिफा रोगमुक्ति है लोगों के लिये। यक़ीनन उसमें भी एक निशानी है उन लोगों के लिये जो
चिंतन मनन करते हैं।‘‘(अल-क़ुरआन:सूर 16 आयत 69)
इसके अलावा हम ने हाल ही में यह खोज निकाला है कि
मधु में शिफ़ा बख़्श ( रोगमुक्त करने वाली ) विशेषताएं पाई जाती हैं और यह मध्यम
वर्गीय गंद त्याग Milled Antiseptic का काम भी करती है। दूसरे विश्व युद्व में रूसियों
ने भी अपने घायल सैनिकों के घाव ढांपने के लिये मधु का उपयोग किया था। मधु की विशेषता
है कि यह नमी को यथावत रखता है और कोशिकाओं cells पर घावों के निशान बाक़ी नहीं रहने देता है। मधु
की ‘सघनता:density के कारण कोई
फफूंदी किटाणु न तो घाव में स्वयं विकसित होंगे और न ही घाव को बढ़ने देंगे ।
सिस्टर किरॉल नामक के एक ईसाई राहिबा: मठवासिनी:nun ने ब्रितानी चिकित्साल्यों में छाती और इल्जा़ईमर के रोगों में
मुब्तला 22 चिकित्सा विहीन रोगियों का इलाज मधुमक्खी के छत्तों:propolis नामक द्रव्य
से किया। यह द्रव्य मधुमक्खियां उत्पन्न करती हैं और उसे अपने छत्तों में किटाणुओं
के विरूद्व सील बंद करने के लिये उपयोग में लाती हैं।
यदि कोई व्यक्ति किसी पौधे से होने वाली एलर्जी
से ग्रस्त हो जाए तो उसी पौधे से प्राप्त मधु उस व्यक्ति को दिया जा सकता है
ताकि वह एलर्जी के विरूद्व रूकावट उत्पन्न करले। मधु विटामिन के़ और फ्रि़क्टोज़ (एक
प्रकार की चीनी ) से भी परिपूर्ण होता है। पवित्र क़ुरआन में मधु ,उसकी उत्पत्ति और विशेषताओं के बारे में जो ज्ञान
दिया गया है उसे
मानव समाज पवित्र क़ुरआन के अवतरण के सदियों बाद ,अपने अनुसंधानों और प्रयोगों के आधार पर आज खोज
सका है।
शरीर रचना विज्ञान Physiology
रक्त प्रवाह (Blood circulations) और दूध: पवित्र क़ुरआन
का अवतरण रक्त प्रवाह की व्याख्या करने वाले प्रारम्भिक मुसलमानवैज्ञानिक
इब्न अन नफ़ीस से 600 वर्ष पहले और इस खोज को पश्चिम में परिचित करवाने वाले विलियम
हॉरवे से 1000 वर्ष पहले हुआ था। तक़रीबन 1300 वर्ष पहले यह मालूम हो चुका था कि आंतों
के अंदर ऐसा क्या कुछ होता है जो पाचन व्यवस्था में अंजाम पाने वाली क्रिया द्वारा
शारीरिक अंगों के विकास की गारंटी उपलब्ध कराता है। पवित्र क़ुरआन की एक पवित्र आयत
जो दुग्ध तत्वांशों के स्रोत की पुष्टि करती हैः इस कल्पना के अनुकूल है। उपरोक्त संकल्पना
के संदर्भ से पवित्र क़ुरआनी आयतों को समझने के लिये यह जान लेना महत्वपूर्ण है कि
आंतों में रसायनिक प्रतिक्रयाए:reactions घटित होती रहती हैं और आंतों द्वारा ही पाचन क्रिया
से गु़ज़र कर आहार से प्राप्त द्रव्य एक जटिल व्यवस्था से होते हुए रक्त प्रवाह क्रिया
में शामिल होते हैं। कभी वह द्रव्य जिगर से होकर गुज़रते हैं जो रसायनिक तरकीब पर निर्भर
होते हैं। ख़ून उन तत्वों (द्रव्यों )को तमाम अंगों तक पहुंचाता है जिनमें दूध उत्पन्न
करने वाली छातियों की कोशिकाएं भी शामिल हैं।
साधारण शब्दों में यह कहा जा सकता है कि आंतों में
अवस्थित आहार के कुछ द्रव्य आंतों की दीवार से प्रवेश करते हुए रक्त की नलियों:vessels में प्रवेश
कर जाते हैं और फिर रक्त के माध्यम से यह रक्त प्रवाह द्वारा कई अंगों तक जा पहुंचते
हैं शारीरिक रचना की यह संकल्पना सम्पूर्ण रूप से हमारी समझ में आ जाएगी यदि हम पवित्र
क़ुरआन की निम्नलिखत आयातों को समझने की कोशिश करेंगे ‘‘और तुम्हारे लिये मवेशियों में भी एक सबक़ (सीख) मौजूद है उनके
पेट से गोबर और खून के बीच हम एक चीज़ तुम्हें पिलाते हैं यानि खालिस दूध जो पीने वालों
के लिये बहुत स्वास्थ्य वर्द्धक है ‘‘(अल-क़ुरआन सूरः
16 आयत 66)
‘‘और यथार्थ यह है कि तुम्हारे लिये मवेशियों में
भी एक सबक़ है। उनके पेटों में जो कुछ है उसी में से एक
चीज़ (यानि दूध) हम तुम्हे पिलाते हैं और तुम्हारे लिये उनमें बहुत से लाभ भी हैं, उनको तुम खाते हो‘‘(अल-क़ुरआन:
सूर 23 आयत 21)
1400 वर्ष पूर्व, पवित्र क़ुरआन द्वारा दी हुई यह व्याख्या जो गाय
के दूध की उत्पत्ति के संदर्भ से है आश्चर्यजनक रूप से आधुनिक शरीर रचना विज्ञान से परिपूर्ण
है जिसने इस वास्तविकता को इस्लाम के आगमन के बहुत बाद अब खोज निकाला है।
भ्रूण विज्ञान / Embryology
मुसलमान जवाबों (उत्तर) की तलाश में: यमन के प्रसिद्ध
ज्ञानी ,शैख़ अब्दुल मजीद अल ज़न्दानी के
नेतृत्व में मुसलमान स्कालरों के एक समूह ने भ्रूण विज्ञान Embryology और दूसरे वैज्ञानिक
विषयों के बारे में पवित्र क़ुरआन और विश्वस्नीय हदीस ग्रंथों से जानकारियां इकट्ठी
की और उनका अंग्रेज़ी में अनुवाद किया। फिर उन्होंने पवित्र क़ुरआन की एक सलाह पर काम
किया:
ऐ पैग़म्बर! हमने तुमसे पहले
भी जब कभी रसूल संदेशवाहक भेजे हैं आदमी ही भेजे हैं जिनकी तरफ हम अपने संदेश को वह्रा किया करते थे सारे चर्चा
करने वालों से पूछ लो अगर तुम स्वयं नहीं जानते।(अल-क़ुरआन:सूरः16 आयत 43 )
जब पवित्र क़ुरआन और प्रमाणिक हदीसों से भ्रूण विज्ञान
के बारे में प्राप्त की गई जानकारी एकत्रित होकर अंग्रेज़ी में अनुदित हुई तो उन्हें प्रोफे़सर ड़ा. कैथमूर
के सामने पेश किया गया। ड़ा. कैथमूर टोरॉन्टो विश्वविद्यालय कनाडा में शरीर रचना विज्ञान
विभाग के संचालक और भू्रण विज्ञान के प्रोफ़ेसर हैं। आज कल वह प्रजनन विज्ञान के क्षेत्र
में अधिकृत विज्ञान की हैसियत से विश्व विख्यात व्यक्ति हैं। उनसे कहा गया है कि वह
उनके समक्ष प्रस्तुत शोध पत्र पर अपनी प्रतिक्रिया दें। गम्भीर अध्ययन के बाद डॉ. कैथमूर
ने कहा भ्रूण के संदर्भ से क़ुरआन की आयतों और हदीस के ग्रंथों में बयान की गई तक़रीबन
तमाम जानकारियां ठीक आधुनिक विज्ञान की खोजों के अनुकूल हैं। आधुनिक प्रजनन विज्ञान
से उनकी भरपूर सहमति है और वह किसी भी तरह आधुनिक प्रजनन विज्ञान से असहमत नहीं हैं।
उन्होंने आगे बताया कि अलबत्ता कुछ आयतें ऐसी भी हैं जिनकी वैज्ञानिक विश्वस्नीयता
के बारे में वह कुछ नहीं कह सकते। वह यह नहीं बता सकते कि वह आयतें विज्ञान की अनुकूलता
में सही अथवा ग़लत हैं, क्योंकि खुद उन्हें उन आयतों में दी गई जानकारी के संदर्भ का कोई ज्ञान नहीं। उनके
संदर्भ से प्रजनन के आधुनिक अध्ययन और शोध प़त्रों में भी कुछ उप्लब्ध नहीं था ‘‘। ऐसी ही एक पवित्र आयत निम्नलिखित हैः
‘‘पढ़ो (ऐ नबी) अपने रब के नाम के साथ जिसने पैदा
किया, जमे हुए रक्त के एक थक्के से मानव जाति की उत्पत्ति की‘‘। (अल-क़ुरआन: सूर 96 आयात 1से...2)
यहां अरबी शब्द अलक प्रयुक्त हुआ है जिसका एक अर्थ
तो ,रक्त का थक्का‘‘ है जब कि दूसरा अर्थ कोई ऐसी वस्तु है जो ,,चिपट जाती
हो यानि जोंक जैसी कोई वस्तु डॉ. कैथमूर को ज्ञान नहीं था कि गर्भ के प्रारम्भ में
भ्रूण: imbryo का स्वरूप जोंक जैसा होता है या नहीं। यह मालूम
करने के लिये उन्होंने बहुत शक्तिशाली और अनुभूतिशील यंत्रों की सहायता से, भ्रूणः imbryo के प्रारिम्भक स्वरूप का एक और गम्भीर अध्ययन किया
तत्पश्चात उन चित्रों की तुलना जोंक के चित्रांकन से की वह उन दोनों के मध्य असाधारण
समानता देख कर आश्चर्यचकित रह गये। इसी प्रकार उन्होंने भ्रूण विज्ञान के बारे में
अन्य जानकारियां भी प्राप्त की जो पवित्र क़ुरआन से ली गयी थीं और अब से पहले वह इस
से परिचित नहीं थे।
भ्रूण के बारे में ज्ञान से संबंधित जिन प्रश्नों
के उत्तर डॉ. कैथमूर ने क़ुरआन और हदीस से प्राप्त सामग्री के आधार पर दिये उनकी संख्या 80 थी। क़ुरआन
व हदीस में प्रजनन की प्रकृति से संबंधित उप्लब्ध ज्ञान केवल आधुनिक ज्ञान से परस्पर
सहमत ही नहीं बल्कि डॉ0 कैथमूर अगर आज से तीस वर्ष पहले मुझसे यही सारे प्रश्न करते
तो वैज्ञानिक जानकारी के आभाव में:मै इनमें से आधे प्रश्नों के उत्तर भी नही दे सकता
था।
1981 ई0 में दम्माम
(सऊदी अरब ) में आयोजित ‘‘सप्तम चिकित्सा‘‘ सम्मेलन, में डॉ0 मूर ने कहां,, ‘‘मेरे लिये
बहुत ही प्रसन्नता की स्थिति है कि मैंने पवित्र क़ुरआन में उप्लब्ध ‘गर्भावधि में मानव के विकास‘ से सम्बंधित
सामग्री की व्याख्या करने में सहायता की। अब मुझ पर यह स्पष्ट हो चुका है कि यह सारा
विज्ञान पैग़म्बर मुहम्मद स.अ.व. तक ख़ुदा या अल्लाह ने ही पहुंचाया है क्योंकि कमोबेश
यह सारा ज्ञान पवित्र क़ुरआन के अवतरण के कई सदियों बाद ढूंडा गया था।
इससे भी सिद्ध होता है कि मुहम्मद निसन्देह अल्लाह
के रसूलः संदेशवाहक ही थे । इस घटना से पूर्व ड़ॉ0 कैथमूर‘ The developing human
विकासशील मानव‘ नामक पुस्तक
लिख चुके थे। पवित्र क़ुरआन से नवीन ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद उन्होंने 1982 ई0
में इस पुस्तक का तीसरा संस्करण तैयार किया। उस संस्करण को वैश्विक शाबाशी और ख्याति
मिली और उसे वैश्विक धरातल पर सर्वश्रेष्ठ चिकित्सा पुस्तक का सम्मान भी प्राप्त हुआ।
उस पुस्तक का अनुवाद विश्व की कई बड़ी भाषाओं में किया गया और उसे चिकित्सा विज्ञान
पाठयक्रम के प्रथम वर्ष में चिकित्सा शास्त्र के विद्यार्थियों को अनिवार्य पुस्तक
के रूप में पढ़ाया जाता है।
डॉ0 जोहम्पसन बेलर कॉलिज ऑफ़ मेडिसिन ह्युस्टन, अमरीका में ‘‘गर्भ एवं प्रसव विभाग obstetrics and gynecology
के अध्यक्ष
हैं। उनका कथन है यह मुहम्मद स.अ.व. की हदीस में कही हुई बातें किसी भी प्रकार लेखक
के काल ,7 वीं सदी ई. में उप्लब्ध वैज्ञानिक
ज्ञान के आधार पर पेश नहीं की जासकती थीं इससे न केवल यह ज्ञात हुआ कि ‘‘अनुवांशिक
genetics और मज़हब यानी
इसलाम में कोई भिन्नता नहीं है बल्कि यह भी पता चला कि इस्लाम मज़हब इस प्रकार से विज्ञान
का नेतृत्व कर सकता है कि परम्पराबद्ध वैज्ञानिक दूरदर्शिता में कुछ इल्हामी रहस्यों
को भी शामिल करता चला जाए। पवित्र क़ुरआन में ऐसे बयान मौजूद हैं जिनकी पुष्टि कई सदियों
बाद हुई है। इससे हमारे उस विश्वास को शक्ति मिलती है कि पवित्र क़ुरआन में उप्लब्ध
ज्ञान वास्तव में अल्लाह की ओर से ही आया है।‘‘
रीढ़ की हडडी और पस्लियों के बीच से रिसने वाली
बूंद:
‘‘फिर ज़रा इन्सान यही देख ले
कि वह किस चीज़ से पैदा किया गया। एक उछलने वाले पानी से पैदा किया गया है, जो पीठ और सीने की हड़डियों के बीच से निकलता है।‘‘(अल-क़ुरआन.सूर 86 आयत .5 से .7)
प्रजनन अवधि में संतान उत्पन्न करने वाले जनांगों
यानि‘ अण्डग्रंथि: testicles और अण्डाशय ovary ‘गुर्दोः kidnies के पास से ‘‘मेरूदण्ड: spinal cord और ग्यारहवीं बारहवीं पस्लियों के बीच से निकलना
प्रारम्भ करते हैं इसके बाद वह कुछ नीचे उतर आते हैं। ‘‘महिला प्रजनन
ग्रंथिया: gonads
यानि गर्भाशय
पेडू: pelvis में रूक जाती
हैं जबकि पुरूष जनांग वंक्षण नली: Inguinal Canal के मार्ग से अण्डकोष scrotum तक जा पहुंचते
हैं यहां तक कि व्यस्क होने पर जबकि प्रजनन ग्रंथियों के नीचे सरकने की क्रिया रूक
चुकी होती है। उन ग्रंथियों में उदरीय महाधमनी: abdominal aorta के माध्यम से रक्त और स्नायु समूह
का प्रवेश क्रम जारी रहता है, ध्यान रहे ‘कि उदरीय महाधमनी:
abdominal aorta रीढ़ की हड़डी
और पस्लियों के बीच होती है। लसीका निकास Lymphatic Drainage और धमनियों में रक्त प्रवाह भी इसी
दिशा में होता है।
शुक्राणु: न्यूनतम द्रव
पवित्र क़ुरआन में कम से कम ग्यारह बार दुहराया
गया है कि मानव जाति की
रचना‘ वीर्य नुत्फ़ा‘‘ से की गई है जिसका अर्थ द्रव का न्युनतम भाग है।
यह बात पवित्र क़ुरआन की कई आयतों में बार बार आई है जिन में सूरः 22 आयत 15
और सूरः 23 आयत 13 के अलावा सूर:
16 आयत 14, सूर: 18 आयत
.37, सूर: 35 आयत. 11, सूरः 36 आयत
77, सूरः 40 आयत .67, सूर: 53 आयत
46, सूर: 76 आयत .2, और सूर: 80
आयत .19 शामिल हैं।
विज्ञान ने हाल ही में यह खोज निकाला है कि ‘‘अण्डाणु:ovum को काम में लाने के लिये औसतन तीस लाख वीर्य‘ शुक्राणु:sperms में से सिर्फ़ एक की आवश्यकता होती है। अर्थ यह हुआ कि स्खलित होने वाली वीर्य की मात्रा का तीस लाखवां भाग या 1/30,000,00 प्रतिशत मात्रा ही गर्भाधान के लिये पर्याप्त होता है।
‘सुलाला: प्रारम्भिक द्रव, के गुण
‘‘फिर उसकी नस्ल एक ऐसे रस से चलाई जो तुच्छ जल की
भांति है‘‘(अल-क़ुरआन:
सूर: 22 आयत .8)
अरबी शब्द ‘सुलाला‘ से तात्पर्य किसी द्रव का सर्वोत्तम अंश है। सुलाला
का शाब्दिक अर्थ‘ नवजात शिशु‘‘ भी है। अब
हम जान चुके हैं कि स्त्रैन अण्डे की तैयारी के लिये पुरूष द्वारा स्खलित लाखों करोडो़
वीर्य शुक्राणुओं में से सिर्फ़ एक की आवश्यकता होती है। लाखों करोड़ों में से इसी
एक वीर्य शुक्राणु :sperm को पवित्र क़ुरआन ने ‘सुलाला‘
कहा है। अब
हमें यह भी पता चल चुका है कि महिलाओं में उत्पन्न हज़ारों ‘अण्डाणुओं‘ ovum में से केवल
एक ही सफल होता है। उन हज़ारों अंडों में से किसी एक कर्मशील और योग्य अण्डे के लिये
पवित्र क़ुरआन ने सुलाला शब्द का प्रयोग किया है। इस शब्द का एक और अर्थ भी है किसी
द्रव के अंदर से किसी रस विशेष का सुरक्षित स्खलन। इस द्रव का तात्पर्य पुरूष और महिला
दोनों प्रकार के प्रजनन द्रव भी हैं जिनमें लिंगसूचक ‘युग्मक: gametes (वीर्य) मौजूद
होते है। गर्भाधान की अवधि में स्खलित वीर्यों से दोनों प्रकार के अंडाणु ही अपने õअपने वातावरण से सावधानी पूर्वक बिछड़ते
हैं।
संयुक्त वीर्यः परस्पर मिश्रित द्रव
‘‘हम ने मानव को एक मिश्रित वीर्य से पैदा किया ताकि
उसकी परीक्षा लें और इस उद्देश्य की पूर्त्ति के लिये
हमने उसे सुनने और देखने वाला बनाया‘‘। (अल-क़ुरआन
सूर 76 आयत 2)
अरबी शब्द ‘नुत्फ़तिन इम्शाज‘‘ का अर्थ मिश्रित द्रव है। कुछेक ज्ञानी व्याख्याताओं के अनुसार मिश्रित द्रव का तात्पर्य पुरूष और महिला के प्रजनन द्रव हैं: पुरूष और महिला के इस द्वयलिंगी मिश्रित वीर्य को ‘‘युग्मनर्ज: Zygote जुफ़्ता कहते हैं जिसका पूर्व स्वरूप भी वीर्य ही होता है। परस्पर मिश्रित द्रव का एक दूसरा अर्थ वह द्रव भी हो सकता हैं। जिसमें संयुक्त या मिश्रित वीर्य शुक्राणु या वीर्य अण्डाणु तैरते रहते है। यह द्रव कई प्रकार के शारिरिक रसायनों से मिल कर बनता है जो कई शारिरिक ग्रंथियों से स्खलित होता है। इस लिये ‘नुत्फ़ा ए इम्शाजः संयुक्त वीर्य‘ यानि परस्पर मिश्रित द्रव के माध्यम से बने नवीन पुलिगं या स्न्नीलिगं वीर्य द्रव्य या उसके चारों ओर फैले द्रव्यों की ओर संकेत किया जा रहा है।
लिंग का निर्धारण: परिपक्व ,भ्रूण:Fetus के लिगं का निर्धारण यानि उससे लड़का होगा या लड़की?
स्खलित वीर्य शुक्रणुओं से होता है न कि अण्डाणुओं से। अर्थात मां के गर्भाशय में ठहरने वाले गर्भ से लड़का उत्पन्न होगा यह क्रोमोजो़म के 23 वें जोड़े में क्रमशः xx/xy वर्णसूत्रः Chromosome अवस्था पर होता है। प्रारिम्भक तौर पर लिगं का निर्धारण समागम के अवसर पर हो जाता है और वह स्खलित वीर्य शुक्राणुओं: Sperm के काम वर्णसूत्रः Sex Chromosome पर होता है जो अण्डाणुओं की उत्पत्ति करता है। अगर अण्डे को उत्पन्न करने वाले शुक्राणुओं में X वर्णसूत्र हैः तो ठहरने वाले गर्भ से लड़की पैदा होगी। इसके उलट अगर शुक्राणुओं में Y वर्णसूत्र है तो ठहरने वाले गर्भ से लड़का पैदा होगा ।‘‘और यह कि उसी ने नर और मादा का जोड़ा पैदा किया, एक बूंद से जब वह टपकाई जाती है‘‘।(क़ुरआनः सूरः 53 आयात 45 से 46 )
यहां अरबी शब्द नुत्फ़ा का अर्थ तो द्रव की बहुत
कम मात्रा है जबकि ‘तुम्नी‘ का अर्थ तीव्र स्खलन या पौधे का बीजारोपण है। इस
लिये नुतफ़ः वीर्य मुख्यता शुक्राणुओं की ओर संकेत कर रहा है क्योंकि यह तीव्रता से
स्खलित होता है,
पवित्र क़ुरआन
में अल्लाह तआला फ़र्माता हैः
‘‘क्या वह एक तुच्छ पानी का जल वीर्य नहीं था जो माता
के गर्भाशय में टपकाया जाता है? फिर वह एक थक्का । लोथड़ा बना फिर अल्लाह ने उसका शरीर बनाया
और उसके अंगों को ठीक किया, फिर उससे दो प्रकार के (मानव)
पुरूष और महिला बनाए ।(अल-कुरआन:सूर:75 आयत .37 से 39 )
ध्यान पूर्वक देखिए कि यहां एक बार फिर यह बताया
गया है कि बहुत ही न्यूनतम मात्रा ( बूंदों ) पर आधारित प्रजनन द्रव जिसके
लिये अरबी शब्द ‘‘नुत्फतम्मिन्नी‘‘ अवतरित हुआ है जो कि पुरूष की ओर से आता है और माता के गर्भाशय में बच्चें के लिंग
निर्धारण का मूल आधार है।
उपमहाद्वीप में यह अफ़सोस नाक रिवाज है कि आम तौर
पर जो महिलाएं सास बन जाती हैं उन्हें पोतियों से अघिक पोतों का अरमान होता है अगर
बहु के यहां बेटों के बजाए बेटियां पैदा हो रहीं हैं तो वह उन्हें ‘‘पुरूष संतान‘‘ पैदा न कर पाने के ताने देती हैं अगर उन्हें केवल यही पता
चल जाता है कि संतान के लिंग निर्धारण में महिलाओं के अण्डाणुओं की कोई भूमिका नहीं
और उसका तमाम उत्तरदायित्व पुरूष वीर्यः शुक्राणुओं पर निर्भर होता है और इसके बावजूद
वह ताने दें तो उन्हें चाहिए कि वह ‘‘पुरूष संतान‘‘ न पैदा होने परः अपनी बहुओं के बजाए बपने बेटों
को ताने दें या कोसें और उन्हें बुरा भला कहें। पवित्र क़ुरआन और आधुनिक विज्ञान दोनों
ही इस विचार पर सहमत हैं के बच्चे के लिंग निर्धारण में पुरूष शुक्राणुओं की ही ज़िम्मेदारी
है तथा महिलाओं का इसमें कोई दोष नहीं।
तीन अंधेरे पर्दों में सुरक्षित ,‘उदर‘
‘‘उसी ने तुम
को एक जान से पैदा किया। फिर वही है जिसने उस जान से उसका जोडा बनाया और उसी ने तुम्हारे लिये मवेशियों
में से आठ नर और मादा पैदा किये और वह तुम्हारी मांओं के ‘उदरोंरः पेटो‘ ,में तीन तीन अंधेरे परदों के भीतर तुम्हें एक के बाद एक स्वरूप
देता चला जाता है। यही अल्लाह (जिसके यह काम हैं )तुम्हारा रब है। बादशाही उसी की है
कोई मांबूद (पूजनीय) उसके अतिरिक्त नहीं है‘‘।(अल-क़ुरआन
सूर 39 आयत 6)
प्रोफ़ेसर डॉ. कैथमूर के अनुसार पवित्र क़ुरआन में
अंधेरे के जिन तीन परदों कीचर्चा की गई है वह निम्नलिखित हैं :
1- मां के गर्भाशय
की अगली दीवार
2- गर्भाशय की
मूल दीवार
3- भ्रूण का खोल
या उसके ऊपर लिपटी झिल्ली
भ्रूणीय अवस्थाएं
‘‘हम ने मानव को मिट्टी के, रस: ‘सत से बनाया फिर उसे एक सुरक्षित
स्थल पर टपकी हुई बूंद में परिवर्तित किया, फिर उस बूंद को लोथडे़ का स्वरूप
दिया, तत्पश्चात लोथड़े को बोटी बना दिया फिर बोटी की हडिडयां बनाई, फिर हड्रि़ड़यों पर मांस चढ़ाया फिर उसे एक दूसरा ही रचना बना
कर खडा़ किया बस बड़ा ही बरकत वाला है अल्लाह: सब कारीगरों से अच्छा कारीगर‘‘। (अल-क़ुरआन: सूर:23 आयात .12 से 14)
इन पवित्र आयतों में अल्लाह तआला फ़रमाते हैं कि
मानव को द्रव की बहुत ही सूक्ष्म मात्रा से बनाया गया अथवा सृजित किया गया है, जिसे विश्राम:Rest स्थल में रख
दिया जाता है यह द्रव उस स्थल पर मज़बूती से चिपटा रहता है। यानि स्थापित अवस्था में, और इसी अवस्था
के लिये पवित्र क़ुरआन में ‘क़रार ए मकीन‘ का गद्यांश अवतरित हुआ है। माता के गर्भाशय के पिछले हिस्से को रीढ़ की हडड़ी और
कमर के पटठों की बदौलत काफ़ी सुरक्षा प्राप्त होती हैं उस भ्रूण को अनन्य सुरक्षा‘‘ प्रजनन थैली:Amniotic Sac से प्राप्त
होती है जिसमें प्रजनन द्रवः Amniotic Fluid भरा होता है अत: सिद्ध हुआ कि माता के गर्भ में
एक ऐसा स्थल है जिसे सम्पूर्ण सुरक्षा दी गई है।द्रव की चर्चित न्यूनतम मात्रा ‘अलक़ह‘ के रूप में होती है यानि एक ऐसी वस्तु के स्वरूप में जो ‘‘चिमट जाने‘‘ में सक्षम
है। इसका तात्पर्य जोंक जैसी कोई वस्तु भी है। यह दोनों व्याख्याएं विज्ञान के आधार
पर स्वीकृति के योग्य हैं क्योंकि बिल्कुल प्रारम्भिक अवस्था में भ्रूण वास्तव में
माता के गर्भाशय की भीतरी दीवार से चिमट जाता है जब कि उसका बाहरी स्वरूप भी किसी जोंक
के समान होता है।
इसकी कार्यप्रणाली जोंक की तरह ही होती है क्योंकि, यह ‘आवल नाल‘‘ के मार्ग से अपनी मां के शरीर से रक्त प्राप्त
करता और उससे अपना आहार लेता है। ‘अलक़ह‘ का तीसरा अर्थ रक्त का थक्का है। इस अलक़ह वाले
अवस्था से जो गर्भ ठहरने के तीसरे और चौथे सप्ताह पर आधारित होता है बंद धमनियों में
रक्त जमने लगता है।
अतः भ्रूण का स्वरूप केवल जोंक जैसा ही नहीं रहता बल्कि वह रक्त के थक्के जैसा भी दिखाई देने लगता है। अब हम पवित्र क़ुरआन द्वारा प्रदत्त ज्ञान और सदियों के संधंर्ष के बाद विज्ञान द्वारा प्राप्त आधुनिक जानकारियों की तुलना करेंगे। 1677 ई0 हेम और ल्यूनहॉक ऐसे दो प्रथम वैज्ञानिक थे जिन्होंने खुर्दबीन: Microscope से वीर्य शुक्राणुओं का अध्ययन किया था। उनका विचार था कि शुक्राणुओं की प्रत्येक कोशिका में एक छोटा सा मानव मौजूद होता है जो गर्भाशय में विकसित होता है और एक नवजात शिशु के रूप में पैदा होता है। इस दृष्टिकोण को ,छिद्रण सिद्धान्त:Perforation Theory भी कहा जाता है। कुछ दिनों के बाद जब वैज्ञानिकों ने यह खोज निकाला कि महिलाओं के अण्डाणु, शुक्राणु कोशिकाओं से कहीं अधिक बडे़ होते हैं तो प्रसिद्ध विशेषज्ञ डी ग्राफ़ सहित कई वैज्ञानिकों ने यह समझना शुरू कर दिया कि अण्डे के अंदर ही मानवीय अस्तित्व सूक्ष्म अवस्था में पाया जाता है। इसके कुछ और दिनों बाद, 18 वीं सदी ईसवी में मोपेशस:उंनचमपजपनेण् नामक वैज्ञानिक ने उपरोक्त दोनों विचारों के प्रतिकूल इस दृष्टिकोण का प्रचार शुरू किया कि, कोई बच्चा अपनी माता और पिता दोनों की ‘संयुक्त विरासत:Joint inheritance का प्रतिनिधि होता है । अलक़ह परिवर्तित होता है और ‘‘मज़ग़ता‘‘ के स्वरूप में आता है, जिसका अर्थ है कोई वस्तु जिसे चबाया गया हो यानि जिस पर दांतों के निशान हों और कोई ऐसी वस्तु हो जो चिपचिपी (लसदार) और सूक्ष्म हों, जैसे च्युंगम की तरह मुंह में रखा जा सकता हो। वैज्ञानिक आधार पर यह दोनों व्याख्याएं सटीक हैं। प्रोफ़ेसर कैथमूर ने प्लास्टो सेन: रबर और च्युंगम जैसे द्रव ,का एक टुकड़ा लेकर उसे प्रारम्भिक अवधि वाले भ्रूण का स्वरूप दिया और दांतों से चबाकर ‘मज़गा‘ में परिवर्तित कर दिया। फिर उन्होंने इस प्रायोगिक ‘मज़ग़ा‘ की संरचना की तुलना प्रारम्भिक भू्रण:Fetus के चित्रों से की इस पर मौजूद दांतों के निशान मानवीय ‘मज़ग़ा पर पड़े कायखण्ड:Somites के समान थे जो गर्भ में ‘मेरूदण्ड:Spinal Cord के प्रारिम्भक स्वरूप को दर्शाते हैं। अगले चरण में यह मज़ग़ा परिवर्तित होकर हड़डियों का रूप धारण कर लेता है। उन हड्रडियों के गिर्द नरम और बारीक मांस या पटठों का ग़िलाफ़ (खोल) होता है फ़िर अल्लाह तआला उसे एक बिल्कुल ही अलग जीव का रूप दे देता है।
अमरीका में थॉमस जिफ़र्सन विश्वविद्यालय, फ़िलाडॅल्फ़िया के उदर विभाग में अध्यक्ष, दन्त संस्थान
के निदेशक और अधिकृत वैज्ञानिक प्रोफ़ेसर मारशल जौंस से कहा गया कि वह भू्रण विज्ञान
के संदर्भ से पवित्र क़ुरआन की आयतों की समीक्षाकरें। पहले तो उन्होंने यह कहा कि कोई
असंख्य प्रजनन चरणों की व्याख्या करने वाली क़ुरआनी आयतें किसी भी प्रकार से सहमति
का आधार नहीं हो सकतीं और हो सकता है कि पैगम्बर मुहम्मद स.अ.व. के पास बहुत ही शक्तिशाली
खुर्दबीन Microscope
रहा हो। जब
उन्हें यह याद दिलाया गया कि पवित्र क़ुरआन का नज़ूलः अवतरण 1400 वर्ष पहले हुआ था
और विश्व की पहली खु़र्दबीन Microscope भी हज़रत मुहम्मद स.अ.व. के सैंकडों वर्ष बाद
अविष्कृत हुई थी तो प्रोफ़ेसर जौंस हंसे और यह स्वीकार किया कि पहली अविष्कृत ख़ुर्दबीन
भी दस गुणा ज़्यादा बड़ा स्वरूप दिखाने में समक्ष नहीं थी और उसकी सहायता से सूक्ष्म
दृश्य को स्पष्ट रूप में नहीं देखा जा सकता था। तत्पश्चात उन्होंने कहा: फ़िलहाल मुझे
इस संकल्पना में कोई विवाद दिखाई नहीं देता कि जब पैग़म्बर मोहम्मद स0अ0व0 ने पवित्र
क़ुरआन की अयतें पढ़ीं तो उस समय विश्वस्नीय तौर पर कोई आसमानी (इल्हामी )शक्ति भी
साथ में काम कर रही थी।
ड़ॉ. कैथमूर का कहना है कि प्रजनन विकास के चरणों का जो वर्गीकरण सारी दुनिया में प्रचलित है, आसानी से समझ में आने वाला नहीं है, क्योंकि उसमें प्रत्येक चरण को एक संख्या द्वारा पहचाना जाता है जैसे चरण संख्या,,1, चरण संख्या,,2 आदि। दूसरी ओर पवित्र क़ुरआन ने प्रजनन के चरणों का जो विभाजन किया है उसका आधार पृथक और आसानी से चिन्हित करने योग्य अवस्था या संरचना पर हैं यही वह चरण हैं, जिनसे कोई प्रजनन एक के बाद एक ग़ुजरता है इसके अलावा यह अवस्थाएं (संरचनाएं) जन्म से पूर्व, विकास के विभिन्न चरणों का नेतृत्व करतीं हैं और ऐसी वैज्ञानिक व्याख्याए उप्लब्ध करातीं हैं जो बहुत ही ऊंचे स्तर की तथा समझने योग्य होने के साथ साथ व्यवहारिक महत्व भी रखतीं हैं। मातृ गर्भाशय में मानवीय प्रजनन विकास के विभिन्न चरणों की चर्चा निम्नलिखित पवित्र आयतों में भी समझी जा सकती हैं:‘‘क्या वह एक तुच्छ पानी का वीर्य न था जो (मातृ गर्भाशय में) टपकाया जाता है? फ़िर वह एक थक्का बना फिर अल्लाह ने उसका शरीर बनाया और उसके अंग ठीक किये फिर उससे मर्द और औरत की दो क़िसमें बनाई । (अल-कुरआनः सूरे:75, आयत 37 से 39)
‘‘जिसने तुझे पैदा किया, तुझे आकार प्रकार (नक-सक) से ठीक किया, तुझे उचित अनुपात में बनाया और जिस स्वरूप
में चाहा तुझे जोड़ कर तैयार किया।‘‘(अल-क़ुरआन: सूरः 82 आयात 7 से 8)
अर्द्ध निर्मित एंव अर्द्ध अनिर्मित गर्भस्थ भ्रूण: अगर ‘मज़ग़ा‘ की अवस्था पर गर्भस्थ भ्रूण बीच से काटा जाए और उसके अंदरूनी भागों का अध्ययन किया जाए तो हमें स्पष्ट रूप से नज़र आएगा कि (मज़ग़ा के भीतरी अंगों में से ) अधिकतर पूरी तरह बन चुके हैं जब कि शेष अंग अपने निर्माण के चरणों से गुज़र रहे हैं। प्रोफ़ेसर जौंस का कहना है कि अगर हम पूरे गर्भस्थ भ्रूण को एक सम्पूर्ण अस्तित्व के रूप में बयान करें तो हम केवल उसी हिस्से की बात कर रहे होंगे जिसका निर्माण पूरा हो चुका है और अगर हम उसे अर्द्ध निर्मित अस्तित्व कहें तो फिर हम गर्भस्थ भ्रूण के उन भागों का उदाहरण दे रहे होंगे जो अभी पूरी तरह से निर्मित नहीं हुए बल्कि निर्माण की प्रक्रिया पूरी कर रहे हैं। अब सवाल यह उठता है कि उस अवसर पर गर्भस्थ भ्रूण को क्या सम्बोधित करना चाहिये? सम्पूर्ण अस्तित्व या अर्द्ध निर्मित अस्तित्व गर्भस्थ, भु्रण के विकास की इस प्रक्रिया के बारे में जो व्याख्या हमें पवित्र क़ुरआन ने दी है उससे बेहतर कोई अन्य व्याख्या सम्भव नहीं है पवित्र क़ुरआन इस चरण को ‘अर्द्ध‘ निर्मित अर्द्ध अनिर्मित‘ की संज्ञा देता है। निम्न्लिखित आयतों का आशय देखिए: ‘‘लोगों! अगर तुम्हें जीवन के बाद मृत्यु के बारे में कुछ शक है तो तुम्हें मालूम हो कि हम ने तुमको मिट्ठी से पैदा किया है, फिर वीर्य से, फिर रक्त के थक्के से, फिर मांस की बोटी से जो स्वरूप वाली भी होती है और बेरूप भी, यह हम इसलिये बता रहे हैं ताकि तुम पर यर्थाथ स्पष्ट करें। हम जिस (वीर्य) को चाहते हैं एक विशेष अवधि तक गर्भाशय में ठहराए रखते हैं। फिर तुम को एक बच्चे के स्वरूप में निकाल लाते हैं (फिर तुम्हारी परवरिश करते हैं ) ताकि तुम अपनी जवानी को पहुंचो‘‘ ।(अल-क़ुरआन: सूर 22 आयत .5 ) वैज्ञानिक दृष्टिकोण से हम जानते हैं कि गर्भस्थ भ्रूण विकास के इस प्रारम्भिक चरण में कुछ वीर्य ऐसे होते हैं जो एक पृथक स्वरूप धारण कर चुके हैं, जबकि कुछ स्खलित वीर्य, विशेष तुलनात्मक स्वरूप में आए नहीं होते । यानि कुछ अंग बन चुके होते हैं और कुछ अभी अनिर्मित अवस्था में होते हैं।
सुनने और देखने की इंद्रिया
मां के गर्भाशय में विकसित हो रहे मानवीय अस्तित्व
में सब से पहले जो इंद्रिय जन्म लेती है वह श्रवण इंद्रियां होती है। 24
सप्ताह के बाद परिपक्व भ्रूण Mature Foetus आवाजें सुनने के योग्य हो जाता है। फिर गर्भ के
28 वें सप्ताह तक दृष्टि इंद्रियां भी अस्तित्व में आ जाती हैं और दृष्टिपटलः Retina रौशनी के लिये
अनुभूत हो जाता है। इस प्रक्रिया के बारे में पवित्र क़ुरआन यूं फ़रमाता है:
‘‘फिर उसको नक – सक से ठीक किया और उसके अंदर अपने प्राण डाल दिये और तुम को
कान दिये, आंखें दी और दिल दिये, तुम लोग कम ही शुक्रगुज़ार होते हो।‘‘(अल-क़ुरआन: सूर: 32 आयत 9)
‘‘हम ने मानव को एक मिश्रित वीर्य से पैदा किया ताकि
उसकी परीक्षा लें और इस उद्देश्य के लिये हम ने उसे
सुनने और देखने वाला बनाया‘‘। (अल-क़ुरआन: सूर 76 आयत .2)
‘‘वह अल्लाह ही तो है जिसने तुम्हें देखने और सुनने
की शक्तियां दीं और सोचने को दिल दिये मगर तुम लोग कम
ही शुक्रगुज़ार होते हो।‘‘(अल-क़ुरआन:सूरः23 आयत 78)
ध्यान दीजिये कि तमाम पवित्र आयतों में श्रवण-इंद्रिय
की चर्चा दृष्टि-इंद्रिय से पहले आयी हुई है इससे सिद्व हुआ कि पवित्र क़ुरआन द्वारा प्रदत्त व्याख्याएं, आधुनिक प्रजनन
विज्ञान में होने वाले शोध और खोजों से पूरी तरह मेल खाते हैं या समान है।
सार्वजनिक विज्ञान/ General Science
उंगल-चिन्ह के निशानः ; (Finger Prints)
‘‘क्या मानव यह
समझ रहा है कि हम उसकी हड़डियों को एकत्रित न कर सकेंगे? क्यों नहीं ? हम तो उसकी उंगलियों के पोर õ पोर तक ठीक बना देने का प्रभुत्व रखते हैं।‘‘(अल-क़ुरआन: सूर:75 आयत. 3 से 4)
काफ़िर या गै़र मुस्लिम आपत्ति करते हैं कि जब कोई व्यक्ति मृत्यु के बाद मिटटी में मिल जाता है और उसकी हड़डियां तक ख़ाक में मिल जाती हैं तो यह कैसे सम्भव है कि ‘‘क़यामत के दिन उसके शरीर का एक – एक अंश पूनः एकत्रित हो कर पहले वाली जीवित अवस्था में वापिस आजाए ? और अगर ऐसा हो भी गया तो क़यामत के दिन उस व्याक्ति की ठीक-ठीक पहचान किस प्रकार होगी ? अल्लाह तआला ने उपर्युक्त पवित्र आयत में इस आपत्ति का बहुत ही स्पष्ट उत्तर देते हुए कहा है कि वह (अल्लाह) सिर्फ इसी पर प्रभुत्व (कुदरत)नहीं रखता की चूर -चूर हड़डियों को वापिस एकत्रित कर दे बल्कि इस पर भी प्रभुत्व रखता है कि हमारी उंगलियों की पोरों तक को दुबारा से पहले वाली अवस्था में ठीक – ठीक परिवर्तित कर दे।
सवाल यह है कि जब पवित्र क़ुरआन मानवीय मौलिकता
के पहचान की बात कर रहा है तो ‘उंगलियों के
पोरों, की विशेष चर्चा क्यों कर रहा है? सर फ्रांस गॉल्ट की तहक़ीक़ के बाद 1880 ई0 में उंगल – चिन्ह Finger Prints को पहचान के
वैज्ञानिक विधि का दर्जा प्राप्त हुआ आज हम यह जानते हैं कि इस संसार में किसी दो व्यक्ति
के उंगल – चिन्ह का नमूना
समान नहीं हो सकता। यहां तक कि हमशक्ल जुड़ुवां भाई बहनों का भी नहीं, यही कारण है
कि आज तमाम विश्व में अपराधियों की पहचान के लिये उनके उंगल चिन्ह का ही उपयोग किया
जाता है। क्या कोई बता
सकता है कि आज से 1400 वर्ष पहले किसको उंगल चिन्हों की विशेषता और उसकी मौलिकता के
बारे में मालूम था? यक़ीनन ऐसा
ज्ञान रखने वाली ज़ात अल्लाह तआला के सिवा किसी और की नहीं हो सकती।
त्वचा में दर्द के अभिग्राहकः Receptors
पहले यह समझा जाता था कि अनुभूतियां और दर्द केवल
दिमाग़ पर निर्भर होती है। अलबत्ता हाल के शोध से यह जानकारी मिली है कि
त्वचा में दर्द को अनुभूत करने वाले ‘‘अभिग्राहक: Receptors होते हैं। अगर ऐसी कोशिकाएं न हों
तो मनुष्य दर्द की अनुभूति (महसूस) करने योग्य नहीं रहता । जब कोई ड़ॉ. किसी रोगी में
जलने के कारण पड़ने वाले घावों को इलाज के लिये, परखता है तो वह जलने का तापमान मालूम करने के
लिये: जले हुए स्थल पर सूई चुभोकर देखता है अगर सुई चुभने से प्रभावित व्यक्ति को दर्द
महसूस होता है,
तो चिकित्सक
या डॉक्टर को इस पर प्रसन्नता होती है। इसका अर्थ यह होता है कि जलने का घाव केवल त्वचा
के बाहरी हद तक है और दर्द महसूस करने वाली केशिकाएं जीवित और सुरक्षित हैं। इसके प्रतिकूल
अगर प्रभावित व्यक्ति को सुई चुभने पर दर्द अनुभूत नहीं हो तो यह चिंताजनक स्थिति होती
है क्योंकि इसका अर्थ यह है कि जलने के कारण बनने वाले घाव: ज़ख़्म की गहराई अधिक है
और दर्द महसूस करने वाली कोशिकाएं भी मर चुकी हैं।
‘‘जिन लोगों ने हमारी आयतों को मानने से इन्कार कर
दिया उन्हें निस्संदेह, हम आग में झोंकेंगे और जब उनके शरीर की‘त्वचा: खाल गल जाएगी तो, उसकी जगह दूसरी त्वचा पैदा कर देंगे ताकि वह खू़ब यातना: अज़ाब
का स्वाद चखें अल्लाह बड़ी ‘कु़दरत: प्रभुता‘‘रखता है और अपने फै़सलों को व्यवहार में लाने का ‘विज्ञान: हिक्मत‘भली भांति जानता है। (अल-क़ुरआन:सूर:
4 आयत .56)
थाईलैण्ड में – चियांग माई युनीवर्सिटी के उदर विभागः Department of Anatomy के संचालक प्रोफ़ेसर तीगातात तेजासान ने दर्द कोशिकाओं के संदर्भ में शोध पर बहुत समय खर्च किया पहले तो उन्हे विश्वास ही नहीं हुआ कि पवित्र कु़रआन ने 1400 वर्ष पहले इस वैज्ञानिक यथार्थ का रहस्य उदघाटित कर दिया था। फिर इसके बाद जब उन्होंने उपरोक्त पवित्र आयतों के अनुवाद की बाज़ाब्ता पुष्टि करली तो वह पवित्र क़ुरआन की वैज्ञानिक सम्पूर्णता से बहुत ज़्यादा प्रभावित हुए। तभी यहां सऊदी अरब के रियाज़ नगर में एक सम्मेलन आयोजित हुआ जिसका विषय था ‘‘पविन्न क़ुरआन और सुन्नत में वैज्ञानिक निशानियां‘‘ प्रोफ़ेसर तेजासान भी उस सम्मेलन में पहुंचे और सऊदी अरब के शहर रियाज़ में आयोजित ‘‘आठवें सऊदी चिकित्सा सम्मेलन‘‘ के अवसर पर उन्होंने भारी सभा में गर्व और समर्पण के साथ सबसे पहले कहा: ‘अल्लाह के सिवा कोई माबूद पूजनीय नहीं, और (मुहम्मद स.अ.व.)उसके रसूल हैं।‘‘
अंतिमाक्षर Final Verdict
पवित्र क़ुरआन में वैज्ञानिक यथार्थ की उपस्थिति
को संयोग क़रार देना दर अस्ल एक ही समय में वास्तविक बौद्धिकता और सही वैज्ञानिक
दृष्टिकोण के बिल्कुल विरूद्व है। वास्ताव में क़ुरआन की पवित्र आयतों में शाश्वत वैज्ञानिकता, पवित्र क़ुरआन
की स्पष्ट घोषणाओं की ओर संकेत करती है:
‘‘शीध्र ही हम उनको अपनी निशानियां सृष्टि में भी
दिखाएंगे और उनके अपने ‘‘नफ़्स: मनस्थिति‘में भी यहां तक कि उन पर यह
बात खुल जाएगी कि यह पवित्र क़ुरआन बरहक़: शाश्वत-सत्य है। क्या यह पर्याप्त नहीं कि
तेरा रब प्रत्येक वस्तु का गवाह है। (अल-क़ुरआन:सूर: 41 आयत .53)
पवित्र क़ुरआन तमाम मानवजाति को निमंत्रण देता है
कि वे सब कायनात: सृष्टि‘‘ की संरचना और उत्पत्ति पर चिंतन मनन
करें:
‘‘ज़मीन और आसमानों के जन्म में और रात और दिन की
बारी बारी से आने में उन होशमंदों के लिये बहुत निशानियां
हैं।‘‘(अल-क़ुरआन: सूर 3 आयत 190)
पवित्र क़ुरआन में उपस्थित वैज्ञानिक साक्ष्य और
अवस्थाएं सिद्ध करते हैं कि यह वाकई ‘‘इल्हामी‘‘ माध्यम से अवतरित हुआ है। आज से 1400 वर्ष पहले
कोई व्यक्ति ऐसा नहीं था जो इस तरह महत्वपूर्ण और सटीक वैज्ञानिक यथार्थो पर अधारित
कोई किताब लिख सकता।
यद्यपि पवित्र क़ुरआन कोई वैज्ञानिक ग्रंथ नहीं
है बल्कि यह ‘निशानियों – Signs की पुस्तक है। यह निशानियां सम्पूर्ण
मानव समुह को निमन्त्रणः दावत देती हैं कि वह पृथ्वी पर अपने अस्तित्व के प्रयोजन और
उद्देश्य की अनुभूति करें और प्रकृति से समानता अपनाए हुए रहें। इसमें कोई संदेह नहीं
कि पवित्र क़ुरआन अल्लाह ताला द्वारा अवतरित ‘वाणीः कलाम है रब्बुल आलमीनः सृष्टि के ईश्वर
की वाणी है,
जो सृष्टि
का सृजन करने वाला रचनाकार और मालिक भी है और इसका संचालन भी कर रहा है।
इसमें अल्लाह तआ़ला की एकात्मता वहदानियत के होने
का वही संदेश है जिसका, प्रचारः तबलीग़ हज़रत आदम अलैहिस्सलाम, हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम
और हुजू़र नबी ए करीम हज़रत मुहम्मद स.अ.व. तक तमाम पैग़म्बरों ने किया है।
पवित्र क़ुरआन और आधुनिक विज्ञान के विषय पर अब
तक बहुत कुछ विस्तार से लिखा जा चुका है और इस क्षेत्र में प्रत्येक क्षण निरंतर शोध
जारी है। इन्शाअल्लाह यह शोध भी मानवीय समूह को अल्लाह तआला की वाणी के निकट लाने में सहायक सिद्ध होगा
इस संक्षिप्त सी किताब में पवित्र क़ुरआन द्वारा प्रस्तुत केवल कुछेक वैज्ञानिक यथार्थ
संग्रहित किये गये है मै यह दावा नहीं कर सकता कि मैंने इस विषय के साथ पूरा पूरा इंसाफ़
किया है।
जापानी प्रोफ़ेसर तेजासान ने पवित्र कुरआन में बताई हुई केवल एक वैज्ञानिक निशानी के अटल यथार्थ होने के कारण,, इस्लाम मज़हब धारण किया बहुत सम्भव है कि कुछ लोगों को दस और कुछेक को 100 वैज्ञानिक निशानियों की आवश्यकता हो ताकि वे सब यह मान लें कि पवित्र क़ुरआन अल्लाह द्वारा अवतरित है। कुछ लोग शायद ऐसे भी हों जो हज़ार निशानियां देख लेने और उसकी पुष्टि के बावजूद सच्चाई। सत्य को स्वीकार न करना चाहते हों।पवित्र कुरआन ने निम्नलिखित आयतों में, ऐसे अनुदार दृष्टिकोण वालों की ‘भर्त्सनाः मुज़म्मत की है।‘बहरे हैं, गूंगे हैं, अंधे हैं यह अब नहीं पलटेंगे‘‘‘(अल-क़ुरआन: सूर 2 आयत 18)
पवित्र क़ुरआन वैयक्तिक जीवन और सामूहिक समाज ,तमाम लोगों के लिये ही सम्पूर्णजीवन आचारण
है। अलहम्दुलिल्लाह पवित्र क़ुरआन हमें ज़िन्दगी गुज़ारने का जो तरीका़ बताता है वे
इस सारे, वादों Isms से बहुत ऊपर
है, जिसे आधुनिक
मानव ने केवल अपनी नासमझी और अज्ञानता के आधार पर अविष्कृत: ईजाद किये हैं। क्या यह
सम्भव है कि स्वंय सृजक और रचनाकार मालिक से ज़्यादा बेहतर नेतृत्व कोई और दे सके? मेरी ‘प्रार्थना दुआ‘ है कि अल्लाह
तआ़ला मेरी इस मामूली सी कोशिश को स्वीकार करे हम पर ‘दया‘ रहम‘ करे और हमें
सन्मार्गः सही रास्ता दिखाए आमीन।
Historical Mosque in Kaashi Banaras
यह एक ऐसा इतिहास है जिसे पन्नो से तो हटा दिया गया है लेकिन निष्पक्ष इन्सान और हक परस्त लोगों के दिलो में से चाहे वो किसी भी कौम का इन्सान हो, मिटाया नहीं जा सकता, और क़यामत तक इंशा अल्लाह ! मिटाया नहीं जा सकेगा.
मुसलमान बादशाह के हुकूमत में
दुसरे मजहब के लिए इंसाफ
हज़रत औरंगजेब आलमगीर रह्मतुल्लाहिअलैह की हुकूमत में काशी बनारस में एक पंडित की लड़की थी जिसका नाम शकुंतला था, उस लड़की को एक मुसलमान जाहिल सेनापति ने अपनी हवस का शिकार बनाना चाहा, और उस के बाप से कहा के तेरी बेटी को डोली में सजा कर मेरे महल पे ८ दीन में भेज देना. पंडित ने यह बात अपनी बेटी से कही. उनके पास कोई रास्ता नहीं था. और पंडित से बेटीने कहा के १ महीने का वक़्त ले लो कोई भी रास्ता निकल जायेगा.
पंडित ने सेनापति से जाकर कहा के, “मेरे पास इतने पैसे नहीं है के मै ८ दीन में
सजा कर लड़की को भेज सकू. मुझे महीने का वक़्त दो.”
सेनापति ने कहा “ठीक है ! ठीक महीने के बाद
भेज देना”.
पंडित ने अपनी लड़की से जाकर कहा “वक़्त मिल गया है अब ?”
लड़की ने मुग़ल सहजादे का लिबास पहना और अपनी
सवारी को लेकर दिल्ली की तरफ निकल गयी. कुछ दीन के बाद दिल्ली पोह्ची, वो दीन जुमा का दीन था. और जुमा के दीन हज़रत
औरंगजेब आलमगीर रह्मतुल्लाहिअलैह नमाज़ के बाद जब मस्जिद से बहार निकलते तो लोग
अपनी फरियाद एक चिट्ठी में लिख कर मस्जिद के सीढियों के दोनों तरफ खड़े रहते. और
हज़रत औरंगजेब आलमगीर रह्मतुल्लाहिअलैह वो चिट्ठिया उनके हाथ से लेते जाते, और फिर कुछ दिनों में फैसला
(इंसाफ) फरमाते.
वो लड़की भी इस क़तार में जाकर खड़ी हो गयी, उस के चहरे पे नकाब था, और लड़के का लिबास (ड्रेस)
पहना हुआ था, जब
उसके हाथ से चिट्ठी लेने की बारी आई तब हज़रत औरंगजेब आलमगीर रह्मतुल्लाहिअलैह ने
अपने हाथ पर एक कपडा दाल कर उसके हाथ से चिट्ठी ली.
तब वो बोली महाराज मेरे साथ यह नाइंसाफी क्यों ? सब लोगो से आपने सीधे तरीके
से चिट्ठी ली और मेरे पास से हाथो पर कपडा रख कर ???
तब हज़रत औरंगजेब आलमगीर रह्मतुल्लाहिअलैह ने
फ़रमाया के “इस्लाम में
गैर महराम (पराई औरतो) को हाथ लगाना भी हराम है, और मै जानता हु तु लड़का
नहीं लड़की है.
और वोह लड़की बादशाह के साथ कुछ दीन तक ठहरी, और अपनी फरियाद सुनाई,
बादशाह हज़रत औरंगजेब आलमगीर रह्मतुल्लाहिअलैह
ने उस से कहा “बेटी तू लौट
जा तेरी डोली सेनापति के महल पोहोचेगी अपने वक़्त पर”.
लड़की सोच में पड गयी के यह क्या ? वो अपने घर लौटी और उस के
बाप पंडित ने कहा क्या हुआ बेटी, तो वो बोली एक ही रास्ता था मै हिंदुस्तान के
बादशाह के पास गयी थी, लेकिन उन्होंने भी ऐसा ही कहा के डोली उठेगी, लेकिन मेरे दिल में एक
उम्मीद की किरण है, वोह ये है के मै जितने दीन वह रुकी बादशाह ने
मुझे १५ बार बेटी कह कर पुकारा था. और एक बाप अपनी बेटी की इज्ज़त नीलाम नहीं होने
देगा.
और डोली सजधज के सेनापति के महल पोह्ची, सेनापति ने डोली देख के
अपनी अय्याशी की ख़ुशी फकीरों को पैसे लुटाना शुरू किया. जब पैसे लुटा रहा था तब एक
कम्बल-पोश फ़क़ीर जिसने अपने चेहरे पे कम्बल ओढ रखी थी.
उसने कहा “मै ऐसा-वैसा फकीर नहीं हु, मेरे हाथ में पैसे दे”,
उसने हाथ में पैसे दिए और उन्होंने अपने मुह
से कम्बल हटा दी तोह औरंगजेब आलमगीर रह्मतुल्लाहिअलैह खुद थे.
उन्होंने कहा के तेरा एक पंडित की लड़की की
इज्ज़त पे हाथ डालना मुसलमान हुकूमत पे दाग लगा सकता है , और आप हज़रत औरंगजेब आलमगीर
रह्मतुल्लाहिअलैह ने इंसाफ फ़रमाया.
४ हाथी मंगवा कर सेनापति के दोनों हाथ और पैर
बाँध कर अलग अलग दिशा में हाथियों को दौड़ा दिया गया. और सेनापति को चीर दिया गया.
फिर आपने पंडित के घर पर एक चबूतरा था उस
चबूतरे के पास दो रकात नमाज़ नफिल शुक्राने की अदा की , और दुआ की के, “ए अल्लाह मै तेरा शुक्रगुजार हु, के तूने मुझे एक हिन्दू
लड़की की इज्ज़त बचाने के लिए, इंसाफ करने के लिए चुना.
फिर हज़रत औरंगजेब आलमगीर रह्मतुल्लाहिअलैह ने
कहा “बेटी
१ ग्लास पानी लाना !”
लड़की पानी लेकर आइ, तब आपने फ़रमाया के जिस दीन
दिल्ली में मैंने तेरी फरियाद सुनी थी उस दीन से मैंने क़सम खायी थी के जब तक तेरे
साथ इंसाफ नहीं होगा पानी नहीं पिऊंगा.
तब शकुंतला के बाप पंडित और काशी बनारस के
दुसरे हिन्दू भाइयो ने उस चबूतरे के पास एक मस्जिद तामीर की. जिसका नाम “धनेडा की मस्जिद” रखा गया. और पंडितो ने ऐलान
किया के ये बादशाह औरंगजेब आलमगिर के इंसाफ की ख़ुशी में हमारी तरफ से और सेनापति
को जो सझा दी गई वो इंसाफ एक सोने की तख़्त (Gold Slate) पर लिखा गया था वो आज भी उस मस्जिद में मौजुद
है, लेकिन
शकुंतला के इंसाफ में दिल्ली से बनारस तक् का वो तारीखी सफ़र जो हज़रत औरंगजेब
आलमगिर ने किया था वो आज इतिहास के पन्नो में छुपा दिया गया.. ना जाने क्यों ????? खुदाया खैर करे नाइंसाफी के
फ़ितनो से !!!!
इस्लाम इंसाफ का आईना
जो लोग मुसलमानों को जालिम की नज़र से देखते है वो इस बात पर जरुर गौर करे के, इस्लाम तलवार की जोर पर फैला नहीं है और अगर ऐसा होता तो आज हिंदुस्तान में एक भी नॉनमुस्लिम नहीं होता, क्यूंकि इस्लामी मुघलो की हुकूमत पुरे हिंदुस्तान में कई बरसो तक कायम रही थी और उनके लिए बिलकुल भी नामुमकिन नहीं था तमाम नोंमुस्लिम के साथ वो हश्र करना जो हिटलर ने यहूदियों के साथ किया.
• याद
रखे के हमारे देश हिंदुस्तान में कभी भी धर्म युद्ध था ही नहीं, जो भी हुआ है वो चंद
सियासतदारो की साजिशे थि जिसके जर्ये वो अपना मकसद हासिल करना चाहते थे. और हमारी
तुम्हारी आपसी दुश्मनी का बेशुमार फायदा उन्होंने उठा भी लिया”.
• यह भी याद रहे के दंगो में ना मुसलमान मरता है
और ना ही हिन्दू मरता है... दंगो में इंसानियत मर जाती है... घरो की इज्ज़त-ओ-आबरू
लुट जाती है...
हिन्दू मुसलमान के नाम पर दंगे करवाने वाले न कभी
इंसानों में थे और न ही कभी उनकी गिनती इंसानों में की जायेगी, उनके हैवानियत का बदला
उन्हें दुनिया में भी मिलेगा और आखिरत में भी उनके लिए दर्दनाक अजाब है . सिवाय उन
लोगों के जिन्हें अपनी गलतीयों पर शर्मिंदगी महसूस हुई और तौबा कर सच्छे परवरदिगार
की फरमाबरदारी में लग गए.
• क्यूंकि इस्लाम हर हाल में अमन चाहता है इसलिए
इस्लाम आज दुनिया का सबसे बड़ा मजहब है जो तेजी से फ़ैल रहा है सिर्फ इसलिए क्यूंकि
लोग इस धर्म की सच्चाई को जानने की चाहत रखते है.
और यकींन जानो अल्लाह उसे जरुर हिदायत का मौका
अता फरमाता है जो नेकी की राह (सीराते मुस्तकीम) पर चलने की नियत (दुआ) भी करता
हो.
इसिलिये मेरे भाइयों और बहनों हम लोग दिल ही
दिल में उस सच्चे परवरदिगार से दुआ करे के वो हमें सही राह चलाए हराम कामो से
हमारी सलामती अता फरमाए, और तुम्हे हक-परस्त बनाये !!! आमीन …
!! ए अल्लाह पाक हमे हर हाल में इंसाफ के साथ
नेकी की राह पर चलने की तौफिक अता फरमा. इंसाफ पर जिंदगी और इंसाफ पर ईमान के साथ
शहादत अता फरमा, नबी-ए-पाक
की नायाब सुन्नतो पर अमल की तौफिक अता फरमा !! आमीन ….
अल्लाह तआला हमे पढ़ने-सुनने से ज्यादा अमल की
तौफिक दे !!! आमीन
प्रशन
व उत्तर
कुरान से
पहले मुस्लिम कौन सी किताब का अनुसरण करते थे??
सवाल: कुरान दुनिया मे आने से पहले मुस्लिम कौन सी किताब का अनुसरण करते थे…??
जवाब: कुरआन नाजिल होने से पहले वहां चार किस्म के लोग थे - (1) यहूदी = हज़रत
मूसा (अलैह सलाम) के मानने वाले, इनके पास आसमानी किताब थी जिसे आज दुनिया (Old Testament) के नाम से जानती है और उसे ही तोरेत कहा जाता
है ये किताब हज़रत मूसा पर नाज़िल हुई थी.
(2) ईसाई = हज़रत
ईसा (अलैह सलाम) के मानने वाले, हज़रत ईसा (अलैह सलाम) पर इंजील नाम की किताब
नाज़िल हुई जिसे दुनिया (New Testament) के नाम से
जानती है.
(3) मक्का के मुशरिक = हज़रत इब्राहिम को मानने वाले, इन पर भी किताब
नाज़िल हुई थी जिसे सुहुफे इब्राहीम के नाम से जाना जाता है इस का कुछ हिस्सा इनके
पास मौजूद था.
(4) साबिईन = इन लोगों को आसमानी किताबों का इल्म नहीं था और यह तारे चाँद सूरज
वगैरह की पूजा किया करते थे.
इनमे साबिईन को
छोड़ कर बाकि तीनो गिरोह हज़रत इब्राहीम को अपना मानते थे और आज भी मानते हैं इसलिए
यहूदी, ईसाई, और मुसलमानों को ”इब्रहिमिक” कहा जाता है.
यहूदी, ईसाई और मक्का के मुशरिक बहुत पहले एक अल्लाह की ही इबादत करते थे लेकिन धीरे
धीरे वक़्त के साथ उन्होंने दीन (धर्म) में नई नई चीज़ें अपनी मर्ज़ी से मिलादी थी
जिससे असल दीन की शकल बिगड़ती गई यहाँ तक की उन्होंने अल्लाह के साझी (Partner) भी अपने मन से बना लिए, उनमे से कुछ फरिश्तों को अल्लाह की बेटियाँ
कहते तो कोई किसी नबी हो अल्लाह का बेटा कहने लगा था(माझल्लाह), काबे के अन्दर उन सबके बुत रख कर वो उनकी पूजा करने लगे थे उनमे हज़रत इब्राहीम
(अलैह सलाम) का भी एक बहुत बड़ा बुत उन्होंने बाया हुआ था,
ऐसे हालत में
कुरान नाजिल हुआ और उसने लोगों को बताया की हज़रत इब्राहीम (अलैह सलाम) सिर्फ एक
अल्लाह की इबादत किया करते थे वो अल्लाह का साझी किसी को नहीं बनाते थे (सूरेह
बक्राह आयत 135) तो तुम सब उनके ही रस्ते पर चलो वो ही सीधा
रास्ता है, दीने इस्लाम वोही हज़रत इब्राहीम (अलैह सलाम)
का असल दीन है. जो सारे पैगम्बरों का असल दीन रहा है, पैगम्बर लोगों को उनके असल रब का रास्ता दिखाने आते थे, ताकि लोग सही रब को पहचान लें और उसका कुर्ब (नजदीकी) हासिल करें…
क्या
इस्लाम तलवार के ज़ोर से फैला है ?
प्रश्नः यह
कैसे संभव है कि इस्लाम को शांति का धर्म माना जाए क्योंकि यह तो तलवार (युद्ध और
रक्तपात) के द्वारा फैला है?
उत्तरः अधिकांश
ग़ैर मुस्लिमों की एक आम शिकायत है कि यदि इस्लाम ताकष्त के इस्तेमाल से न फैला
होता तो इस समय उनके अनुयायियों की संख्या इतनी अधिक (अरबों में) हरगिज़ नहीं
होती। आगे दर्ज किये जा रहे तथ्य यह स्पष्ट करेंगे कि इस्लाम के तेज़ी से
विश्वव्यापी फैलाव में तलवार की शक्ति नहीं वरन् उसकी सत्यता तथा बुद्धि और
विवेकपूर्ण तार्किक प्रमाण इसके मुख्य कारण है।
इस्लाम
का अर्थ है ‘शांति’ अरबी भाषा में इस्लाम शब्द ‘सलाम’ से बना है जिसका अर्थ है, सलामती और शांति। इस्लाम का
एक अन्य अर्थ है कि अपनी इच्छा और इरादों को ईश्वर (अल्लाह) के आधीन कर दिया जाए।
अर्थात इस्लाम शांति का धर्म है और यह शांति (सुख संतोष और सुरक्षा) तभी प्राप्त
हो सकती है जब मनुष्य अपने आस्तित्व, इच्छाओं ओर आकांक्षाओं को ईश्वर के आधीन कर दे
अर्थात स्वंय को पूरी तरह समर्पित कर दे। कभी-कभार शांति बनाए रखने के लिए बल
प्रयोग करना पड़ता है
इस संसार का प्रत्येक व्यक्ति शांति और एकता स्थापित रखने के पक्ष में नहीं है। ऐसे अनेकों लोग हैं जो अपने निहित अथवा प्रत्यक्ष स्वार्थों की पूर्ति के लिए शांति व्यवस्था में व्यावधान उत्पन्न करते रहते हैं, अतः कुछ अवसरों पर बल प्रयोग करना पड़ता है। यही कारण है कि प्रत्येक देश में पुलिस विभाग होता है जो अपराधियों और समाज विरोधी तत्वों के विरुद्ध शक्ति का प्रयोग करता है ताकि देश में शांति व्यवस्था बनी रहे। इस्लाम शांति का सन्देश देता है। इसी के साथ वह हमें यह शिक्षा भी देता है कि अन्याय के विरुद्ध लड़ें। अतः कुछ अवसरों पर अन्याय और अराजकता के विरुद्ध बल प्रयोग आवश्यक हो जाता है। विदित हो कि इस्लाम में शक्ति का प्रयोग केवल और केवल शांति तथा न्याय की स्थापना एवं विकास के लिए ही किया जा सकता है।
इतिहासकार
लेसी ओलेरी की राय
इस्लाम
तलवार के ज़ोर से फैला, इस सामान्य भ्रांति का सटीक जवाब प्रसिद्ध
इतिहासकार लेसी ओलेरी ने अपनी विख्यात पुस्तक ‘‘इस्लाम ऐट दि क्रास रोड’’ पृष्ठ 8) में इस प्रकार
दिया है।
‘‘इतिहास से सिद्ध होता है कि लड़ाकू मुसलमानों
के समस्त विश्व में फैलने और विजित जातियों को तलवार के ज़ोर पर इस्लाम में
प्रविष्ट करने की कपोल-कल्पित कहानी उन मनगढ़ंत दंतकथाओं में से एक है जिन्हें
इतिहासकार सदैव से दोहराते आ रहे हैं।’’
मुसलमानों
ने स्पेन पर 800 वर्षों तक शासन किया स्पेन पर मुसलमानों का 800 वर्षों तक एकछत्र
शासन रहा है परन्तु स्पेन में मुसलमानों ने वहाँ के लोगों का धर्म परिवर्तन अर्थात
मुसलमान बनाने के लिए कभी तलवार का उपयोग नही किया। बाद में सलीबी ईसाईयों ने
स्पेन पर कष्ब्ज़ा कर लिया और मुसलमानों को वहाँ से निकाल बाहर किया, तब यह स्थिति थी कि स्पेन
में किसी एक मुसलमान को भी यह अनुमति नहीं थी कि वह आज़ादी से अज़ान ही दे सकता।
एक
करोड़ 40 लाख अरब आज भी कोपटिक ईसाई हैं
मुसलमान
विगत् 1400 वर्षों से अरब के शासक रहे हैं। बीच के कुछ वर्ष ऐसे हैं जब वहाँ
फ्ऱांसीसी अधिकार रहा परन्तु कुल मिलाकर अरब की धरती पर मुसलमान 14 शताब्दियों से
शासन कर रहे हैं। इसके बावजूद वहाँ एक करोड़ 40 लाख कोपटिक क्रिश्चियन हैं, अर्थात वह ईसाई जो पीढ़ी दर
पीढ़ी वहाँ रहते चले आ रहे हैं। यदि मुसलमानों ने तलवार इस्तेमाल की होती तो उस
क्षेत्र में कोई एक अरबवासी भी ऐसा नहीं होता जो ईसाई रह जाता।
भारत
में 80 प्रतिशत से अधिक ग़ैर मुस्लिम हैं
भारत में मुसलमानों ने लगभग 1000 वर्षों तक शासन किया है। यदि वे चाहते, और उनके पास इतनी शक्ति थी कि भारत में बसने वाले प्रत्येक ग़ैर मुस्लिम को (तलवार के ज़ोर पर) इस्लाम स्वीकार करने पर विवश कर सकते थे। आज भारत में 80 प्रतिशत से अधिक ग़ैर मुस्लिम हैं। इतनी बड़ी गै़र मुस्लिम जनसंख्या यह स्पष्ट गवाही दे रही है कि उपमहाद्वीप में इस्लाम तलवार के ज़ोर पर हरगिज़ नहीं फैला।
इंडोनेशिया
और मलेशिया
जनसंख्या के आधार पर इंडोनेशिया विश्व का सबसे बड़ा इस्लामी देश है। मलेशिया में भी मुसलमान बहुसंख्यक हैं। यह पूछा जासकता है कि वह कौन सी सेना थी जिसने (सशस्त्र होकर) इंडोनेशिया और मलेशिया पर आक्रमण किया था और वहाँ इस्लाम फैलाने के लिए मुसलमानों की कौन सी युद्ध शक्ति का इसमें हाथ है?
अफ्ऱीक़ा का पूर्वी समुद्र तट
इसी
प्रकार अफ्ऱीकी महाद्वीप के पूर्वी समुद्रतट के क्षेत्र के साथ-साथ इस्लाम का
तीव्रगति से विस्तार हुआ है। एक बार फिर वही प्रश्न सामाने आता है कि यदि इस्लाम
तलवार के ज़ोर से फैला है तो आपत्ति करने वाले इतिहास का तर्क देकर बताएं कि किस
देश की मुसलमान सेना उन क्षेत्रों को जीतने और वहाँ के लोगों को मुसलमान बनाने गई
थी?
थामस
कारलायल
प्रसिद्ध
इतिहासकार थामस कारलायल अपनी पुस्तक ‘‘हीरोज़ एण्ड हीरो वर्शिप’’ में इस्लाम फैलने के विषय
में भ्रांति का समाधान करते हुए लिखता हैः
‘‘तलवार तो है, परन्तु आप तलवार लेकर वहाँ जाएंगे? प्रत्येक नई राय की शुरूआत अल्पमत में होती है। (आरंभ में) केवल एक व्यक्ति के मस्तिष्क में होती है, यह सोच वहीं से पनपती है। इस विश्व का केवल एक व्यक्ति जो इस बात पर विश्वास रखता है, केवल एक व्यक्ति जो शेष समस्त व्यक्तियों के सामने होता है, फिर (यदि) वह तलवार उठा ले और (अपनी बात) का प्रचार करने का प्रयास करने लगे तो वह थोड़ी सी सफलता ही पा सकेगा। आप के पास अपनी तलवार अवश्य होनी चाहिए परन्तु कुल मिलाकर कोई वस्तु उतना ही फैलेगी जितना वह अपने तौर पर फैल सकती है।’’
दीन
(इस्लाम) में कोई ज़बरदस्ती नहीं
इस्लाम किस तलवार द्वारा फैला? यदि मुसलमानों के पास यह तलवार होती और उन्होंने इस्लाम फैलाने के लिये उसका प्रयोग किया भी होता तब भी वे उसका प्रयोग नहीं करते क्योंकि पवित्र क़ुरआन का स्पष्ट आदेश हैः ‘‘दीन के बारे में कोई ज़बरदस्ती नहीं है, सही बात ग़लत बात से छाँटकर रख दी गई है।’’ (पवित्र क़ुरआन, 2:256)
ज्ञान, बुद्धि और तर्क की तलवार
वास्तविकता
यह है कि जिस तलवार ने इस्लाम को फैलाया, वह ज्ञान, बुद्धि और तर्क की तलवार है। यही वह तलवार है
जो मनुष्य के हृदय और मस्तिष्क को विजित करती है। पवित्र कुरआन के सूरह ‘अन्-नह्ल’ में अल्लाह का फ़रमान हैः
‘‘हे नबी! अपने रब के रास्ते की तरफ़ दावत दो, ज्ञान और अच्छे उपदेश के साथ लोगों से तर्क-वितर्क करो, ऐसे ढंग से जो बेहतरीन हो। तुम्हारा रब ही अधिक बेहतर जानता है कि कौन राह से भटका हुआ है और कौन सीधे रास्ते पर है।’’ (पवित्र क़ुरआन, 16:125)
इस्लाम 1934 से 1984 के बीच
विश्व
में सर्वाधिक फैलने वाला धर्म रीडर्स डायजेस्ट, विशेषांक 1984 में
प्रकाशित एक लेख में विश्व के प्रमुख धर्मों में फैलाव के आंकड़े दिये गये हैं जो
1934 से 1984 तक के 50 वर्षों का ब्योरा देते हैं। इसके पश्चात यह लेख ‘दि प्लेन ट्रुथ’’ नामक पत्रिका में भी प्रकाशित
हुआ। इस आकलन में इस्लाम सर्वोपरि था जो 50 वर्षों में 235 प्रतिशत बढ़ा था। जबकि
ईसाई धर्म का विस्तार केवल 47 प्रतिशत रहा। क्या यह पूछा जा सकता है कि इस शताब्दी
में कौन सा युद्ध हुआ था जिसने करोड़ों लोगों को धर्म परिवर्तन पर बाध्य कर दिया?
इस्लाम
यूरोप और अमरीका में सबसे अधिक तेज़ी से फैलने वाला धर्म है इस समय इस्लाम अमरीका
में सबसे अधिक तेज़ी से फैलने वाला धर्म है। इसी प्रकार यूरोप में भी तेज़ गति से
फैलने वाला धर्म भी इस्लाम ही है। क्या आप बता सकते हैं कि वह कौन सी तलवार है जो
पश्चिम के लोगो को इस्लाम स्वीकार करने पर विवश कर रही है।
डा.
पीटर्सन का मत डा. जोज़फ़ एडम पीटर्सन ने बिल्कुल ठीक कहा है किः ‘‘जो लोग इस
बात से भयभीत हैं कि ऐटमी हथियार एक न एक दिन अरबों के हाथों में चले जाएंगे, वे यह समझ पाने में असमर्थ हैं कि इस्लामी बम तो गिराया जा चुका है, यह बम तो उसी दिन गिरा दिया गया था जिस दिन मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि
वसल्लम का जन्म हुआ था।’’
खतना इंसान की
कई बड़ी बीमारियों से हिफाजत करता है।
इस समय खतना (सुन्नत) यूरोपीय देशों में बहस
का विषय बना हुआ है। खतने को लेकर पूरी दुनिया में एक जबरदस्त बहस छिड़ी हुई है।
इस पर विवाद तब शुरू हुआ जब जर्मनी के कोलोन शहर की जिला अदालत ने अपने एक फैसले
में कहा कि शिशुओं का खतना करना उनके शरीर को कष्टकारी नुकसान पहुंचाने के बराबर
है। फैसले का जबर्दस्त विरोध हुआ। इस मुद्दे का अहम पहलू हाल ही आया अमरीका के
शिकागो स्थित बालरोग पर शोध करने वाली संस्था ‘द अमरीकन एकेडेमी ऑफ
पीडीऐट्रिक्स’ का ताजा बयान। में कहा है कि नवजात बच्चों में
किए जाने वाले खतना या सुन्नत के सेहत के लिहाज से बड़े फायदे हैं। सच भी है कि
समय-समय पर दुनियाभर में हुए शोधों ने यह साबित किया है कि खतना इंसान की कई बड़ी
बीमारियों से हिफाजत करता है। खतना एक शारीरिक शल्यक्रिया है जिसमें आमतौर पर
मुसलमान नवजात बच्चों के लिंग के ऊपर की चमड़ी काटकर अलग की जाती है।
!! वैज्ञानिकों ने
दिए सबूत !!
शिकागो स्थित बालरोग चिकित्सकों के इस बयान का
आधार वैज्ञानिक सबूत हैं जिनके आधार पर यह साफतौर पर कहा जा सकता है कि जो बच्चे
खतने करवाते हैं, उनमें कई तरह की बीमारियां होने की आशंका कम
हो जाती है। इनमें खासतौर पर छोटे बच्चों के यूरिनरी ट्रैक्ट में होने वाले
इंफेक्शन, पुरुषों के गुप्तांग संबंधी कैंसर, यौन संबंधों के कारण होने वाली बीमारियां, एचआईवी और सर्वाइकल कैंसर का कारक ह्युमन पैपिलोमा वायरस यानि एचपीवी शामिल
हंै।
एकेडेमी उन
अभिभावकों का समर्थन करता है जो अपने बच्चे का खतना करवाते हैं। वैज्ञानिकों का
कहना है कि खतना किए गए पुरुषों में संक्रमण का जोखिम कम होता है क्योंकि लिंग की
आगे की चमड़ी के बिना कीटाणुओं के पनपने के लिए नमी का वातावरण नहीं मिलता है.
!! एड्स और
गर्भाशय कैंसर से हिफाजत !!
महिलाओं में गर्भाशय कैंसर का कारण ह्युमन पैपिलोमा वायरस होता है। यह वायरस लिंग की उसी चमड़ी के इर्द-गिर्द पनपता है जो संभोग के दौरान महिलाओं में प्रेषित हो जाता है। ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में अप्रेल 2002 में प्रकाशित एक आर्टिकल का सुझाव था कि खतने से महिला गर्भाशय कैंसर को बीस फीसदी तक कम किया जा सकता है। खतने से एचआईवी और एड्स से हिफाजत होती है। ब्रिटिश मेडिकल जर्नल के ही मई 2000 के एक आर्टिकल में उल्लेख था कि खतना किए हुए पुरुष में एचआईवी संक्रमण का खतरा आठ गुना कम होता है। हजार में से एक पुरुष लिंग कैंसर का शिकार हो जाता है लेकिन खतना इंसान की इस बीमारी से पूरी तरह हिफाजत करता है।
नवंबर 2000 में बीबीसी टेलीविजन ने यूगांडा की दो जनजातीय
कबीलों पर आधारित एक रिपोर्ट प्रसारित की। इसके मुताबिक उस कबीले के लोगों में
एड्स नगण्य पाया गया जो खतना करवाते थे, जबकि दूसरे
कबीले के लोग जो खतना नहीं करवाते थे, उनमें एड्स के
मामले ज्यादा पाए गए। इस कार्यक्रम में बताया गया कि कैसे लिंग के ऊपर चमड़ी जो
खतने में हटाई जाती है, उसमें संक्रमण
फैलने और महिलाओं में प्रेषित होने की काफी आशंका रहती है।
!! अमरीका में
नवजात बच्चों का खतना !!
अमरीकी समाज का एक बड़ा वर्ग बेहतर स्वास्थ्य
के लिए इस प्रथा को मानने लगा है। नेशनल हैल्थ एण्ड न्यूट्रिशन एक्जामिनेशन सर्वेज
की ओर से अमरीका में 1999 से 2004 तक कराए गए सर्वे में 79 फीसदी पुरुषों ने अपना खतना करवाया जाना स्वीकार किया। नेशनल हॉस्पीटल
डिस्चार्ज सर्वे के अनुसार अमरीका में 1999 में 65 फीसदी नवजात बच्चों का खतना किया गया। अमरीका
के आर्थिक और सामाजिक रूप से सम्पन्न परिवारों में जन्में नवजात बच्चों में खतना
ज्यादा पाया गया।
विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि दुनिया
भर में करीब 30 फीसदी पुरुषों का खतना हुआ है। सांसदों ने
करवाया संसद में खतना यही नहीं एचआईवी की रोकथाम के लिए अफ्रीका के कई देशों में
पुरुषों में खतना करवाने को बढ़ावा दिया जा रहा है।
!! जिम्बाब्वे में
एचआईवी संक्रमण रोकने के लिए खतना शिविर !!
जिम्बाब्वे में एचआईवी संक्रमण रोकने के लिए
चलाए गए एक अभियान के तहत जून 2012 में कई सांसदों ने संसद के भीतर खतना करवाया।
इसके लिए संसद के भीतर एक अस्थायी चिकित्सा शिविर लगाया गया है।
समाचार एजेंसी एएफपी के अनुसार जिम्बाब्वे की
दो मुख्य पार्टियों के कम-से-कम 60 सांसदों ने बारी-बारी से आकर चिकित्सकीय
परामर्श लिया और फिर शिविर में जाकर परीक्षण करवाया।
अभियान की
शुरुआत में बड़ी संख्या में सांसदों ने हिस्सा लेते हुए एचआईवी टेस्ट करवाते हुए
इस खतरनाक बीमारी से बचने के लिए खतना करवाने का संकल्प लिया था।
कत्ल और
आतंकवाद को इस्लाम का समर्थन नहीं
वो लोग जो अपने क़त्लो-गारत और दहशतगर्दी के कामों को इस्लाम के आदेशानुसार
बतलातें हैं वो कुरान और रसूल (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम)की तालीमों का अपमान करतें
है।
क्योंकि कुरान
वो ग्रंथ है जिसने एक कत्ल के अपराध को पूरी इंसानियत के कत्ल करने के अपराध के
बराबर रखा और कहा,
» अल-कुरान: “और जिसने किसी व्यक्ति को किसी खून का बदला लेने या धरती पर फसाद फैलाने के
सिवा किसी और कारण से कत्ल किया तो मानो उसने सारी इंसानियत का कत्ल कर दिया और
जिसने उसे जीवन प्रदान किया समझो उसने पूरी इंसानियत की रक्षा की।” - (सूरह माइदह, 32)
» अल-कुरान: “किसी जान को कत्ल न करो जिसके कत्ल को अल्लाह
ने हराम किया है सिवाय हक के।” - (सूरह इसरा, 33)
कुरान जिस जगह नाज़िल हुआ था पहले वहां के इंसानों की नज़र में इंसानी जान की
कोई कीमत न थी। बात-बात वो एक दूसरे का खून बहा देते थे, लूटमार करते थे। कुरान के अवतरण ने न केवल इन कत्लों को नाजायज़ बताया बल्कि
कातिलों के लिये सज़ा का प्रावधान भी तय किया।
वो आतंकी लोग
जो कुरान के मानने वाले होने की बात करते हैं उन्हें ये जरुर पता होना चाहिये कि
इस्लाम ने ये सख्त ताकीद की है कि खुदा की बनाई इस धरती पर कोई फसाद न फैलाये
» अल-कुरान : “हमने हुक्म
दिया कि खुदा की अता की हुई रोजी खाओ और धरती पर फसाद फैलाते न फिरो” - (सूरह बकरह: 60)
कुरान वो ग्रंथ
है जो न केवल फसाद (आतंकवाद) यानि दहशतगर्दी फैलाने से मना करता है बल्कि
दशहतगर्दी फैलाने वालों को सजा-ए-कत्ल को जाएज करार देता है (सूरह माइदह,32)
यहां ये बात भी
याद रखने की है कि पवित्र कुरान में जिहाद शब्द केवल 41बार आया है (वो भी विभिन्न अर्थों में) जबकि रहमत या दया शब्द 335 बार और इंसाफ शब्द 244 बार आया है।
हदीस का परिचय
पवित्र क़ुरआन के बाद मुसलमानों के पास इस्लाम का दूसरा शास्त्र अल्लाह के रसूल मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की कथनी और करनी है जिसे हम हदीस और सीरत के नाम से जानते हैं।
हदीस की परिभाषाः हदीस का शाब्दिक अर्थ है: बात, वाणी और ख़बर। इस्लामी परिभाषा में ‘हदीस’ मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की कथनी, करनी तथा उस कार्य को कहते हैं जो आप से समक्ष किया गया परन्तु आपने उसका इनकार न किया। अर्थात् 40 वर्ष की उम्र में अल्लाह की ओर से सन्देष्टा (नबी, रसूल) नियुक्त किए जाने के समय से देहान्त तक आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने जितनी बातें कहीं, जितनी बातें दूसरों को बताईं, जो काम किए तथा जो काम आपके समक्ष किया गया और उससे अपनी सहमती जताई उन्हें हदीस कहा जाता है।
हदीस क़ुरआन की व्याख्या हैः
इस्लाम के मूल ग्रंथ क़ुरआन में जीवन में प्रकट होने वाली प्रत्येक प्रकार की
समस्याओं का समाधान मौजूद है, जीवन में पेश
आने वाले सारे आदेश को संक्षिप्त में बयान कर दिया गया है, क़ुरआन में स्वयं कहा गया हैः
» अल-कुरान: “हम(अल्लाह)ने किताब में कोई भी चीज़ नहीं
छोड़ी है।” - (सूरः अल-अनआम: आयत-38)
परन्तु क़ुरआन
में अधिकतर विषयों पर जो रहनुमाई मिलती है वह संक्षेप में है। इन सब की विस्तृत
व्याख्या का दायित्व अल्लाह ने मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर रखा। अल्लाह
ने फ़रमायाः
» अल-कुरान: “और अब यह अनुस्मृति तुम्हारी ओर हमने अवतरित
की, ताकि तुम लोगों के समक्ष खोल-खोल कर बयान कर
दो जो कुछ उनकी ओर उतारा गया है”। - (सूरः अल-नहल:
आयत-44)
फिर आपने लोगों
के समक्ष क़ुरआन की जो व्याख्या की वह भी अल्लाह के मार्गदर्शन द्वारा ही थी, अपनी ओर से आपने उसमें कुछ नहीं मिलाया, इसी लिए अल्लाह ने फ़रमायाः
» अल-कुरान: और न वह अपनी इच्छा से बोलता है, वह तो बस एक प्रकाशना है, जो की जा रही है।” - (सूरः अल-नज्म
आयत-3,4)
इसकी प्रमाणिकता सुनन अबूदाऊद की इस हदीस से भी सिद्ध होती है जिसे मिक़दाम
बिन मअद (रज़ी अल्लाहु अनहु) ने वर्णन किया है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु
अलैहि व सल्लम) ने फ़रमायाः
» हदीस : “मुझे किताब दी गई है और उसी के समान उसके साथ
एक और चीज़ (दहीस) दी गई है।” - (सुनन अबी दाऊद)
स्पष्ट यह हुआ कि सुन्नत अथवा हदीस भी क़ुरआन के समान है और क़ुरआन के जैसे यह
भी वह्य है परन्तु क़ुरआन का शब्द और अर्थ दोनों अल्लाह की ओर से है जब कि हदीस का
अर्थ अल्लाह की ओर से है और उसका शब्द मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की ओर
से, और दोनों को समान रूप में पहुंचाने का आपको
आदेश दिया गया है।
» इब्ने हज़्म
(रज़ी अल्लाहु अनहु) ने फ़रमायाः “वही की दो
क़िस्में हैं, एक वह वही है जिसकी तिलावत की जाती है जो
चमत्कार के रूप में प्रकट हुई है और वह क़ुरआन है जबकि दूसरी वही जिसकी तिलावत
नहीं की जाती और न ही वह चमत्कार के रूप में प्रकट हुई है वह हदीस है जिसकी
प्रमाणिकता क़ुरआन के समान ही है।” - (अल-इह्काम फ़ी उसूलिल अहकामः इब्ने हज़्म 87)
पैग़म्बर
(सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के सारे काम इन दोनों प्रकार की वह्यों के अनुसार होते
थे। यही कारण है कि इस्लाम धर्म के मूल स्रोत क़ुरआन के बाद दूसरा स्रोत ‘हदीस’ है। दोनों को
मिलाकर इस्लाम धर्म की सम्पूर्ण व्याख्या और इस्लामी शरीअत की संरचना होती है।
हदीस के बिना क़ुरआन को नहीं समझा जा सकताः
क़ुरआन को समझने के लिए हदीस से सम्पर्क अति आवश्यक है, कि हदीस क़ुरआन की व्यख्या है, उदाहरण स्वरुप क़ुरआन में नमाज़ पढ़ने का आदेश
है लेकिन उसका तरीक़ा नहीं बताया गया, क़ुरआन में
ज़कात देने का आदेश है परन्तु उसका तरीक़ा नहीं बताया गया, क़ुरआन में रोज़ा रखने का आदेश है परन्तु उसकी
व्याख्या नहीं की गई, हाँ जब हम हदीस
से सम्पर्क करते हैं तो वहाँ हमें नमाज़ का तरीक़ा, उसकी शर्तें, उसकी संख्या सब की व्याख्या मिलती है, उसी प्रकार रोज़ें के मसाइल और ज़कात के नेसाब
की तफ़सील हमें हदीस से ही मालूम होती है। आखिर “किस क़ुरआन में
पाया जाता है कि ज़ुहर चार रकअत है, मग्रिब तीन
रकअल है, रुकूअ यूं होगा और सज्दे यूं होंगे, क़िरत यूं होगी और सलाम यूं फेरना है, रोज़े की स्थिति में किन चीज़ों से बचना है, सोने चांदी की ज़कात की कैफ़ियक क्या है, बकरी, ऊंट, गाय की ज़कात का निसाब क्या है और ज़कात की
मात्रा क्या है… “
हदीस पर अमल करना ज़रूरी हैः
हदीस के इसी महत्व के कारण विभिन्न आयतों और हदीसों में हदीस को अपनाने का
आदेश दिया गया हैः अल्लाह ने फ़रमायाः
» अल-कुरान: ऐ ईमान लाने वालो! अल्लाह की आज्ञा का पालन
करो और रसूल का कहना मानो और उनका भी कहना मानो जो तुम में अधिकारी लोग हैं। फिर
यदि तुम्हारे बीच किसी मामले में झगड़ा हो जाए, तो उसे तुम
अल्लाह और रसूल की ओर लौटाओ, यदि तुम अल्लाह
और अन्तिम दिन पर ईमान रखते हो। यही उत्तम है और परिणाम के एतबार से भी अच्छा है - (सूरः अल-निसा:
आयत-59)
उपर्युक्त आयत में अल्लाह की ओर लौटाने से अभिप्राय उसकी किताब की ओर लौटाना
है और उसके रसूल की ओर लौटाने से अभिप्राय उनके जीवन में उनकी ओर और उनके देहांत
के पश्चात उनकी सुन्नत की ओर लौटाना है। एक दूसरे स्थान पर अल्लाह तआला ने
फ़रमायाः
» अल-कुरान: कह दो, “यदि तुम अल्लाह
से प्रेम करते हो तो मेरा अनुसरण करो, अल्लाह भी तुम
से प्रेम करेगा और तुम्हारे गुनाहों को क्षमा कर देगा। अल्लाह बड़ा क्षमाशील, दयावान है।” - (सूरः आले इमरान: आयत-31)
इस आयत से स्पष्ट हुआ कि अल्लाह से प्रेम अल्लाह के रसूल के अनुसरण में नीहित
है, और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम)
का अनुसरण आपकी प्रत्येक कथनी करनी और आपकी सीरत के अनुपाल द्वारा ही सिद्ध हो
सकता है। इस लिए जिसने सुन्नत का अनुसरण नहीं किया वह अल्लाह से अपने प्रेम के
दावा में भी झूठा माना जायेगा। एक स्थान पर
अल्लाह ने अपने रसूल के आदेश का विरोध करने वलों को खबरदार करते हुए फ़रमाया………
» अल-कुरान: अतः उनको, जो उसके आदेश
की अवहेलना करते हैं, डरना चाहिए कि कहीं
ऐसा न हो कि उन पर कोई आज़माइश आ पड़े या उन पर कोई दुखद यातना आ जाए. - (सूरः अल-नूर:
आयत-63)
एक और आयत में इस से भी सख्त शैली में अल्लाह ने फ़रमायाः
» अल-कुरान: तो तुम्हें तुम्हारे रब की कसम! ये ईमान वाले
नहीं हो सकते जब तक कि अपने आपस के झगड़ो में ये तुम(रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व
सल्लम) से फ़ैसला न कराएँ। फिर जो फ़ैसला तुम कर दो, उस पर ये अपने
दिलों में कोई तंगी न पाएँ और पूरी तरह मान लें. - (सूरः अल-निसा: आयत-65)
क़ुरआन के अतिरिक्त विभिन्न हदीसों में भी आपके अनुसरण का आदेश दिया गया है
जैसा कि
» हदीस : हज़रते अबू हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) से
वर्णित है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमायाः
“मेरी सारी
उम्मत जन्नत में प्रवेश करेगी अलावा उसके जिसने इनकार किया,
लोगों ने कहाः
ऐ अल्लाह के रसूल! इनकार करने वाला कौन है ?
आपने फ़रमायाः
जिसने मेरा अनुसरण किया वह जन्नत में प्रवेश करेगा और जिसने मेरी अवज्ञा की उसने
इनकार किया।” - (सहीह बुख़ारी)
और इमाम मालिक ने मुअत्ता में बयान किया है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु
अलैहि व सल्लम) ने फ़रमायाः
» हदीस: “मैं तुम्हारे बीच दो चीज़ें छोड़ कर जा रहा
हूं जब तक उन दोनों को थामे रहोगे पथ-भ्रष्ठ न होगे, अल्लाह की
किताब और मेरी सुन्नत।”
» हदीस: मिक़दाम बिन मादीकरब (रज़ियल्लाहु अन्हु) से
रिवायत है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहाः
“जान रखो, मुझे क़ुरआन दिया गया और उसके साथ ऐसी ही एक
और चीज़ भी, ख़बरदार रहो, ऐसा न हो कि
कोई पेट भरा व्यक्ति अपनी मस्नद पर बैठा हुआ कहने लगे कि तुम्हारे लिए इस क़ुरआन
का पालन आवश्यक है, जो इस में हलाल
पाओ उसे हलाल समझो और जो कुछ उस में हराम पाओ उसे हराम समझो, हालांकि जो कुछ अल्लाह का रसूल हराम निर्धारित
करे वह वैसा ही हराम है जैसा अल्लाह का हराम किया हुआ है।” - (अबू दीऊद, तिर्मिज़ी, इब्नेमाजा)
मांसाहारी
भोजन
प्रश्नः पशुओं
को मारना एक क्रूरतापूर्ण कृत्य है तो फिर मुसलमान मांसाहारी भोजन क्यों पसन्द
करते हैं?
उत्तरः ‘शाकाहार’ आज एक अंतराष्ट्रीय आन्दोलन बन चुका है बल्कि
अब तो पशु-पक्षियों के अधिकार भी निर्धारित कर दिये गए हैं। नौबत यहां तक पहुंची
है कि बहुत से लोग मांस अथवा अन्य प्रकार के सामिष भोजन को भी पशु-पक्षियों के
अधिकारों का हनन मानने लगे हैं।
इस्लाम
केवल इंसानों पर ही नहीं बल्कि तमाम पशुओं और प्राणधारियों पर दया करने का आदेश देता है
परन्तु इसके साथ-साथ इस्लाम यह भी कहता है कि अल्लाह तआला ने यह धरती और इस पर
मौजूद सुन्दर पौधे और पशु पक्षी, समस्त वस्तुएं मानवजाति के फ़ायदे के लिए
उत्पन्न कीं। यह मनुष्य की ज़िम्मेदारी है कि वह इन समस्त संसाधनों को अल्लाह की
नेमत और अमानत समझकर, न्याय के साथ इनका उपयोग करे।
अब
हम इस तर्क के विभिन्न पहलुओं पर दृष्टि डालते हैं।
मुसलमान
पक्का ‘शाकाहारी’ बन सकता है
एक
मुसलमान पुरी तरह शाकाहारी रहकर भी एक अच्छा मुसलमान बन सकता है। मुसलमानों के लिए
यह अनिवार्य नहीं है कि वह सदैव मांसाहारी भोजन ही करें।
पवित्र
क़ुरआन मुसलमानों को मांसाहार की अनुमति देता है पवित्र क़ुरआन में मुसलमानों को
मांसाहारी भोजन की अनुमति दी गई है। इसका प्रमाण निम्नलिखित आयतों से स्पष्ट हैः ‘‘तुम्हारे लिए मवेशी (शाकाहारी पशु) प्रकार के
समस्त जानवर हलाल किये गए हैं।’’ (पवित्र क़ुरआन, 5:1)
‘‘उसने पशु उत्पन्न किये जिनमें तुम्हारे लिए
पोशाक भी है और ख़ूराक भी, और तरह तरह के दूसरे फ़ायदे भी।’’ (पवित्र क़ुरआन, 16:5)
‘‘और हकीकत यह है कि तुम्हारे लिये दुधारू
पशुओं में भी एक शिक्षा है, उनके पेटों में जो कुछ है उसी में से एक चीज़
(अर्थात दुग्ध) हम तुम्हें पिलाते हैं और तुम्हारे लिए इनमे बहुत से दूसरे फ़ायदे
भी हैं, इनको
तुम खाते हो और इन पर और नौकाओं पर सवार भी किये जाते हो।’’ (पवित्र क़ुरआन, 23:21)
मांस
पौष्टिकता और प्रोटीन से भरपूर होता है
मांसाहारी
भोजन प्रोटीन प्राप्त करने का अच्छा साधन है। इसमें भरपूर प्रोटीन होते है। अर्थात
आठों जीवन पोषक तत्व। (इम्यूनो एसिड) मौजूद होते हैं। यह आवश्यक तत्व मानव शरीर
में नहीं बनते। अतः इनकी पूर्ती बाहरी आहार से करना आवश्यक होता है। इसके अतिरिक्त
माँस में लोहा, विटामिन-बी, इत्यादि पोषक तत्व भी पाए जाते
हैं।
मानवदंत प्रत्येक प्रकार के भोजन के लिए उपयुक्त हैं
यदि
आप शाकाहारी पशुओं जैसे गाय, बकरी अथवा भेड़ आदि के दांतों को देखें तो
आश्चर्यजनक समानता मिलेगी। इन सभी पशुओं के दाँत सीधे अथवा फ़्लैट हैं।
अर्थात ऐसे दांत जो वनस्पति आहार चबाने के लिए उपयुक्त हैं। इसी प्रकार यदि आप शेर, तेंदुए अथवा चीते इत्यादि
के दांतों का निरीक्षण करें तो आपको उन सभी में भी समानता मिलेगी। मांसाहारी
जानवारों के दांत नोकीले होते हैं। जो माँस जैसा आहार चबाने के लिए उपयुक्त हैं।
परनतु मनुष्य के दाँतों को ध्यानपुर्वक देखें तो पाएंगे कि उनमें से कुछ दांत सपाट
या फ़्लैट हैं परन्तु कुछ नोकदार भी हैं। इसका मतलब है कि मनुष्य के दांत शाकाहारी
और मांसाहारी दोनों प्रकार के आहार के लिए उपयुक्त हैं। अर्थात मनुष्य सर्वभक्षी
प्राणी है जो वनास्पति और माँस प्रत्येक प्रकार का आहार कर सकता है।
प्रश्न
किया जा सकता है कि यदि अल्लाह चाहता कि मनुष्य केवल शाकाहारी रहे तो उसमें हमें
अतिरिक्त नोकदार दांत क्यों दिये? इसका तार्किक उत्तर यही है कि अल्लाह ने
मनुष्य को सर्वभक्षी प्राणी के रूप में रचा है और वह महान विधाता हमसे अपेक्षा
रखता है कि हम शाक सब्ज़ी के अतिरिक्त सामिष आहार (मांस, मछली, अण्डा इत्यादि) से भी अपनी
शारीरिक आवश्यकताएं पूरी कर सकें। मनुष्य की पाचन व्यवस्था शाकाहारी और मांसाहारी
दोनों प्रकार के भोजन को पचा सकती है शाकाहारी प्राणीयों की पाचन व्यवस्था केवल
शाकाहारी भोजन को पचा सकती है। मांसाहारी जानवरों में केवल मांस को ही पचाने की
क्षमता होती है। परन्तु मनुष्य हर प्रकार के खाद्य पद्रार्थों को पचा सकता है। यदि
अल्लाह चाहता कि मनुष्य एक ही प्रकार के आहार पर जीवत रहे तो हमारे शरीर को दोनों
प्रकार के भोजन के योग्य क्यों बनाता कि वह शक सब्ज़ी के साथ-साथ अन्य प्रकार के
भोजन को भी पचा सके।
पवित्र
हिन्दू धर्मशास्त्रों में भी मांसाहारी भोजन की अनुमति है
(क) बहुत से हिन्दू ऐसे भी हैं जो पूर्ण रूप
से शाकाहारी हैं। उनका विचार है कि मास-मच्छी खाना उनके धर्म के विरुद्ध है परन्तु
यह वास्तविकता है कि हिन्दुओं के प्राचीन धर्मग्रन्थों में मांसाहार पर कोई
प्रतिबन्ध नहीं है। उन्हीं ग्रंथों में ऐसे साधू संतों का उल्लेख है जो मांसाहारी
थे।
(ख) मनुस्मृति जो हिन्दू कानून व्यवस्था का
संग्रह है, उसके
पाँचवे अध्याय
के 30वें श्लोक में लिखा हैः ‘‘खाने वाला जो उनका मांस खाए कि जो खाने के
लिए है तो वह कुछ बुरा नहीं करता, चाहे नितदिन वह ऐसा क्यों न करे क्योंकि
ईश्वर ने स्वयं ही बनाया है कुछ को ऐसा कि खाए जाएं और कुछ को ऐसा कि खाएं।’’
(ग) मनुस्मृति के पाँचवें अध्याय के अगले
श्लोक नॉ 31 में लिखा हैः ‘‘बलि का माँस खाना उचित है, यह एक रीति है जिसे
देवताओं का आदेश जाना जाता है ’’
(घ) मनुस्मृति के इसी पाँचवें अध्याय के श्लोक
39-40 में कहा गया हैः ‘‘ईश्वर ने स्वयं ही बनाया है बलि के पशुओं को
बलि हेतु। तो बलि के लिये मारना कोई हत्या नहीं है।’’
(ङ) महाभारत, अनुशासन पर्व के 58वें
अध्याय के श्लोक 40 में धर्मराज युधिष्ठिर और भीष्म पितामहः के मध्य इस संवाद पर
कि यदि कोई व्यक्ति अपने पुरखों के श्राद्ध में उनकी आत्मा की शांति के लिए कोई
भोजन अर्पित करना चाहे तो वह क्या कर सकता है। वह वर्णन इस प्रकार हैः
‘‘युधिष्ठिर ने कहा ‘हे महाशक्तिमान, मुझे बताओ कि वह कौन सी
वस्तु है जिसे यदि अपने पुरखों की आत्मा की शांति के लिए अर्पित करूं तो वह कभी
समाप्त न हो, वह
क्या वस्तु है जो (यदि दी जाए तो) सदैव बनी रहे? वह क्या है जो (यदि भेंट
की जाए तो) अमर हो जाए?’’
भीष्म
ने कहाः ‘‘हे युधिष्ठिर! मेरी बात ध्यानपुर्वक सुनो, वह भेंटें क्या हैं जो कोई
श्रद्धापूर्वक अर्पित की जाए जो श्रद्धा हेतु अचित हो और वह क्या फल है जो
प्रत्येक के साथ जोड़े जाएं। तिल और चावल, जौ और उड़द और जल एवं कन्दमूल आदि उनकी भेंट
किया जाए तो हे राजन! तुम्हारे पुरखों की आत्माएं प्रसन्न होंगी। भेड़ का (मांस)
चार मास तक, ख़रगोश
के (मांस) की भेंट चार मास तक प्रसन्न रखेगी, बकरी के (मांस) की भेंट छः मास तक और
पक्षियों के (मांस) की भेंट सात मास तक प्रसन्न रखेगी। मृग के (मांस) की भेंट दस
मास तक, भैंसे
के (मांस) का दान ग्यारह मास तक प्रसन्न रखेगा। कहा जाता है कि गोमांस की भेंट एक
वर्ष तक शेष रहती है। भेंट के गोमांस में इतना घृत मिलाया जाए जो तुम्हारे पुरखों
की आत्माओं को स्वीकार्य हो, धरनासा (बड़ा बैल) का मांस तुम्हारे पुरखों
की आत्माओं को बारह वर्षों तक प्रसन्न रखेगा। गेण्डे का मांस, जिसे पुरखों की आत्माओं को
चन्द्रमा की उन रातों में भेंट किया जाए जब वे परलोक सिधारे थे तो वह उन्हें सदैव
प्रसन्न रखेगा। और एक जड़ी बूटी कलासुका कही जाती है तथा कंचन पुष्प की पत्तियाँ
और (लाल) बकरी का मांस भी, जो भेंट किया जाए, वह सदैव-सदैव के लिये है।
यदि तुम चाहते हो कि तुम्हारें पितरों की आत्मा सदैव के लिए शांति प्राप्त करे तो
तुम्हें चाहिए कि लाल बकरी के मांस से उनकी सेवा करो।’’ (भावार्थ)
हिन्दू धर्म भी अन्य धर्मों से प्रभावित हुआ है
यद्यपि
हिन्दू धर्म शास्त्रों में मांसाहारी भोजन की अनुमति नहीं है परन्तु हिन्दुओं के
अनुयायियों ने कालांतर में अन्य धर्मों का प्रभाव भी स्वीकार किया और शाकाहार को
आत्मसात कर लिया। इन अन्य धर्मों में जैनमत इत्यादि शामिल हैं।
पौधे
भी जीवनधारी हैं कुछ धर्मों ने शकाहार पर निर्भर रहना इसलिए भी अपनाया है क्योंकि
आहार व्यवस्था में जीवित प्राणधारियों को मारना वार्जित है। यदि कोई व्यक्ति अन्य
प्राणियों को मारे बिना जीवित रह सकता है तो वह पहला व्यक्ति होगा जो जीवन बिताने
का यह मार्ग स्वीकार कर लेगा। अतीत में लोग यह समझते थे कि वृक्ष-पौधे निष्प्राण
होते हैं परन्तु आज यह एक प्रामाणिक तथ्य है कि वृक्ष-पौधे भी जीवधारी होते हैं
अतः उन लोगों की यह धारणा कि प्राणियों को मारकर खाना पाप है, आज के युग में निराधार सिद्ध होती है। अब
चाहे वे शाकाहारी क्यों न बने रहें।
पौधे
भी पीड़ा का आभास कर सकते हैं
पूर्ण
शाकाहार में विश्वास रखने वालों की मान्यता है कि पौधे कष्ट और पीड़ा महसूस नहीं
कर सकते अतः वनस्पति और पेड़-पौधों को मारना किसी प्राणी को मारने के अपेक्षा बहुत
छोटा अपराध है। आज विज्ञान हमें बताता है कि पौधे भी कष्ट और पीड़ा का अनुभव करते
हैं किन्तु उनके रुदन और चीत्कार को सुनना मनुष्य के वश में नहीं। इस का कारण यह
है कि मनुष्य की श्रवण क्षमता केवल 20 हटर्ज़ से लेकर 20,000 हर्टज
फ्ऱीक्वेंसी वाली स्वर लहरियाँ सुन सकती हैं। एक कुत्ता 40,000
हर्टज तक की लहरों को सुन सकता है। यही कारण है कि कुत्तों के लिए विशेष सीटी बनाई
जाती है तो उसकी आवाज़ मनुष्यों को सुनाई नहीं देती परन्तु कुत्ते उसकी आवाज़
सुनकर दौड़े आते हैं, उस सीटी की आवाज़ 20,000 हर्टज
से अधिक होती है।
एक
अमरीकी किसान ने पौधों पर अनुसंधान किया। उसने एक ऐसा यंत्र बनाया जो पौधे की चीख़
को परिवर्तित करके फ्ऱीक्वेंसी की
परिधि
में लाता था कि मनुष्य भी उसे सुन सकें। उसे जल्दी ही पता चल गया कि पौधा कब पानी
के लिए रोता है। आधुनिकतम अनुसंधान से सिद्ध होता है कि पेड़-पौधे ख़ुशी और दुख तक
को महसूस कर सकते हैं और वे रोते भी हैं।
(अनुवादक के दायित्व को समक्ष रखते हुए यह
उल्लेख हिन्दी में भी किया गया है। दरअस्ल पौधे के रोने चीख़ने की बात किसी
अनुसंधान की चर्चा किसी अमरीकी अख़बार द्वारा गढ़ी गई है। क्योंकि गम्भीर विज्ञान
साहित्य और अनुसंघान सामग्री से पता चला है कि प्रतिकूल परिस्थतियों अथवा पर्यावरण
के दबाव की प्रतिक्रिया में पौधों से विशेष प्रकार का रसायनिक द्रव्य निकलता है।
वनस्पति वैज्ञानिक इस प्रकार के रसायनिक द्रव्य को ‘‘पौधे का रुदन और चीत्कार बताते हैं) अनुवादक दो अनुभूतियों वाले
प्राणियों की हत्या करना निम्नस्तर का अपराध है |
एक
बार एक शाकाहारी ने बहस के दौरान यह तर्क रखा कि पौधों में दो अथवा तीन अनुभूतियाँ
होती हैं। जबकि जानवरों की पाँच अनुभूतियाँ होती है। अतः (कम अनुभव क्षमता के
कारण) पौधों को मारना जीवित जानवरों को मारने की अपेक्षा छोटा अपराध है। इस जगह यह
कहना पड़ता है कि मान लीजिए (ख़ुदा न करे) आपका कोई भाई ऐसा हो जो जन्मजात मूक और
बधिर हो अर्थात उसमें अनुभव शक्ति कम हो, वह वयस्क हो जाए और कोई उसकी हत्या कर दे तब
क्या आप जज से कहेंगे कि हत्यारा थोड़े दण्ड का अधिकारी है। आपके भाई के हत्यारे
ने छोटा अपराध किया है और इसीलिए वह छोटी सज़ा का अधिकारी है? केवल इसलिए कि आपके भाई
में जन्मजात दो अनुभूतियाँ कम थीं? इसके बजाए आप यही कहेंगे कि हत्यारे ने एक
निर्दोष की हत्या की है अतः उसे कड़ी से कड़ी सज़ा दी जाए।
पवित्र
क़ुरआन में फ़रमाया गया हैः
‘‘लोगो! धरती पर जो पवित्र और वैध चीज़ें हैं, उन्हें खाओ और शैतान के
बताए हुए रास्तों पर न चलो, वह तुम्हारा खुला दुश्मन है।’’ (पवित्र क़ुरआन , 2:168)
पशुओं
की अधिक संख्या यदि इस संसार का प्रत्येक व्यक्ति शाकाहारी होता तो परिणाम यह होता
कि पशुओं की संख्या सीमा से अधिक हो जाती क्योंकि पशुओं में उत्पत्ति और जन्म की
प्रक्रिया तेज़ होती है। अल्लाह ने जो समस्त ज्ञान और बुद्धि का स्वामी है इन
जीवों की संख्या को उचित नियंत्रण में रखने का मार्ग सुझाया है। इसमें आश्चर्य की
कोई बात नहीं कि अल्लाह तआला ने हमें (सब्ज़ियों के साथ साथ) पशुओं का माँस खाने
की अनुमति भी दी है।
सभी
लोग मांसाहारी नहीं, अतः माँस का मूल्य भी उचित है
मुझे इस पर कोई आपत्ति नहीं कि कुछ लोग पूर्ण रूप से शाकाहारी हैं परन्तु उन्हें चाहिए कि मांसाहारियों को क्रूर और अत्याचारी कहकर उनकी निन्दा न करें। वास्तव में यदि भारत के सभी लोग मांसाहारी बन जाएं तो वर्तमान मांसाहारियों का भारी नुकष्सान होगा क्योकि ऐसी स्थिति में माँस का मूल्य कषबू से बाहर हो जाएगा।
पशुओं को
ज़िब्हा करने का इस्लामी तरीकका निदर्यतापूर्ण है
प्रश्नः मुसलमान
पशुओं को ज़िब्ह (हलाल) करते समय निदर्यतापूर्ण ढंग क्यों अपनाते हैं? अर्थात उन्हें यातना देकर
धीरे-धीरे मारने का तरीका, इस पर बहुत लोग आपत्ति करते हैं?
उत्तरः निम्नलिखित
तथ्यों से सिद्ध होता है कि ज़बीहा का इस्लामी तरीकष न केवल मानवीयता पर आधारित है
वरन् यह साइंटीफ़िक रूप से भी श्रेष्ठ है।
जानवर
हलाल कने का इस्लामी तरीक़ा
अरबी
भाषा का शब्द ‘‘ज़क्कैतुम’’ जो क्रिया के रूप में
प्रयोग किया जाता है उससे ही शब्द ‘‘ज़क़ात’’ निकलता है, जिसका अर्थ है ‘‘पवित्र करना।’’
जानवर
को इस्लामी ढंग से ज़िब्हा करते समय निम्न शर्तों का पूर्ण ध्यान रखा जाना आवश्यक है।
(क) जानवर को तेज़ धार वाली छुरी से ज़िब्हा
किया जाए। ताकि जानवर को ज़िब्हा होते समय कम से कम कष्ट हो।
(ख) ज़बीहा एक विशेष शब्द है जिस से आश्य है
कि ग्रीवा और गर्दन की नाड़ियाँ काटी जाएं। इस प्रकार ज़िब्हा करने से जानवर रीढ़
की हड्डी काटे बिना मर जाता है।
(ग) ख़ून को बहा दिया जाए।
जानवर के सिर को धड़ से अलग करने से पूर्व आवश्यक है कि उसका सारा ख़ून पूरी तरह बहा दिया गया हो। इस प्रकार सारा ख़ून निकाल देने का उद्देश्य यह है कि यदि ख़ून शरीर में रह गया तो यह कीटाणुओं के पनपने का माध्यम बनेगा। रीढ़ की हड्डी अभी बिल्कुल नहीं काटी जानी चाहिए क्योंकि उसमें वह धमनियाँ होती हैं जो दिल तक जाती हैं। इस समय यदि वह धमनियाँ कट गईं तो दिल की गति रुक सकती है और इसके कारण ख़ून का बहाव रुक जाएगा। जिससे ख़ून नाड़ियों में जमा रह सकता है।
कीटाणुओं और बैक्टीरिया के लिये ख़ून मुख्य माध्यम है
कीटाणुओं, बैक्टीरिया और विषाक्त तत्वों की उत्पति के लिये ख़ून एक सशक्त माध्यम है। अतः इस्लामी तरीके से ज़िब्हा करने से सारा ख़ून निकाल देना स्वास्थ्य के नियमों के अनुसार है क्योंकि उस ख़ून में कीटाणु और बैक्टीरिया तथा विषाक्त तत्व अधिकतम होते हैं।
मांस अधिक समय तक स्वच्छ और ताज़ा रहता है
इस्लामी
तरीकों से हलाल किये गए जानवर का मांस अधिक समय तक स्वच्छ और ताज़ा तथा खाने योग्य
रहता है क्योंकि दूसरे तरीकों से काटे गए जानवर के मांस की अपेक्षा उसमें ख़ून की
मात्रा बहुत कम होती है।
जानवर को कष्ट नहीं होता
ग्रीवा की नाड़ियाँ तेज़ी से काटने के कारण दिमाग़ को जाने वाली धमनियों तक ख़ून का प्रवाह रुक जाता है, जो पीड़ा का आभास उत्पन्न करती हैं। अतः जानवर को पीड़ा का आभास नहीं होता। याद रखिए कि हलाल किये जाते समय मरता हुआ कोई जानवर झटके नहीं लेता बल्कि उसमें तड़पने, फड़कने और थरथराने की स्थिति इसलिए होती है कि उसके पुट्ठों में ख़ून की कमी हो चुकी होती है और उनमें तनाव बहुत अधिक बढ़ता या घटता है।
मांसाहारी भोजन मुसलमानों को हिंसक बनाता है
प्रश्नः विज्ञान
हमें बताता है कि मनुष्य जो कुछ खाता है उसका प्रभाव उसकी प्रवृत्ति पर अवश्य पड़ता
है, तो
फिर इस्लाम अपने अनुयायियों को सामित आहार की अनुमति क्यों देता है? यद्यपि पशुओं का मांस खाने
के कारण मनुष्य हिंसक और क्रूर बन सकता है?
उत्तरः केवल
वनस्पति खाने वाले पशुओं को खाने की अनुमति है। मैं इस बात से सहमत हूँ कि मनुष्य
जो कुछ खाता है उसका प्रभाव उसकी प्रवृत्ति पर अवश्य पड़ता है। यही कारण है कि
इस्लाम में मांसाहारी पशुओं, जैसे शेर, चीता, तेंदुआ आदि का मांस खाना वार्जित है क्योंकि
ये दानव हिंसक भी हैं। सम्भव है इन दरिन्दों का मांस हमें भी दानव बना देता। यही
कारण है कि इस्लाम में केवल वनस्पति का आहार करने वाले पशुओं का मांस खाने की
अनुमति दी गई हैं। जैसे गाय, भेड़, बकरी इत्यादि। यह वे पशु हैं जो शांति प्रिय
और आज्ञाकारी प्रवृत्ति के हैं। मुसलमान शांति प्रिय और आज्ञाकारी पशुओं का मांस
ही खाते हैं। अतः वे भी शांति प्रिय और अहिंसक होते हैं। पवित्र क़ुरआन का फ़रमान
है कि रसूल अल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) बुरी चीज़ों से रोकते हैं। पवित्र
क़ुरआन में फ़रमान हैः ‘‘वह उन्हें नेकी का हुक्म देता है, बदी से रोकता है, उनके लिए पाक चीज़ें हलाल
और नापाक चीज़ें हराम करता है, उन पर से वह बोझ उतारता है जो उन पर लदे हुए
थे। वह बंधन
खोलता है जिनमें वे जकड़े हुए थे।’’ (पवित्र क़ुरआन)
एक
अन्य आयत में कहा गया हैः
‘‘जो कुछ रसूल तुम्हें दे तो वह ले लो और जिस चीज़ें से तुम्हें रोक दे उसमें रुक जाओ, अल्लाह से डरो, अल्लाह सख़्त अज़ाब (कठोरतम दण्ड) देने वाला है।’’ (पवित्र क़ुरआन)
मुसलमानों
के लिए महान पैग़म्बर का यह निर्देश ही उन्हे कायल करने के लिए काफ़ी है कि अल्लाह
तआला नहीं चाहता कि वह कुछ जानवरों का मांस खाएं जबकि कुछ का खा लिया करें।
इस्लाम
की सम्पूर्ण शिक्षा पवित्र क़ुरआन और उसके बाद हदीस पर आधारित है। हदीस का आश्य है
मुसलमानों के महान पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का कथन जो ‘सही बुख़ारी’, ‘मुस्लिम’, सुनन इब्ने माजह’, इत्यादि पुस्तकों में
संग्रहीत हैं। और मुसलमानों का उन पर पूर्ण विश्वास है। प्रत्येक हदीस को उन
महापुरूषों के संदर्भ से बयान कया गया है जिन्होंने स्वंय महान पैग़म्बर से वह
बातें सुनी थीं।
पवित्र हदीसों में मांसाहारी जानवर का मांस खाने से रोका गया
है
सही
बुख़ारी, मुस्लिम
शरीफ़ में मौजूद, अनेक प्रमाणिक हदीसों के अनुसार मांसाहारी
पशु का मांस खाना वर्जित है। एक हदीस के अनुसार, जिसमें हज़रत इब्ने अब्बास
(रज़ियल्लाहु अन्हु) के संदर्भ से बताया गया है कि हमारे पैग़म्बर (सल्लल्लाहु
अलैहि वसल्लम) ने (हदीस न 4752), और सुनन इब्ने माजह के
तेरहवें अध्याय (हदीस न 3232 से 3234 तक) के अनुसार निम्नलिखित
जानवरों का मांस खाने से मना किया हैः
1. वह पशु जिनके दांत नोकीले
हों, अर्थात
मांसाहारी जानवर, ये जानवर बिल्ली के परिवार से सम्बन्ध रखते
हैं। जिसमें शेर, बबर शेर, चीता, बिल्लियाँ, कुत्ते, भेड़िये, गीदड़, लोमड़ी, लकड़बग्घे इत्यादि शामिल
हैं।
2. कुतर कर खाने वाले जानवर
जैसे छोटे चूहे, बड़े
चूहे, पंजों
वाले ख़रगोश इत्यादि।
3. रेंगने वाले कुछ जानवर
जैसे साँप और मगरमच्छ इत्यादि।
4. शिकारी पक्षी, जिनके पंजे लम्बे और
नोकदार नाख़ून हों (जैसे आम तौर से शिकारी पक्षियों के
होते
हैं) इनमें गरूड़, गिद्ध, कौए और उल्लू इत्यादि शामिल हैं।
ऐसा कोई वैज्ञानिक साक्ष्य नहीं है जो किसी सन्देह और संशय से ऊपर उठकर यह सिद्ध कर सके कि मांसाहारी अपने आहार के कारण हिसंक भी बन सकता है।
मुसलमान औरतों के लिये हिजाब (पर्दा)
प्रश्नः ‘‘इस्लाम औरतों को पर्दे में रखकर उनका अपमान
क्यों करता है?
उत्तरः विधर्मी
मीडिया विशेष रूप से इस्लाम में स्त्रियां को लेकर समय समय पर आपत्ति और आलोचना
करता रहता है। हिजाब अथवा मुसलमान स्त्रियों के वस्त्रों (बुर्का) इत्यादि को
अधिकांश ग़ैर मुस्लिम इस्लामी कानून के तहत महिलाओं का ‘अधिकार हनन’ ठहराते हैं। इससे पहले कि
हम इस्लाम में स्त्रियों के पर्दे पर चर्चा करें, यह अच्छा होगा कि इस्लाम
के उदय से पूर्व अन्य संस्कृतियों में नारी जाति की स्थिति और स्थान पर एक नज़र
डाल ली जाए।
अतीत
में स्त्रियों को केवल शारीरिक वासनापूर्ति का साधन समझा जाता था और उनका अपमान
किया जाता था। निम्नलिखित उदाहरणों से यह तथ्य उजागर होता है कि इस्लाम के आगमन से
पूर्व की संस्कृतियों और समाजों में स्त्रियों का स्थान अत्यंत नीचा था और उन्हें
समस्त मानवीय अधिकारों से वंचित रखा गया था।
पर्दे
का हुक्म वैदिक धर्म में भी ….
हमारे
कुछ हिन्दू भाई हमसे कहते है की तुम मुस्लिम अपनी औरतो को पर्दे मे रख कर उन पर
अत्याचार करते हो. भला औरतो को इस तरह पर्दे मे रख कर यह भयानक सज़ा क्यों देते हो?
उन हिन्दू भाईयो के लिए हमारे पास यही जवाब है, के काश वो भी अपने वेदों की बातो पर ध्यान देते तो पर्दे के मामले में यह
मतभेद कभी न होता.
ऋग्वेद मे औरतो के बारे में लिखा है की, “ईश्वर ने तुम्हे औरत बनाया है, इसलिये तुम अपनी आंखे झुकी रखा करो, पुरुषो की तरफ मत देखा करो ! अपने पैर एक दूसरे से सटा के रखो, और अपने वस्त्र मत खोलो, खुद को घूँघट मे छुपा के रखा करो” (ऋग्वेद 8,33,मंत्र 19-20)
बाबुल (बेबिलोन) संस्कृति में
प्राचीन बेबिलोन संस्कृति में नारीजाति को बुरी तरह अपमानित किया गया था। उन्हें समस्त मानवीय अधिकारों से वंचित रखा गया था। मिसाल के तौर पर यदि कोई पुरुष किसी की हत्या कर देता था तो मृत्यु दण्ड उसकी पत्नी को मिलता था।
यूनानी (ग्रीक) संस्कृति में
प्राचीन काल में यूनानी संस्कृति को सबसे महान और श्रेष्ठ माना जाता है। इसी ‘‘श्रेष्ठ’’ सांस्कृतिक व्यवस्था में स्त्रियों को किसी प्रकार का अधिकार प्राप्त नहीं था। प्राचीन यूनानी समाज में स्त्रियों को हेय दृष्टि से देखा जाता था। यूनानी पौराणिक साहित्य में ‘‘पिंडौरा’’ नामक एक काल्पनिक महिला का उल्लेख मिलता है जो इस संसार में मानवजाति की समस्त समस्याओं और परेशानियों का प्रमुख कारण थी, यूनानियों के अनुसार नारी जाति मनुष्यता से नीचे की प्राणी थी और उसका स्थान पुरूषों की अपेक्षा तुच्छतम था, यद्यपि यूनानी संस्कृति में स्त्रियों के शील और लाज का बहुत महत्व था तथा उनका सम्मान भी किया जाता था, परन्तु बाद के युग में यूनानियों ने पुरूषों के अहंकार और वासना द्वारा अपने समाज में स्त्रियों की जो दुर्दशा की वह यूनानी संस्कृति के इतिहास में देखी जा सकती है। पूरे यूनानी समाज में देह व्यापार समान्य बात होकर रह गई थी।
रोमन संस्कृति में
जब रोमन संस्कृति अपने चरमोत्कर्ष पर थी तो वहाँ पुरूषों को यहाँ तक स्वतंत्रता प्राप्त थी कि पत्नियों की हत्या तक करने का अधिकार था। देह व्यापार और व्यभिचार पर कोई प्रतिबन्ध नहीं था।
प्राचीन मिस्री संस्कृति में
मिस्र की प्राचीन संस्कृति को विश्व की आदिम संस्कृतियों में सबसे उन्नत संस्कृति माना जाता है। वहाँ स्त्रियों को शैतान का प्रतीक माना जाता था। इस्लाम से पूर्व अरब में अरब में इस्लाम के प्रकाशोदय से पूर्व स्त्रियों को अत्यंत हेय और तिरस्कृत समझा जाता था। आम तौर पर अरब समाज में यह कुप्रथा प्रचलित थी कि यदि किसी के घर कन्या का जन्म होता तो उसे जीवित दफ़न कर दिया जाता था। इस्लाम के आगमन से पूर्व अरब संस्कृति अनेकों प्रकार की बुराइयों से बुरी तरह दूषित हो चुकी थी।
इस्लाम की रौशनी
इस्लाम
ने नारी जाती को समाज में ऊँचा स्थान दिया, इस्लाम ने स्त्रियों को पुरूषों के समान
अधिकार प्रदान किये और मुसलमानों को उनकी रक्षा करने का निर्देश दिया है। इस्लाम
ने आज से 1400 वर्ष पूर्व स्त्रियों को उनके उचित अधिकारों के निर्धारण का
क्रांतिकारी कष्दम उठाया जो विश्व के सांकृतिक और समाजिक इतिहास की सर्वप्रथम घटना
है। इस्लाम ने जो श्रेष्ठ स्थान स्त्रियों को दिया है उसके लिये मुसलमान स्त्रियों
से अपेक्षा भी करता है कि वे इन अधिकारों की सुरक्षा भी करेंगी।
पुरूषों के लिए हिजाब (पर्दा)
आम
तौर से लोग स्त्रियों के हिजाब की बात करते हैं परन्तु पवित्र क़ुरआन में
स्त्रियों के हिजाब से पहले पुरूषों के लिये हिजाब की चर्चा की गई है। (हिजाब शब्द
का अर्थ है शर्म, लज्जा, आड़, पर्दा, इसका अभिप्राय केवल स्त्रियों के चेहरे अथवा
शरीर ढांकने वाले वस्त्र, चादर अथवा बुरका इत्यादि से ही नहीं है।)
पवित्र
क़ुरआन की सूरह ‘अन्-नूर’ में पुरूषों के हिजाब की इस प्रकार चर्चा की
गई हैः
‘‘ए नबी! ईमान रखने वालों (मुसलमानों) से कहो कि अपनी नज़रें
बचाकर रखें और अपनी शर्मगाहों की रक्षा करें। यह उनके लिए ज़्यादा पाकीज़ा तरीका
है, जो
कुछ वे करते हैं अल्लाह उससे बाख़बर रहता है।’’ (पवित्र क़ुरआन, 24:30)
इस्लामी
शिक्षा में प्रत्येक मुसलमान को निर्देश दिया गया है कि जब कोई पुरूष किसी स्त्री
को देख ले तो संभवतः उसके मन में किसी प्रकार का बुरा विचार आ जाए अतः उसे चाहिए
कि वह तुरन्त नज़रें नीची कर ले।
स्त्रियों के लिए हिजाब
पवित्र
क़ुरआन में सूरह ‘अन्-नूर’ में आदेश दिया गया हैः ‘‘ए नबी! मोमिन औरतों से कह दो, अपनी नज़रें बचा कर रखें
और अपनी शर्मगाहों की सुरक्षा करें, और अपना बनाव-श्रंगार न दिखाएं, सिवाय इसके कि वह स्वतः
प्रकट हो जाए और अपने वक्ष पर अपनी ओढ़नियों के आँचल डाले रहें, वे अपना बनाव-श्रंगार न
दिखांए, परन्तु
उन लोगों के सामने पति, पिता, पतियों के पिता, पुत्र…।’’ (पवित्र क़ुरआन, 24:31)
हिजाब की 6 कसौटियाँ
पवित्र
क़ुरआन के अनुसार हिजाब के लिए 6 बुनियादी कसौटियाँ अथवा शर्तें लागू की गई हैं।
1. सीमाएँ (Extent):प्रथम कसोटी तो यह है कि शरीर का कितना भाग (अनिवार्य) ढका होना चाहिए। पुरूषों और स्त्रियों के लिये यह स्थिति भिन्न है। पुरूषों के लिए अनिवार्य है कि वे नाभी से लेकर घुटनों तक अपना शरीर ढांक कर रखें जबकि स्त्रियों के लिए चेहरे के सिवाए समस्त शरीर को और हाथों को कलाईयों तक ढांकने का आदेश है। यदि वे चाहें तो चेहरा और हाथ भी ढांक सकती हैं। कुछ उलेमा का कहना है कि हाथ और चेहरा शरीर का वह अंग है जिनको ढांकना स्त्रियों के लिये अनिवार्य है अर्थात स्त्रियों के हिजाब का हिस्सा है और यही कथन उत्तम है। शेष पाँचों शर्तें स्त्रियों और पुरूषों के लिए समान हैं।
2. धारण किए गये वस्त्र ढीले-ढाले हों, जिससे अंग प्रदर्शन न हो
(मतलब यह कि कपड़े तंग, कसे हुए अथवा ‘‘फ़िटिंग’’ वाले न हों।
3. पहने हुए वस्त्र पारदर्शी
न हों जिनके आर पार दिखाई देता हो।
4. पहने गए वस्त्र इतने शोख़, चटक और भड़कदार न हों जो
स्त्रियों को पुरूषों और
पुरूषों
को स्त्रियों की ओर आकर्षित करते हों।
5. पहने गए वस्त्रों का
स्त्रियों और पुरूषों से भिन्न प्रकार का होना अनिवार्य है अर्थात यदि पुरूष ने
वस्त्र धारण किये हैं तो वे पुरूषों के समान ही हों, स्त्रियों के वस्त्र
स्त्रियों जैसे ही हों और उन पर पुरूषों के वस्त्रों का प्रभाव न दिखाई दे। (जैसे
आजकल पश्चिम की नकल में स्त्रियाँ पैंट-टीशर्ट इत्यादि धारण करती हैं। इस्लाम में
इसकी सख़्त मनाही है, और मुसलमान स्त्रियों के लिए इस प्रकार के
वस्त्र पहनना हराम है।
6. पहने गए वस्त्र ऐसे हों कि जिनमें ‘काफ़िरों’ की समानता न हो। अर्थात ऐसे कपड़े न पहने जाएं जिनसे (काफ़िरों के किसी समूह) की कोई विशेष पहचान सम्बद्ध हो। अथवा कपड़ों पर कुछ ऐसे प्रतीक चिन्ह बने हों जो काफ़िरों के धर्मों को चिन्हित करते हों।
हिजाब में पर्दें के अतिरिक्त कर्म और आचरण भी शामिल है
लिबास
में उपरौक्त 6 शर्तों के अतिरिक्त सम्पूर्ण ‘हिजाब’ में पूरी नैतिकता, आचरण, रवैया और हिजाब करने वाले
की नियत भी शामिल है। यदि कोई व्यक्ति केवल शर्तों के अनुसार वस्त्र धारण करता हे
तो वह हिजाब के आदेश पर सीमित रूप से ही अमल कर रहा होगा। लिबास के हिजाब के साथ ‘आँखों का हिजाब, दिल का हिजाब, नियत और अमल का हिजाब भी
आवश्यक है। इस (हिजाब) में किसी व्यक्ति का चलना, बोलना और आचरण तथा व्यवहार
सभी कुछ शामिल है।
हिजाब स्त्रियों को छेड़छाड़ से बचाता है
स्त्रियों के लिये हिजाब क्यों अनिवार्य किया गया है? इसका एक कारण पवित्र क़ुरआन के सूरह ‘‘अहज़ाब’’ में इस प्रकार बताया गया हैः ‘‘ए नबी! अपनी पत्नियों और बेटियों और ईमान रखने वाले (मुसलमानों) की स्त्रियों से कह दो कि अपनी चादरों के पल्लू लटका लिया करें, यह मुनासिब तरीका है ताकि वे पहचान ली जाएं, और न सताई जाएं। अल्लाह ग़फूर व रहीम (क्षमा करने वाला और दयावान) है। (पवित्र क़ुरआन , 33:59)
पवित्र
क़ुरआन की इस आयत से यह स्पष्ट है कि स्त्रियों के लिये पर्दा इस कारण अनिवार्य
किया गया ताकि वे सम्मानित ढंग से पहचान ली जाएं और छेड़छाड़ से भी सुरक्षित रह
सकें।
जुड़वाँ बहनों की मिसाल
‘‘मान लीजिए कि दो जुड़वाँ बहनें हैं, जो समान रूप से सुन्दर भी
हैं। उनमें एक ने पूर्णरूप से इस्लामी हिजाब किया हुआ है, उसका सारा शरीर (चादर अथवा
बुरके से) ढका हुआ है। दूसरी जुड़वाँ बहन ने पश्चिमी वस्त्र धारण किये हुए हैं, अर्थात मिनी स्कर्ट अथवा
शाटर्स इत्यादि जो पश्चिम में प्रचलित सामान्य परिधान है। अब मान लीजिए कि गली के
नुक्कड़ पर कोई आवारा, लुच्चा लफ़ंगा या बदमाश बैठा है, जो आते जाते लड़कियों को
छेड़ता है, ख़ास
तौर पर युवा लड़कियों को। अब आप बताईए कि वह पहले किसे तंग करेगा? इस्लामी हिजाब वाली लड़की
को या पश्चिमी वस्त्रों वाली लड़की को?’’
ज़ाहिर
सी बात है कि उसका पहला लक्ष्य वही लड़की होगी जो पश्चिमी फै़शन के कपड़ों में घर
से निकली है। इस प्रकार के आधुनिक वस्त्र पुरूषों के लिए प्रत्यक्ष निमंत्रण होते
हैं। अतः यह सिद्ध हुआ कि पवित्र कुरआन ने बिल्कुल सही फ़रमाया है कि ‘‘हिजाब लड़कियों को छेड़छाड़ इत्यादि से बचाता
है।’’
दुष्कर्म का दण्ड, मृत्यु
इस्लामी
शरीअत के अनुसार यदि किसी व्यक्ति पर किसी विवाहित स्त्री के साथ दुष्कर्म
(शारीरिक सम्बन्ध) का अपराध सिद्ध हो जाए तो उसके लिए मृत्युदण्ड का प्रावधान है।
बहुतों को इस ‘‘क्रूर दण्ड व्यवस्था’’ पर आश्चर्य है। कुछ लोग तो
यहाँ तक कह देते हैं कि इस्लाम एक निर्दयी और क्रूर धर्म है, नऊजुबिल्लाह (ईश्वर अपनी
शरण में रखे) मैंने सैंकड़ो ग़ैर मुस्लिम पुरूषों से यह सादा सा प्रश्न किया कि ‘‘मान लें कि ईश्वर न करे, आपकी अपनी बहन, बेटी या माँ के साथ कोई
दुष्कर्म करता है और उसे उसके अपराध का दण्ड देने के लिए आपके सामने लाया जाता है
तो आप क्या करेंगे?’’ उन सभी का यह उत्तर था कि ‘‘हम उसे मार डालेंगे।’’ कुछ ने तो यहाँ तक कहा, ‘‘हम उसे यातनाएं देते
रहेंगे, यहाँ
तक कि वह मर जाए।’’ तब मैंने उनसे पूछा, ‘‘यदि कोई व्यक्ति आपकी माँ, बहन, बेटी की इज़्ज़त लूट ले तो
आप उसकी हत्या करने को तैयार हैं, परन्तु यही दुर्घटना किसी अन्य की माँ, बहन, बेटी के साथ घटी हो तो
उसके लिए मृत्युदण्ड प्रस्तावित करना क्रूरता और निर्दयता कैसे हो सकती है? यह दोहरा मानदण्ड क्यों है?’’
स्त्रियों का स्तर ऊँचा करने का पश्चिमी दावा निराधार है
नारी
जाति की स्वतंत्रता के विषय में पश्चिमी जगत की दावेदारी एक ऐसा आडंबर है जो
स्त्री के शारीरिक उपभोग, आत्मा का हनन तथा स्त्री को प्रतिष्ठा और
सम्मान से वंचित करने के लिए रचा गया है। पश्चिमी समाज का दावा है कि उसने स्त्री
को प्रतिष्ठा प्रदान की है, वास्तविकता इसके विपरीत है। वहाँ स्त्री को ‘‘आज़ादी’’ के नाम पर बुरी तरह अपमानित किया गया है। उसे ‘‘मिस्ट्रेस’’ (हर प्रकार की सेवा करने
वाली दासी) तथा ‘‘सोसाइटी बटरफ़्लाई’’ बनाकर वासना के पुजारियों
तथा देह व्यापारियों का खिलौना बना दिया गया है। यही वे लोग हैं जो ‘‘आर्ट’’ और ‘‘कल्चर’’ के पर्दों में छिपकर अपना करोबार चमका रहे
हैं।
अमरीका मे बलात्कार की दर सर्वाधिक है
संयुक्त
राज्य अमरीका (U.S.A.)को
विश्व का सबसे अधिक प्रगतिशील देश समझा जाता है। परन्तु यही वह महान देश है जहाँ
बलात्कार की घटनाएं पूरे संसार की अपेक्षा सबसे अधिक होती हैं। एफ़.बी.आई की
रिपोर्ट के अनुसार 1990 ई. में केवल अमरीका में प्रति दिन औसतन 1756 बलात्कार की
घटनाएं हुईं। उसके बाद की रिपोर्टस में (वर्ष नहीं लिखा) प्रतिदिन 1900 बलात्कार
काण्ड दर्ज हुए। संभवतः यह आंकड़े 1992, 1993 ई. के हों और यह भी संभव है कि इसके बाद
अमरीकी पुरूष बलात्कार के बारे में और ज़्यादा ‘‘बहादुर’’ हो गए हों।
‘‘वास्तव में अमरीकी समाज
में देह व्यापार को क़ानूनी दर्जा हासिल है। वहाँ की वेश्याएं सरकार को विधिवत्
टेक्स देती हैं। अमरीकी कानून में ‘बलात्कार’ ऐसे अपराध को कहा जाता है जिसमें शारीरिक सम्बन्ध में एक पक्ष (स्त्री
अथवा पुरूष) की सहमति न हो। यही कारण है कि अमरीका में अविवाहित जोड़ों की संख्या
लाखों में है जबकि स्वेच्छा से व्याभिचार अपराध नहीं माना जाता। अर्थात इस प्रकार
के स्वेच्छाचार और व्यभिचार को भी बलात् दुष्कर्म की श्रेणी में लाया जाए तो केवल
अमरीका में ही लाखों स्त्री-पुरूष ‘‘ज़िना’’ जैसे महापाप में संलग्न हैं।’’
ज़रा
कल्पना कीजिए कि अमरीका में इस्लामी हिजाब की पाबन्दी की जाती है जिसके अनुसार यदि
किसी पुरूष की दृष्टि किसी परस्त्री पर पड़ जाए तो वह तुरंत आँखें झुका ले।
प्रत्येक स्त्री पूरी तरह से इस्लामी हिजाब करके घर से निकले। फिर यह भी हो कि यदि
कोई पुरूष बलात्कार का दोषी पाया जाए तो उसे मृत्युदण्ड दिया जाए, मैं आपसे पूछता हूँ कि ऐसे
हालात में अमरीका में बलात्कार की दर बढ़ेगी, सामान्य रहेगी अथवा घटेगी?
इस्लीमी शरीअत के लागू होने से बलात्कार घटेंगे
यह स्वाभाविक सी बात है कि जब इस्लामी शरीअत का कानून लागू होगा तो उसके सकारात्मक परिणाम भी शीध्र ही सामने आने लगेंगे। यदि इस्लामी कानून विश्व के किसी भाग में भी लागू हो जाए, चाहे अमरीका हो, अथवा यूरोप, मानव समाज को राहत की साँस मिलेगी। हिजाब स्त्री के सम्मान और प्रतिष्ठा को कम नहीं करता वरन् इससे तो स्त्री का सम्मान बढ़ता है। पर्दा महिलाओं की इज़्ज़त और नारित्व की सुरक्षा करता है।
‘‘हमारे देश भारत में प्रगति और ज्ञान के विकास के नाम पर समाज में फै़शन, नग्नता और स्वेच्छाचार बढ़ा है, पश्चिमी संस्कृति का प्रसार टी.वी और सिनेमा आदि के प्रभाव से जितनी नग्नता और स्वच्छन्दता बढ़ी है उससे न केवल हिन्दू समाज का संभ्रांत वर्ग बल्कि मुसलमानों का भी एक पढ़ा लिखा ख़ुशहाल तब्क़ा बुरी तरह प्रभावित हुआ है। आज़ादी और प्रगतिशीलता के नाम पर परंपरागत भारतीय समाज की मान्यताएं अस्त-व्यस्त हो रही हैं, अन्य अपराधों के अतिरिक्त बलात्कार की घटनाओं में तेज़ी से वृद्धि हो रही है। चूंकि हमारे देश का दण्डविघान पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित है अतः इसमें भी स्त्री-पुरूष को स्चेच्छा और आपसी सहमति से दुष्कर्म करने को दण्डनीय अपराध नहीं माना जाता, भारतीय कानून में बलात्कार जैसे जघन्य अपराध की सज़ा भी कुछ वर्षों की कैद से अधिक नहीं है तथा न्याय प्रक्रिया इतनी विचित्र और जटिल है कि बहुत कम अपराधियों को दण्ड मिल पाता है। इस प्रकार के अमानवीय अपराधों को मानव समाज से केवल इस्लामी कानून द्वारा ही रोका जा सकता है। इस संदर्भ में इस्लाम और मुसलमानों के कट्टर विरोधी भाजपा नेता श्री लाल कृष्ण आडवानी ने बलात्कार के अपराधियों को मृत्यु दण्ड देने का सुझाव जिस प्रकार दिया है उस से यही सन्देश मिलता है कि इस्लामी कानून क्रूरता और निर्दयता पर नहीं बल्कि स्वाभाविक न्याय पर आधारित है। यही नहीं केवल इस्लामी शरीअत के उसूल ही प्रगति के नाम पर विनाश के गर्त में गिरती जा रही मानवता को तबाह होने से बचा सकते हैं।’’
बलात्कार
रोकने के कुछ उपाय
हमारे
देश भारत में जो क्राइम इस समय सबसे ज़्यादा हो रहा है वह है बलात्कार व सामूहिक
बलात्कार। वर्तमान में इसका ग्राफ चिंताजनक स्तर पर पहुंच गया है। इसे रोकने के
लिये तरह तरह के उपाय सुझाये जा रहे हैं। लेकिन विडंबना ये है कि जिनके ऊपर इस तरह
के जुर्म रोकने की जिम्मेदारी है उनमें बहुत से खुद ही कहीं न कहीं इसमें शामिल
हैं। कई लोगों के मशविरा है कि लड़कियों को पर्दे में रहकर बाहर निकलना चाहिए।
लेकिन जंगल में हिरन लाख छुपकर निकले, अगर किसी दरिन्दे की नज़र
उसपर पड़ गयी तो उसका बचना नामुमकिन ही होता है। सख्त कानून और फांसी की भी बात
चलायी जा रही है लेकिन ये सब तभी मुमकिन है जब दरिन्दा पकड़ा जाये और उसके खिलाफ
पर्याप्त सुबूत भी हों। लेकिन अधिकाँश मामलों में ऐसा होता नहीं। ऐसे में बलात्कार
जैसे अपराधों की रोकथाम के लिये कुछ दूसरे उपायों पर गौर करना ज़रूरी हो जाता है।
»१. शराबबंदी :
पहला
उपाय ये है कि देश में पूरी तरह शराबबंदी घोषित कर दी जाये। इससे न केवल बलात्कार
बल्की दूसरे अपराधों में भी अच्छी खासी कमी हो जायेगी। क्योंकि शराब पीने के बाद
मनुष्य की भावनाएं प्रबल हो जाती हैं और अक्ल का नाश हो जाता है। शराब पीने के बाद
उसकी कई गुना बढ़ी वासना उसे कहीं से भी अपने को शांत करने के लिये उकसाती है
लेकिन उसका परिणाम क्या होगा उसकी तरफ उसकी अक्ल कुछ भी सोचने नहीं देती। बलात्कार
जैसे ज़्यादातर मामलों में अपराधी को नशे में ही पाया गया। आज बहुत सी संस्थाएं
तम्बाकू,
पान मसाले वगैरा पर रोक की माँग कर रही हैं और कई जगह इनपर रोक लग
भी चुकी है। लेकिन उससे पहले शराब पर रोक लगनी चाहिए। शराब ने तो अपने व्यापारियों
को भी नहीं छोड़ा (पोंटी चडढा का केस)। यह सच है कि इससे सरकार के रेवेन्यू को
बहुत बड़ा झटका लगेगा, लेकिन इसके बाद ऊर्जावान युवकों का जो
ग्रुप उभरेगा (शराब छोड़ने के बाद) वह इस झटके से देश को पूरी तरह उबार देगा।
»२. आत्मरक्षा की ट्रेनिंग :
दूसरा
उपाय ये है कि लड़कियों को बचपन से ही आत्मरक्षा की ट्रेनिंग अनिवार्य रूप से दी
जाये। हर जगह पुलिस का पहरा नहीं लगाया जा सकता और वैसे भी कुछ पुलिसवाले खुद ही
अपनी वासना को शांत करने की फिराक में रहते हैं। लड़कियों के पास आत्मरक्षा के
लिये हर समय कुछ हथियार भी रहने चाहिए जिससे वह कम से कम हमलावर को नपुंसक बना
सके। कानूनी तौर पर लड़कियों को कुछ हथियार हर समय रखने की छूट दे देनी चाहिए जैसे
कि सिखों को कृपाण रखना अनिवार्य है।
»३. कम उम्र में विवाह:
तीसरा उपाय है कम उम्र में विवाह। हर लड़के में जवानी के समय काम वासना प्रबल होती है, इससे किसी को इंकार नहीं हो सकता। तेज़ पानी के प्रवाह को अगर सही दिशा न दी जाये तो वह अक्सर मज़बूत बाँध को भी तोड़कर सब कुछ तहस-नहस कर देता है। सही उम्र में विवाह उसकी वासनाओं को कण्ट्रोल करने के लिये पर्याप्त हो सकता है। यह हमारे देश की विडंबना है कि नौकरी और कैरियर के चक्कर में अच्छी खासी उम्र तक युवक शादी के बारे में सोच भी नहीं पाता और इस सिचुएशन में अगर वह आत्मशक्तिशाली नहीं हुआ तो गलत रास्ते पर जाते उसे देर नहीं लगती। सरकार जनसंख्या बढ़ने की चिंता में ज्यादा उम्र की शादियों को बढ़ावा दे रही है लेकिन जनसंख्या न बढ़ने के दूसरे उपाय भी अपनाये जा सकते हैं। हमारा विचार है कि इन उपायों के बाद भी अगर कोई बलात्कार जैसे कुकर्म में लिप्त होगा तो वह केवल शैतान ही होगा।
मुसलमान
काबा की पूजा करते हैं।
प्रश्नः यद्यपि
इस्लाम में मूर्ति पूजा वर्जित है परन्तु मुसलमान काबे की पूजा क्यों करते हैं? और अपनी नमाज़ों के दौरान
उसके सामने क्यों झुकते हैं?
उत्तरः काबा
हमारे लिये क़िबला (श्रद्धेय स्थान, दिशा) है, अर्थात वह दिशा जिसकी ओर मुँह करके मुसलमान
नमाज़ पढ़ते हैं। यह बात ध्यान देने योग्य है कि, मुसलमान नमाज़ के समय काबे
की पूजा नहीं करते, मुसलमान केवल अल्लाह की इबादत करते हैं और
उसी के आगे झुकते हैं। जैसा कि पवित्र क़ुरआन की सूरह अल-बकष्रः में अल्लाह का
फ़रमान हैः
‘ए नबी! यह तुम्हारे मुँह का बार-बार आसमान की
तरफ़ उठना हम देख रहे है, लो हम उसी किष्बले की तरफ़ तुम्हें फेर देते
हैं जिसे तुम पसन्द करते हो। मस्जिदुल हराम (काबा) की तरफ़ रुख़ फेर दो, अब तुम जहाँ कहीं हो उसी
तरफ़ मुँह करके नमाज़ पढ़ा करो।’’ (पवित्र क़ुरआन , 2/144)
इस्लाम एकता और सौहार्द के विकास में विश्वास रखता है
जैसे, यदि मुसलमान नमाज़ पढ़ना चाहें तो बहुत सम्भव है कि कुछ लोग उत्तर की दिशा की ओर मुँह करना चाहें, कुछ दक्षिण की ओर, तो कुछ पूर्व अथवा पश्चिम की ओर, अतः एक सच्चे ईश्वर (अल्लाह) की उपासना के अवसर पर मुसलमानों में एकता और सर्वसम्मति के लिए उन्हें यह आदेश दिया गया कि वह विश्व मे जहाँ कहीं भी हों, जब अल्लाह की उपासना (नमाज़) करें तो एक ही दिशा में रुख़ करना होगा। यदि मुसलमान काबा की पूर्व दिशा की ओर रहते हैं तो पश्चिम की ओर रुख़ करना होगा। अर्थात जिस देश से काबा जिस दिशा में हो उस देश से मुसलमान काबा की ओर ही मुँह करके नमाज़ अदा करें।
पवित्र काबा धरती के नक़्शे का केंद्र है
विश्व
का पहला नक़्शा मुसलमानों ने ही तैयार किया था। मुसलमानों द्वारा बनाए गए नक़शे
में दक्षिण ऊपर की ओर और उत्तर नीचे होता था। काबा उसके केंद्र में था। बाद में
भूगोल शास्त्रियों ने जब नक़शे बनाए तो उसमें परिवर्तन करके उत्तर को ऊपर तथा
दक्षिण को नीचे कर दिया। परन्तु अलहम्दो लिल्लाह (समस्त प्रशंसा केवल अल्लाह के
लिए है) तब भी काबा विश्व के केंद्र में ही रहा।
काबा शरीफ़ का तवाफ़ (परिक्रमा)
अल्लाह
के एकेश्वरत्व का प्रदर्शन है
जब
मुसलमान मक्का की मस्जिदे हराम में जाते हैं, वे काबा का तवाफ़ करते हैं अथवा उसके गिर्द
चक्कर लगाकर परिक्रमा करते हैं तो उनका यह कृत्य एक मात्र अल्लह पर विश्वास और उसी
की उपासना का प्रतीक है क्योंकि जिस प्रकार किसी वृत्त (दायरे) का केंद्र बिन्दु
एक ही होता है उसी प्रकार अल्लाह भी एकमात्र है जो उपासना के योग्य है।
हज़रत
उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) की हदीस सही बुख़ारी, खण्ड 2, किताब हज्ज, अध्याय 56 में वर्णित हदीस
नॉ 675 के अनुसार हज़रत उमर (रज़ियल्लाह अन्हु) ने काबा में रखे हुए काले रंग के
पत्थर (पवित्र हज्र-ए- अस्वद) को सम्बोधित करते हुए फ़रमायाः ‘‘मैं जानता हूँ कि तू एक पत्थर है जो किसी को
हानि अथवा लाभ नहीं पहुंचा सकता। यदि मैंने हुजूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को
चूमते हुए नहीं देखा होता तो मैं भी तुझे न छूता (और न ही चूमता)।’’
(इस हदीस से यह पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है कि
विधर्मियों की धारणा और उनके द्वारा फैलाई गई यह भ्रांति पूर्णतया निराधार है कि
मुसलमान काबा अथवा हज्र-ए-अस्वद की पूजा करते हैं। किसी वस्तु को आदर और सम्मान की
दृष्टि से देखना उसकी पूजा करना नहीं हो सकता।)
लोगों
ने काबे की छत पर खड़े होकर अज़ान दी
महान
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के समय में लोग काबे के ऊपर
चढ़कर अज़ान भी दिया करते थे, अब ज़रा उनसे पूछिए जो मुसलमानों पर काबे की
पूजा का आरोप लगाते हैं कि क्या कोई मूर्ति पूजक कभी अपने देवता की पूजी जाने वाली
मूर्ति के ऊपर खड़ा होता है?
मक्का मे ग़ैर मुस्लिमों को प्रवेश की अनुमति नहीं
प्रश्नः मक्का
और मदीना के पवित्र नगरों में ग़ैर मुस्लिमों को प्रवेश की अनुमति क्यों नहीं है?
उत्तरः यह सच
है कि कानूनी तौर पर मक्का और मदीना शरीफ़ के पवित्र नगरों में ग़ैर मुस्लिमों को
प्रवेश करने की अनुमति नहीं है। निम्नलिखित तथ्यों द्वारा प्रतिबन्ध के पीछे
कारणों और औचित्य का स्पष्टीकरण किया गया है।
समस्त
नागरिकों को कन्टोन्मेंट एरिया (सैनिक छावनी) में जाने की अनुमति नहीं होती मैं
भारत का नागरिक हूँ। परन्तु फिर भी मुझे (अपने ही देश के) कुछ वर्जित क्षेत्रों
में जाने की अनुमति नहीं है। प्रत्येक देश में कुछ न कुछ ऐसे क्षेत्र अवश्य होते
हैं जहाँ सामान्य जनता को जाने की इजाज़त नहीं होती। जैसे सैनिक छावनी या
कन्टोन्मेंट एरिया में केवल वही लोग जा सकते हैं जो सेना अथवा प्रतिरक्षा विभाग से
सम्बंधित हों। इसी प्रकार इस्लाम भी समस्त मानवजगत और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के लिए
एकमात्र सत्यधर्म है। इस्लाम के दो नगर मक्का और मदीना किसी सैनिक छावनी के समान
महत्वपूर्ण और पवित्र हैं, इन नगरों में प्रवेश करने का उन्हें ही
अधिकार है जो इस्लाम में विश्वास रखते हों और उसकी प्रतिरक्षा में शरीक हों।
अर्थात केवल मुसलमान ही इन नगरों में जा सकते हैं।
सैनिक
संस्थानों और सेना की छावनियों में प्रवेश पर प्रतिबन्ध के विरुद्ध एक सामान्य
नागरिक का विरोध करना ग़ैर कषनूनी होता है। अतः ग़ैर मुस्लिमों के लिये भी यह उचित
नहीं है कि वे मक्का और मदीना में ग़ैर मुस्लिमों के प्रवेश पर पाबन्दी का विरोध
करें।
मक्का और मदीना में प्रवेश का वीसा
1. जब कोई व्यक्ति किसी अन्य
देश की यात्रा करता है तो उसे सर्वप्रथम उस देश में प्रवेश करने का अनुमति पत्र; टपेंद्ध
प्राप्त करना पड़ता है। प्रत्येक देश के अपने कषयदे कानून होते हैं जो उनकी ज़रूरत
और व्यवस्था के अनुसार होते हैं तथा उन्हीं के अनुसार वीसा जारी किया जाता है। जब
तक उस देश के कानून की सभी शर्तों को पूरा न कर दिया जाए उस देश के राजनयिक
कर्मचारी वीसा जारी नहीं करते।
2. वीसा जारी करने के मामले
में अमरीका अत्यंत कठोर देश है, विशेष रूप से तीसरी दुनिया के नागरिकों को
वीसा देने के बारे में, अमरीकी आवर्जन कानून की कड़ी शर्तें हैं
जिन्हें अमरीका जाने के इच्छुक को पूरा करना होता है।
3. जब मैं सिंगापुर गया था तो
वहाँ के इमैग्रेशन फ़ार्म पर लिखा था ‘‘नशे की वस्तुएँ स्मगल करने वाले को
मृत्युदण्ड दिया जायेगा।’’ यदि मैं सिंगापुर जाना चाहूँ तो मुझे वहाँ के
कानून का पालन करना होगा। मैं यह नहीं कह सकता कि उनके देश में मृत्युदण्ड का
निर्दयतापूर्ण और क्रूर प्रावधान क्यों है। मुझे तो केवल उसी अवस्था में वहाँ जाने
की अनुमति मिलेगी जब उस देश के कानून की सभी शर्तों के पालन का इकष्रार करूंगा।
4. मक्का और मदीना का वीसा
अथवा वहाँ प्रवेश करने की बुनियादी शर्त यह है कि मुख से ‘‘ला इलाहा इल्लल्लाहु, मुहम्मदुर्रसूलल्लाहि’’ (कोई ईश्वर नहीं, सिवाय अल्लाह के (और)
मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम)
अल्लाह के सच्चे सन्देष्टा हैं), कहकर मन से अल्लाह के एकमात्र होने का इकरार
किया जाए और हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को अल्लाह का सच्चा रसूल
स्वीकार किया जाए।
सुअर का मांस हराम है
प्रश्नः इस्लाम
में सुअर का मांस खाना क्यों वर्जित है?
उत्तरः इस्लाम
में सुअर का माँस खाना वर्जित होने की बात से सभी परिचित हैं। निम्नलिखित तथ्यों
द्वारा इस प्रतिबन्ध की व्याख्या की गई है। पवित्र क़ुरआन में कम से कम चार
स्थानों पर सुअर का मांस खाने की मनाही की गई है। पवित्र क़ुरआन की सूरह 2, आयत 173, सूरह 5, आयत 3, सूरह 6, आयत 145, सूरह 16, आयत 115 में इस विषय पर
स्पष्ट आदेश दिये गए हैं:
‘‘तुम पर हराम किया गया मुरदार (ज़िब्हा किये
बिना मरे हुए जानवर) का मांस, सुअर का मांस और वह जानवर जो अल्लाह के नाम
के अतिरिक्त किसी और नाम पर ज़िब्हा किया गया हो, जो गला घुटने से, चोट खाकर, ऊँचाई से गिरकर या टक्कर
खाकर मरा हो, या
जिसे किसी दरिन्दे नें फाड़ा हो सिवाय उसके जिसे तुम ने ज़िन्दा पाकर ज़िब्हा कर
लिया और वह जो किसी आस्ताने (पवित्र स्थान, इस्लाम के मूल्यों के आधार पर) पर ज़िब्हा
किया गया हो।’’ (पवित्र
क़ुरआन , 5ः3)
इस
संदर्भ में पवित्र क़ुरआन की सभी आयतें मुसलमानों को संतुष्ट करने हेतु पर्याप्त
है कि सुअर का मांस क्यों हराम है।
बाइबल ने भी सुअर का मांस खाने की मनाही की है
संभवतः
ईसाई लोग अपने धर्मग्रंथ में तो विश्वास रखते ही होंगे। बाइबल में सुअर का मांस
खाने की मनाही इस प्रकार की गई हैः
‘‘और सुअर को, क्योंकि उसके पाँव अलग और चिरे हुए हैं। पर
वह जुगाली (पागुर) नहीं करता, वह भी तुम्हारे लिये अपवित्र है, तुम उनका मांस न खाना, उनकी लााशों को न छूना, वह तुम्हारे लिए अपवित्र
हैं।’’ (ओल्ड टेस्टामेंट, अध्याय 11, 7 से 8)
कुछ
ऐसे ही शब्दों के साथ ओल्ड टेस्टामेंट की पाँचवी पुस्तक में सुअर खाने से मना किया
गया हैः
‘‘और सुअर तुम्हारे लिए इस कारण से अपवित्र है कि इसके पाँव
तो चिरे हुए हैं परन्तु वह जुगाली नहीं करता, तुम न तो उनका माँस खाना और न उनकी लाशों को
हाथ लगाना।’’ (ओल्ड
टेस्टामेंट, अध्याय
14ः8) ऐसी
ही मनाही बाइबल (ओल्ड टेस्टामेंट, अध्याय 65, वाक्य 2 ता 5) में भी
मौजूद है।
सुअर के मांसाहार से अनेक रोग उत्पन्न होते हैं
अब
आईए! ग़ैर मुस्लिमों और ईश्वर को न मानने वालों की ओर, उन्हें तो बौद्धिक तर्क, दर्शन और विज्ञान के
द्वारा ही कषयल किया जा सकता है। सुअर का मांस खाने से कम से कम 70 विभिन्न रोग लग
सकते हैं। एक व्यक्ति के उदर में कई प्रकार के कीटाणु हो सकते हैं, जैसे राउण्ड वर्म, पिन वर्म और हुक वर्म
इत्यादि। उनमें सबसे अधिक घातक टाईनिया सोलियम (Taenia Soliam) कहलाता है। सामान्य रूप से
इसे टेपवर्म भी कहा जाता है। यह बहुत लम्बा होता है और आंत में रहता है। इसके
अण्डे (OVA)रक्त
प्रवाह में मिलकर शरीर के किसी भी भाग में पहुंच सकते हैं। यदि यह मस्तिष्क तक जा
पहुंचे तो स्मरण शक्ति को बहुत हानि पहुंचा सकते हैं। यदि दिल में प्रवेश कर जाए
तो दिल का दौरा पड़ सकता है। आँख में पहुंच जाए तो अंधा कर सकते हैं। जिगर में
घुसकर पूरे जिगर को नष्ट कर सकते हैं। इसी प्रकार शरीर के किसी भाग को हानि पहुंचा
सकते हैं। पेट में पाया जाने वाला एक अन्य रोगाणु Trichura Lichurasiहै।
यह
एक सामान्य भ्रांति है कि यदि सुअर के मांस को भलीभांति पकाया जाए तो इन रोगाणुओं
के अण्डे नष्ट हो जाएंगे। अमरीका में किये गए अनुसंधान के अनुसार ट्राईक्योरा से
प्रभावित 24 व्यक्तियों में 20 ऐसे थे जिन्होंने सुअर का माँस अच्छी तरह पकाकर
खाया था। इससे पता चला कि सुअर का मांस अच्छी तरह पकाने पर सामान्य तापमान पर भी
उसमें मौजूद रोगाणु नहीं मरते जो भोजन पकाने के लिए पर्याप्त माना जाता है।
सुअर के मांस में चर्बी बढ़ाने वाला तत्व होता है
सुअर
के मांस में ऐसे तत्व बहुत कम होते हैं जो मांसपेशियों को विकसित करने के काम आते
हों। इसके विपरीत यह चर्बी से भरपूर होता है। यह वसा रक्त नलिकाओं में एकत्र होती
रहती है और अंततः अत्याधिक
दबाव (हाइपर टेंशन) ओर हृदयघात का कारण बन सकती है। अतः इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि
50 प्रतिशत से अधिक अमरीकियों को हाइपर टेंशन का रोग लगा हुआ है।
सुअर संसार के समस्त जानवरों से अधिक घिनौना जीव
सुअर
संसार में सबसे अधिक घिनौना जानवर है। यह गंदगी, मैला इत्यादि खाकर गुज़ारा
करता है। मेरी जानकारी के अनुसार यह बेहतरीन सफ़ाई कर्मचारी है जिसे ईश्वर ने पैदा
किया है। वह ग्रामीण क्षेत्र जहाँ शौचालय आदि नहीं होते और जहाँ लोग खुले स्थानों
पर मलमूत्र त्याग करते हैं, वहाँ की अधिकांश गन्दगी यह सुअर ही साफ़ करते
हैं।
कुछ
लोग कह सकते हैं कि आस्ट्रेलिया जैसे उन्नत देशों में सुअर पालन स्वच्छ और स्वस्थ
वातावरण में किया जाता है। परन्तु इतनी सावधानी के बावजूद कि जहाँ सुअरों को
बाड़ों में अन्य पशुओं से अलग रखा जाता है, कितना ही प्रयास कर लिया जाए कि उन्हें
स्वच्छ रखा जा सके किन्तु यह सुअर अपनी प्राकृतिक प्रवत्ति में ही इतना गन्दा है
कि उसे अपने साथ के जानवरों का मैला खाने ही में आनन्द आता है।
सुअर सबसे निर्लज्ज जानवर
इस
धरती पर सबसे ज़्यादा बेशर्म जानवर केवल सुअर है। सुअर एकमात्र जानवर है जो अपनी
मादिन (Mate) के
साथ सम्भोग में अन्य सुअरों को आमंत्रिक करता है। अमरीका में बहुत से लोग सुअर
खाते हैं अतः वहाँ इस प्रकार का प्रचलन आम है कि नाच-रंग की अधिकतर पार्टियों के
पश्चात लोग अपनी पत्नियाँ बदल लेते हैं, अर्थात वे कहते हैं‘ ‘‘मित्र! तुम मेरी पत्नी और
मैं तुम्हारी पत्नी के साथ आनन्द लूंगा…।’’
यदि कोई सुअर का मांस खाएगा तो सुअर के समान ही व्यवहार करेगा, यह सर्वमान्य तथ्य है।
शराब की मनाही
प्रश्नः इस्लाम
में शराब पीने की मनाही क्यों है?
उत्तरः मानव
संस्कृति की स्मृति और इतिहास आरंभ होने से पहले से शराब मानव समाज के लिए अभिशाप
बनी हुई है। यह असंख्य लोगों के प्राण ले चुकी है। यह क्रम अभी चलता जा रहा है।
इसी के कारण विश्व के करोड़ों लोगों का जीवन नष्ट हो रहा है। समाज की अनेकों
समस्याओं की बुनियादी वजह केवल शराब है। अपराधों में वृद्धि और विश्वभर में करोड़ों
बरबाद घराने शराब की विनाशलीला का ही मौन उदाहरण है।
पवित्र क़ुरआन में शराब की मनाही
निम्नलिखित
पवित्र आयत में क़ुरआन हमें शराब से रोकता है। ‘‘हे लोगो! जो ईमान लाए हो! यह शराब, जुआ और यह आस्ताने और
पांसे, यह
सब गन्दे और शैतानी काम हैं। इनसे परहेज़ करो, उम्मीद है कि तुम्हें भलाई प्राप्त होगी।’’ (सूरह 5, आयत 90)
बाईबल में मदिरा सेवन की मनाही
बाईबल
की निम्नलिखित आयतों में शराब पीने की बुराई बयान की गई हैः
‘‘शराब हास्यास्पद और हंगामा करने वाली है, जो कोई इनसे धोखा खाता है
(वह) बुद्धिमान नहीं।’’ (दृष्टांत अध्याय 20, आयत 1)
‘‘और शराब के नशे में मतवाले न बनो।’’ (अफ़सियों, अध्याय 5, आयत 18)
मानव
मस्तिष्क का एक भाग ‘‘निरोधी केंद्र’’ (Inhibitory Centre) कहलाता
है। इसका काम है मनुष्य को ऐसी क्रियाओं से रोकना जिन्हें वह स्वयं ग़लत समझता हो।
जैसे सामान्य व्यक्ति अपने बड़ों के सामने अशलील भाषा का प्रयोग नहीं करता। इसी
प्रकार यदि किसी व्यक्ति को शौच की आवश्यकता होती है वह सबके सामने नहीं करता और
शौचालय की ओर रुख़ करता है।
जब
कोई शराब पीता है तो उसका निरोधी केंद्र स्वतः ही काम करना बन्द कर देता है। यही
कारण है कि शराब के नशे में धुत होकर वह व्यक्ति ऐसी क्रियाएं करता है जो
सामान्यतः उसकी वास्तविक प्रवृति से मेल नहीं खातीं। जेसे नशे में चूर व्यक्ति
अशलील भाषा बोलने में कोई शर्म महसूस नहीं करता। अपनी ग़लती भी नहीं मानता, चाहे वह अपने माता-पिता से
ही क्यों न बात कर रहा हो। शराबी अपने कपड़ों में ही मूत्र त्याग कर लेते हैं, वे न तो ठीक से बात कर
पाते हैं और न ही ठीक से चल पाते हैं, यहाँ तक कि वे अभद्र हरकतें भी कर गुज़रते
हैं।
व्यभिचार, बलात्कार, वासनावृत्ति की घटनाएं शराबियों में अधिक होती हैं। अमरीकी प्रतिरक्षा मंत्रालय के ‘‘राष्ट्रीय अपराध प्रभावितों हेतु सर्वेक्षण एंव न्याय संस्थान’’ के अनुसार 1996 के दौरान अमरीका में बलात्कार की प्रतिदिन घटनाएं 20,713 थीं। यह तथ्य भी सामने आया कि अधिकांश बलात्कारियों ने यह कुकृत्य नशे की अवस्था में किया। छेड़छाड़ के मामलों का कारण भी अधिकतर नशा ही है।
आंकड़ों के अनुसार 8 प्रतिशत अमरीकी इनसेस्ट ;प्दबमेजद्ध से ग्रसित हैं। इसका मतलाब यह हुआ कि प्रत्येक 12 अथवा 13 में से एक अमरीकी इस रोग से प्रभावित है। इन्सेस्ट की अधिकांश घटनाएं मदिरा सेवन के कारण घटित होती हैं जिनमें एक या दो लोग लिप्त हो जाते हैं।
(अंग्रेज़ी शब्द प्दबमेज का अनुवाद किसी शब्दकोक्ष में नहीं मिलता। परन्तु इसकी व्याख्या से इस कृत्य के घिनौनेपन का अनुमान लगाया जा सकता है। ऐसे निकट रिश्ते जिनके बीच धर्म, समाज और कानून के अनुसार विवाह वार्जित है, उनसे शरीरिक सम्बन्ध को प्दबमेज कहा जाता है।’’) अनुवादक
इसी
प्रकार एड्स के विनाशकारी रोग के फैलाव के कारणों में एक प्रमुख कारण मदिरा सेवन
ही है।
प्रत्येक शराब पीने वाला ‘‘सामाजिक’’ रूप से ही पीना आरंभ करता
है
बहुत से लोग ऐसे हैं जो मदिरापान के पक्ष में तर्क देते हुए स्वयं को ‘‘सामाजिक पीने वाला’’ ;ैवबपंस क्तपदामतद्ध बताते हैं और यह दावा करते हैं कि वे एक या दो पैग ही लिया करते हैं और उन्हें स्वयं पर पूर्ण नियंत्रण रहता है और वे कभी पीकर उन्मत्त नहीं होते। खोज से पता चला है कि अधिकांश घोर पियक्कड़ों ने आरंभ इसी ‘‘सामाजिक’’ रूप से किया था। वास्तव में कोई पियक्कड़ ऐसा नहीं है जिसने शराब पीने का आंरभ इस इरादे से किया हो कि आगे चलकर वह इस लत में फंस जाएगा। इसी प्रकार कोई ‘‘सामाजिक पीने वाला’’ यह दावा नहीं कर सकता कि वह वर्षों से पीता आ रहा है और यह कि उसे स्वयं पर इतना अधिक नियंत्रण है कि वह पीकर एक बार भी मदहोश नहीं हुआ।
यदि कोई व्यक्ति नशे में एकबार कोई शर्मनाक हरकत कर बैठे तो वह सारी ज़िन्दगी उस के साथ रहेगी माल लीजिए एक ‘‘सामाजिक पियक्कड़’’ अपने जीवन में केवल एक बार (नशे की स्थिति में) अपना नियंत्रण खो देता है और उस स्थिति में प्दबमेज का अपराध कर बैठता है तो पश्ताचाप जीवन पर्यन्त उसका साथ नहीं छोड़ता और वह अपराध बोध की भावना से ग्रस्त रहेगा। अर्थात अपराधी और उसका शिकार दोनों ही का जीवन इस ग्लानि से नष्टप्राय होकर रह जाएगा।
पवित्र हदीसों में शराब की मनाही
हुजूर
सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमायाः
(क) ‘‘शराब तमाम बुराईयों की माँ है और तमाम बुराईयों में सबसे ज़्यादा शर्मनाक है।’’ (सुनन इब्ने माजह, जिल्द 3, किताबुल ख़म्र, अध्याय 30, हदीस 3371)
(ख) ‘‘प्रत्येक वस्तु जिसकी अधिक मात्रा नशा करती हो, उसकी थोड़ी मात्रा भी हराम है।’’ (सुनन इब्ने माजह, किताबुल ख़म्र, हदीस 3392) इस हदीस से अभिप्राय यह सामने आता है कि एक घूंट अथवा कुछ बूंदों की भी गुंजाईश नहीं है।
(ग) केवल शराब पीने वालों पर ही लानत नहीं की गई, बल्कि अल्लाह तआला के
नज़दीक वे लोग भी तिरस्कृत हैं जो शराब पीने वालों के साथ प्रत्यक्ष अथवा
अप्रत्यक्ष संमबन्ध रखें। सुनन इब्ने माजह में किताबुल ख़म्र
की हदीस 3380 के अनुसार हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने
फ़रमायाः ‘‘अल्लाह की लानत नाज़िल होती है उन 10 प्रकार
के समूहों पर जो शराब से सम्बंधित हैं। एक वह समूह जो शराब बनाए, और दूसरा वह जिसके लिए
शराब बनाई जाए। एक वह जो उसे पिये और दूसरा वह जिस तक शराब पहुंचाई जाए, एक वह जो उसे परोसे। एक वह
जो उसको बेचे, एक
वह जो इसके द्वारा अर्जित धन का उपयोग करे। एक वह जो इसे ख़रीदे। और एक वह जो इसे
किसी दूसरे के लिये ख़रीदे।’’
शराब पीने से जुड़ी बीमारियाँ
वैज्ञानिक
दृष्टिकोण से देखा जाए तो शराब से दूर रहने के अनेक बौद्धिक कारण मिलेंगे। यदि
विश्व में मृत्यु का कोई बड़ा कारण तलाश किया जाए तो पता चलेगा कि शराब एक प्रमुख
कारण है। प्रत्येक वर्ष लाखों लोग शराब की लत के कारण मृत्यु को प्राप्त हैं। मुझे
इस जगह शराब के बुरे प्रभावों के विषय में अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं क्योंकि इन
बातों से सम्भवतः सभी परिचित हैं। फिर भी शराब के सेवन से उत्पन्न रोगों की
संक्षिप्त सूची अवश्य दी जा रही है।
1. जिगर (लीवर) की सिकुड़न की बीमारी, शराब पीने के द्वारा अधिक
होती है, यह
सर्वमान्य हैं।
2. शराब पीने से आहार नलिका का कैंसर, सिर और गर्दन का कैंसर, तथा पाकाशय (मेदा) का कैंसर इत्यादि होना आम बात है।
3. आहार नलिका की जलन और सूजन, मेदे पर सूजन, पित्ते की ख़राबी तथा
हेपिटाईटिस का सम्बन्ध भी शराब के सेवन से है।
4. हृदय से सम्बंधित समस्त रोगों, और हृदयघात से भी शराब का सीधा सम्बन्ध है।
5. स्ट्रोक, एपोप्लेक्सी, हाईपर टेंशन, फ़िट्स तथा अन्य प्रकार के पक्षाघात का सम्बन्ध भी शराब से है।
6. पेरीफ़ेरल न्यूरोपैथी, कोर्टिकल एटरोफ़ी और सिरबेलर एटरोफ़ी जैसे लक्षण भी मदिरा सेवन से ही उत्पन्न होते हैं।
7. स्मरण शक्ति का क्षीण हो जाना, बोलचाल और स्मृति में केवल पूर्व की घटनाओं के ही शेष रह जाने का कारण थाईमिन की कमी से होता है जो शराब के अत्याधिक सेवन से उत्पन्न होती है।
8. बेरी-बेरी और अन्य विकार भी शाराबियों में पाए जाते हैं, यहाँ तक कि उन्हें प्लाजरा भी हो जाता है।
9. डीलेरियम टर्मिनस एक गम्भीर रोग है जो किसी विकार के उभरने के दौरान आप्रेशन के पश्चात लग सकता है। यह शराब पीना छोड़ने के एक प्रभाव के रूप में भी प्रकट हो सकता है। यह स्थिति बहुत जटिल है और प्रायः मृत्यु का कारण भी बन सकती है।
10. मूत्र तथा गुर्दों की अनेक समस्याएं भी मदिरा सेवन से सम्बद्ध हैं जिनमें मिक्सोडीमिया से लेकर हाईपर थाईराडिज़्म और फ़्लोर डिक्शिंग सिंडरोम तक शामिल हैं।
11. रक्त पर मदिरा सेवन के नकरात्मक प्रभावों की सूची बहुत लम्बी है किन्तु फ़ोलिक एसिड में कमी एक ऐसा प्रतीक है जो अधिक मदिरा सेवन का सामान्य परिणाम है और जो माईक्रो साइटिक एनेमिया के रूप में प्रकट होता है। ज़्युज़ सिंडरोम तीन रोगों का संग्रह है जो पियक्कड़ों की ताक में रहते हैं जो कि हेमोलेटिक एनेमया, जानडिस (पीलिया) और हाईपर लाइपेडीमिया का संग्रह हैं।
12. थ्रम्बो साइटोपीनिया और प्लेटलिट्स के अन्य
विकार पीने वालों में सामान्य हैं।
13. सामान्य रूप से उपयोग की जाने वाली औषधि
अर्थात ‘फ़्लेजल’ (मेट्रोनेडाज़ोल) भी शराब के साथ बुरे प्रभाव
डालती है।
14. किसी रोग का बार-बार आक्रमण करना, शराबियों में बहुत आम है। कारण यह है कि अधिक मदिरा सेवन से उनके शरीर की बीमारियों के विरुद्ध अवरोधक क्षमता क्षीण हो जाती है।
15. छाती के विभिन्न विकार भी पीने वालों में बहुतायत से पाए जाते हैं। निमोनिया, फेफड़ों की ख़राबी तथा क्षयरोग शराबियों में सामान्य रूप से पाए जाते हैं।
16. अधिक शराब पीकर अधिकांश शराबी वमन कर दते हैं, खाँसी की शारीरिक प्रतिक्रिया जो सुरक्षा व्यवस्था का कार्य करती है उस दौरान असफल हो जाती है अतः उल्टी से निकलने वाला द्रव्य सहज में फेफड़ों तक जा पहुंचता है और निमोनिया या फेफड़ों के विकार का कारण बनता है। कई बार इसका परिणाम दम घुटने तथा मृत्यु के रूप में भी प्रकट होता है।
17. महिलाओं में मदिरा सेवन के हानिकारक प्रभावों की चर्चा विशेष रूप से की जानी आवश्यक है। पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं को मदिरा सेवन से अधिक हानि की आशंका होती है। गर्भावस्था में मदिरा सेवन से गर्भाशय पर घातक प्रभाव पड़ता है। मेडिकल साइंस में ‘‘फ़ैटल अलकोहल सिंडरोम’’ से सम्बद्ध शंकाएं दिनो-दिन बढ़ती जा रही है।
18. मदिरा सेवन से त्वचा रोगों की पूरी सम्भावना है।
19. एगज़ीमा, एलोपेशिया, नाख़ुनों की बनावट बिगड़ना, पेरोनेशिया अर्थात
नाख़ुनों के किनारों का विकार, एंगुलर स्टोमाटाईटिस (मुँह के जोड़ों में
जलन) वह सामान्य बीमारियाँ हैं जो शराबियों में पाई जाती हैं।
मदिरा सेवन एक ‘‘बीमारी’’ है
चिकित्सा शास्त्री अब शराब पीने वालों के विषय में खुलकर विचार व्यक्त करते हैं। उनका कहना है कि मदिरा सेवन कोई आदत या नशा नहीं बल्कि एक बीमारी है। इस्लामिक रिसर्च फ़ाउण्डेशन नामक संस्था ने एक पुस्तिका प्रकाशित की है जिसमें कहा गया है कि शराब एक बीमारी है जोः
१. बातलों में बेची हाती है।
२. जिसका प्रचार समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, रेडियो और टी.वी. पर किया जाता है।
३. जिसे फैलाने के लिए दुकानों को लायसेंस दिये जाते हैं।
४. सरकार के राजस्व आय का साधन है
५. सड़कों पर भयंकर दुर्घटनाओं का कारण बनती हैं
६. पारिवारिक जीवन को नष्ट करती है तथा अपराधों में बढ़ौतरी करती है।
७. इसका कारण कोई रोगााणु अथवा वायरस नहीं है।
8. मदिरा सेवन कोई रोग नहीं…यह तो शैतान की कारीगरी है।
अल्लाह
तआला ने हमें इस शैतानी कुचक्र से सावधान किया है। इस्लाम ‘‘दीन-ए- फ़ितरत’’ (प्राकृतिक धर्म) कहलाता
है। अर्थात ऐसा धर्म जो मानव के प्रकृति के अनुसार है। इस्लाम के समस्त प्रावधानों
का उद्देश्य यह है कि मानव की प्रकृति की सुरक्षा की जाए। शराब और मादक द्रव्यों
का सेवन प्रकृति के विपरीत कृत्य है जो व्यक्ति और समाज में बिगाड़ का कारण बन
सकता है। शराब मनुष्य को उसकी व्यक्तिगत मानवीय प्रतिष्ठा और आत्म सम्मान से वंचित
कर उसे पाश्विक स्तर तक ले जाती है। इसीलिए इस्लाम में शराब पीने की घोर मनाही है
और इसे महापाप ठहराया गया है।
गवाहों की समानता
प्रश्नः क्या कारण है कि इस्लाम
में दो स्त्रियों की गवाही एक पुरुष के समान ठहराई जाती है?
उत्तरः दो
स्त्रियों की गवाही एक पुरुष की गवाही के बराबर हमेशा नहीं ठहराई जाती।
(क) जब विरासत की वसीयत का मामला हो तो दो न्यायप्रिय
(योग्य) व्यक्तियों की गवाही आवश्यक है।
पवित्र क़ुरआन की कम से कम 3 आयतें हैं जिनमें गवाहों की चर्चा स्त्री अथवा पुरुष की व्याख्या के बिना की गई है। जैसेः ‘‘ए लोगो! जो ईमान लाए हो, जब तुम में से किसी की मृत्यु का समय आ जाए और वह वसीयत कर रहा हो तो उसके लिए साक्ष्य का नियम यह है कि तुम्हारी जमाअत (समूह) में से दो न्यायप्रिय व्यक्ति गवाह बनाए जाएं। या यदि तुम यात्रा की स्थिति में हो और वहाँ मृत्यु की मुसीबत पेश आए तो ग़ैर (बेगाने) लोगों में से दो गवाह बनाए जाएं।’’ (सूरह अल-मायदा, आयत 106)
(ख) तलाक के मामले में दो न्यायप्रिय लोगों की बात की गई हैः
‘‘फिर जब वे अपनी (इद्दत) की अवधि की समाप्ति पर पहुंचें तो या तो भले तरीके से (अपने निकाह) में रोक रखो, या भले तरीके से उनसे जुदा हो जाओ और दो ऐसे लोगों को गवाह बना लो जो तुम में न्यायप्रिय हों और (हे गवाह बनने वालो!) गवाही ठीक-ठीक और अल्लाह के लिए अदा करो।’’ (पवित्र क़ुरआन 2/65) इस जगह इद्दत की अवधि की व्याख्या ग़ैर मुस्लिम पाठकों के लिए करना आवश्यक जान पड़ता है। इद्दत का प्रावधान इस्लामी शरीअत में इस प्रकार है कि यदि पति तलाकष् दे दे तो पत्नी 3 माह 10 दिन तक अपने घर में परिजनों की देखरेख में सीमित रहे, इस बीच यदि तलाकष् देने वाले पति से वह गर्भवती है तो उसका पता चल जाएगा। यदि पति की मृत्यु हो जाती है तो इद्दत की अवधि 4 माह है। यह इस्लाम की विशेष सामाजिक व्यवस्था है। इन अवधियों में स्त्री दूसरा विवाह नहीं कर सकती।
(ग) स्त्रियों के विरूद्ध बदचलनी के आरोप लगाने के सम्बन्ध में चार गवाहों का प्रावधान किया गया हैः ‘‘और जो लोग पाकदामन औरतों पर तोहमत लगाएं और फिर 4 गवाह लेकर न आएं, उनको उसी कोड़े से मारो और उनकी गवाही न स्वीकार करो और वे स्वयं ही झूठे हैं।’’ (पवित्र क़ुरआन 24/4)
पैसे के लेन-देन में दो स्त्रियों की गवाही
एक पुरुष की गवाही के बराबर होती है
यह
सच नहीं है कि दो गवाह स्त्रियाँ हमेशा एक पुरुष के बराबर समझी जाती हैं। यह बात
केवल कुछ मामलों की हद तक ठीक है, पवित्र क़ुरआन में ऐसी लगभग पाँच आयते हैं
जिनमें गवाहों की स्त्री-पुरुष के भेद के बिना चर्चा की गई है। इसके विपरीत पवित्र
क़ुरआन की केवल एक आयत है जो यह बताती है कि दो गवाह स्त्रियाँ एक पुरुष के बराबर
हैं। यह पवित्र क़ुरआन की सबसे लम्बी आयत भी है जो व्यापारिक लेन-देन के विषय में
समीक्षा करती है। इस पवित्र आयत में अल्लाह तआला का फ़रमान हैः ‘‘ए लोगो! जो ईमान लाए हो, जब किसी
निर्धारित अवधि के लिये तुम आपस में कष्र्ज़ का लेन-देन करो तो उसे लिख लिया करो।
दोनों पक्षों के बीच न्याय के साथ एक व्यक्ति दस्तावेज़ लिखे, जिसे अल्लाह ने लिखने पढ़ने की योग्यता प्रदान की हो उसे
लिखने से इंकार नहीं करना चाहिए, वह लिखे और वह
व्यक्ति इमला कराए (बोलकर लिखवाए) जिस पर हकष् आता है (अर्थात कष्र्ज़ लेने वाला)
और उसे अल्लाह से, अपने रब से डरना
चाहिए, जो मामला तय हुआ हो उसमें कोई कमी-बेशी न
करे, लेकिर यदि कष्र्ज़ लेने वाला अज्ञान या
कमज़ोर हो या इमला न करा सकता हो तो उसका वली (संरक्षक अथवा प्रतिनिधि) न्याय के
साथ इमला कराए। फिर अपने पुरूषों में से दो की गवाही करा लो। ओर यदि दो पुरुष न
हों तो एक पुरुष और दो स्त्रियाँ हों ताकि एक भूल जाए तो दूसरी उसे याद दिला दे।’’ (पवित्र क़ुरआन , सूरह बकष्रह आयत 282)
ध्यान
रहे कि पवित्र क़ुरआन की यह आयत केवल और केवल व्यापारिक कारोबारी (रूपये पैसे के)
लेन-देन से सम्बंधित है। ऐसे मामलों में यह सलाह दी गई है कि दो पक्ष आपस में
लिखित अनुबंध करें और दो गवाह भी साथ लें जो दोनों (वरीयता में) पुरुष हों। यदि आप
को दो पुरुष न मिल सकें तो फिर एक पुरुष और दो स्त्रियों की गवाही से भी काम चल
जाएगा। मान
लें कि एक व्यक्ति किसी बीमारी के इलाज के लिए आप्रेशन करवाना चाहता है। इस इलाज
की पुष्टि के लिए वह चाहेगा कि दो विशेषज्ञ सर्जनों से परामर्श करे, मान लें कि यदि उसे दूसरा
सर्जन न मिले तो दूसरा चयन एक सर्जन और दो सामान्य डाक्टरों (जनरल प्रैक्टिशनर्स)
की राय होगी (जो सामान्य एम.बी.बी.एस) हों। इसी प्रकार आर्थिक लेन-देन में भी दो
पुरुषों को तरजीह (प्रमुखता) दी जाती है। इस्लाम पुरुष मुसलमानों से अपेक्षा करता
है कि वे अपने परिवारजनों का कफ़ील (ज़िम्मेदार) हो। और यह दायित्व पूरा करने के
लिए रुपया पैसा कमाने की ज़िम्मेदारी पुरुष के कंधों पर है। अतः उसे स्त्रियों की
अपेक्षा आर्थिक लेन-देन के बारे में पूरी जानकारी होनी चाहिए। दूसरे साधन के रुप
में एक पुरुष और दो स्त्रियों को गवाह के रुप में लिया जा सकता है ताकि यदि उन
स्त्रियों में से कोई एक भूल करे तो दूसरी उसे याद दिला दे। पवित्र क़ुरआन में
अरबी शब्द ‘‘तनज़ील’’ का उपयोग किया गया है जिसका अर्थ ‘कन्फ़यूज़ हो जाना’ या ‘ग़लती करना’ के लिए किया जाता है। बहुत
से लोगों ने इसका ग़लत अनुवाद करके इसे ‘‘भूल जाना’’ बना दिया है, अतः आर्थिक लेन-देन में
(इस्लाम में) ऐसा केवल एक उदाहरण है जिसमें दो स्त्रियों की गवाही को एक पुरुष के
बराबर कष्रार दिया गया है।
हत्या के मामलों में भी दो गवाह स्त्रियाँ
एक
पुरुष गवाह के बराबर हैं
तथपि
कुछ उलेमा की राय में नारी का विशेष और स्वाभाविक रवैया किसी हत्या के मामले में
भी गवाही पर प्रभावित हो सकता है। ऐसी स्थिति में कोई स्त्री पुरुष की अपेक्षा
अधिक भयभीत हो सकती है। अतः कुछ व्याख्याकारों की दृष्टि में हत्या के मामलों में
भी दो साक्षी स्त्रियाँ एक पुरुष साक्षी के बराबर मानी जाती हैं। अन्य सभी मामलों
में एक स्त्री की गवाही एक पुरुष के बराबर कष्रार दी जाती है। पवित्र क़ुरआन
स्पष्ट रूप से बताता है कि
एक गवाह स्त्री एक गवाह पुरुष के बराबर है
कुछ
उलेमा ऐसे भी हैं जो यह आग्रह करते हैं कि दो गवाह स्त्रियों के एक गवाह पुरुष के
बराबर होने का नियम सभी मामलों पर लागू होना चाहिए। इसका समर्थन नहीं किया जा सकता
क्योंकि पवित्र क़ुरआन ने सूरह नूर की आयत नम्बर 6 में स्पष्ट रूप से एक गवाह औरत
को एक पुरुष गवाह के बराबर कष्रार दिया हैः ‘‘और जो लोग अपनी
पत्नियों पर लांच्छन लगाएं, और उनके पास
सिवाय स्वयं के दूसरे कोई गवाह न हों उनमें से एक व्यक्ति की गवाही (यह है कि) चार
बार अल्लाह की सौगन्ध खाकर गवाही दे कि वह (अपने आरोप में) सच्चा है और पाँचवी बार
कहे कि उस पर अल्लाह की लानत हो, अगर वह (अपने
आरोप में) झूठा हो। और स्त्री से सज़ा इस तरह टल सकती है कि वह चार बार अल्लाह की
सौगन्ध खाकर गवाही दे कि यह व्यक्ति (अपने आरोप में) झूठा है, और पाँचवी बार कहे कि इस बन्दी पर अल्लाह का ग़ज़ब (प्रकोप)
टूटे अगर वह (अपने आरोप में) सच्चा हो।’’ (सूरह नूर 6 से 9)
हदीस
को स्वीकारने हेतु हज़रत आयशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) की अकेली गवाही पर्याप्त
है उम्मुल मोमिनीन (समस्त मुसलमानों की माता) हज़रत आयशा रजि़. (हमारे महान
पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की पत्नी) के माध्यम से कम से कम 12,220 हदीसें
बताई गई हैं। जिन्हें केवल हज़रत आयशा रजि़. एकमात्र गवाही के आधार पर प्रामाणिक
माना जाता है।
(इस जगह यह जान लेना अनिवार्य है कि यह बात उस
स्थिति में सही है कि जब कोई पवित्र हदीस (पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा
सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के कथन अथवा कार्य की चर्चा अर्थात हदीस के उसूलों पर खरी
उतरती हो (अर्थात किसने किस प्रकार क्या बताया) के नियम के अनुसार हो, अन्यथा वह हदीस चाहे कितने
ही बड़े सहाबी (वे लोग जिन्होंने सरकार सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को देखा सुना है)
के द्वारा बताई गई हो, उसे अप्रामाणिक अथवा कमज़ोर हदीसों में माना
जाता है।)
यह इस बात का स्पष्ट सबूत है कि एक स्त्री की गवाही भी स्वीकार की जा सकती है। अनेक उलेमा तथा इस्लामी विद्वान इस पर एकमत हैं कि नया चाँद दिखाई देने के मामले में एक (मस्लिम) स्त्री की साक्षी पर्याप्त है। कृपया ध्यान दें कि एक स्त्री की साक्षी (रमज़ान की स्थिति में) जो कि इस्लाम का एक स्तम्भ है, के लिये पर्याप्त ठहराई जा रही है। अर्थात वह मुबारक और पवित्र महीना जिसमें मुसलमान रोज़े रखते हैं, गोया रमज़ान शरीफ़ के आगमन जैसे महत्वपूर्ण मामले में स्त्री-पुरुष उसे स्वीकार कर रहे हैं। इसी प्रकार कुछ फुकहा (इस्लाम के धर्माचार्यों) का कहना है कि रमज़ान का प्रारम्भ (रमज़ान का चाँद दिखाई देने) के लिए एक गवाह, जबकि रमज़ान के समापन (ईदुलफ़ित्र का चाँद दिखाई देने) के लिये दो गवाहों का होना ज़रूरी है। यहाँ भी उन गवाहों के स्त्री अथवा पुरुष होने की कोई भी शर्त नहीं है। कुछ मुसलमानों में स्त्री की गवाही को अधिक तरजीह दी जाती है
कुछ घटनाओं में केवल और केवल एक ही स्त्री की गवाही चाहिए होती है जबकि पुरुष को गवाह के रूप में नहीं माना जाता। जैसे स्त्रियों की विशेष समस्याओं के मामले में, अथवा किसी मृतक स्त्री के नहलाने और कफ़नाने आदि में एक स्त्री का गवाह होना आवश्यक है।
अंत
में इतना बताना पर्याप्त है कि आर्थिक लेन-देन में स्त्री और पुरुष की गवाही के
बीच समानता का अंतर केवल इसलिए नहीं कि इस्लाम में पुरुषों और स्त्रियों के बीच
समता नहीं है, इसके
विपरीत यह अंतर केवल उनकी प्राकृतिक प्रवृत्तियों के कारण है। और इन्हीं कारणों से
इस्लाम ने समाज में पुरूषों और स्त्रियों के लिये विभिन्न दायित्वों को सुनिश्चित
किया है।
विरासत
प्रश्नः इस्लामी
कानून के अनुसार विरासत की धन-सम्पत्ति में स्त्री का हिस्सा पुरूष की अपेक्षा आधा
क्यों है?
उत्तरः पवित्र क़ुरआन में विरासत की चर्चा पवित्र क़ुरआन में धन (चल-अचल सम्पत्ति सहित) के हकष्दार उत्तराधिकारियों के बीच बंटवारे के विषय पर बहुत स्पष्ट और विस्तृत मार्गदर्शन किया गया है। विरासत के सम्बन्ध में मार्गदर्शक नियम निम्न वर्णित पवित्र आयतों में बताए गए हैं | ‘‘तुम पर फ़र्ज़ (अनिवार्य कर्तव्य) किया गया है कि जब तुम में से किसी की मृत्यु का समय आए और अपने पीछे माल छोड़ रहा हो, माता पिता और सगे सम्बंधियों के लिए सामान्य ढंग से वसीयत करे। यह कर्तव्य है मुत्तकी लोगों (अल्लाह से डरने वालों) पर।’’ (पवित्र क़ुरआन, सूरह बकष्रह आयत 180)
‘‘तुम में से जो लोग मृत्यु को प्राप्त हों और अपने पीछे पत्नियाँ छोड़ रहे हों, उनको चाहिए कि अपनी पत्नियों के हकष् में वसीयत कर जाएं कि एक साल तक उन्हें नान-व- नफ़कष्ः (रोटी, कपड़ा इत्यादि) दिया जाए और वे घर से निकाली न जाएं। फिर यदि वे स्वयं ही निकल जाएं तो अपनी ज़ात (व्यक्तिगत रुप में) के मामले में सामान्य ढंग से वे जो कुछ भी करें, इसकी कोई ज़िम्मेदारी तुम पर नहीं है। अल्लाह सब पर ग़ालिब (वर्चस्व प्राप्त) सत्ताधारी हकीम (ज्ञानी) और बुद्धिमान है।’’ (सूरह अल बकष्रह, आयत 240)
‘‘पुरुषों के लिए उस माल में हिस्सा है जो माँ-बाप और निकटवर्ती रिश्तेदारों ने छोड़ा हो और औरतों के लिए भी उस माल में हिस्सा है जो माँ-बाप और निकटवर्ती रिश्तेदारों ने छोड़ा हो। चाहे थोड़ा हो या बहुत। और यह हिस्सा (अल्लाह की तरफ़ से) मुकष्र्रर है। और जब बंटवारे के अवसर पर परिवार के लोग यतीम (अनाथ) और मिस्कीन (दरिद्र, दीन-हीन) आएं तो उस माल से उन्हें भी कुछ दो और उनके साथ भलेमानुसों की सी बात करो। लोगों को इस बात का ख़याल करके डरना चाहिए कि यदि वे स्वयं अपने पीछे बेबस संतान छोड़ते तो मारते समय उन्हें अपने बच्चों के हकष् में कैसी कुछ आशंकाएं होतीं, अतः चाहिए कि वे अल्लाह से डरें और सत्यता की बात करें।’’ (सूरह अन्-निसा, आयत 7 से 9)
‘‘हे लोगो जो ईमान लाए हो, तुम्हारे लिए यह हलाल नहीं है कि ज़बरदस्ती औरतों के वारिस बन बैठो, और न यह हलाल है कि उन्हें तंग करके उस मेहर का कुछ हिस्सा उड़ा लेने का प्रयास करो जो तुम उन्हें दे चुके हो। हाँ यदि वह कोई स्पष्ट बदचलनी करें (तो अवश्य तुम्हें तंग करने का हकष् है) उनके साथ भले तरीकष्े से ज़िन्दगी बसर करो। अगर वह तुम्हें नापसन्द हों तो हो सकता है कि एक चीज़ तुम्हें पसन्द न हो मगर अल्लाह ने उसी में बहुत कुछ भलाई रख दी हो।’’ (सूरह अन्-निसा, आयत 19)
‘‘और हमने उस तरके (छोड़ी हुई धन-सम्पत्ति) के हकष्दार मुकष्र्रर कर
दिये हैं जो माता-पिता और कष्रीबी रिश्तेदार छोड़ें। अब रहे वे लोग जिनसे तुम्हारी
वचनबद्धता हो तो उनका हिस्सा उन्हें दो। निश्चय ही अल्लाह हर वस्तु पर निगहबान है।’’
(सूरह अन्-निसा, आयत 33)
विरासत में निकटतम रिश्तेदारों का विशेष हिस्सा
पवित्र क़ुरआन में तीन आयतें ऐसी हैं जो बड़े सम्पूर्ण ढंग से विरासत में निकटतम सम्बंधियों के हिस्से पर रौशनी डालती हैं: ‘‘तुम्हारी संतान के बारे में अल्लाह तुम्हें निर्देश देता है कि पुरुष का हिस्सा दो स्त्रियों के बराबर है। यदि (मृतक के उत्तराधिकारी) दो से अधिक लड़कियाँ हों तो उन्हें तरके का दो तिहाई दिया जाए और अगर एक ही लड़की उत्तराधिकारी हो तो आधा तरका उसका है। यदि मृतक संतान वाला हो तो उसके माता-पिता में से प्रत्येक को तरके का छठवाँ भाग मिलना चाहिए। यदि वह संतानहीन हो और माता-पिता ही उसके वारिस हों तो माता को तीसरा भाग दिया जाए। और यदि मृतक के भाई-बहन भी हों तो माँ छठे भाग की हकष्दार होगी (यह सब हिस्से उस समय निकाले जाएंगे) जबकि वसीयत जो मृतक ने की हो पूरी कर दी जाए और क़र्ज़ जो उस पर हो अदा कर दिया जाए। तुम नहीं जानते कि तुम्हारे माँ-बाप और तुम्हारी संतान में से कौन लाभ की दृष्टि से तुम्हें अत्याधिक निकटतम है, यह हिस्से अल्लाह ने निधार्रित कर दिये हैं और अल्लाह सारी मस्लेहतों को जानने वाला है। और तुम्हारी पत्नियों ने जो कुछ छोड़ा हो उसका आधा तुम्हें मिलेगा। यदि वह संतानहीन हों, अन्यथा संतान होने की स्थिति में तरके का एक चैथाई हिस्सा तुम्हारा है, जबकि वसीयत जो उन्होंने की हो पूरी कर दी जाए और क़र्ज़ जो उन्होंने छोड़ा हो अदा कर दिया जाए। और वह तुम्हारे तरके में से चैथाई की हकष्दार होंगी। यदि तुम संताीहीन हो, अन्यथा संतान होने की स्थिति में उनका हिस्सा आठवाँ होगा। इसके पश्चात कि जो वसीयत तुमने की हो पूरी कर दी जाए और वह क़र्ज़ जो तुमने छोड़ा हो अदा कर दिया जाए। और अगर वह पुरुष अथवा स्त्री (जिसके द्वारा छोड़ी गई धन-सम्पति का वितरण होना है) संतानहीन हो और उसके माता-पिता जीवित न हों परन्तु उसका एक भाई अथवा एक बहन मौजूद हो तो भाई और बहन प्रत्येक को छठा भाग मिलेगा और भाई बहन एक से ज़्यादा हों तो कुछ तरके के एक तिहाई में सभी भागीदार होंगे। जबकि वसीयत जो की गई हो पूरी कर दी जाए और क़र्ज़ जो मृतक ने छोड़ा हो अदा कर दिया जाए। बशर्ते कि वह हानिकारक न हो। यह आदेश है अल्लाह की ओर से और अल्लाह ज्ञानवान, दृष्टिवान एवं विनम्र है।’’ (सूरह अन्-निसा, आयत 11 से 12 )
‘‘ए नबी! लोग तुम से कलालः (वह मृतक जिसका पिता हो न पुत्र) के बारे में में
फ़तवा पूछते हैं, कहो अल्लाह तुम्हें फ़तवा देता है।
यदि कोई व्यक्ति संतानहीन मर जए और उसकी एक बहन हो तो वह उसके तरके में से आधा
पाएगी और यदि बहन संतानहीन मरे तो भाई उसका उत्तराधिकारी होगा। यदि मृतक की
उत्तराधिकारी दो बहनें हों तो वे तरके में दो तिहाई की हक़दार होंगी और अगर कई बहन
भाई हों तो स्त्रियों का इकहरा और पुरुषों का दोहरा हिस्सा होगा तुम्हारे लिये
अल्लाह आदेशों की व्याख्या करता है ताकि तुम भटकते न फिरो और अल्लाह हर चीज़ का
ज्ञान रखता है।’’ (सूरह अन्-निसा, आयत 176) कुछ अवसरों पर तरके में स्त्री का हिस्सा
अपने समकक्ष पुरुष से अधिक होता है अधिकांक्ष परिस्थतियों में एक स्त्री को
विरासत में पुरुष की अपेक्षा आधा भाग मिलता है। किन्तु हमेशा ऐसा नहीं होता। यदि
मृतक कोई सगा बुजष्ुर्ग (माता-पिता इत्यादि अथवा सगे उत्ताराधिकारी पुत्र, पुत्री आदि) न हों परन्तु
उसके ऐसे सौतेले भाई-बहन हों, माता की ओर से सगे और पिता की ओर से सौतेले
हों तो ऐसे दो बहन-भाई में से प्रत्येक को तरके का छठा भाग मिलेगा।
यदि
मृतक के बच्चें न हों तो उसके माँ-बाप अर्थात माँ और बाप में से प्रत्येक को तरके
का छठा भाग मिलेगा। कुछ स्थितियों में स्त्री को तरके में पुरुष से दोगुना हिस्सा
मिलता है। यदि मृतक कोई स्त्री हो जिससे बच्चे न हों और उसका कोई भाई बहन भी न हो
जबकि उसके निकटतम सम्बंधियों में उसका पति, माँ और बाप रह गए हों (ऐसी स्थिति में) उस
स्त्री के पति को स्त्री के तरके में आधा भाग मिलेगा) माता को एक तिहाई, जबकि पिता को शेष का छठा
भाग मिलेगा। देखिए कि इस मामले में स्त्री की माता का हिस्सा उसके पिता से दोगुना
होगा।
तरके
में स्त्री का सामान्य हिस्सा अपने
समकक्ष पुरुष से आधा होता है
एक सामान्य नियम के रूप में यह सच है कि अधिकांश मामलों में स्त्री का तरके में हिस्सा पुरुष से आधा होता है, जैसेः
1. विरासत में पुत्री का हिस्सा पुत्र से आधा होता है।
2. यदि मृतक की संतान हो तो पत्नी को आठवाँ और पति को चैथाई हिस्सा मिलेगा।
3. यदि मृतक संतानहीन हो तो पत्नी को चैथाई और पति को आधा हिस्सा मिलेगा।
4. यदि मृतक का कोई (सगा) बुजष्ुर्ग अथवा उत्तराधिकारी न हो तो उसकी बहन को (उसके) भाई के मुकषबले में आधा हिस्सा मिलेगा।
पति
को विरासत में दोगुना हिस्सा इसलिए मिलता है कि वह परिवार के भरण पोषण का
ज़िम्मेदार है इस्लाम
में स्त्री पर जीवनोपार्जन की कोई ज़िम्मेदारी नहीं है। जबकि परिवार की आर्थिक
आवश्यकताओं की पूर्ती का दायित्व पुरुष पर डाला गया है। विवाह से पूर्व कन्या के
रहने सहने, आवागमन, भोजन वस्त्र तथा समस्त
आर्थिक आवश्यकताओं का पूरा करना उसके पिता अथवा भाई (या भाईयों) का कर्तव्य है।
विवाहोपरांत स्त्री की यह समस्त आवश्यकताएं पूरी करने का दायित्व उसके पति अथवा
पुत्र (पुत्रों) पर लागू होता है। अपने परिवार की समस्त आर्थिक आवश्यकताओं की
पूर्ति के लिए इस्लाम ने पूरी तरह पुरुष को ज़िम्मेदार ठहराया है। इस दायित्व के
निर्वाह के कारण से इस्लाम में विरासत में पुरुष का हिस्सा स्त्री से दोगुना
निश्चित किया गया है। उदाहरणतः यदि कोई पुरुष तरके में डेढ़ लाख रुपए छोड़ता है और
उसके एक बेटी और एक बेटा है तो उसमें से 50 हज़ार बेटी को और एक लाख रुपए बेटे को
मिलेंगे।
देखने
में यह हिस्सा ज़्यादा लगता है परन्तु बेटे पर घर-परिवार की ज़िम्मेदारी भी है
जिन्हें पूरा करने के लिए (स्वाभाविक रूप से) एक लाख में से 80 हज़ार रूपए ख़र्च
करने पड़ सकते हैं। अर्थात विरासत में उसका हिस्सा वास्तव में 20 हज़ार के लगभग ही
रहेगा। दूसरी ओर यदि लड़की को 50 हज़ार रूपए मिले हैं लेकिन उसपर किसी प्रकार की
ज़िम्मेदारी नहीं है अतः वह समस्त राशि उसके पास बची रहेेगी। आपके विचार में क्या
चीज़ बेहतर है। तरके में एक लाख लेकर 80 हज़ार ख़र्च कर देना या 50 हज़ार लेकर
पूरी राशि बचा लेना?
आख़िरत, मृत्योपरांत
जीवन
प्रश्नः आप
आख़िरत अथवा मृत्योपरांत जीवन की सत्यता कैसे सिद्ध करेंगे?
उत्तरः आख़िरत
पर विश्वास का आधार अंधी आस्था नहीं है। बहुत से लोग इस बात पर हैरान होते हैं कि
एक ऐसा व्यक्ति जो बौद्धिक और वैज्ञानिक प्रवृत्ति का स्वामी हो, वह किस प्रकार मृत्यु के
उपरांत जीवन पर विश्वास धारण कर सकता है? लोग यह विचार करते हैं कि आख़िरत पर किसी का
विश्वास अंधी आस्था पर स्थापित होता है। परन्तु आख़िरत पर मेरा विश्वास बौद्धिक
तर्क के आधार पर है।
आख़िरत एक बौद्धिक आस्था
पवित्र क़ुरआन में एक हज़ार से अधिक आयतें ऐसी हैं जिनमें वैज्ञानिक तथ्यों का वर्णन किया गया है। (इसके लिए मेरी पुस्तक ‘‘क़ुरआन और आधुनिक विज्ञान, समन्वय अथवा विरोध’’ देखें) विगत शताब्दियों के दौरान पवित्र क़ुरआन मे वर्णित 80 प्रतिशत तथ्य 100 प्रतिशत सही सिद्ध हो चुके हैं। शेष 20 प्रतिशत तथ्यों के विषय में विज्ञान ने कोई स्पष्ट निष्कर्ष नहीं घोषित किया है क्योंकि विज्ञान अभी तक इतनी उन्नति नहीं कर सका है कि पवित्र क़ुरआन में वर्णित शेष तथ्यों को सही अथवा ग़लत सिद्ध कर सके। इस सीमित ज्ञान के साथ जो हमारे पास है, हम पूरे विश्वास के साथ कदापि नहीं कह सकते कि इस 20 प्रतिशत का भी केवल एक प्रतिशत भाग अथवा कोई एक आयत ही ग़लत है। अतः जब पवित्र क़ुरआन का 80 प्रतिशत भाग (बौद्धिक आधार पर) शत प्रतिशत सही सिद्ध हो चुका है और शेष 20 प्रतिशत ग़लत सिद्ध नहीं किया जा सका तो विवेक यही कहता है कि शेष 20 प्रतिशत भाग भी सही है।
आख़िरत
का अस्तित्व जो पवित्र क़ुरआन ने बयान किया है उसी 20 प्रतिशत समझ में न आने वाले
भाग में शामिल है जो बौद्धिक रूप से सही है। शांति और मानवीय मूल्यों की कल्पना, आख़िरत के विश्वास के बिना
व्यर्थ है डकैती अच्छा काम है या बुरा? इस प्रश्न के उत्तर में
कोई भी नार्मल और स्वस्थ बुद्धि वाला व्यक्ति यही कहेगा कि यह बुरा काम है। किन्तु
इस से भी महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि कोई ऐसा व्यक्ति जो आख़िरत पर विश्वास न रखता
हो वह किसी शक्तिशाली और प्रभावशाली पहुंच रखने वाले व्यक्ति को कैसे क़ाइल करेगा
कि डाके डालना एक बुराई, एक पाप है?
यदि कोई मेरे सामने इस बात के पक्ष में एक बौद्धिक तर्क प्रस्तुत कर दे (जो मेरे लिए भी समान रूप से स्वीकार्य हो) कि डाका डालना बुरा है तो मैं तुरन्त यह काम छोड़ दूंगा। इसके जवाब में लोग आम तौर से निम्नलिखित तर्क देते हैं।
(क) लुटने वाले व्यक्ति
को कठिनाईयों का सामना होगा
कुछ लोग यह तर्क दे सकते हैं कि लुटने वाले व्यक्ति को कठिनाईयों का सामना होगा। निश्चय ही, मैं इस बात पर सहमत होऊंगा कि लुटनेवाले के लिए डाकाज़नी का काम बहुत बुरा है। परन्तु मेरे लिए तो यह अच्छा है। यदि मैं 20 हज़ार डालर की डकैती मारूं तो किसी पाँच तारा होटल में मज़े से खाना खा सकता हूँ।
(ख) कोई अन्य आप को भी लूट सकता है
कुछ लोग यह कह सकते हैं कि किसी दिन कोई अन्य डाकू आप को भी लूट सकता है। परन्तु मैं तो बड़ी ऊँची पहुंच वाला प्रभावशाली अपराधी हूँ, और मेरे सैकड़ों अंगरक्षक हैं तो भला कोई मुझे कैसे लूट सकता है? अर्थात मैं तो किसी को भी लूट सकता हूँ परन्तु मुझे कोई नहीं लूट सकता। डकैती किसी साधारण व्यक्ति के लिये ख़तरनाक पेशा हो सकता है पर मुझ जैसे शक्तिशाली और प्रभावशाली व्यक्ति के लिए नहीं।
(ग) आपको पुलिस गिरफ़्तार
कर सकती है
एक तर्क यह भी सामने आ सकता है कि किसी न किसी दिन पुलिस आपको गिरफ़्तार कर लेगी। अरे भई! पुलिस तो मुझे पकड़ ही नहीं सकती, पुलिस के छोटे से बड़े अधिकारियों और ऊपर मंत्रियों तक मेरा नमक खाने वाले हैं। हाँ, यह मैं मानता हूँ कि यदि कोई साधारण व्यक्ति डाका डाले तो वह गिरफ़्तार कर लिया जाएगा और डकैती उसके लिये बुरी सिद्ध होगी, परन्तु मैं तो आसाधारण रूप से प्रभावशाली और ताकष्तवर अपराधी हूँ, मुझे कोई बौद्धिक तर्क दीजिए कि यह कृत्य बुरा है, मैं डाके मारना छोड़ दूंगा।
(घ) यह बिना परिश्रम की
कमाई है
यह एक तर्क दिया जा सकता है कि यह बिना परिश्रम अथवा कम परिश्रम से कमाई गई आमदनी है जिसकी प्राप्ति हेतु कोई अधिक मेहनत नहीं की गई है। मैं मानता हूँ कि डाका मारने में कुछ खास परिश्रम किये बिना अच्छी खासी रकष्म हाथ लग जाती है। और यही मेरे डाका मारने का बड़ा कारण भी है। यदि किसी के सामने अधिक धन कमाने का सहज और सुविधाजनक रास्ता हो तथा वह रास्ता भी हो जिससे धन कमाने में उसे बहुत ज़्यादा परिश्रम करना पड़े तो एक बुद्धिमान व्यक्ति स्वाभाविक रूप से सरल रास्ते को ही अपनाएगा।
(ङ) यह मानवता के विरूद्ध
है
कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि डाके मारना अमानवीय कृत्य है और यह कि एक व्यक्ति को दूसरे मनुष्यों के बारे में सोचना चाहिए। इस बात को नकारते हुए मैं यह प्रश्न करूंगा कि ‘‘मानवता कहलाने वाला यह कानून किसने लिखा है, मैं इस का पालन किस ख़ुशी में करूँ?’’
यह कानून किसी भावुक और संवेदनशील व्यक्ति के लिए तो ठीक हो सकता है किन्तु मैं बुद्धिमान व्यक्ति हूँ, मुझे दूसरे लोगों की चिंता करने में कोई लाभ दिखाई नहीं देता।
(च) यह स्वार्थी कृत्य है
कुछ
लोग डाकाज़नी को स्वार्थी कृत्य कह सकते हैं, यह बिल्कुल सच है कि डाके मारना स्वार्थी
कृत्य है किन्तु मैं स्वार्थी क्यों न बनूँ। इसी से तो मुझे जीवन का आनन्द उठाने
में मदद मिलती है।
डाकाज़नी को बुरा काम सिद्ध करने के लिए
कोई
बौद्धिक तर्क नहीं
अतः
डाका मारने को बुरा काम सिद्ध करने हेतु दिये गए समस्त तर्क व्यर्थ रहते हैं। इस
प्रकार के तर्कों से एक साधारण कमज़ोर व्यक्ति को तो प्रभावित किया जा सकता है।
किन्तु मुझ जैसे शक्तिशाली और असरदार व्यक्ति को नहीं। इनमें से किसी एक तर्क का
बचाव भी बुद्धि और विवेक के बल पर नहीं किया जा सकता, अतः इसमें कोई हैरानी की
बात नहीं कि संसार में बहुत अपराधी प्रवृति के लोग पाए जाते हैं। इसी प्रकार
धोखाधड़ी और बलात्कार जैसे अपराध मुझ जैसे किसी व्यक्ति के लिए अच्छे होने का
औचित्य प्राप्त कर सकते हैं। और कोई बौद्धिक तर्क मुझ से इनके बुरे होने की बात
नहीं मनवा सकता। एक मुसलमान किसी भी शक्तिशाली अपराधी को लज्जित होने पर विवश कर
सकता है
चलिए, अब हम स्थान बदल लेते हैं।
मान लीजिए कि आप दुनिया के शक्तिशाली अपराधी हैं जिसका प्रभाव पुलिस से लेकर सरकार
के बड़े- बड़े मंत्रियों आदि पर भरपूर है। आपके पास अपने गिरोह के बदमाशों की पूरी
सेना है। मैं एक मुसलमान हूँ जो आपको समझाने का प्रयत्न कर रहा है कि बलात्कार, लूटमार और धोखाधड़ी
इत्यादि बुरे काम हैं। यदि मैं वैसे ही तर्क (जो पहले दिये जा चुके हैं) अपराधों
को बुरा सिद्ध करने के लिए दूँ तो अपराधी भी वही जवाब देगा जो उसने पहले दिये थे। मैं मानता हूँ कि अपराधी
चतुर बुद्धि का व्यक्ति हैं, और उसके समस्त तर्क उसी समय सटीक होंगे जब वह
संसार का बलशाली अपराधी हो।
प्रत्येक मनुष्य न्याय चाहता है
प्रत्येक
मनुष्य की यह कामना होती है कि उसे न्याय मिले। यहाँ तक कि यदि वह दूसरों के लिए
न्याय का इच्छुक न भी हो तो भी वह अपने लिए न्याय चाहता है। कुछ लोग शक्ति और अपने
असर-रसूख़ के नशे में इतने उन्मत्त होते हैं कि दूसरे लोगों के लिए कठिनाईयाँ और
विपत्तियाँ खड़ी करते रहते हैं परन्तु यही लोग उस समय कड़ी आपत्ति करते हैं जब
स्वयं उनके साथ अन्याय हो। दूसरों की ओर से असंवेदनशील और भावहीन होने का कारण यह
है कि वे अपनी शक्ति की पूजा करते हैं और यह सोचते हैं कि उनकी शक्ति ही उन्हें
दूसरों के साथ अन्याय करने के योग्य बनाती है और दूसरों को उनके विरुद्ध अन्याय
करने से रोकने का साधन है।
अल्लाह
तआला सबसे शक्तिशाली और न्याय करने वाला है एक मुसलमान की हैसियत से
मैं अपराधी को सबसे पहले अल्लाह के अस्तित्व को मानने पर बाध्य करूंगा, (इस बारे में तर्क अलग हैं) अल्लाह आपसे कहीं
अधिक ताकष्तवर है और साथ ही साथ वह अत्यंत न्यायप्रिय भी है। पवित्र क़ुरआन में
कहा गया हैः ‘‘अल्लाह किसी पर ज़र्रा बराबर भी अत्चायार नहीं करता। यदि
कोई एक नेकी करे तो अल्लाह उसको दोगुना करता है और अपनी ओर से बड़ा प्रतिफल प्रदान
करता है।’’ (पवित्र क़ुरआन, 4/40)
अल्लाह मुझे दण्ड क्यों नहीं देता?
बुद्धिमान
तथा वैज्ञानिक प्रवृत्ति वाला व्यक्ति होने के नाते जब उसके समक्ष पवित्र क़ुरआन
से तर्क प्रस्तुत किये जाते हैं तो वह उन्हें स्वीकार करके अल्लाह तआला के
अस्तित्व को मान लेता है। वह प्रश्न कर सकता है कि जब अल्लाह तआला सबसे ताकष्तवर
और सबसे अधिक
न्याय करने वाला है तो मुझे दण्ड क्यों नहीं मिलता?
अन्याय करने वाले को दण्ड मिलना चाहिए प्रत्येक वह व्यक्ति, जिसके साथ अन्याय हुआ हो, निश्चय ही यह चाहेगा कि अन्यायी को उसके धन, शक्ति और सामाजिक रुतबे का ध्यान किये बिना दण्ड दिया जाना चाहिए। प्रत्येक सामान्य व्यक्ति यह चाहेगा कि डाकू और बदकार को सबक सिखाया जाए। यद्यपि बहुतेरे अपराधियों को दण्ड मिलता है किन्तु फिर भी उनकी बड़ी तादाद कानून से बच जाने में सफल रहती है।। ये लोग बड़ा आन्दमय एवं विलासितापूर्ण जीवन बिताते हैं और अधिकांश आनन्दपूर्वक रहते हैं। यदि किसी शक्तिशाली और असरदार व्यक्ति के साथ उससे अधिक शक्तिशाली व्यक्ति अन्याय करे तो भी वह चाहेगा कि उससे अधिक शक्तिशाली और असरदार व्यक्ति को उसके अन्याय का दण्डा दिया जाए।
यह
जीवन आख़िरत का परीक्षा स्थल है
दुनिया
की यह ज़िन्दगी आख़िरत के लिए परीक्षा स्थल है। पवित्र क़ुरआन का फ़रमान हैः
‘‘जिसने मृत्यु और जीवन का अविष्कार किया ताकि तुम लोगों को
आज़मा कर देखे कि तुम में से कौन सद्कर्म करने वाला है, और वह ज़बदस्त भी है और दरगुज़र (क्षमा) करने वाला भी।’’ (पवित्र क़ुरआन 67/2)
कियामत के दिन पूर्ण और निश्चित न्याय होगा
पवित्र क़ुरआन में कहा गया
हैः ‘‘अंततः प्रत्येक व्यक्ति को मृत्यु का स्वाद चखना है। और तुम जब अपने
पूरे-पूरे अज्र (प्रतिफल) पाने वाले हो, सफल वास्तव में
वह है जो दोज़ख़ की आग से बच जाए और जन्नत में दाख़िल कर दिया जाए, रही यह दुनिया तो यह एक प्रत्यक्ष धोखा (माया) है।’’ (पवित्र
क़ुरआन, 3/185)
पूर्ण न्याय किष्यामत के दिन किया जाएगा। मरने के बाद हर व्यक्ति को हिसाब के दिन (कियामत के दिन) एक बार फिर दूसरे तमाम मनुष्यों के साथ ज़िन्दा किया जाएगा। यह संभव है कि एक व्यक्ति अपनी सज़ा का एक हिस्सा दुनिया ही में भुगत ले, किन्तु दण्ड और पुरुस्कार का पूरा फ़ैसला आख़िरत में ही किया जाएगा। संभव है अल्लाह तआला किसी अपराधी को इस दुनिया में सज़ा न दे लेकिन किष्यामत के दिन उसे अपने एक-एक कृत्य का हिसाब चुकाना पड़ेगा। और वह आख़िरत अर्थात मृत्योपरांत जीवन में अपने एक-एक अपराध की सज़ा पाएगा।
मानवीय
कानून हिटलर को क्या सज़ा दे सकता है?
महायुद्ध
में हिटलर ने लगभग 60 लाख यहूदियों को जीवित आग में जलवाया था। मान लें कि पुलिस
उसे गिरफ़्तार भी कर लेती तो कानून के अनुसार उसे अधिक से अधि क्या सज़ा दी जाती? बहुत से बहुत यह होता कि
उसे किसी गैस चैम्बर में डालकर मार दिया जाता, किन्तु यह तो केवल एक यहूदी की हत्या का दण्ड
होता, शेष
59 लाख, 99
हज़ार, 999
यहूदियों की हत्या का दण्ड उसे किस प्रकार दिया जा सकता था?
उसे
एक बार ही (स्वाभाविक रुप से) मृत्युदण्ड दिया जा सकता था। अल्लाह के अधिकार में
है कि वह हिटलर को जहन्नम की आग में 60 लाख से अधिक बार जला दे।
पवित्र
क़ुरआन में अल्लाह तआला फ़रमाता हैः ‘‘जिन लोगों ने
हमारी आयतों को मानने से इंकार कर दिया है उन्हें हम निश्चिय ही आग में फेंकेंगे
और जब उनके शरीर की खाल गल जाएगी तो उसकी जगह दूसरी खाल पैदा कर देंगे ताकि वह
ख़ूब अज़ाब (यातना) का मज़ा चखें, अल्लाह बड़ी
क्षमता रखता है और अपने फ़ैसलों के क्रियानवयन की हिकमत ख़ूब जानता है।’’ (पवित्र
क़ुरआन, 4ः56)
अर्थात:
अल्लाह चाहे तो हिटलर को जहन्नम की आग में केवल 60 लाख बार नहीं बल्कि असंख्य बार
जला सकता है। आख़िरत की परिकल्पना के बिना मानवीय मूल्यों और अच्छाई बुराई की कोई
कल्पना नहीं। यह स्पष्ट है कि किसी व्यक्ति को आख़िरत की
कल्पना अथवा मृत्यु के पश्चात जीवन के विश्वास पर कषयल किये बिना उसे मानवीय
मूल्यों और अच्छे-बुरे कर्मों की कल्पना पर कषयल करना भी संभव नहीं। विशेष रूप से
जब मामला शक्तिशाली और बड़े अधिकार रखने वालों का हो जो अन्याय में लिप्त हों।
ग़ैर
मुस्लिमों का अपमान
प्रश्नः मुसलमान
ग़ैर मुस्लिमों का अपमान करते हुए उन्हें ‘‘काफ़िर’’ क्यों कहते हैं?
उत्तरः शब्द ‘‘काफ़िर’’ वास्तव में अरबी शब्द ‘‘कुफ्ऱ’’ से बना है। इसका अर्थ है ‘‘छिपाना, नकारना या रद्द करना’’। इस्लामी शब्दावली में ‘‘काफ़िर’’ से आश्य ऐसे व्यक्ति से है जो इस्लाम की
सत्यता को छिपाए (अर्थात लोगों को न बताए) या फिर इस्लाम की सच्चाई से इंकार करे।
ऐसा कोई व्यक्ति जो इस्लाम को नकारता हो उसे उर्दू में ग़ैर मुस्लिम और अंग्रेज़ी
में Non-Muslim कहते हैं। यदि कोई ग़ैर-मुस्लिम
स्वयं को ग़ैर मुस्लिम या काफ़िर कहलाना पसन्द नहीं करता जो वास्तव में एक ही बात
है तो उसके अपमान के आभास का कारण इस्लाम के विषय में ग़लतफ़हमी या अज्ञानता है।
उसे इस्लामी शब्दावली को समझने के लिए सही साधनों तक पहुँचना चाहिए। उसके पश्चात न
केवल अपमान का आभास समाप्त हो जाएगा बल्कि वह इस्लाम के दृष्टिकोण को भी सही तौर
पर समझ जाएगा।
मज़हब / धर्म
प्रश्न : अल्लाह ने सभी को अपने मज़हब का क्यों नहीं
बनाया ?
उत्तर : इसका उत्तर क़ुरआन ने विभिन्न स्थानों पर
दिया है क़ुरआन में कहा गयाः
अल-कुरान
: “[ऐ मुहम्मद(सलल्लाहो अलैहि वसल्लम)] यदि आपका रब चाहता तो सब
लोगों को एक रास्ते पर एक उम्मत कर देता, वे तो सदैव मुखालफ़त करने वाले ही रहेंगे। सिवाए उनके जिन
पर आपका रब दया करे, उन्हें तो इसी
लिए पैदा किया है। ”
– (सूरः हूद 118) यही विषय सूरः
यूनुस 96,सरः माईदा 48,सूरः शोरा 8,सूरः नहल 93 और अन्य विभिन्न आयतों में
बयान किया गया है।
यह संसार परीक्षा-स्थल है परिणाम स्थल नहीं। यहाँ हर व्यक्ति को एक विशेष अवधि के लिए बसाया गया है ताकि उसका पैदा करने वाला देखे कि कौन अपने रब की आज्ञाकारी करके उसका प्रिय बनता है और कौन उसकी अवज्ञा करके उसके प्रकोप का अधिकार ठहरता है। इसके लिए उनसे संदेष्टाओं (नबी/रसूल) द्वारा अपना संदेश भेजा और सत्य को खोल खोल कर बयान कर दिया है। फिर इनसान को उसे अपनाने की आज़ादी भी दे दी है कि चाहे तो उसके नियम को अपना कर उसके उपकारों का अधिकार बने और चाहे तो उसके नियमों का उलंधन कर के उसके प्रकोप को भुगतने के लिए तैयार हो जाए। यही है जीवन की वास्तविकता। इस बिन्दु को क़ुरआन की यह आयत स्पष्ट रूप में बयान करती हैः अल-कुरान : “और यदि आपका रब चाहता तो धरती के सभी लोग ईमान ले आते, तो क्या आप लोगों को ईमान लाने के लिए मजबूर करेंगे” – (सूरः यूनुस)
इस्लाम से पहले क्या था ?
प्रायः
यह पूछा जाता है कि इस्लाम से पहले कौन सा धर्म था ?
अगर
इस्लाम ही सच्चा धर्म है तो क्या उससे पहले के व्यक्ति की मुक्ति नहीं होगी?
यह
अक्सर प्रश्न नॉन-मुस्लिम भाई पूछते रहते हैं. वैसे इसका एक मुख्य कारण है क्यूं
कि वे समझते हैं कि इस्लाम मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) द्वारा बनाया गया
मात्र 1400
साल पुराना धर्म है.
यह
प्रश्न भी इसी ग़लतफ़हमी के चलते ही लोगों के ज़ेहन में रचा बसा है कि, इस्लाम
धर्म केवल 1400 साल पहले से है, और
मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) उसके संस्थापक हैं जब कि मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि
वसल्लम) इस्लाम के संस्थापक नहीं बल्कि अंतिम प्रवर्तक यानि आखिरी रसूल थे और
स्पष्ट है कि जिसका कोई अंतिम हो उसका कोई पहला भी होगा. तो वह पहला कौन है?
कुरआन
में कई जगह इसका ज़िक्र है कि, आदम (अलैही सलाम) ही वह
प्रथम है. वही प्रथम प्रवर्तक यानि ईश्वर के प्रथम दूत भी थे, जिन्होंने अपनी संतानों को ईश्वरीय सन्देश पहुँचाया और ईश्वरीय शिक्षा दी,
और जो कुछ भी उन्होंने बताया, वही उस वक़्त का
इस्लाम था या यूँ कहें कि उन्हीं से इस्लाम धर्म का आरम्भ हुआ. यहाँ यह प्रश्न
उठता है कि वह आज के मुसलमान की तरह नमाज़, रोज़ा करते अथवा
ज़कात आदि देते थे?
इसका
स्पष्ट उत्तर है कि यह ज़रूरी नहीं कि, उन्हें भी हूबहू ऐसा ही करने
का आदेश हो क्यूं कि मात्र रोज़ा नमाज़ आदि का नाम ही इस्लाम नहीं है, बल्कि ईश्वरीय आदेशों के पालन का ही इस्लाम है.
अतः
मुहम्मद सल्ल० से पहले जितने भी नबी अथवा रसूल अथवा सन्देश वाहक आये और जिनकी
संख्या हदीसों में 1 लाख 24 हज़ार बताई गयी है, जो कुरआन के अनुसार अलग
क्षेत्रों में अलग अलग भाषाओँ में उपदेश लेकर आये. उन्होंने अपने अपने समय में ,
जो कुछ भी पेश किया वही उस समय का इस्लाम था. यहाँ यह पुष्टि भी
बेहद ज़रूरी है कि, कुरआन हमें यह बताता है कि दुनियां के,
हर क्षेत्र में और राष्ट्र में ईश्वर ने अपना पैग़ाम पहुँचाने के
लिए और सत्य मार्ग बतला ने के लिए मार्गदर्शक भेजे हैं. वह अपने लोगों को जो
पैग़ाम देते थे वही उस समय का इस्लाम था।
प्रश्न
यह है कि बार-बार अनेक पैग़म्बर क्यों भेजे गए?
वास्तव
में प्राचीनकाल में परिवहन एवं संचार के साधनों की कमी के कारण, एक जगह की
ख़बर दूसरी जगह पहुँचना मुश्किल थी। दूसरे यह कि लोग ईश्वर के सन्देश को बदल देते
थे, तब ज़रुरत होती थी कि दोबारा ईश्वर का सन्देश आए। सभी
पैग़म्बरों ने एक ही सन्देश दिया कि ईश्वर एक है, दुनिया
इम्तिहान की जगह है और मरने के बाद जिन्दगी है। पहले के सभी पैग़म्बरों का मिशन
लोकल था, मगर आख़िरी पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि
वसल्लम) का मिशन यूनीवर्सल है। आख़िरी पैग़म्बर पर ईश्वर का जो अन्तिम सन्देश
(क़ुरआन) उतरा, उसकी हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी स्वयं ईश्वर ने
ली है। चौदह सौ साल से अधिक हो चुके हैं, मगर आज तक उसे बदला
नहीं जा सका। ईश्वर का सन्देश अपनी असल शक्ल (मूलरूप) में मौजूद है, इसलिए अब ज़रूरत नहीं है कि कोई नया ईशदूत आए।
» क़ुरआन का
केन्द्रीय विषय इंसान है। क़ुरआन इंसान के बारे में ईश्वर की स्कीम को बताता है।
क़ुरआन बताता है कि इंसान को सदैव के लिए पैदा किया गया है और उसे
शाश्वत जीवन दिया गया है। ईश्वर ने इंसान के जीवन को दो भागों में बाँटा है:
१.
मौत से पहले का समय, जो अस्थाई
है, इंसान के इम्तिहान के लिए है।
२. मौत के बाद का समय, जो स्वर्ग या नरक के रूप में दुनिया में किए गए अच्छे या बुरे कर्मों का बदला मिलने के लिए है। यह कभी न ख़त्म होने वाला स्थाई दौर है। इन दोनों के बीच में मौत एक तबादले (Transition) के रूप में है।
» इंसान की
ज़िन्दगी का उद्देश्य –
क़ुरआन
बताता है कि दुनिया इंसान के लिए एक परीक्षास्थल है। इंसान की ज़िन्दगी
का उद्देश्य ईश्वर की इबादत (उपासना) है। (क़ुरआन, 51:56) इबादत का अर्थ ईश्वर
केन्द्रित जीवन (God-Centred life) व्यतीत करना
है। इबादत एक पार्ट-टाइम नहीं, बल्कि फुल टाइम अमल है,
जो पैदाइश से लेकर मौत तक जारी रहता है।
वास्तव
में इंसान की पूरी ज़िन्दगी इबादत है, अगर वह ईश्वर की मर्ज़ी के
अनुसार व्यतीत हो। ईश्वर की मर्ज़ी के अनुसार जीवन व्यतीत करने का आदी बनाने के
लिए, आवश्यक था कि कुछ प्रशिक्षण भी हो, इसलिए नमाज़, रोज़ा (निराहार उपवास), ज़कात और हज को इसी प्रशिक्षण के रूप में रखा गया। इनमें समय की, एनर्जी की और दौलत की क़ुरबानी द्वारा इंसान को आध्यात्मिक उत्थान के लिए
और उसे व्यावहारिक जीवन के लिए लाभदायक बनाने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। इस
ट्रेनिंग को बार-बार रखा गया, ताकि इंसान को अच्छाई पर स्थिर
रखा जा सके, क्योंकि इंसान अन्दर व बाहर से बदलने वाला
अस्तित्व रखता है।
ईश्वर
सबसे बेहतर जानता है कि कौन-सी चीज़ इंसान के लिए लाभदायक है और कौन-सी हानिकारक।
ईश्वर इंसान का भला चाहता है इसलिए उसने हर वह काम जिसके करने से इंसान स्वयं को
हानि पहुँचाता, करना हराम (अवैध) ठहराया और हर उस काम को
जिसके न करने से इंसान स्वयं को हानि पहुँचाता, इबादत कहा और
उनका करना इंसान के लिए अनिवार्य कर दिया।
ईश्वर का अन्तिम सन्देश क़ुरआन, दुनिया में पहली बार रमज़ान के महीने में अवतरित होना शुरू हुआ। इसीलिए रमज़ान का महीना क़ुरआन का महीना कहलाया। इसे क़ुरआन के मानने वालों के लिए शुक्रगुज़ारी का महीना बना दिया गया और इस पूरे महीने रोज़े रखने अनिवार्य किए गए।
इस्लाम ही
का अनुकरण क्यों
प्रश्नः सभी
धर्म अपने अनुयायियों को अच्छे कामों की शिक्षा देते हैं तो फिर किसी व्यक्ति को
इस्लाम का ही अनुकरण क्यों करना चाहिए? क्या वह किसी अन्य धर्म का अनुकरण नहीं कर
सकता?
उत्तरः इस्लाम और अन्य धर्मों में विशेष अंतरयह ठीक है कि सभी धर्म मानवता को सच्चाई और सद्कर्म की शिक्षा देते हें और बुराई से रोकते हैं किन्तु इस्लाम इससे भी आगे तक जाता है। यह नेकी और सत्य की प्राप्ति और व्यक्तिगत एवं सामुहिक जीवन से बुराईयों को दूर करने की दिशा में वास्तविक मार्गदर्शक भी है। इस्लाम न केवल मानव प्रकृति को महत्व देता है वरन् मानव जगत की पेचीदगियों की ओर भी सजग रहता है। इस्लाम एक ऐसा निर्देश है जो अल्लाह तआला की ओर से आया है, यही कारण है कि इस्लाम को ‘‘दीन-ए-फ़ितरत’’ अर्थात ‘प्राकृतिक धर्म’ भी कहा जाता है।
उदाहरण: इस्लाम केवल चोरी-चकारी, डाकाज़नी को रोकने का ही
आदेश नहीं देता बल्कि इसे समूल समाप्त करने के व्यावहारिक तरीके भी स्पष्ट करता
है।
(क) इस्लाम चोरी, डाका इत्यादि अपराध समाप्त करने के व्यावहारिक तरीके सपष्ट करता है सभी प्रमुख धर्मों में चोरी चकारी और लूट आदि को बुरा बताया जाता है। इस्लाम भी यही शिक्षा देता है तो फिर अन्य धर्मों और इस्लाम की शिक्षा में क्या अंतर हुआ? अंतर इस तथ्य में निहित है कि इस्लाम चोरी, डाके आदि अपराधों की केवल निन्दा करने पर ही सीमित नहीं है, वह एक ऐसा मार्ग भी प्रशस्त करता है जिस पर चलकर ऐसा समाज विकसित किया जाए, जिस में लोग ऐसे अपराध करें ही नहीं।
(ख) इस्लाम में ज़कात का प्रावधान है
इस्लाम
ने ज़कात देने की एक विस्तृत व्यवस्था स्थापित की है। इस्लामी कानून के अनुसार
प्रत्येक वह व्यक्ति जिसके पास बचत की मालियत (निसाब) अर्थात् 85 ग्राम सोना अथवा
इतने मूल्य की सम्पत्ति के बराबर अथवा अधिक हो, वह साहिब-ए-निसाब है, उसे प्रतिवर्ष अपनी बचत का
ढाई प्रतिशत भाग ग़रीबों को देना चाहिए। यदि संसार का प्रत्येक सम्पन्न व्यक्ति
ईमानदारी से ज़कात अदा करने लगे तो संसार से दरिद्रता समाप्त हो जाएगी और कोई भी
मनुष्य भूखा नहीं मरेगा।
(ग) चोर, डकैत को हाथ काटने की सज़ा
इस्लाम
का स्पष्ट कानून है कि यदि किसी पर चोरी या डाके का अपराध सिद्ध हो तो उसके हाथ
काट दिया जाएंगे। पवित्र क़ुरआन में आदेश हैः ‘‘और चारे, चाहे स्त्री हो
अथवा पुरुष, दोनों के हाथ
काट दो, यह उनकी कमाई का
बदला है, और अल्लाह की
तरफ़ से शिक्षाप्रद सज़ा, अल्लाह की
क़ुदरत सब पर विजयी है और वह ज्ञानवान एवं दृष्टा है।’’ (पवित्र क़ुरआन, सूरह अल-मायदा, आयत 38) ग़ैर मुस्लिम कहते हैं ‘‘इक्कीसवीं शताब्दी में हाथ काटने का दण्ड? इस्लाम तो निर्दयता और
क्रूरता का धर्म है।
(घ)
परिणाम तभी मिलते हैं जब इस्लामी शरीअत लागू की जाए
अमरीका
को विश्व का सबसे उन्नत देश कहा जाता है, दुर्भाग्य से यही देश है जहाँ चोरी और डकैती
जैसे अपराधों का अनुपात विश्व में सबसे अधिक है। अब ज़रा थोड़ी देर को मान लें कि
अमरीका में इस्लामी शरीअत कानून लागू हो जाता है अर्थात प्रत्येक धनाढ्य व्यक्ति
जो साहिब-ए-निसाब हो पाबन्दी से अपने धन की ज़कात अदा करे (चाँद के वर्ष के हिसाब
से) और चोरी-डकैती का अपराध सिद्ध हो जाने के पश्चात अपराधी के हाथ काट दिये जाएं, ऐसी अवस्था में क्या
अमरीका में अपराधों की दर बढ़ेगी या उसमें कमी आएगी या कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा? स्वाभाविक सी बात है कि
अपराध दर में कमी आएगी। यह भी होगा कि ऐसे कड़े कानून के होने से वे लोग भी अपराध
करने से डरेंगे जो अपराधी प्रवृति के हों।
मैं
यह सवीकार करता हूँ कि आज विश्व में चोरी-डकैती की घटनाएं इतनी अधिक होती हैं कि
यदि तमाम चारों के हाथ काट दिये जाएं तो ऐसे लाखों लोग होंगे जिनके हाथ कटेंगे।
परन्तु ध्यान देने योग्य यह तथ्य है कि जिस समय आप यह कानून लागू करेंगे, उसके साथ ही चोरी और डकैटी
की दर में कमी आ जाएगी। ऐसे अपराध करने वाला यह कृत्य करने से पहले कई बार सोचेगा
क्योंकि उसे अपने हाथ गँवा देने का भय भी होगा। केवल सज़ा की कल्पना मात्र से चोर
डाकू हतोत्साहित होंगे और बहुत कम अपराधी अपराध का साहस जुटा पाएंगे। अतः केवल कुछ
लोगों के हाथ काटे जाने से लाखों करोड़ो लोग चोरी-डकैती से भयमुक्त होकर शांति का
जीवन जी सकेंगे। इस प्रकार सिद्ध हुआ कि इस्लामी शरीअत व्यावहारिक है और उससे
सकारात्मक परिणाम प्राप्त हो सकते हैं।
उदाहरण: इस्लाम में महिलाओं का अपमान और बलात्कार
हराम है। इस्लाम में स्त्रियों के लिये हिजाब (पर्दे) का आदेश है और व्यभिचार
(अवैध शारीरिक सम्बन्ध) का अपराध सिद्ध हो जाने पर व्याभिचारी के लिए मृत्युदण्ड
का प्रावधान है
(क) इस्लाम में महिलाओं के साथ ज़ोर ज़बरदस्ती और बलात्कार को रोकने का व्यावहारिक तरीकष स्पष्ट किया गया है सभी प्रमुख धर्मों में स्त्री के साथ बलात्कार और ज़ोर-ज़बरदस्ती को अत्यंत घिनौना अपराध माना गया है। इस्लाम में भी ऐसा ही है। तो फिर इस्लाम और अन्य धर्मों की शिक्षा में क्या अंतर है?
यह अंतर इस यर्थाथ में निहित है कि इस्लाम केवल नारी के सम्मान की प्ररेणा भर को पर्याप्त नहीं समझता, इस्लाम ज़ोर ज़बरदस्ती और बलात्कार को अत्यंत घृणित अपराध कष्रार देकर ही संतुष्ट नहीं हो जाता बल्कि वह इसके साथ ही प्रत्यक्ष मार्गदर्शन भी उपलब्ध कराता है कि समाज से इन अपराधों को कैसे मिटाया जाए।
(ख) पुरुषों के लिए हिजाब
इस्लाम
में हिजाब की व्यवस्था है। पवित्र क़ुरआन में पहले पुरुषों के लिए हिजाब की चर्चा
की गई है उसके बाद स्त्रियों के हिजाब पर बात की गई है। पुरुषों के लिए हिजाब का
निम्नलिखित आयत में आदेश दिया गया हैः
‘‘हे नबी! (सल्लॉ) मोमिन पुरुषों से कहो कि अपनी नज़रें बचाकर रखें और अपनी शर्मगाहों (गुप्तांगों) की हिफ़ाज़त करें। यह उनके लिए पाकीज़ा तरीकष है। जो कुछ वे करते हैं अल्लाह उस से बाख़बर रहता है। (पवित्र क़ुरआन , 24ः30)
जिस क्षण किसी पुरुष की दृष्टि (नामहरम) स्त्री पर पड़े और कोई विकार या बुरा विचार मन में उत्पन्न हो तो उसे तुरन्त नज़र नीची कर लेनी चाहिए।
(ग) स्त्रियों के लिए हिजाब
स्त्रियों के लिए हिजाब की चर्चा निम्नलिखित आयत में की गई है। ‘‘हे नबी! (सल्लॉ) मोमिन औरतों से कह दो कि अपनी नज़रें नीची रखें और अपनी शर्मगाहों की हिफ़ाज़त करें, अपना बनाव सिंघार न दिखाएं, केवल उसके जो ज़ाहिर हो जाए और अपने सीनों पर अपनी ओढ़नियों का आँचल डाले रहें।’’ (पवित्र क़ुरआन , 24ः31)
स्त्रियों के लिए हिजाब की व्याख्या यह है कि उनका शरीर पूरी तरह ढका होना चाहिए। केवल चेहरा और कलाईयों तक। हाथ वह भाग हैं जो ज़ाहिर किए जा सकते हैं फिर भी यदि कोई महिला उन्हें भी छिपाना चाहे तो वह शरीर के इन भागों को भी छिपा सकती है परन्त कुछ उलेमा-ए-दीन का आग्रह है कि चेहरा भी ढका होना चाहिए।
(घ) छेड़छाड़ से सुरक्षा, हिजाब
अल्लाह
तआला ने हिजाब का आदेश क्यों दिया है? इसका उत्तर पवित्र क़ुरआन ने सूरह अहज़ाब की
इस आयत में उपलब्ध कराया हैः ‘‘हे नबी! (सल्लॉ)
अपनी पत्नियों और पुत्रियों और ईमान वालों की स्त्रियों से कह दो कि अपने ऊपर अपनी
चादरों के पल्लू लटका लिया करें। यह उचित तरीकष है ताकि वह पहचान ली जाएं और सताई
न जाएं। अल्लाह क्षमा करने वाला और दयावान है।’’ (पवित्र
क़ुरआन , सूरह अहज़ाब, आयत 59)
पवित्र क़ुरआन कहता है कि स्त्रियों को हिजाब करना इसलिए ज़रूरी है ताकि वे सम्मानपूर्वक पहचानी जा सकें और यह कि हिजाब उन्हें छेड़-छाड़ से भी बचाता है।
(ङ) जुड़वाँ बहनों का उदाहरण
जैसा कि हम पीछे भी बयान कर चुके हैं, मान लीजिए कि दो जुड़वाँ बहनें हैं जो समान रूप से सुन्दर भी हैं। एक दिन वे दोनों एक साथ घर से निकलती हैं। एक बहन ने इस्लामी हिजाब कर रक्खा है अर्थात उसका पूरा शरीर ढंका हुआ है। इसके विपरीत दूसरी बहन ने पश्चिमी ढंग का मिनी स्कर्ट पहना हुआ है अर्थात उसके शरीर का पर्याप्त भाग स्पष्ट दिखाई दे रहा है। गली के नुक्कड़ पर एक लफ़ंगा बैठा है जो इस प्रतीक्षा में है कि कोई लड़की वहाँ से गुज़रे अैर वह उसके साथ छेड़छाड़ और शरारत करे। सवाल यह है कि जब वे दोनों बहनें वहाँ पहुचेगी तो वह लफ़ंगा किसको पहले छेड़ेगा। इस्लामी हिजाब वाली को अथवा मिनी स्कर्ट वाली को? इस प्रकार के परिधान जो शरीर को छिपाने की अपेक्षा अधिक प्रकट करें एक प्रकार से छेड़-छाड़ का निमंत्रण देते हैं। पवित्र क़ुरआन ने बिल्कुल सही फ़रमाया है कि हिजाब स्त्री को छेड़-छाड़ से बचाता है।
(च) ज़ानी (कुकर्मी) के
लिए मृत्युदण्ड
यदि किसी (विवाहित) व्यक्ति के विरुद्ध ज़िना (अवैध शारीरिक सम्बन्ध) का अपराध सिद्ध हो जाए तो इस्लामी शरीअत के अनुसार उसके लिए मृत्युदण्ड है, आज के युग में इतनी कठोर सज़ा देने पर शायद ग़ैर मुस्लिम बुरी तरह भयभीत हो जाएं। बहुत से लोग इस्लाम पर निर्दयता और क्रूरता का आरोप लगाते हैं। मैंने सैंकड़ो ग़ैर मुस्लिम पुरुषों से एक साधारण सा प्रश्न किया। मैंने पूछा कि ख़ुदा न करे, कोई आपकी पत्नी या माँ, बहन के साथ बलात्कार करे और आप को उस अपराधी को सज़ा देने के लिए जज नियुक्त किया जाए और अपराधी आपके सामने लाया जाए तो आप उसे क्या सज़ा देंगे? उन सभी ने इस प्रश्न के उत्तर में कहा कि ‘‘हम उसे मौत की सज़ा देंगे।’’ कुछ लोग तो इससे आगे बढ़कर बोले, ‘‘हम उसको इतनी यातनाएं देंगे कि वह मर जाए।’’ इसका मतलब यह हुआ कि यदि कोई आपकी माँ, बहन या पत्नि के साथ बलात्कार का अपराधी हो तो आप उस कुकर्मी को मार डालना चाहते हैं। परन्तु यदि किसी दूसरे की पत्नी, माँ, बहन की इज़्ज़त लूटी गई तो मौत की सज़ा क्रूर और अमानवीय हो गई। यह दोहरा मानदण्ड क्यों है?
(छ) अमरीका में बलात्कार
की दर सब देशों से अधिक है
अब
मैं एक बार फिर विश्व के सबसे अधिक आधुनिक देश अमरीका का उदाहरण देना चाहूँगा।
एफ़.बी.आई की रिपोर्ट के अनुसार 1995 के दौरान अमरीका में 10,255 (एक
लाख दो सौ पचपन) बलात्कार के मामले दर्ज हुए। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि
बलात्कार की समस्त घटनाओं में से केवल 16 प्रतिशत की ही रिपोर्ट्स दर्ज कराई गईं।
अतः 1995 में अमरीका में बलात्कार की घटनाओं की सही संख्या जानने के लिए दर्ज
मामलों की संख्या को 6.25 से गुणा करना होगा। इस प्रकार पता चलता है कि बलात्कार
की वास्तविक संख्या 640,968 (छः लाख, चालीस हज़ार, नौ सौ अड़सठ) है। एक अन्य रिपोर्ट में बताया
गया कि अमरीका में प्रतिदिन बलात्कार की 1900 घटनाएं होती हैं। अमरीकी प्रतिरक्षा
विभाग के एक उप संस्थान ‘‘नैशनल क्राइ्रम एण्ड कस्टमाईज़ेशन सर्वे, ब्यूरो आफ़ जस्टिस’’ द्वारा जारी किए गए आँकड़ों
के अनुसार केवल 1996 के दौरान अमरीका में दर्ज किये गए बलात्कार के मामलों की
तादाद तीन लाख, सात
हज़ार थी जबकि यह संख्या वास्तविक घटनाओं की केवल 31 प्रतिशत थी। अर्थात सही
संख्या जानने के लिए हमें इस तादाद को 3226 से गुणा करना होगा। गुणान फल से पता
चलता है कि 1996 में अमरीका में बलात्कारों की वास्तविक संख्या 990,332 (नौ
लाख, नब्बे
हज़ार, तीन
सौ बत्तीस) थी। अर्थात् उस वर्ष अमरीका में प्रतिदिन 2713 बलात्कार की वारदातें
हुईं अर्थात् प्रति 32 सेकेण्ड एक बलात्कार की घटना घटी। कदाचित् अमरीका के
बलात्कारी काफ़ी साहसी हो गए हैं। एफ.बी.आई की 1990 वाली रिपोर्ट में तो ये भी
बताया गया था कि केवल 10 प्रतिशत बलात्कारी ही गिरफ़्तार हुए। यानी वास्तविक
वारदातों के केवल 16 प्रतिशत अपराधी ही कानून के शिकंजे में फंसे। जिनमें से 50
प्रतिशत को मुकदमा चलाए बिना ही छोड़ दिया गया। इसका मतलब यह हुआ कि केवल 8
प्रतिशत बलात्कारियों पर मुकष्दमे चले। दूसरे शब्दों में यही बात इस प्रकार भी कह
सकते हैं कि यदि अमरीका में कोई व्यक्ति 125 बार बलात्कार का अपराध करे तो संभावना
यही है कि उसे केवल एक बार ही उसको सज़ा मिल पाएगी। बहुत-से अपराधी इसे एक अच्छा ‘‘जुआ’’ समझते हैं।
यही रिपोर्ट बताती है कि मुक़दमे का सामना करने वालों में 50 प्रतिशत अपराधियों को एक वर्ष से कम कारावास की सज़ा सुनाई गई। यद्यपि अमरीकी कानून में बलात्कार के अपराध में 7 वर्ष सश्रम कारावास का प्रावधान है। यह देखा गया है कि अमरीकी जज साहबान पहली बार बलात्कार के आरोप में गिरफ़्तार लोगों के प्रति सहानुभूति की भावना रखते हैं। अतः उन्हें कम सज़ा सुनाते हैं। ज़रा सोचिए! एक अपराधी 125 बार बलात्कार का अपराध करता है और पकड़ा भी जाता है तब भी उसे 50 प्रतिशत संतोष होता है कि उसे एक वर्ष से कम की सज़ा मिलेगी।
(ज) इस्लामी शरीअत कानून लागू कर दिया जाए तो
परिणाम प्राप्त होते हैं
अब मान लीजिए कि अमरीका में इस्लामी शरीअत कानून लागू कर दिया जाता है। जब भी कोई पुरुष किसी नामहरम महिला पर निगाह डालता है और उसके मन में कोई बुरा विचार उत्पन्न होता है तो वह तुरन्त अपनी नज़र नीची कर लेता है। प्रत्ेयक स्त्री इस्लामी कानून के अनुसार हिजाब करती है अर्थात अपना सारा शरीर ढाँपकर रखती है। इसके बाद यदि कोई बलात्कार का अपराध करता है तो उसे मृत्यु दण्ड दिया जाए।
प्रश्न
यह है कि यह कानून अमरीका में लागू हो जाने पर बलात्कार की घटनाओं में वृद्धि होगी
अथवा कमी आएगी या स्थिति जस की तस रहेगी?
स्वाभाविक
रूप से इस प्रश्न का उत्तर होगा कि इस प्रकार का कानून लागू होने से बलात्कार
घटेंगे। इस प्रकार इस्लामी शरीअत के लागू होने पर तुरन्त परिणाम प्राप्त होंगे।
मानव
समाज की समस्त समस्याओं का व्यावहारिक समाधान इस्लाम में मौजूद है
जीवन
बिताने का श्रेष्ठ उपाय यही है कि इस्लामी शिक्षा का अनुपालन किया जाए क्योंकि
इस्लाम केवल ईश्वरीय उपदेशों का संग्रह मात्र नहीं है वरन् यह मानव समाज की समस्त
समस्याओं का सकारात्मक समाधान प्रस्तुत करता है। इस्लाम व्यक्तिगत तथा सामूहिक
दोनों स्तरों पर सकारात्मक ओर व्यावहारिक मार्गदर्शन करता है। इस्लाम विश्व की
श्रेष्ठतम जीवन पद्धति है क्योंकि यह एक स्वाभाविक विश्वधर्म है जो किसी विशेष
जाति, रंग
अथवा क्षेत्र के लोगों तक सीमित नहीं है।
इस्लाम कैसा इन्सान बनाता हैं?
इन्सान
को अच्छा इन्सान बनाने की इस्लाम से बेहतर दूसरी कोर्इ व्यवस्था नही। इस्लाम
मनुष्य को उसका सही स्थान बताता हैं, उसकी महानता का रहस्य उस पर
खोलता हैं उसका दायित्व उसे याद दिलाता हैं और उसकी चेतना को जगाता हैं उसे याद
दिलाता हैं कि उसे एक उद्देश्य के साथ पैदा किया गया हैं, निरर्थक
नही। इस संसार का जीवन मौजमस्ती के लिये नही हैं। हमे अपने हर काम का हिसाब अपने
मालिक को देना हैं। यहां हर काम खूब सोच-समझ कर करना हैं कि यहां हमारे कामो से
समाज सुगन्धित भी हो सकता हैं
और हमारे दुष्कर्मो से एक अभिशाप भी बन सकता हैं। इस्लाम जो इन्सान बनाता हैं वह दूसरों का आदर करने वाला, सच्चार्इ पर जमने वाला, अपना वादा निभाने वाला, कमजोरो का सहारा बनने वाला और भलाइयों मे पहल करने वाला होता हैं। वह स्वंय भी बुराइयों से बचता हैं और दूसरों कोभी इस से रोकता हैं। इस्लामी आदर्शो मे ढला हुआ इन्सान भलाइयों का पुतला और बुरार्इयों का दुश्मन होता हैं।
» इस्लाम और उसका अर्थ
हजरत मुहम्मद (स0) के द्वारा इस्लाम हम तक पहुंचा हैं। इस्लाम अरबी भाषा का शब्द है, जिसका एक अर्थ है ‘आज्ञापालन’ और दूसरा ‘शांति’। मुस्लिम आज्ञाकारी के कहते हैं-अर्थात अल्लाह का आज्ञाकारी, उसका आदेश मानने वाला, उसके आगे सिर झुका देने वाला। अल्लाह ने जितने पैगम्बर भेजे उन सब ने ऐकेश्वरवाद का पाठ पढ़ाया । किसी ने अपनी उपासना का हुक्म नही दिया, किसी ने खुद को र्इश्वर या उसका रूप नही कहा। यह बात बड़ी विचित्र रही हैं कि अधिकतर लोगो ने अपने पैगम्बरों को झुठलाया, उनकी बात न मानी, बल्कि उन्हे सताया, यातनाएॅ दी और जब उनकी मुत्यु हो गर्इ तो उन्हे पूज्य घोषित कर दिया, उनकी मूर्तियां बनाने लगे और उसी से सहायता मांगने लगे। वास्तव में सारे पैगम्बरों का धर्म एक ही था ‘इस्लाम’। सब का परम उद्देश्य र्इश्वर का आज्ञाकारी बनाना था यह भी उल्लेखनीय हैं कि इस पूरे संसार का धर्म भी इस्लाम ही हैं। जमीन, सूर्य, पहाड़, हवा, पेड़-पौधे, बादल, चॉद, तारे, सब उस नियम का पालन कर रहे हैं, जिस का बनाने वाले ने उन्हे पाबन्द कर दिया हैं।
इल्मे दीन की एहमीयत
» अल्लाह के
नाम से शुरू जो बड़ा कृपालु और अत्यन्त दयावान हैं.!! अल्लाह तआला इर्शाद फ़रमाता
है… :
» तर्जुमा: क्या वह जिसे फ़रमांबरदारी में रात की घड़ियां गुज़रीं (1) सुजूद में और क़याम में। आख़िरत से डरता और अपने रब की रहमत की आस लगाए। क्या वह नाफ़रमानों जैसा हो जाएगा? तुम फ़रमाओ क्या बराबर हैं जानने वाले और अंजान, नसीहत तो वही मानते हैं (2) जो अक़ल वाले हैं(पारा 23, अलज़ुमर: 9)
» तफ़सीर :
(1) इस से नमाज़े तहज्जुद की अफ़ज़लीयत मालूम हुई।
यह भी मालूम हुआ कि नमाज़ में क़याम और सजदा आला दर्जा के रुकन हैं। यह भी मालूम
हुआ कि नमाज़ी और परहेज़गार को रब अज़्ज़-ओ-जल से ख़ौफ़ ज़रूर चाहिए। अपनी इबादत पर
नाज़ां ना हो, डरता रहे।
(2)
(शाने नुज़ूल) यह आयते करीमा हज़रते सय्यिदेना अबूबकर सिद्दीक़-ओ-हज़रत
सय्यिदेना उम्र फ़ारूक़ रज़ीयल्लाहु अन्हुमा के हक़ में नाज़िल हुई। बाअज़ ने फ़रमाया कि
उस्माने ग़नी के हक़ में नाज़िल हुई, जो नमाज़े तहज्जुद के
बहुत पाबंद थे और उस वक़्त अपने किसी ख़ादिम को बेदार ना करते थे। सब काम अपने दस्ते
मुबारक से सरअंजाम देते थे।
मालूम हुआ कि आबिद से आलिमे दीन अफ़्ज़ल है, मलाइका
आबिद थे और आदम अलैहिस्सलाम आलिम। आबिदों को आलिम के सामने झुकाया गया, यहां मुतल्लिक़न इरशाद हुआ कि आलिम ग़ैरे आलिम से अफ़्ज़ल है, गैरे आलिम ख़्वाह आबिद हो या ग़ैरे आबिद, बहरहाल इस से
आलिम अफ़्ज़ल है। ख़्याल रहे कि आलिम से मुराद आलिमे दीन हैं। उन्हीं के फ़ज़ाइल
क़ुरआन-ओ-हदीस में वारिद हुए। इसी लिए हज़रते आईशा सिद्दीक़ा रज़ी अल्लाहु तआला अन्हा
तमाम अज़्वाजे मुत्तहिरात बल्कि तमाम जहाँ की बीबियों से अफ़्ज़ल हैं कि बड़ी आलिमा
हैं।
(3) इस में इशारतन फ़रमाया गया कि आक़िल वही है, जो अन्बिया की तालीम से फ़ायदा उठाए, जो इलम-ओ-अक़ल हुज़ूर (सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम) के क़दम शरीफ़ पर ना झुकाए, वह जिहालत और बेवक़ूफ़ी है। (तफ़्सीरे नुरुलइरफ़ान: - मुफ़्ती सैफ़ुल्लाह ख़ां अस्दक़ी, चिश्ती, क़ादरी ख़लीफ़ा: हुज़ूर ख़्वाजा सय्यद महबूबे औलिया अलैहिर्रहमा)
इस्लाम का उद्देश्य पूरे संसार में
शान्ति स्थापित करना है।
» अल्लाह के
नाम से शुरू जो बड़ा कृपालु और अत्यन्त दयावान हैं.!! इस्लाम हर धर्म का सम्मान
करता है। क़ुरआन में इनसानी जानों का सम्मान इतना किया गया है कि उसने किसी एक
व्यक्ति (चाहे उसका धर्म कुछ भी हो) की हत्या को सारे संसार की हत्या सिद्ध करता
हैः
» अल-कुरान :
“जो
कोई किसी इनसान को जबकि उसने किसी की जान न ली हो अथवा धरती में फसाद न फैलाया हो,
की हत्या करे तो मानो उसने प्रत्येक इनसानों की हत्या कर डाली और जो
कोई एक जान को (अकारण कत्ल होने से) बचाए तो मानो उसने प्रत्येक इनसानों की जान
बचाई” (सूरः मईदा – आयत 32)
और मुसलमान जिस
नबी को अपनी जान से अधिक प्रिय समझते हैं वह प्रत्येक संसार के लिए दयालुता बन कर
आए थे.
» अल-कुरान: “(हे मुहम्मद) हमनें आपको सम्पूर्ण संसार के लिए दयालुता बना कर भेजा है”
(सूरः अंबिया – आयत 107)
»
हदीस: मुहम्मद (सल्लल्लाहो ताअला अलैहि व
आलिही वसल्लम) ने कहा,
“जो कोई इस्लामी शासन में रहने वाले गैर मुस्लिम की हत्या कर दे वह
स्वर्ग की बू तक न पाएगा”. (सही
बुख़ारी)
देखा!
यह है इस्लाम की शिक्षा… और एक मुसलमान इसी पर 100
प्रतिशत विश्वास रखता है। एक मुस्लिम कभी किसी गैर-मुस्लिम को
गैर-मुस्लिम होने के नाते किसी प्रकार का कष्ट कदापि नहीं पहुंचा सकता इसलिए कि वह
जानता है कि सारे इनसान एक ही माता पिता की सन्तान हैं।
ज़रा आप मुहम्मद (सल्लल्लाहो ताअला अलैहि व आलिही वसल्लम) की आदर्श
जीवनी का अध्ययन कर के देख लीजिए उनके शत्रुओं ने उनको और उनके अनुयाइयों को
निरंतर 13 वर्ष तक मक्का में हर प्रकार की यातनाएं दीं। उनके
गले में रस्सी डाल कर मक्का की गलियों में घसेटा गया, उनके
अनुयाइयों को अरब की तपती हुई भूमि पर दहकते कोइले पर लिटा कर उनकी छाती पर पत्थर
रखा गया। जब अत्याचार बर्दाश्त से बाहर हो गया तो कुछ लोग देश त्याग कर के हबशा
में शरण ली। मुहम्मद (सल्लल्लाहो ताअला अलैहि व आलिही वसल्लम) आपके अनुयाइयों तथा
आपके सहायक पारिवारिक व्यक्तियों का सामाजिक बाइकाट किया तो उन्हें तीन वर्ष तक
नगर से बाहर एक पहाड़ी की घाटी में शरण लेनी पड़ी। मुसलमानों को देश निकला दिया और
सारे के सारे मुसलमान अपनी सारी सम्पत्ति छोड़ कर मदीना में जा बसे। यहाँ तो कम से
कम शत्रुओं को चैन से रहने देना चाहिए था लेकिन मक्का आने के बाद भी आठ वर्ष तक
मुसलमानों के विरोद्ध युद्ध ठाने रखा।
लेकिन
आप और आपके अनुयाई इन सब को सहन करते रहे यहाँ तक कि 21 वर्ष तक
अत्याचार सहते सहते जब अन्त में मक्का पर विजय पा चुके तो सार्वजनिक क्षमा की
घोषणा कर दी। जिसका परिणाम यह हुआ कि मक्का विजय के वर्ष उनके अनुयाइयों की संख्या
10 हज़ार थी तो दो वर्ष में ही एक अन्तिम हज के अवसर पर एक
लाख चालीस हज़ार हो गई। क्यों वह सोचने पर विवश हुए कि जिस इनसान को हमने 21
वर्ष तक चैन से रहने नहीं दिया हम पर क़ाबू पाने के बाद हमारी क्षमा
की घोषणा कर रहा है, मानो यह स्वार्थी नहीं बल्कि हमारी भलाई
चाहता है।
आज तालबान अथवा उनके सहयोगी जो इस्लाम के नाम पर लोगों की हत्या कर
रहे हैं इस्लाम इसकी अनुमति कदापि नहीं देता। और हम उनकी कट्टरता का पूर्ण रूप में
विरोद्ध करते हैं। हमारी वही आस्था है जिसकी ओर क़ुरआन ने संकेत किया कि एक इनसान
की हत्या मानो सम्पूर्ण इनसान की हत्या है।
पवित्र क़ुरान
में मानवता का सन्देश ….
!! वैसे तो
पवित्र कुरान पूरा ही मानवता के सदेश से भरा है, लेकिन फ़िलहाल
हम यहाँ कुछ ही बातो का जिक्र कर रहे है…
» अल्लाह के नाम से शुरू जो बड़ा कृपालु और अत्यन्त दयावान हैं.!! :
“और जो लोग तुमसे लड़ते
हैं, तुम भी अल्लाह की राह में उनसे लड़ो, मगर ज़्यादती न करना की अल्लाह ज़्यादती करने वालो को दोस्त नहीं रखता।”
(क़ुरान 2:190)
» “ऐ ईमान वालो! अल्लाह के लिए इन्साफ की गवाही
देने के लिए खड़े हो जाया करो और लोगो की दुश्मनी तुम को इस बात पर तैयार न करे की
इन्साफ छोड़ दो। इंसाफ किया करो की यही परहेज़गारी की बात हैं और अल्लाह से डरते
रहो कुछ शक नहीं की अल्लाह तुम्हारे कामो से ख़बरदार हैं।” (कुरान 5:08)
» “अल्लाह न्याय और भलाई और
रिश्तेदारों के हक़ अदा करने का आदेश देता हैं और बुराई और अश्लीलता और ज़ुल्म व
ज़्यादती से रोकता हैं। वह तुम्हे नसीहत करता हैं ताकि तुम शिक्षा लो।”
- (कुरान 16:90)
» “जिन लोगो ने तुमसे दीन के बारे में जंग नहीं की और न तुमको तुम्हारे घरो से निकाला, उनके साथ भलाई और इन्साफ का सुलूक करने से अल्लाह तुमको मना नहीं करता, अल्लाह तो इन्साफ करने वालो को दोस्त रखता हैं।” – (कुरान 60:08)
कत्ल और आतंकवाद को
इस्लाम का समर्थन नहीं
वो लोग जो अपने क़त्लो-गारत और दहशतगर्दी के कामों को इस्लाम के आदेशानुसार
बतलातें हैं वो कुरान और रसूल (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) की तालीमों का अपमान
करतें है।
– क्योंकि कुरान वो ग्रंथ है जिसने एक कत्ल के अपराध को पूरी
इंसानियत के कत्ल करने के अपराध के बराबर रखा और कहा ,..
अल-कुरान: “जिसने कोई जान क़त्ल की, बग़ैर जान के बदले या ज़मीन में फसाद
किया तो गौया उसने सब लोगों का क़त्ल किया और जिसने एक जान को बचा लिया तो गौया
उसने सब लोगों को बचा लिया” – (सूरह माइदह, 32)
अल-कुरान: “किसी जान को कत्ल न करो जिसके कत्ल को
अल्लाह ने हराम किया है सिवाय हक के।” – (सूरह इसरा, 33)
कुरान जिस जगह नाज़िल हुआ था
पहले वहां के इंसानों की नज़र में इंसानी जान की कोई कीमत न थी। बात-बात वो एक
दूसरे का खून बहा देते थे, लूटमार करते थे। कुरान के अवतरण ने न केवल इन कत्लों को
नाजायज़ बताया बल्कि कातिलों के लिये सज़ा का प्रावधान भी तय किया। वो आतंकी लोग
जो कुरान के मानने वाले होने की बात करते हैं उन्हें ये जरुर पता होना चाहिये कि
इस्लाम ने ये सख्त ताकीद की है कि अल्लाह की बनाई इस धरती पर कोई फसाद न फैलाये !
अल-कुरान: “हमने हुक्म दिया कि अल्लाह की अता की हुई रोजी खाओ और धरती पर
फसाद फैलाते न फिरो” – (सूरह बकरह:60)
कुरान वो ग्रंथ है जो न
केवल फसाद (आतंकवाद) यानि दहशतगर्दी फैलाने से मना करता है बल्कि दशहतगर्दी फैलाने
वालों को सजा-ए-कत्ल को जाएज करार देता है – (सूरह माइदह, 32)
इस्लाम एक ऐसा धर्म है जिसके बारे में समाज में तरह तरह की बातें फैली हुई हैं जिनमे से अधिकतर या तो इसे बदनाम करने के लिए फैलाई गयी हैं या कुछ खुद को पैदायशी मुसलमान कहने वालों की अज्ञानता के कारन फैली हैं | वैसे भी अच्छे को बुरा साबित करना दुनिया की पुरानी आदत है | इस्लाम को बुरा साबित करने की कोशिश करने वालों का मुह बंद करने का आसान तरीका यह है कि इसके बताये कानून पे ईमानदारी से चलके दिखाओ |
इस्लाम धर्म आदम के साथ आया और इसके कानून पे चलने वाला मुसलमान कहलाया| अज्ञानी को ज्ञानी बनाने का काम इस्लाम ने किया | इंसान को अल्लाह ने बनाया और जब हज़रत आदम को दुनिया में भेजा तो कुछ कानून उन्हें बताये ,जैसे कि कैसे जीवन गुजारो ? ऐसे ही एक लाख चौबीस हज़ार पैगम्बर आय और अल्लाह उनके ज़रिये इंसानों को इंसानियत का पैगाम देता रहा | एक इंसान में इर्ष्या ,हसद,लालच,जैसी न जाने कितनी बुराईयाँ हुआ करती हैं और इनपे काबू करते हुई जो अपना जीवन गुज़ार देता है सही मायने में इंसान कहलाता है या कहलें की सही मायने में मुसलमान कहलाता है |यह तो कुछ मुल्लाओं ने समाज में फैला दिया है की नमाज़ ,रोज़ा ,हज्ज ,दाढ़ी,का नाम मुसलमान है |जबकि मुसलमान नाम है इस्लाम के बताये कानून पे चलने का और यह कानून बताते हैं की, लोगों पे ज़ुल्म न करो,इमानदार रहो,इर्ष्या ,हसद और लालच से बचो | इस्लाम अपराध करने वाले जालिमो का साथ देने,उनसे सहानभूति करने वालों और ज़ुल्म देख के चुप रहने वालों को भी अपराधी करार देता है | आप कह सकते हैं की इस्लाम न अपराध करने वालों को पसंद करता है और न ही अपराध को बढ़ावा देने वालों को पसंद करता है| यह फ़िक्र करने की बात है कि इंसानियत का सबक सिखाने वाला इस्लाम आज आतंकवादियों के शिकंजे में कैसे फँस गया ?
इंसान की फितरत है की वो दौलत,शोहरत,ऐश ओ आराम के पीछे भागता है और अल्लाह कहता है की इसके पीछे न भागो वरना जीवन नरक बन जाएगा | हमें बात समझ नहीं आती और हम लगते हैं दूसरों का माल लूटने,दहशत फैलाने ,बलात्कार करने और नतीजे में इंसानियत का क़त्ल होता जाता है |
पैगम्बर इ इस्लाम हज़रात मुहम्मद (स.अ.व)
के इस दुनिया से जाने के बाद ऐसे बहुत से ताक़तवर लोग थे जिनका मकसद था दौलत,शोहरत,ऐश ओ आराम हासिल करना और वही लोग ताक़त और मक्कारी के दम पे बन बैठे इस्लाम के
ठेकेदार | नतीजे में हक की राह पे चलने वाले मुसलमानों और गुमराह करने वाले मुसलमानों
में आपस में जंग होने लगी | कर्बला की जंग इसकी बेहतरीन मिसाल है | जहां एक तरफ यजीद था जो मुसलमानों का खलीफा बना बैठा था और दुनिया में आतंक
फैलता नज़र आता था| ज़ुल्म और आतंक की ऐसी मिसाल आज तक नहीं
देखने को मिली | और दुसरी तरफ थे पैगम्बर इ इस्लाम के नवासे इमाम हुसैन (अ.स)जिन्होंने दुनिया
को सही इस्लाम सिखाया, इंसानियत और सब्र का पैगाम दिया | नतीजे में उनको जालिमो ने शहीद कर दिया |
आज भी इस समाज में खुद को मुसलमान कहने वाले दो तरह के लोग हुआ करते हैं | एक वो जो नाम से तो मुसलमान लगते हैं ,नामा,रोज़ा ,हाज ,ज़कात के पाबंद दिखते तो हैं लेकिन इस्लाम के बताये कानून पे नहीं चलते | यह वो लोग हैं जो इस्लाम का साथ तभी तक देते हैं जब तक इनका कोई नुकसान न हो | जैसे ही इनके सामने दौलत ,शोहरत ,औरत आती है यह इस्लाम के बताये कानून को भूल जाते हैं और जब्र से,मक्कारी से,झूट फरेब से दौलत,शोहरत को हासिल कर लिया करते हैं | कुरान में इन्हें मुनाफ़िक़ कहा गया है और इनसे दूर रहने का हुक्म है |ऐसे फरेबियों का हथियार होते हैं समाज के अज्ञानी लोग |
एक उदाहरण है इस्लाम में परदे का हुक्म| यह सभी जानते हैं की औरत के शरीर की तरफ मर्द का और मर्द के शरीर की तरफ औरत का आकर्षित होना इन्सान की फितरत है | इसी वजह से इस्लाम में इसको उस वक़्त तक छुपाने का हुक्म दिया है जब तक की दोनों को एक दुसरे से शारीरिक सम्बन्ध न बनाना हो | इस्लाम में शारीरिक सम्बन्ध बनाने के भी कुछ कानून हैं | शायरों को भी कहते सुना जाता है की “चेहरा छुपा लिया है किसी ने हिजाब में,जी चाहता है आग लगा दूँ नक़ाब में | इसका मतलब साफ़ है की पर्दा उसे बुरा लगता है जो औरत के शरीर को खुला देखना चाहता है ॥ इस्लाम में एक दुसरे का “महरम” उसे कहते हैं जिसके साथ शादी न हो सके .जैसे माँ ,बहन,बेटी,दादी,नानी इत्यादि | और जिसके साथ शादी हो सकती है उसे “नामहरम”कहते हैं और नामहरम का एक दुसरे से शरीर का छिपाना आवश्यक है | संसार की सभी सभ्यताओं में ऐसा ही कानून है बस इस परदे का अलग अलग तरीका है | वोह औरतें या मर्द जो जानवरों की तरह कहीं भी ,कभी भी, किसी से भी ,शारीरिक सम्बन्ध बना लेने को गलत नहीं समझते यदि अपने शरीर का प्रदर्शन करते दिखाई दें तो बात समझ में आती है लेकिन आश्चर्य तो उस समय होता है जब वो लोग जो इस्लाम के कानून को मानने का दावा करते हैं अपने शरीर का प्रदर्शन करते नजर आते हैं|
कई बार तो महरम और नामहरम की परिभाषा भी
यह बदल देते हैं |कभी किसी नामहरम के करीब जाते हैं तो कहते
हैं बेटी जैसी है, कभी कहते हैं बहन जैसी है | वहीं इस्लाम कहता है यह नामहरम है इस से पर्दा करो | “अल्लाह ओ अकबर “ का नारा लगाने वाले ऐसे दो चेहरे वाले
मुसलमानों के यहाँ होता वही है जो यह चाहते हैं या जो इनका खुद का बनाया कानून
कहता है |क्योंकि सवाल नामहरम औरत की कुर्बत का है|
अल्लाह कहता है दूर रहो ,इंसान का दिल कहता है औरत के
करीब रहो |जीत इन्सान के दिल की गलत ख्वाहिशों की होती है और नतीजे में कभी बलात्कार
होता है कभी व्यभिचार होता है |जब औरत के शरीर के करीब रहने की लालच
इंसान को अल्लाह से दूर कर देती है,इस्लाम के कानून को भुला देता है तो दौलत
और शोहरत की लालच के आड़े आने वाले इस इस्लाम के कानून को भुला देने में कितनी देर
लगेगी | यदि आप को यह
पहचानना हो कि यह शख्स इस्लाम को मानने वाला है या नहीं |मुसलमान है
या नहीं ? तो
उसके सजदों को न
देखो,न ही
उसकी नमाज़ों को देखो बल्कि देखो उसके किरदार को, उसकी सीरत को, और यदि वो
हज़रत मुहम्मद (स.अ.व) से मिलती हो,या वो शख्स समाज में अमन और शांति फैलाता दिखे या वो शख्स
इंसानों मेंआपस में मुहब्बत पैदा करता दिखे तो समझ लेना मुसलमान है |
अक्सर देखा जाता है और अक्सर सुना जाता है की इस्लाम
इंसानियत के खिलाफ है , आज के
तारीख में दुनिया के किसी भी हिस्से में जब इस्लाम का नाम आता है तो सबसे पहले
लोगों को ख्याल आता है “इस्लाम
” , कही कुछ मोलवी शाहब या और कोई दीनी भाई दाढ़ी रखे हुए दिख जाता है तो लोगो के जेहन में
ख्याल आता है “आतंकवाद “, ऐसे में जब हालात यूं आगये की दुनिया
के बेहतरीन और अल्लाह (ईश्वर ) का सच्चा धर्म और दुनिया का एक मात्र धर्म इस्लाम
जो इंसानियत की बेहतरीन नजरिया पेश करता है , इंसानियत का हक और इंसानियत का कानून पेश करता है, उसे ऐसे नजरो से देखा जा रहा है तो
कुछ सवाल जरुर आते हैं,
इस्लाम
को आतंकवाद नाम देने की साज़िश,
जब कभी आप इतिहास उठाएंगे तो आपको मालूम पड़ेगा मुस्लमान को
आतंकवाद नाम कैसे दिया गया , ये
साज़िश आज से नहीं एक ज़माने से रची जा रही थी , यहूद , ईसाई , बोद्ध , काफ़िर सबने मिलकर खेल खेला और इस्लाम को बदनाम किया , कुछ बड़े शक्तिशाली देशों की साज़िशे
काम कर गयी , हर कोई मुसलमानों पे जुल्म करने की
चाहत रखने वाल अमेरिका ,रूस , फ्रांस , इसराइल , जैसे
इंसानियत के दुश्मनों ने कभी इराक तो कभी लीबिया कभी मिस्र तो कभी बर्मा तो कभी
अफगानिस्तान पे इंसानियत का क़त्ल किया और वहाँ लाखों मुसलमानों को मौत घाट उतारे , लाखों को बेघर किये , हजारों बस्तियां तबाह ओ बर्बाद किये , मुस्लिम बच्चों को बेरहमी से मारा गया , औरतों के साथ दुर्व्यवहार किया , तब दुनिया का कोई भी इंसानियत के
रहनुमाओं को नहीं दिखा की आतंवाद क्या है और आतंवादी कौन है ? जिस कौम को जगह जगह मारा काटा जलाया
गया हो वो कौम कब तक बर्दास्त करती ? कुछ कौम के रहनुमा उठे और हथियार उठा लिए अपने परिवार की
रक्षा के लिए उठे , कौम को
और अपनी माँ बाप बहनों की रक्षा
के लिए उठे तो इन इंसानियत के दुश्मनों को हजम नहीं हुआ और “आतंकवाद ” का नाम दे दिए ,आतंकवाद कौन है ? ये फैसला करना मुश्किल नहीं आसान है , अगर देखा जाए लाखों हज़ारों लाखों इंसानों को क़त्ल करने वाला
अमेरिका और रूस को आप आतंकवादी क्यों नहीं मान रहे ? क्या आप भूल गए रूस की रेड आर्मी जो अपना जोर आजमाने के लिए
कितनो इंसानों का क़त्ल किये , क्या
आप भूल गए अमेरिका को जापान ,इराक , मिस्र ,अफगानिस्तान ,लीबिया में कितने मासूम इंसानों का क़त्ल किया ? कहीं राजनीती में मुसलमानों का
इस्तेमाल किया गया , और
कहीं आतंकवाद के नाम पे मुस्लमानो का शोषण किया जा रहा , आज कुछ ऐसे इंसान के रूप में हैवान भी
हैं जिनकी शक्ल तो इस्लामिक है मगर उनका इसलाम से कोई वास्ता नहीं , सच्चाई तो ये है जो दाढ़ी रखे हुए हैं
और इस्लामिक चेहरा लेकर इंसानियत का कत्ल कर रहे इनका इस्लाम से कोई लेना देना
नहीं है , ये सब अमेरिका रूस की पैदाइश है , जब ये दुनिया के सामने बेनकाब होने
लगे तो इन्होने एक ग्रुप बनाया और हाथ में इस्लामिक झंडा दे कर मुसलमानों का कत्ल
कराने लगे , खुद को मुसलिम बताकर मुसलमानों का
क़त्ल करने वाले भेडियो को जन्म दिया गया , क्या आपने नहीं देखा इन आतंकी संघटनो द्वारा कितने मुसलमानों
का क़त्ल किया जा रहा , ये
इस्लामिक झंडा हाथ में लेने वाले आतंकी कितने मुस्लिम बच्चों का काटा ? मस्जिद में नमाज पढ़ने वाले इमामो को
काटा ? क्या आपने नहीं देखा इराक और
फिलिस्तीन में कितने दाढ़ी वालों को ये आतंकी गला काटे ? नहीं ये आतंकी मुस्लिम नहीं ये खुद
यहूदी और कट्टर शिया हैं जिनका इस्लाम से कोई वास्ता नहीं ? और उनकी दाढ़ी से उन्हें मुस्लमान बता
कर आज मासूम मुसलमानों को मारा जा रहा और मुसलमानों का हक छिना जा रहा है , इतिहास उठा कर देखा दुनिया में जगह
जगह मुस्लमान बस्तियां जलाया गया , मुसलमानों
को मारा काटा गया ,क्या आपने कभी
ये सुना की की मुसलमानों की एक भीढ़ जुट कर कभी किसी काफिर की बस्तियां उजाड़ी ? नहीं आपको ऐसी एक भी घटना नहीं मिलेगी , क्यूंकि इस्लाम मासूमो का क़त्ल करने
की कभी भी किसी भी हाल में इजाजत नहीं देता , ये भी इस्लाम में इंसानियत का एक जीता जागता सबूत है ,
इस्लाम
इंसानियत का एक मात्र धर्म
इस्लाम एक मात्र ऐसा धर्म है जो कहता है की अगर किसी ने किसी एक मासूम इंसान का क़त्ल किया मानो वो पूरी इंसानियत का क़त्ल किया , तो फिर कैसे कह सकते हैं की इस्लाम इंसानियत का दुश्मन है , इस्लाम एक मात्र ऐसा धर्म है जिसमे औरतों के हक दिया गया है , अमीरों के माल में गरीबों हक दिया गया है , पडोसी का हक दिया गया है , मानवता के हर एक कर्तव्य का एक बेहतरीन नजरिया दिया गया , और इस्लाम में ऐसा कहीं भी नहीं कहा गया की सिर्फ मुस्लिमो की मदद करो , ये इंसानियत के लिए है , हर इंसान की मदद करने की गुज़ारिश है , इस्लाम एक मात्र ऐसा धर्म है जिसमे ना कोई राजा ना कोई फ़कीर , ना कोई उंच ना कोई नीच , अगर एक बादशाह नमाज़ की शफ़ में है तो बाजू में एक फकीर भी हो सकता है और कोई आपत्ति भी नहीं होगी , ये इस्लाम की शिक्षा है , ये prophet Mohammad S.A.W. की शिक्षा है की मजदूरों का पसीना सूखने से पहले उनकी मजदूरी दे दो , अगर कोई भर पेट खाना खा के सो गया और उसके पड़ोस में कोई भूखा सोया तो बेशक सजा का हक़दार है और उससे पूछा जायगा , अगर कोई मरीज़ है उसकी मदद करो, बूढ़े की मदद करो , गरीबों की मदद करो , मजदूरों के कामो में हाथ बटाओ ,सबकी ख़ुशी में गम में शामिल होना चाहिए , किसी के ऊपर जुल्म होता देख आप खामोश नहीं रह सकते , किसी प्यासा को छोड़ के नहीं जा सकते , किसी के ऊपर जुल्म नहीं कर सकते ,हर बेसहारों की मदद करो , जो अपने लिए पसंद करो वही दूसरों के लिए भी पसंद करो , आपने जायदाद अपने माल के हिसाब से हर साल गरीबों, बेसहारों के लिए जकात, फितरा निकालो उनको दान दो मदद करो , ये हमारी ज़िम्मेदारी है , छोटो को बड़े बात करने का अंदाज़ , बड़ों को छोटो से प्यार बात करना , बुजुर्गों की इज्जत और उनकी सेवा करना , जिस अंदाज़ में इस्लाम के शिक्षा हैं प्यार मोहब्बत निमंत्रण है , इस्लाम आतंकवाद के लिए नहीं बल्कि इस्लाम की सभी शिक्षाये सिर्फ और सिर्फ इंसानियत के लिए हैं , मैं दावे के साथ कह सकता हूँ इंसानियत के हित में जितने भी तरीका और शिक्षा इस्लाम में दी गयी , वो दुनिया के किसी भी धर्म में नहीं मिलेगी , साजिशों से दुनिया इस्लाम को बदनाम करे मगर हकीकत तो ये है इस्लाम की शिक्षाये और इस्लाम की मोहब्बत लोगों के दिलों बस्ती जा रही और लोग इस्लाम अपनाते जा रहे हैं , अगर इस्लाम में आतंकवाद की शिक्षा होती, मदरसों में आतंवाद की शिक्षा दी जाती , मस्जिदों और मदरसों में ट्रेनिंग दी जाती तो सोचो इतना जुल्म सहने वाला मुस्लमान कैसे होता , बस्तियां जला दी जाती हैं और मुस्लमान इन्साफ का इंतज़ार करता है , घरो में घुस के सर काट दिया जाता है , मुस्लिमो को ऐसे जलाया जाता है की लोग जानवर को भी जलाये तो तरस आजाए , जब चाहे जहां मुस्लिमो मार दिया जाता , चाहे वो गुजरात हो मुजफ्फर नगर हो , बिजनौर हो ,दादरी हो , मुंबई हो , मालेगांव हो या फिर कश्मीर हो या दुनिया के सभी हिस्सों में हो फिलिस्तीन , बर्मा , अफगानिस्तान , जिस तरह से मुस्लिमो को मारा काटा जलाया जा रहा है क्या आपने कभी सुना की मुसलमानों ने कभी बदला लेने के लिए किसी गैर_मुस्लिम बस्ती में जा कर आगजनी की हो मारा काटा की हो नहीं , दंगाई कर के चले जाते हैं , और मुस्लमान धर्म के नाम पर उनके धर्म के किसी भी मासूम पे हमला नहीं करता , किसी मासूम की बस्तियां धर्म के नाम पर नहीं जलाता , खून तो मुसलमानों के शरीर में भी है , आग तो मुसलमानों के जिस्म में भी लगती है , गुस्सा मुसलमानों को भी आता है , और मुसलमानों का लड़ना तो इतिहास गवाह है , मगर ये क्यों नहीं लड़ते , क्यों किसी काफिर के बस्ती में आगजनी मार काट करने नहीं जाते ये इनका डर नहीं , ये इनकी इस्लाम की शिक्षा है जो किसी मासूम पर हाथ उठाने की अनुमति नहीं देती , ये इंसानियत ये प्यार मोहब्बत की दावत है , ये इस्लाम है, ये मजलूम मुस्लमान हैं इनकी सराफत और इनकी मासूमियत और इनकी इंसानियत का फायदा ये इंसानियत के दुश्मन जोरो पे उठा रहे हैं , मज़हब और खासतौर पर इस्लाम मौजूदा दौर में एक मुश्किल मौजू सुखन बन चुका है। मौजूदह कल्चर, ख्वाह उसे इल्मुल बसरियात के हवाले, मज़हब के हवाले से, नफसियात के हवाले से या तहलील नफसी के हवाले से देखा जाए, मज़हब का तज्जिया मादी उसूल के तहत करता है। एक तरफ तो मज़हब कल्बी तौर पर महसूस किया जाने वाला तजुर्बा और एहसास है एक ऐसी चीज जिस को तअल्लुक जिंदगी के दायमी पहलुओं के साथ है। दूसरी तरफ मज़हब परस्त, मज़हब को एक फलसफे, अक्ली उसूल के मौजू या मजह तसव्वुफ के तौर पर देख सकते हैं। इस्लाम के मामले में मुश्किल बढ़ जाती है क्योंकि बाज मुसलमान और पालिसी साज खालिसतन सियासी, समाजी और मुआशी तसव्वुर के तौर पर पेश करते हैं। अगर हम मज़हब, जमहूरियत या किसी दूसरे निज़ाम या फलसफे को दुरूस्त तौर पर समझना और उस का जायजा लेना चाहते हैं तो हमें इंसानियत और इंसानी जिंदगी को मद्दे नजर रखना होगा। इस तनाजुर में मज़हब और खुसूसन इस्लाम का मवाजना जमहूरियत या किसी दूसरे सियासी, समाजी या मुआशी निजाम से नहीं किया जा सकता। मज़हब का मरकज नजर बुनियादी तौर पर जिंदगी के नकाबिले तबदील पहलू हैं जबकि सियासी, समाजी और मुआशी निजामों और नजरियात के महूर समाजी जिंदगी के तगैयुर पजीर पहलू हैं। जिनका का तअल्लुक दुनियावी जिंदगी के साथ है। मज़हब का तअल्लुक जिन पहलुओं के साथ है वह आज भी इतने ही अहम हैं जितना कि इंसानियत के आगाज पर थे और उस तरह रहेगे। दुनियावी निजाम हालात के तहत बदलते रहते हैं और उनका तज्जिया अपने दौर की निस्बत से लगाया जा सकता है। अल्लाह पर ईमान, हयात बाद अज मौत, अंबिया आसमानी किताबें, फरिश्ते और तकदीर जैसे मामलात का जमाने के बदलने से कोई तअल्लुक नहीं इसी तरह इबादत और एखलाकियात के आफाकी और न काबिले तबदील मेआरों का भी जमाने या दुनियावी जिंदगी के साथ खास वास्ता नहीं है।
मज़हब और
इस्लाम का मवाजना जमहूरियत के साथ करते हुए हमे यह बात याद रखनी चाहिए कि जमहूरियत
एक बतदरीज फरोग पाने वाला इस्लाह पजीर निजाम है जमहूरियत का इतलाक मकाम और हालात
की मुनासिबत से मुखतलिफुल शक्ल है दुसरी तरह इस्लाम ने इमानो यकीन ’ इबादत और एखलाकियात से मुतअल्लिक न
काबिले तबदील उसूल वजह कर रखे हैं। इसलिए इस्लाम के बुनियादी उमूर से मुतअल्लिक
पहलुओं की जमहूरियत से मवाजना किया जाए।
इस्लाम किस तरजे हुकूमत की बात करता है
इस्लाम का
मकसूद नजर और उसकी न काबिले तबदील जहतें हमारी रोजमर्रा की मुतगैयुर जिंदगी के
उसूल वजअ हासिल करती हैं इस्लाम किसी लगे बंधे निजाम की तस्वीर पेश नहीं करता जिस
में तबदीली मुम्किन न हो बल्कि इस्लाम ऐसे उसूल कायम करता है जो किसी हुकूमत के
उमूमी खदोखाल की तशकील करते हो और वक्त और हालात के मुताबिक मतलूबा तरज पर हुकूमत
का फैसला लोगों पर छोड़ देता है।
अगर हम इस
मौजू को इस चीज की रोशनी में देखी और इस्लाम का मवाजना आज के जदीद जमहूरियत से
करें तो हम इस्लाम की पोजीशन और जमहूरियत को एक दूसरे के मुकाबले में बेहतर तौर पर
समझ सकेंगे।
जमहूरियत
के तसव्वुर की साखें कदीम दौर से फूटती हैं जदीद आजाद जमहूरियत अमरीकी (1776) और फ्रांसीसी इन्कलाब (99-1789) से जन्म लिया जमहूरी मुआशरों में लोग
मुसल्लत कर्दा हुकूमत के बजाय अपना निजाम हुकूमत खुद चलाते हैं इस तरज हुकूमत में
फर्द को कम्यूनिटी पर बर्तरी हासिल होती है जो कि अपनी जिंदगी जोकि अपनी जिंदगी
गुजारने के अंदाज का फैसला करने में आजाद होता है ताहम इन्फेरादियत मुतअल्लिक नहीं
होती।
लोग मुआशरे
में रहते हुए भी बेहतर जिंदगी गुजारते हैं और इस के लिए जरूरी होता है कि लोग अपनी
समाजी जिंदगी की कसौटी के मुताबिक अपनी आजादी को एक तरतीब और हदें रखें।
हुजूर
फरमाते हैं कि तमाम लोग कंघी के दानों की तरह एकसां है इस्लाम रंगो नस्ल उमर
कौमियत या समाजी खूबियों की बुनियाद पर इंसानों में तमीज नहीं करता। हुजूर फरमाते
हैं कि तुम सब आदम की औलाद हो और आदम मिट्टी से बने थे। ऐ अल्लाह के बंदो आपस में
भाई भाई बन जाओ।
वह लोग जो
पहले पैदा हुए या जिन के पास ज्यादा दौलत है या जो लोग किसी खास खानदान या लसानी
गिरोह से तअल्लुक रखते हैं दूसरो पर हुकमरानी का विरासती हक नहीं रखते।
सच्चाई ताकत हैः-
मजीद बरां
इस्लाम निम्नलिखित बुनियादी उसूल भी पेश करता है।
1. सच्चाई ताकत है जिस से यह उसूल रद्द
होता है कि हम का दारोमदार ताकत पर है।
2. इंसाफ और कानून की हुकुमरानी लाजिमी है।
3. अकीदे और जिंदगी गुजारने की आजादी, जाती मलकियत की आजादी, नस्ल कुशी की आजादी
4. सेहत (जिस्मानी और जहनी) की अजादी और इस
का हक सलब नहीं किया जा सकता।
5. फर्द अपनी इन्फेरादी जिंदगी किसी बेरूनी
दखल अंदाजी के बगैर गुजारने का हक रखता है।
6. किसी भी इंसान को सबूत के बगैर मुजरिम
नहीं करार दिया जा सकता या उसे किसी दूसरे की जुर्म की सजा नहीं दी जा सकती।
7. मशावरत पर मबनी इंतिजामी निजाम कायम
करना अनिवार्य है।
इंसान के तमाम हुकूक एकसां अहमियत के हामिल हैं और मुआशरे के लिए फर्द के हुकूक को कुरबान नहीं किया जा सकता। इस्लामी मुआशरे मुराद ऐसे इंसानो पर मबनी मुआशरा है जोकि अपनी मर्जी में आजाद हों और अपनी जात और दूसरों के लिए उनका रवैया जिम्मेदारी पर मबनी हो और इस से भी बढ़ कर इस्लाम इंसानियत को एक “मोटर” की तरह देखता है जोकि तारीखी अमल में अपना किरदार अदा कर रही हो जोकि उन्नीसवीं सदी के मगरिबी तसव्वुरात जदीदियाती मादियत और तारीखियत के बरअक्स है जिस तरह इस दुनिया और आगे की जिंदगी का दारोमदार इंसान के इरादे और तर्जेअमल पर है उसी तरह एक मुआशरे की तरक्की या जवाल का दारोमदार भी उसी के बासियों की कुवते इरादी , दुनिया के बारे में तसव्वुर और तर्जे जिंदगी पर हर कुरआन पाक में इरशाद होता है। अल्लाह किसी कौम के हालात को नहीं बदलता जब तक वह खुद अपने आसाफ का नहीं बदल देती।बिल अलफाज दूसरे हर मुआशरे के मुकद्दर की लगाम उस के अपने हाथ में है नबी पाक के कौम के मुताबिक “जैसे तुम खुद हो गये हो वैसे ही तुम्हारे हुकमरान होंगे। यह हर जमहूरियत की बुनियादी रूह जोकि किसी भी इस्लामी तसव्वुर से बाहम मुतसादिम नहीं है।
चूँकि इस्लाम फर्द और मुआशरे को अपनी तकदीर का खुद जिम्मेदार ठहराता है इस लिए लोगों को अपना निजाम चलाने की जिम्मेदारी कबूल करनी चाहिए कुरआन पाक मुआशरे से मुखातिब होते हुए “ये इंसानो, और ये इमान वालो, का शब्द इस्तेमाल करता है। एक जमहूरी मुआशरे पर आयद होने वाली जिम्मेदारियां वही हैं जिन का जिक्र इस्लाम करता है और उन की दर्जाबंदी उनकी अहमियत के लिहाज से इंतेहायी अहम, निसबतन अहम और वाजिबी के तौर करता है। कुरआन करीम में इरशाद होता है। ये इमान लाने वालो तुम पूरे के पूरे इस्लाम में आ जाओ।
ये लोगो जो इमान लाये हो जो माल तुमने कमाये है और जो कुछ हमने जमीन से तुम्हारे लिए निकाला है इस में बेहतर हिस्सा राहे खुदा में खर्च करो। तुम्हारी औरतों में से जो बदकारी की मुरतकिब हों उन पर अपने में से चार आदमियों की गवाही ले लो। अल्लाह तुम्हें हुक्म देता है कि अमानियत अहले अमानत के सुपुर्द करो और जब लोगों के मध्य फैसला करो तो अदल के साथ करो।
ये लोगो जो इमान लाये हो इंसाफ के अलमबर्दार और खुदा वास्ते के गवाह बनो अगर तुम्हारे इंसाफ और तुम्हारी गवाही की जद खुद तुम्हारी अपनी जात पर या तुम्हारे वालिदैन और रिश्तेदारों पर ही क्यों न पड़ती हो। अगर दुश्मन सुलह और सलामती की तरफ मायल हों तो तुम भी उसके लिए आमादह हो जाओ।
अगर कोई
फासिक तुम्हारे पास खबर ले कर आए तो तहकीक कर लिया करो कहीं ऐसा न हो कि तुम किसी
गिरोह को निदास्ता नुकसान पहुंचा बैठो।
और अगर अहले इमान में से दो गिरोह आपस में लड़ जाएं तो उनके मध्य सुलह करो। फिलजुमला कुरआन पाक सारी इंसानियत से मुखातिब है और जदीद जमहूरिया की तमाम जिम्मेदारियां उसे सौंपता है।
लोग उन
फरायज की तकसीम के जरिए एक दूसरे की मदद करते हैं और उन की बजाआवरी के लिए जरूरी
बुनियाद कायम करते हैं। हुकूमत के इदारे में यह तमाम बुनियादें मौजूद होती है
लिहाजा इस्लाम की मुजव्वजह हुकूमत समाजी मुआहिदे पर कायम होती है आवामुलनास अपने
मुंतजमीन का चुनाव करते हैं और उमूमी मसायल पर बहस मुबाहिसा और गौर करने के लिए एक
काउंसिल तशकील देते हैं इस के अलावा बहैसियत कल भी इंतेजामिया का एहतिसाब करते
हैं। खासतौर पर हमारे पहले खलीफा (632-661) के समय में हुकूमत के बुनियादी उसूलों पर जिन का जिक्र ऊपर
किया जा चुका है मुकम्मल तौर अमल किया जाता था चैथे खलीफा हजरत अली की वफात के बाद
सियासी निजाम मलूकियत में बदल गया जिस की वजह अंदरूनी कशमकश और आलमी सूरतहाल थी।
खिलाफत के बरअक्स मलूकियत में इकतेदार सुल्तान के खानदान में ही एक दूसरे को
मुंतकिल होता रहता है बवजूद इसके कि आजादाना चुनावों का इन्येकाद नहीं होता, मुआशरों ने ऐसे उसूल बरकरार रखे जो कि
आजाद जमहूरियत की रूह हैं।
इस्लाम सबको साथ लेकर चलने वाला मज़हब है। यह खुदा की वहदानियत पर यकीन रखता है जो कि सब का खालिक, मालिक राज़िक और सारी कायनात का निजाम चलाने वाला है। इस्लाम पूरी कायनात का मज़हब है यानी की पूरी कायनात अल्लाह के बनाये हुए कवानीन की बुनियाद है लिहाजा इस तरह कायनात की हर चीज मुसलमान है और अल्लाह के बनाये हुए कवानीन पर चल कर उसकी इताअत करती है हत्ताकि खुदा को न मानने वाला शख्स या दूसरे मज़हब का पैरोकार भी जहां तक उसके जिस्मानी वजूद का तअल्लुक है लाज्मी तौर पर मुसलमान ही है पूरी जिंदगी मादरे रहम में वजूद में आने से लेकर मिट्टी मिल जाने तक इंसान का रेशा रेशा इस का बदन खालिक कायनात के बनाये गये कवानीन की पैरवी करता है उस तरह इस्लाम में खुदा, फितरत और इंसानियत न तो एक दूसरे से दूर हैं और न ही एक दूसरे के लिए अजनबी। यह अल्लाह की जात ही है जो खुद को फितरत के जरिए इंसानियत पर आश्कार करती है और इंसानियत तखलीक की दो ऐसी किताबे हैं जिन के हर शब्द से खुदा का वजूद जाहिर होता है और उस से इंसान को पता चलता है कि हर चीज का मालिक एक खुदा है। इस तरह इंसान को कायनात में कोई भी चीज अजनबी दिखायी नहीं देती, इंसान की हमदर्दी मोहब्बत और खिदमत सिर्फ किसी एक कौम, रंग या नस्ल के इंसानो तक महदूद नहीं रहती। हुजूर पाक ने यह बात यूं कही। “ये अल्लाह के बंदो आपस में भाई भाई (बहने) बन जाओ”
इस्लाम तमाम मजाहिब को तसलीम करता है
अहम नुकता
यह है कि इस्लाम अपने से पहले आने वाले तमाम आसमानी मजाहिब को तसलीम करता है जो कि
तारीख के मुखतलिफ इदारों में आए न सिर्फ यह कि इस्लाम उन्हें तसलीम करता है बल्कि
उन पर इमान को मुसलमान होने के लिए लाजमी शर्त करार देता है इस तरह इस्लाम तमाम
मजाहिब के बुनियादी इश्तेराक को तसलीम करता है। मुसलमान बएक वक्त हजरत इब्राहीम, हजरत मूसा, हजरत दाऊद, हजरत ईसा और दूसरे तमाम इबरानी अंबिया
को मानता है।
इस इमानी
पहलू से जाहिर होता है कि इस्लामी हुकूमतों के मुत्तहिद रहने वाले ईसाई और यहूदी
क्योंकर अपनी मजहबी हुकूक से मुसतफीद होते रहे।
इस्लामी
समाजी निजाम एक पाकीजा मुआशरा कायम करते हुए अल्लाह की खुशंउदी हासिल करना चाहता
है। यह इंसानी हुकूक को न कि ताकत को समाजी जिंदगी की बुनियाद तसलीम करता है उस
में तुसादुम की कोई गुंजाइश नहीं तअल्लुकात की बुनियाद, इमानो यकीन, प्यार मोहब्बत, बाहमी एहतेराम व तआवुन और हम आहंगी को
होनी चाहिए न कि जंग व जदल और जाती मुफादात का बढ़ावा, समाजी तालीम बलंदतर मकासिद के हुसूल और
तकमील जात की हौसला अफजायी करती है। उसका मतमअ नजर महज अपनी जाती ख्वाहिशात की
तसकीन को मुम्किन बनाया नहीं होता है।
हक की राह
पर चलने के लिए मुत्तहिद होना लाजमी है और नेकी और भलाई (तआवुन और यगांगत को जन्म
देती है और इमान व यकीन भाई चारे के माहौल को यकीनी बनाता है तकमील जात के लिए
कल्ब व रूह की हौसला अफजायी से हम दोनों जहानों में कामयाब व कामरान हो सकता है।
जमहूरियत
ने वक्त के साथ तरक्की की। जिस तरह माजी में यह मराहल से गुजरती रहें उसी तरह
मुस्तकबिल में भी उसका इरतेका और तरक्की जारी रहेगी और उस का यह उंसुर ज्यादा
इंसानी और मुंसिफाना शक्ल एखतियार करे गा एक ऐसा निजाम जो रास्तगी और सच्चाई पर
मबनी हो गया।
अगर नबी नूह इंसान को बहैसियत मजमूयी इसके रूहानी वजूद और वजूद और उसकी रूहानी जरूरियात को अलग किये बगैर देखा जाए और यह भुलाये बगैर कि इंसान की जिंदगी महज इस जहानेफानी तक महदूद नहीं बल्कि हयात जावेदानी की मुतमनी है तो फिर मुम्किन है कि जमहूरियत तकमील की इंतिहा को पहुंच कर पूरी इंसानियत के लिए मशर्रत व शादमानी को बाअस हो। बराबरी, बरदाश्त और इंसाफ के इस्लामी उसूल ही उसे मुम्किन बना सकते हैं।
इन दिनों
लोग कई चीजों मसलन जंग के खतरात आए दिन होने वाले तसादुम, फजायी और आबी आलूदगी, भूख जवाल पजीर अखलाकी अकदार और उसी
किस्म के दूसरे मौजआत के बारे में बातें कर रहे हैं। जिस के नतीजे में कई दूसरे
मौजूआत सामने आए हैं मसलन अमन, इतमेनान, माहौलियात, इंसाफ, रवादारी और बाहमी मुकालमा जैसे मामिलात बद किस्मती से
मसेवाय कुछ मौसर एहतियात तदाबीर एखतियार करने के इस मसले का हल तलास करने वाले
फितरत को मजीद मफतूह व मगलूब बनाते हुए मजीद मुहलिक हथियार बनाने में कोसां हैं।
इस मसले की
असल जड़ दरअसल मादियत पसंदाना तसव्वुर में पेवस्त है, जिस ने असरी समाजी जिंदगी में मजहब का अमल दखल बुरी तरह से
महदूद कर दिया है, और इस का
नतीजा इंसानियत और फितरत के माबैन और इंफेरादी सतह पर मर्दोजन के माबैन तवाजुन के
बिगाड़ की सूरत में निकला।
सिर्फ कुछ
लोगों का इस बात का एहसास है कि समाजी हमआहंगी, निजाम फितरत के साथ मवाफिकत, इंसानो के माबैन अमन व इत्तेफाक और फर्द की जात के अंदर
हुस्न तरतीब, सिर्फ इसी वक्त
हो सकती है जब जिंदगी के मादी और रूहानी पहलुओं में बाहमी मुफाहमत और जोड़ पैदा
होगा। निजाम फितरत के साथ मवाफिकत, समाज में अमन व इंसाफ और तकमील और तकमील जात सिर्फ उसी वक्त
हो सकती है बंदा अपने रब के साथ जुड़ा हो।
मजहब
बजाहिर मुतजाद चीजों मसलन मजहब और साइंस, दुनिया और अखिरत, फितरत और सहाएफ आसमानी, मादियत और रूहानियत और रूह व जिस्म में हमआहंगी और मुफाहमत
पैदा करता है मजहब साइंस मादा परस्ती से होने वाले नुकसानात के खिलाफ एक मजबूत
दिफा का काम करता है। साइंस को इस के दुरूस्त मकाम पर लाता है और अकवाम और लोगों
के माबैन तसादुम को खत्म करता है।
फितरी
साइंस एक रोशन जीने के बजाए जो कि रब कायनात से करीब का जरिया बनती है यकीनी और बे
एतकादी का एक ऐसा जरिया बन चुकी हैं जिस की माजी में मिसाल नहीं मिलती क्योंकि
मगरिब इस बे एतेकादी का असल मरकज बन चुका है और ईसाईयत इससे सबसे ज्यादा मुतासिर
हुई है इस लिए ईसाईयों और मुसलमानों के माबैन मुकालमा न गुजीर हो चुका है। बैनुल
मजाहिब मुकालमे का मकसद महज यह नहीं कि साइंस मादह परस्ती को नेस्त नाबूत करते हुए
इस का आलमी सतह पर तबाहकुन तसव्वुर खत्म किया जाए बल्कि मजहब की असल रूह इस चीज की
मुतकाजी है। यहूदियत, ईसाईयत और
इस्लाम और हत्ता कि हिन्दूइज्म और दूसरे मजाहिब एक ही मंबा को तसलीम करते हैं और
बसमूल बुद्धमत उसी मकसद के हुसूल के लिए कोशां है बहैसियत एक मुसलमान में तमाम
अंबिया और तारीख में मुखतलिफ कौमों के लिए भेजी जाने वाली तमाम आसमानी किताओं पर
इमान रखता हूँ और उन पर इमान रखने को बतौर मुसलमान लाजमी समझता हूँ एक मुसलमान
हजरत इब्राहीम, हजरत मूसा, हजरत दाउद, हजरत ईसा और दूसरे तमाम अंबिया का सच्चा
पैराकार होता है। किसी एक भी नबी या आसमानी किताबों पर इमान न रखने का मतलब
मुसलमान न होना है इस लिए हम मजहब की वहदत बुनियादी यकजहती पर यकीन रखते हैं जो कि
रब्बे कायनात की रहमत का जरिया और मजहब पर इमान की आफादियत की दलील है।
लिहाजा इस
तरह मजहब इमान का एक ऐसा निजाम है जो तमाम नस्लों और तमाम अकायत को अपनी आगोश में
लेता है और एक ऐसी शाहेराह है जो कि हर फर्द को भाई चारे के हेमागीर दायरे में
लेती है।
कतअ नजर इस
के हर मजहब के पैरोकार अपनी रोजमर्रा जिंदगी में किस तरह इस पर अमल पैरा होते हैं
मजहब बिलउमूम प्यार मोहब्बत बाहमी एहतेराम रवादारी, अफू व दरगुजर, खुदातरस्ती, इंसानी हुकूक की पासदारी, अमन आशती, भाई चारे
और आजादी जैसी अकदार को प्राथमिकता देता है। इनमें से अकसर अकदार को हजरत मूसा, हजरत ईसा और मुहम्मद के पैगाम में
नुमाया हैसियत हासिल थी और इस के साथ साथ बुद्ध, जरथ्रुस्त, लावोजु, कन्फ्यूशिस और हिन्दू स्कालरज के पैगाम
में भी।
हमारे पाक
नबी पाक हजरत मुहम्मद को बयान मौजूद है जिसका जिक्र गालिबन हदीस की तमाम किताबों
में मौजूद है कि दुनिया के खातमे के करीब हजरत ईसा को फिर से जहूर होगा, हम यह नहीं जानते कि आया उन का जहूर
जिसमानी तौर पर होगा लेकिन हम यह जानते हैं कि जब आखिरी जमाना करीब आएगा तो प्यार
मोहब्बत, अमन, भाई चारा, अफू, दरगुजर, खुदातरस्ती और रूहानी पाकीजगी जैसी अकदार को औवलियत हासिल
होगी जिस तरह हजरत ईसा के दौर में थी मजीद यह कि हजरत ईसा को यहूदियों की तरफ भेजा
गया था और क्योंक तमाम इबरानी अंबिया ने उन्हीं अकदार को औवलियत दी इस लिए
यहूदियों से मुकालमा जरूरी हो गया और इस्लाम, ईसाईयत और यहूदियत के माबैन करीबी तअल्लुकात भी लाजमी तौर
पर कायम करने होंगे।
कट्टर मुसलमानों, ईसाईयों और यहूदियों के माबैन मुकालमे के कई मुशतरिक निकात हैं, जैसा कि फलसफे के एक अमरीकी प्रो. माइकल स्कोगरवर्ड ने कहा कि मुसलमान और यहूदी को एक दूसरे से करीब लाने की। नजरियात और मजहबी वजूहात इतनी ही हैं जितनी की ईसाईयों और यहूदियों को एक दूसरे से करीब लाने की। मजीद यह कि अमली और तारीख तौर पर इस्लामी दुनिया ईसाईयों से मुआमिलात तय करने का बेहतर रिकार्ड रखती है। इनके माबैन न तो कोई इम्तियाज है और न ही कोई होलोकास्ट, इसके बरअक्स मुश्किलात के दोर में हमेशा उन्हें खुश आमदीद कहा गया है। मसलन यहूदियों को स्पेन से निकाले जाने के बाद सल्तनत उस्मानिया ने उन्हें गले लगाया।
बाहमी मुकालमा और मुसलमानों की मुश्किलात
ईसाईयों, यहूदियों और दूसरों को बाहमी मुकालमे की
सूरत में अंदरूनी मुश्किलात का सामना हो सकता है मैंने कुद वजूहात को जायजा पेश
किया करना चाहूँगा जिन की बिना पर मुसलमानों को मुकालमा में मुश्किलात पेश आ सकती
हैं और यही वजूहात इस्लाम के बारे में पैदा होने वाली गलत फहमी की जिम्मेदार हैं।
फिलर और
लेसर के मुताबिक सिर्फ पिछली सदी में मगरिबी ताकतों के होथों जितने मुसलमान शहीद
हुए पूरी तारीख में मुसलमान के हाथों हलाक होने वाले ईसाईयों की संख्या इस के
बराबर नही। कई मुसलमान इससे भी ज्यादा संख्या पेश कर रहे हैं। ओर इस यकीन का इजहार
कर रहे हैं कि मगरिबी पालिसियों का मकसद मुसलमानों को कमजोर करना है। यह तारीखी
तर्जुबा पढ़े लिखे और बशवूर मुसलमानों के दिलों में पुख्ता करने का बाअस बन रहा है
कि मगरिब इस्लाम के खिलाफ एक हजार वर्ष पुरानी जारिहत को जारी रखे हुए है और इस से
भी बढ़कर तल्ख हकीकत यह है कि इसके लिए इंतेहायी जदीद और पेचीदह तरीकाकार बरूएकार
लाये जा रहे हैं। नतीजतन कलेसा की तरफ से मुकालमे की दावत को शक व शुबा की निगाह
से देखा जा रहा है मजीद बरां इस्लामी दुनिया बीसवीं सदी में मगरिब के बराहरास्त या
बिलवास्ता गल्बे के साये में दाखिल हुई इस दुनिया के सब से बड़ी नुमाइंदा और
मुहाफिज सल्तनत उस्मानिया मगरिब हमलों की बिना पर जमीनबोस हुई तुर्की ने बैरूनी
हमलों के खिलाफ मुसलमानों की कोशिश की बड़ी लिदचस्पी से हिमायत की मजीद यह कि 1950 ई. की दहाई में तुर्की के अंदर
डेमोक्रेटिक पार्टी और पीपलज पार्टी के बाहमी तसादुम की वजह से इस्लाम के बारे में
मजाहमत पसंदो और बाज अवकात दानिशवरों के जहनों में इस्लाम को तसादुम पजीर मजाहमती
और सियासी निजाम का तसव्वुर पैदा हुआ बजाय इसके इस एक इंसान की कल्बी, रूहानी और फिक्री इस्लाह करने वाला मजहब
समझा जाता बाज इस्लामी मुमालिक बसमूल तुर्की में इस्लाम की किसी जमाअत की
आडियोलाजी समझने की वजह से इस तसव्वुर को मजीद तकवियत मिली।
इसके नतीजे में सेकुलर सोच के हामिल अफराद और बाज दूसरे लोगों ने मुसलमानों और इस्लामी सरगर्मियों को शक की निगाह से देखना शुरू कर दिया। इस्लाम को एक सियासी नजरिए के तौर पर भी देखा जाने लगा क्योंकि मुसलमानों की जंग आजादी को बाअस बनता है जबकि मजहब इंसान के जहन को रोशनी अता करने के साथ साथ इमान तवक्कल सुकूने कल्ब, एहसास और तजुर्बा की बुनियाद पर अदराक की कुवत बख्शता है। मजहब की बुनियाद रूह इंसान में इमान, मोहब्बत, खुदातरस्ती और हमदर्दी पैदा करना है इस्लाम को एक सख्तगीर सियासी नजरिया और आजादी हासिल करने के नजरिए तक महदूद करने से इस्लाम और मगरिब के माबैन एक दीवार खड़ी कर दी गयी और इस की बिना पर इस्लाम के हवाले से गलत फहमियां पैदा हो गयीं।
ईसाई तारीख
ने तारीख ने इस्लाम की जो शक्ल पेश की उस की बिना पर बैनुल मजाहिब मुकालमे के
हवाले से मुसलमानों के एतेमाद को ठेस पहुंची कई सदियों तक ईसाईयों को यह बावर
कराया गया कि इस्लाम यहूदियत और ईसाईयत की एक बिगड़ी हुई शक्ल है और उस तरह नबी पाक
को (नउज बिल्लाह) एक बनावटी, और हजरत
ईसा को मुखालिफ बना कर पेश किया जाता है रहा जिस की मुसलमान एक देवता के तौर पर
परस्तिश करते हैं हत्ता कि आजकल किताबों में भी आप को एक अजीबो गरीब तसव्वुरात के
हामिल शख्स के तौर पर जो हर सूरत में कामयाबी हासिल करना चाहता हो के तौर पर पेश
किया जाता है।
मुकालमा जरूरी है: आज बैनुल
मजाहिब मुकालमे की अशद जरूरत है और इसके लिए पहले कदम के तौर पर हमे माजी को
फरामोश करना होगा मुनाजिरे बाजी को खत्म करना होगा उमूमी निकात को तरजीह देने की
रूझान को खत्म करना होगा जो कि मनाजिरे बाजी से भी ज्यादा से भी ज्यादा बढ़कर है
मगरिब में दानिशवरों और मजहब पेशवाओं के रवैयों में इस्लाम के हवाले से तबदीली नजर
आ रही है यहां पर मेसीगनन (मरहूम) को हवाला खुसूसी तौर पर देना चाहुंगा जिन्होंने
इस्लाम के बारे में अपने ख्यालात को इजहार कुछ इस तरह से किया “हजरत इब्राहीम अलैहसलाम का दीन जिस का अहया मुहम्मद ने किया” वह यह यकीन रखते हैं कि ईसाईयत के बाद के दौर में इस्लाम का
किरदार मुस्बत बल्कि पैगम्बराना है इस्लाम एक इमान व यकीन का दीन है यह फलसफों के
खुदा पर फितरी यकीन को दीन नहीं बल्कि इब्राहीम के खुदा, इसहाक के खुदा, इस्माईल के खुदा
पर इमान का दीन है यह रजाए इलाही को एक अजीम इसरार है वह कुरआन की खुदाई तसनीफ और
मुहम्मद की नबूवत पर यकीन रखते हैं।
हमारे नबी
पाक के हवाले से मगरिब के तसव्वुर में भी कुछ नरमी पैदा हुई है ईसाई पेशवाओं के
साथ साथ कई मगरिबी मुफक्किरीन मेसिगनन, चाल्र्स जे लेडिड, वाये मुबारक, आयरीन एम डाल्म्स, एल गारडिट, नारमन
डेनियल माइकल ली लांग, एच मारियर, आलिव ले कोम्बे और थामस मर्टिन ने
इस्लाम और नबी पाक दोनों के लिए गरमजोशी जाहिर की है और मुकालमें की जरूरत की भी
हिमायत की है इसके अलावा सेकंड वेटिकन काउंसिल ने भी जिस ने बाहमी मुकालमे के अमल
का आगाज किया यह है कि इस्लाम को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता इसका मतलब यह हुआ कि
इस्लाम के बारे में कैथोलिक चर्च को रवैया तबदील हो चुका है काउंसिल के दूसरे दौर
में पाॅप पाल (छठे) ने कहा।
“दूसरी तरफ कैथोलिक चर्च इससे भी बढ़ कर ईसाईयत के उफक से परे देख रहा है अब उन दूसरे मजाहिब की जानिब मुतवज्जह हो रहा है जो एक खुदा का तसव्वुर महफूज रखते हैं जो बरतर, सब को खालिक और हमारी किस्मत और फहम व दानिश को मालिक है यह मजाहिब खुदा की इबादत पूरे खुलूस और अमली अकीदत के इजहार के जरिए करते हैं। उन्होंने इस चीज को भी निशानदही की कि कैथोलिक चर्च इन मजाहिब के खैर, सच्चाई और इंसानी पहलुओं की भी तारीफ व तौसीफ करता है
“चर्च इस बात की तौसीक करता है कि जदीद
मुआशरे में मजहब के मफहूम के साथ बर करार रखने के लिए और खुदा की बंदगी की खातिर
चर्च अज खुद बंदे पर खुदा के हुकूक की सखती से ताईद करने वाला बनेगा ।
नतीजतन
आखिर में जारी किये गये तहरीर बयान में जिस को उनवान कलेसा के गैर ईसाई मजाहिब से
तअल्लुकात का अलमिया था कहा गया कि हमारी दुनिया में जो क सिकुड़ चुकी है और जहान
तअल्लुकात में ज्याद कुरबत आ चुकी है लोग मजहब से इंसानी फितरत के उन पर इसरार
पहलुओं के हवाले से जो इंसान के दिल को उलट पलअ देते है तसल्ली कख्श जवाब चाहते
हैं। इंसान क्या है? जिंदगी को
मफहूम और मकसद क्या है? नेकी और
भलाई क्या है? इसका अजर क्या है? और गुनाह क्या है? अजीयत और इबतेला का मंबा क्या है? हकीकी खुशी हासिल करने का कौन सा रास्ता
है? मौत क्या है मरने के बाद आमाल की जांच
परख क्या है और दुनिया आमाल के बदले मिलने वाले समर का मामला क्या है? अदम और वजूद का इसरार क्या है।
इन मौजूआत
के हवाले से दूसरे मजाहिब अपने अपने तुकताहाय नजर रखते हैं और यह कि चर्च दूसरे
मजाहिब की अकदार को कलीतौर पर रद्द नहीं करता काउंसिल दूसरे मजाहिब के मेम्बरान से
बाहमी मुकालमे की हौसला अफजायी करता है।
चर्च अपने फरजिंदो की बतौर ईसाइ जिंदगी बसर करने की हौसला अफजायी करने के साथ साथ दूसरे मजाहिब के पैराकारों के बारे में मुहतात अंदाज में हमदर्दी के साथ मुकालमे के जरिए और उनके साथ तआवुन करते हुए उन्हें समझने की और उनमें इखलाकी और समाजी अकदार के फरोग की हौसला अफजायी करता है। एक दूसरा अहम तुकता यह है कि पाप जान पाल (द्वितीय) अपनी किताब “Crossing The Threshold of Hope” में (मुसलमान की लापरवाही की बावजूद) यह कहते है कि मुसलमान ही सब से बेहतर अंदाज में ध्यान के साथ इबादत करते हैं वह अपने कारईन को इस बात की याद दिहानी करवाते है कि इस हवाले से ईसाईयों को मुसलमानों को एक मिसाली नमूना के तौर पर लेना चाहिए। इसके अलावा आज के जदीद दुनिया में मादियत के तसव्वुरात की इस्लाम की तरफ से मजाहमत और इस के अहम किरदार पर भी मगरिबी मुबस्सिरीन हैरान हैं ई. एच. जरजी की इस हवाले से मुशाहदाद बहुत अहम हैं।
अपनी
अहमियत, अपनी बका और हकीकत मंदाना जज्बा के
हवाले नसली और मारकसी तसव्वुरात के खिलाफ एकजहती के हवाले से इस्तेहसाल की खुली, मजम्मत के हवाले से भटकी हुई और खून
आलूदह इंसानियत के हवाले से इस्लाम आज की जदीद की दुनिया का सामना एक खुसीसी मिशन
के हवाले से करना है न तो मजहबी बारीकियों की बिना पर इस्लाम किसी मखमसे को शिकार
है ओर न ही यह अंदर से बंटा हुआ है उसूल व अकायद के कट्टरपन के बोझ तले भी नहीं दबा
हुआ अजम की पुखतगी का मंबा इस्लाम और जदीद दुनिया का तवाफिक है।
मुसलमान और
मगरिब करीबन चैदह सौ बरस से एक दूसरे से नंबर्दआजमा हैं मगरिब के नुकतानजर से
इस्लाम ने मगरिब में कई दिशाओं से दरांदाजी की और उस के लिए खतरे का बाअस बना यह
हकायक अब तक नहीं भुलाये गये।
हकीकत यह
है कि महाज आराई की बिना पर मुसलमानों का मगरिब की मुखलिफत करना या उन्हें नपसंद
करना इस्लाम और मुसलमानों दोनों के लिए फायदामंद नहीं है जदीद जराए मवासलात और नकल
व हमल ने पूरी करह अर्ज को एक आलमी गाँव मे तबदील कर दिया है और अब हर किस्म के
तअल्लुकात बाहमी असरात के हामिल है।
मगरिब इस्लाम या इस की सरजमीन को सफहे हस्ती से नहीं मिटा सकती और न ही मुसलमान फौजें मगरिब की सरजमीन पर पेश कदमी कर सकती है। मजीद बरां अब जबकि दुनियां में बाहमी ताम्मुल मजीद बढ़ चुका है दोनो दिशाओं में कुछ लो और कुछ दो की बुनियाद पर तअल्लुक उसतवार करना चाहती हैं मगरिब साइंस, टेकनालाजी, माशियात और फौजी बरतरी रखता है ताहम इस्लाम जिस चीज का मालिक है वह ज्यादा अहम अवामिल हैं जैसा कि कुरआन और सुन्नत उसे पेश करते हैं इस्लाम ने अपने अकायद को इस की रूहानी माहियत को नेकी और भलाई के तसव्वुर को इखलाकियात को बरकरार रखा है और गुजिश्ता चैदह सदियों से इस्लाम के तमाम पहलू खुलते चले जा रहे हैं इस के अलावा इस में मुसलमान के अंदर एक नई रूह और जिंदगी फूंकने की कुवत छुपी है जोकि कई सदियों से ख्वाबदीदा और इस के अलावा कई दूसरे इंसानों में भी जो कि मादह परस्ती की दलदल में फंसे हुए है।
कोई भी
मजहफ फलसफे और साइंस की आंधी से मुतासिर होने से नहीं बच सका और वसूक से नहीं कहा
जा सकता कि आगे यह आंधी शिद्दत एखतियार नहीं करेगी यह और कई दूसरे अवामिल
मुसलमानों को इस बात की इजाजत नहीं देते कि यह इस्लाम को खालिस्तन एक सियासी और
मुआशी नजरिए के तौर पेश करें और न ही यह अवाम मुसलमानों को इस चीज की इजाजत देते
है कि मुसलमान मगरिब ईसाईयत यहूदियत और कई दूसरे प्रसिद्ध मजाहिब मसलन बुद्धमत को
तारीखी तनाजुर में देखें और इसके मुताबिक रवैया अपनाए।
वह लोग
जिन्होंने इस्लाम को एक साइंस नजरिए के तौर पर न कि एक मजहब के तौर पर एखतियार
किया है उन्हें जल्द ही इस बात को एहसास हो जाएगा कि इसके पीछे कारफरमा कुवत जात
या कौमी जाती या कौमी अनादो नफरत और उस किस्म कि महररिकात थे।
अगर यह बात
हो तो हमें इस्लाम को तसलीम करते हुए बुनियादी नुकता आगाज के तौर पर इस्लामी तर्ज
अमल को न कि मौजूदा जबर ज्यादती को अपनाना चाहिए कि हजरत मुहम्मद ने सच्चा मुसलमान
उन्हें करार दिया जो अपने कलाम और अमल से किसी को नुकसान नहीं पहुंचाते और आलमी
अमन के सब से ज्यादा काबिल भरोसा नुमाइंदा हैं मुसलमान जहां कहीं भी जाते हैं इस
बलंदतर एहसास के साथ जाते हैं कि जो उन के दिल की गहराई में परवरिश पा रहा होता है
किसी के लिए इजाद सानी या तकलीफ का बाअस होने के बरअक्स यह अमन और सलामती को नमूना
हैं उन के नजदीक जिस्मानी या जबानी तशद्दुद मसलन गीबत, तुहमत, तजहीक या तंज व तसना में कोई फर्क नहीं होता हमारी सोच और
फिक्र को नुकता आगाज इस्लामी बुनियादों पर होना चाहिए मुसलमानों को बाहमी मिलाप व
इश्तेराक सियासी या नजरियाती बुनियाद पर नहीं होता जैसे बाद में महज दिखावे के लिए
इस्लाम का लबादा पहना दिया जाता है या महज अपनी ख्वाहिशात को नजरियात के तौर पर
पेश कर दिया जाए अगर हम इस रूझान पर काबू पा लें तो इस्लाम की असल शक्ल व सूरत
वाजे होगी इस्लाम की मौजूदा मस्खशुदा शक्ल जो कि गलत इस्तेमाल को नतीजा है और जो
मुसलमानों और गैर मुस्लिमों के हाथों हुई इसने मुस्लिम और गैरमुस्लिम दोनो को
खौफजदह कर दिया।
सिडनी
गिरेफ्थ एक अहम हकीकत कि तरफ इशारा करते हैं जिस के तनाजुर में मगरिब इस्लाम को
देखता है वह कहते हैं अमरीका यूनिवर्सिटी में इस्लाम को एक दीन के तौर पर नहीं
पढ़ाया जाता बल्कि सियासत या बैनुल अकवामी तअल्लुकात के डिपार्टमंट में उसे
पालिटिकल साइंस के तौर पर पढ़ाया जाता है और इस्लाम दुनिया के मगरिब जदह हल्कों में
और एशिया और अफरीका में गैर मुस्लिमों में भी यही तसव्वुर मौजूद है ज्यादा हैरानगी
की बात यह है कि इस्लाम के परचम तले आगे बढ़ने वाले कई गिरोहों ने इस्लाम का यही
तसव्वुर बरामद किया है और उसी तसव्वुर को तकवियत दी हैं
मुकालमा के लिए इस्लाम को आफाकी पैगामः-
चैदह सौ
साल कब्ल इस्लाम की पुकार उन सब में अजीम तर थी जिस को तजुर्बा दुनिया को कभी भी
हुआ था कुरआन पाक अहले किताब से मुखातिब होते हुए कहता है।
“ये अहले किताब और एक ऐसी बात की तरफ जो
हमारे और तुम्हारे मध्य एकसां हो। यह एक हम अल्लाह के किसी की बंदगी न करें इस के
साथ किसी को शरीक न ठहरायें और हम में से कोई अल्लाह के सिवा किसी को अपना रब न
बनाये। इस दावत को कबूल करने से अगर वह मुंह मोड़े तो साफ कह दो कि गवाह रहो हम तो
मुस्लिम (सिर्फ खुदा की बंदगी और इताअत करने वाले) हैं। यह पुकार जो कि नौ हिजरी में आई उस का
आगाज (अरबी) “ला” से हुआ यानी “नहीं” जोकि दीन इस्लाम में ला इलाहा इल्लल्लाह, के तौर पर मुकम्मल हुक्म है किसी मुसबत
चीज को हुक्म देने की बजाए बाज काम न करने को कहा गया है ताकि इल्हामी मजाहिब के
पैरोकार अपनी बाहमी दूरी को खत्म कर सकें एक ऐसा वसीह तर्जुमान जिस पर तमाम मजाहिब
के लोग मुŸाफिक हो सकें अगर
लोग इस पुकार को मुस्तरद करते है तो फिर उनके लिए कुरआन पाक की यही आयत थी। “तुम्हारे लिए तुम्हारा दीन और मेरे लिए
मेरा दीन”
यानी इसका
मतलब यह हुआ कि अगर दूसरे इस पुकार को कबूल नहीं करते तो हम अपने तौर पर अल्लाह के
हुजूर सर बसूजूद है हम इस राह पर चलते रहेंगे जो हम ने चुनी है और तुम्हें और
तुम्हें तुम्हारी राह मुबारक हो।
अलमालियाती
हामिदी याजर जो कि एक प्रसिद्ध तुर्क मुफस्सिरे कुरआन है ने इस कुरआनी आयत के बारे
में बड़ी दिलचस्प बात कही।
“इससे जाहिर होता है कि किसी तरह मुखतलिफ उफकार” अकवाम मजाहिब और आसमानी सहायफ को एक फिक्र और सच्चाई में समो दिया गया और उसे किस तरह इस्लाम ने इंसानियत को निजात और आजादी को वसीह, फराख और सच्चा रास्ता दिखाया, यह बात बिल्कुल वाजेह है कि यह महज अरब और गैर अरब तक महदूद नहीं है मजहबी तरक्की फिक्री तंग नजरी और एक दूसरे से दूरी से मुम्किन नहीं बल्कि उनकी अफादियत और उसअत पर मुंहसिर है। इस्लाम ही फिक्री उसअत और निजात की यह शाहेराह है और आजादी को यह उसूल हमारे लिए एक तोहफे की हैसियत रखता है बदीउलजमा नूरसी ने दायरा इस्लाम की कुशादगी को इस्तांबुल की बयजीद मस्जिद में इस तरह बयान किया।
एक बार
मैंने इस्म जमीर “हम” पर गौर किया जो कि एक आयत में यूं
इस्तेमाल हुआ है “हम” तेरी ही इबादत करते हैं और तुझी से मदद
मांगते हैं।
और मेरा जी
चाहा कि मै इस बात की वजह जान सकूं कि “मैं” की बजाए “हम” का शब्द क्यों इस्तेमाल हुआ है और अचानक मुझे बजमाअत नमाज
की सिफत और उस में पोशीदा हिकमत समझ में आयी।
मैंने देखा
कि बयजीद मस्जिद में नमाज की बजमाअत अदायगी से हर फर्द मेरी सिफाअत कि दुआ करने
वाला बन किया था और जब तक मैं कुरआन की केरात करता रहा हरेक मेरी गवाही देता रहा।
इज्तेमाई तौर पर किए जाने वाले बंदगी के इजहार ने मुझे यह हौसला दिया गया मैं अपनी टूटी फूटी नमाज को बारगाह इलाही में पेशकर सकूं। अचानक मुझ पर एक और हकीकत को इंकेशाफ हुआ इस्तांबुल की तमाम मसाजिद एक साथ बा यजीद की सरपरस्ती में आ गयीं
मुझे यूं
महसूस हुआ कि यह सब मेरे मकसद की तौसीह कर रही हैं और हर फर्द ने मुझे अपनी नमाज
में सामिल कर लिया है। इस वक्त मैंने खूद को एक मस्जिद में पाया जोकि खाना ए काबा
को चारों तरफ से दायरे में लिए हुई मजासिद में से एक थी। मेरे मुंह से निकला “ये अल्लाह तमाम तारीफें तेरे लिए ही हैं
मेरे पास शिफाअत की दुआ करने वाले इतने बंदे हैं यह सब हैं यह सब भी वही कह रहे
हैं जो मैं कह रहा हूँ और मेरी बात की तौसीक कर रहे हैं।
इस हकीकत
के इंकेशाफ के बाद मैं ने खुद को काबा के सामने खड़ा पाया इस मौका से फायदा उठाते
हुए मैंने कतार दर कतार खड़े होकर नमाजियों को गवाह बनाया और कहा मैं गवाही देता
हुँ कि अल्लाह के सिवा कोई माबूद नहीं और मुहम्मद अल्लाह के रसूल हैं।
मैंने इस
शहादत का गवाह हजरे असवद को भी बनाया और अचानक मुझ पर एक और इंकेशाफ हुआ मैंने
देखा वि वह जमात जिसके साथ मैं नमाज अदा कर रहा था तीन दायरों में तकसीम हो गयी।
पहली जमात
अल्लाह और उसकी वहदत पर इमान रखने वालों की थी दूसरी दायरे में अल्लाह की तमाम
मखलूकात अल्लाह को याद कर रही थी हर मखलूकात अपने अंदाज में इबादत में मसरूफ थी और
मैं भी उस जमात में शरीक था तीसरे दायरे में मैं ने एक अजीब हल्क़ा देखा तो बजाहिर
छोटा था लेकिन फर्ज के हवाले से और मेआर के हवाले से बहुत बड़ा था मेरे जिस्म के
जरात से लेकर खारजी हवास तक हल हल्का बंदगी और इताअत में मसरूफ था।
संक्षेप में यह कि इस्म जमीर “हम” जोकि “हम तेरी इबादत करते हैं” में इस्तेमाल हुआ है उन तीनो जमातों को जाहिर करता है मैंने तसव्वुर किया कि हमारे नबी जोकि कुरआन की अमली तफसीर हैं मदीना में खड़े हैं नबी नूह इंसान से मुखातिब होते हुए कह रहा है लोगो बंदगी एख्तियार करो अपने रब की। दूसरे इंसानों की तरह मैंने भी उस हुक्म को अपनी रूह में उतरते महसूस किया और मेरी तरह सब ने जवाब में कहा “हम तेरी ही इबादत करते हैं”
कुरआन पाक
में अल्लाह तआला फरमाते हैं ये अल्लाह की किताब है, इसमें कोई शक नहीं। यह हिदायत है इन परहेजगार लोगों के लिए
जो गैब पर इमान लाते हैं बाद में यह बताया गया है कि यह मुत्तकी लोग वह हैं।
जो गैब पर
इमान लाते हैं, नमाज कायम करते
हैं जो रिज्क हमने उनको दिया है उस में से खर्च करते हैं जो किताब तुम पर नाजिल की
गयी है (यानी कुरआन) और जो किताबें तुमसे पहले नाजिल की गयी थीं उन सब पर इमान
लाते हैं और आखिरत पर यकीन रखते हैं।
कुरआन पाक इब्तेदा ही से बड़े तीखे अंदाज में लोगों से पहले वाले अंबिया और उनकी किताबों पर इमान लाने को कहा है कुरआन पाक की इब्तेदा में ही यह शर्त मेरे लिए बहुत अहम है और खास कर दूसरे मजाहिब के पैरोकारों के साथ मुकालमा के हवाले से एक दूसरे आयत में अल्लाह तआला हुक्म देते हैं। और अहले किताब से बहस न करो मगर उम्दा तरीके से इस आयत से पता चलता है कि कौनसा अंदाज और कौन सा तर्ज फिक्र अपनाना है बदीउलजमा को नुकत ए नजर और इंतिहाई मुंफरिद है कोई भी शख्स जो अपनी मुखालिफ को बहस में शिकस्त देना चाहता हो रहम के जज्बे से खाली है।
वह मजीद
वजाहत करते हुए कहते हैं अगर तुम्हें
शिकस्त हो जाय और दूसरा फतहयाब हो जाए तो आप को अपनी खामी दूर करनी चाहिए अपनी अना
कि तसकीन के लिए नहीं होनी चाहिए बल्कि हकायक की जानकारी के लिए हो एक और जगह आता
है।
अल्लाह तुम्हें इस बात से नहीं रोकता की तुम उन लोगों के साथ नेकी और इंसाफ को बरताव करो जिन्होंने दीन के मामले में तुम से जंग नहीं की और तुम्हें तुम्हारे घरों में से नहीं निकाला है अल्लाह इंसाफ करने वालों को पसंद करता है। बाज लोगों के मुताबिक बाज आयात में अहले किताब पर शख्त तंकीद की गयी है दर हकीकत इस किस्म की गलत रवियों के खिलाफ ज्यादा शख्त तंकीद मौजूद है ताहम इस किस्म की शख्स तंकीद के बाद लोगों के दिलों को सच्चाई के लिए बेदार करने और उम्मीद पैदा करने के लिए नरम वाक्य इस्तेमाल किये गये हैं।
इस के
अलावा कुरआन पाक ने यहूदियों, ईसाईयों और
मुशरिकों के जिन रवियों पर तंकीद की है उनका रूख उन मुसलमानों की तरफ भी है जो इस
किस्म के तर्ज अमल को शिकार हुए कुरआन पाक के कारी और मुफस्सिर दोनों इस बात पर
मुत्तफिक हैं इल्हामी मजाहिब बद नजमी ओर बे तरतीबी, धोखा व फरेब फसाद और जुल्म की सख्ती से मुमानियत करने हैं
इस्लाम को लफजी मतलब अमन, सलामती और
भलाई है फितरी तौर पर अमन, सलामती और
भलाई का दीन होने के नाते इस्लाम जंग को एक गलत रविये के तौर पर देखता है जिस पर
काबू पाना चाहिए ताहम जाती दिफाअ को मामला इस्तेसनाई है इस तरह के एक जिस्म अपने
ऊपर हमलावर होने वाले जरासीम के खिलाफ लड़ता है ताहम जाती दिफाअ भी कुछ रहनुमा उसूल
के मुताबिक होना चाहिए इस्लाम ने हमेशा अपन और भलाई की बात की है जंग को एक हादसा
करार देते हुए इस्लाम ने जंग को भी मुतवाजिन बनाने और एक हद में रखने के लिए कानून
बनाये हैं मिसाल के तौर पर इस्लाम इंसाफ और आलमी अमन को इस तरह लेता है।
किसी गिरोह की दुश्मनी तुम को इतना मुशतअल न कर दे कि इंसाफ से फिर जाओ। इस्लाम ने जो दिफायी हद तखलीक की इस की बुनियाद मजहब जान व माल, फिक्र और नस्ल कुशी को तहफ्फुज करने वाले उसूल थे। मौजूदा कानूनी निजाम ने भी यही कहा है।
इस्लाम
इंसानी जिंदगी को सब से ज्यादा कीमती समझता है इस्लाम एक इंसान के कत्ल को पूरी
इंसानियत को कत्ल समझना है। किसी एक इंसान के कत्ल से मुराद किसी भी इंसान को कत्ल
लिया जाए। हजरत आदम को बेटा काबील पहला कातिल था अगर उनकी नाम कुरआन पाक या सुन्नत
में तखसीस के साथ नहीं दिये गये लेकिन हम आंजिल में पड़ते हैं कि काबील ने हाबील को
गलत फहमी की बिना पर रिकाबत की आग में जल कर नाजायज तौर पर कत्ल कर दिया था।
इस तरह खून
खराबे के दौर का आगाज हुआ उसी एक बिना पर एक दहीस में नबी पाक फरमाते हैं
“जब भी एक नाजायज कत्ल किया जाता है तो
उस को कुछ गुनाह काबील के हिस्से में भी जाता है क्योंकि उसने नाजायज कत्ल की राह
खोली थी।
कुरआन पाक में यह भी इरशाद होता है कि जिस किसी ने एक इंसान
को कत्ल किया गोया उसने पूरी इंसानियत को कत्ल किया और जिस ने किसी एक इंसान की जान बचाई उसने
सारे इंसानियत की जान बचाई।
आदर्श मोमिन, आदर्श मुस्लिम
मुसलमान वह है जिसकी जबान
और हाथ से दूसरे मुसलमान महफूज रहें। और मुहाजिर वह है जो अल्लाह की मनाकर्दा
चीजों से रूक जाए।
आइये! जरा इस हदीस का
तज्जिया करे,
गौर
करे यहां शब्द मुस्लिम से पहले “अल” है उससे यह मालूम होता है कि इससे मुराद वह मिसाली मोमिन
हैं, जो अमन व तहफ्फुज की फिज़ा
में इस कदर दाखिल हो चुके हैं कि वह अपने हाथों और जबान से किसी को तकलीफ नहीं
पहुंचाते। यह सिर्फ इन मिसाली मुसलमानों की बात हो रही है, जो दूसरों के अजहान में
अपना नक्श छोड़ जाते हैं। वह नहीं जो महज इस्लाम का दावा करें और उनकी पासपोर्ट पर
मुस्लिम लिखा हो। यह मतलब हमें “अल” से पता चला जोकि ‘खुसूसियत’ पर दलालत करता है। इस की बुनियाद अरबी का
मशहूर कायदा है “जब किसी चीज को बिललाम किया जाए तो इस चीज की सब से आला और
अरफा हालत मुराद होती है” इसलिए जब हम “मोमिन” का शब्द सुनते हैं तो पहली चीज जो जहन में आती
है, वह मोमिन को सब से मुकम्मल
मानी होता है। इस हदीस से यही मुराद है।
इस तरह नहवी बातें खद से
कोई नहीं सीखता,
बल्कि
उसके लिए बकायदा तालीम चाहिए। इस लिए आप (सल्लल्लाह अलैह वसल्लम) के लिए इस तरह का
तजुर्बा मुम्किन न था, इसलिए कि वह उम्मी थे वह अपनी तरफ से नह बोलते थे उस्ताद
अजल ने उनको जो सिखाया था वही बोलते थे। इस वजह से हमें पैगम्बर (सल्लल्लाह अलैह
वसल्लम) की अहादीस और अकवाल में इस तरह के बेशुमार कवायद नजर आते हैं, जिन के इस्तेमाल में कोई
गलती नहीं है।
अब इस हदीस की तरफ लौटते
हैं: असल मुसलमान वह है जिन पर ऐतबार और भरोसा किया जा सके, यहां तक कि दूसरे मुसलमान
बिलाखौफ व खतर उनकी तरफ मुतवज्जा हो सकते हैं। इस तरह के मुस्लिम के ऐतबार पर
बिलाखौफ व खतर अपना कुंबा भी छोड़ा जा सकता है, और इस के हाथ और जबान से कोई नुकसान भी नहीं
पहुंचने वाला। अगर किसी को सच्चे मुसलमानों की सोहबत मयस्सर हो तो उसे ऐतबार होना
चाहिए कि वह किसी के खिलाफ बात नहीं करेगा। न ही दूसरों के मुतअल्लिक कोई ऐसी चीज
सुनने में आएगी। ऐसे मुसलमान दूसरों की इज्जत और इकराम में ऐसे ही हस्सास होते हैं, जितना अपनी इज्जत और इकराम
के लिए होते हैं। वह खूद न खाकर दूसरों को खिलाते हैं। वह अपने लिए नहीं। दूसरों
को जीना सिखाने के लिए जिंदा रहते हैं। वह अपनी रूहानी खुशी को भी दूसरों पर
कुरबान कर देते हैं यह सारे मानी उस “अल” से ले रहा हूं, जो “हसर” पर भी दलालत करता है यानी एक खास मकसद पर रूक
जाना या जब जाना।
तहफ्फुज
और मुसलमान
लगवी लिहाज से “मुस्लिम” और “सलिमा” दोनों को मसदर “सिलम” है मुसलमान के लिए हर चीज
सिलम (तहफ्फुज),
सलामत
(अमन) और मुसलमानियत के साथ पेश आती है। मुसलमान इस इलाही जज्ब से मामूर होता है
कि उनका हर काम उस ताकतवर केन्द्र से जुड़ा हुआ होता है।
मुसलमान हरेक को सलामती के
साथ आदाब अर्ज करते हैं, जिससे हर एक के दिल में उनकी इज्जत बढ़ती है। वह अपनी नमाजों
को सलाम पर खत्म करते हैं। सब इंसान, जिन और दूसरे मखलूकात उनका सलाम वसूल करते
हैं। इस तरह वह गैर मरई मखलूक से भी तबादला आदाब करते हैं। आज तक किसी ने अहसन
दर्जा के आदाब किसी को नहीं दिये जैसे मुसलमानों ने दिये हैं। इस्लाम बुनियादी
चीजों को दर्स देता है जिसे रोजा रखना, जकात देना, हज करना और इमान की उशाअत के लिए कोशिश करना।
इस का मतलब यह हुआ कि वह इस हुक्म “इस्लाम में पूरे पूरे दाखिल हो जाओ” (कबरा:208) को
पूरो करके,
तहफ्फुज
के लिए समंदर में जहाज पर बादबान लगा देते हैं जो लोग इस समंदर में गोता लगाते हैं
वह हर हाल में तहफ्फुज और इस्लाम पाते हैं। इस तरह के लोगों में कोई अमल और रवैया
अच्छाई के सिवा कुछ नहीं पाता।
सिर्फ
हाथ और जबान का जिक्र क्यों?
हमारे आका (सल्लल्लाह अलैह
वसल्लम) की मजकूरतुल सदर हदीस के हर बयान में एक एक शब्द चुन चुन कर मुंतखिब किया
गया है। आप (सल्लल्लाह अलैह वसल्लम) ने सिर्फ जबान और हाथ का खास तौर पर इंतेखाब
क्यों किया?
इस
खुसूसियात की कई वजूहात हो सकती हैं। इंसान दूसरे को दो तरह से इजा पहुंचा सकता है, बिलवास्ता या बिलमुशाफा, हाथ बिलमुशाफा नुकसान पहुंचाता
है, और जबान जबान बिलवास्ता
नुकसान पहुंचाती है। लोग दूसरो पर या तो बिलवास्ता यानी हसी तौर पर हमला करते हैं, या बिलवास्ता यानी गीबत
करके, या बुराई करके हमलावर होते
हैं सच्चे मुसलमान उन दोनो चीजों में मुलव्विस नहीं होते। इस लिए वह चाहे
बिलमुशाफा काम कर रहे हों या बिलवास्ता हर हाल में इंसाफ और एतदाल के साथ रहते
हैं।
आप (सल्लल्लाह अलैह वसल्लम)
ने जबान का तजकिरा हाथ से पहले उस लिए किया कि इस्लाम में हाथ से पहुंचायी गयी इजा
को जवाब दिया जा सकता है। लेकिन बिलवास्ता इजा, यानी गीबत और बोहतान वगैरह को जवाब देना हर
जगह दुरूस्त नहीं होता। उस तरह के अमल से अफराद मुआशरों और कौमों के बीच तनाजियात
खड़े हो सकते हैं। इस तरह की इजा से हाथ से पहुंचायी गयी इजा निस्बतन निपटना कदरे
मुश्किल होता है। यही वजह है कि आप (सल्लल्लाह अलैह वसल्लम) ने जबान को हाथ से
मुकद्दम जिक्र किया। दूसरे मुसलमान को कहा गया है कि अपने हाथ और जबान आने कंट्रोल
में रखें।
इस्लाम का एक और अखलाकी
पहलु यह भी कि मुसलमान को वह चीज जो हसी तौर पर या रूहानी तौर पर दूसरे के लिए
नुकसानदह हो,
उन्हें
छोड़ देना चाहिए और उन्हें पूरी कोशिश करनी चाहिए कि दूसरों को तकलीफ न पहुंचाये।
नुकसान पहुंचाने को तो छोड़े मुसलमान मुआशरे के हर तबके को चाहिए कि तहफ्फुज और
अमनों अमान का मजहर हो। मुसलमान इस वक्त तक सही मुसलमान नहीं हो सकते जब तक
तहफ्फुज के एहसासात ले कर न चले और उनका दिल एतमाद के साथ न धड़के। वह चाहे जहां भी
हों और रहें,
इस्लाम
से अख्जशुदा एहसान उन पर अयां होना चाहिए। वह जाते वक्त सलामती की दुआ दें, अपनी नमाजों में आदाब पेश
करें, और नमाजों को एखतिताम करें
तो दूसरे मुसलमान को सलाम पेश करें। किसी भी तौर यह बाद काबिले फहम नहीं है कि जो
लोग सारी जिंदगी इस्लाम के इस दायरे में गुजारते हैं, कैसे उस राह पर चल सकते हैं
जो अमन, एतमाद, बेहतरी और दुनियावी या गैर
दुनियावी तहफ्फुज के इब्तेदायी उसूल के भी मुनाफी हो। और उससे वह अपने आप को भी और
दूसरों को भी नुकसान पहुंचाये।
यहां मुनासिब होगा कि उन
निकात की असल का एक बार फिर तज्जिया कर लिया जाए।
सच्चे मुसलमान आलमी अमन के सबसे ज्यादा काबिले एतबार नुमाइंदे होते हैं। वह हर जगह इस अजीम एहसास को ले कर चलते हैं जो उनकी रूह की गहराईयों तक पहुंचा हुआ होता है। तकलीफ और इजा पहुंचाने से हट के उन को हर जगह अमन और तहफ्फुज के निशान के तौर पर याद रखा जाता है। उनकी नजर में दूसरों के हुकूक की हसी (बिलमुशाफा) या जबानी (बिलवास्ता) खिलाफ वर्जी में कोई फर्क नहीं होता। बल्कि बसा औकात तो मौखरूलजिक्र को मकदमुलजिक्र से भी ज्यादा जुर्म समझा जाता है।
मिसाली
नफूस और मोहब्बत के हीरो
जो लोग मोहब्बत से भरपूर है
सिर्फ वही लोग खुशहाल और रौशन मुसतकबिल की बुनियाद बन सकते हैं। उनके लब मोहब्बत
से तबस्सुम करते हैं। उनके दिल मोहब्बत से लबालब भरे होते हैं। उन की निगाहों से
मोहब्बत और सब से नाजुक इंसानी एहसास फूटता है। यह मोहब्बत के ऐसे हीरो हैं जो
सूरज के तुलू व गुरूब और सितारों की चमक से मोहब्बत का पैगाम वसूल करते हैं।
जो दुनिया की इसलाह चाहते
हों, उन्हें पहले अपनी इसलाह
करना होगा। अगर वह चाहते हैं कि लोग उनकी अच्छे मुआशरे को कायम करने में इक्तेदा
करे तो उन्हें मन की नफरत, बुग्ज, हसद, दुनिया को सही करना होगा। और बैरूनी दुनिया को हर तरह की
अच्छाई से तजईन करना होगा। उन लोगो के बयानात जो खुद तमुलकी और नजम व नसक से आरी
हों और अपने एहसासास को दुरूस्त न करते हों, जाहिरन तो जाजिब और बसीरत अफरूज हो सकते है
लेकिन इससे दुसरों को तलकीन नहीं होगी। और अगर तलकीन हो भी जाए तो उसके नतीजे में
आने वाले एहसासात व जज्बात बहुत जल्द खत्म हो जाते हैं।
अच्छाई, खूबसूरती, सच्चाई और नेकोकारी दुनिया
की माहियत में रची हुई है। कुछ भी हो जाए, दुनिया एक दिन इस माहियत को पा लेती है और कोई
इस पाने उस को रोक भी नहीं सकता।
जो दूसरों को रौशन करने की कोशिश करते हैं जो दूसरों को खुशी के हुसूल में मदद देते हैं, उन्होंने मुहाफिज फरिश्तों की तरह अपने नफस को तरक्की दे कर लिया है। वह मुआशरे में आने वाली आफात में जद्दोजहद करते हैं और “तूफान” को मुकाबला करते हैं, वह आग बुझाने के लिए कोशिश करते है और हर तरह के मुतवक्के खतरात से निपटने के लिए हेमादम तैयार रहते हैं।
मोहब्बत
के परस्तार
बदीउलजमा ने कहा है: हम
मोहब्बत के परस्तार है, हमारे पास अदावत और मुखालिफत (दुश्मनी) को वक्त नहीं है”। यह हमारे लिए अहम तरीन
उसूल है लेकिन सिर्फ काफी इतना कहना काफी नहीं। अहम मसला यह है कि इसकी सही नुमाइंदगी
की जाए। दर हकीकत लोग इंसानियत से मोहब्बत के लिए बहुत से खूबसूरत वाक्य बोलते हैं
और यह भी खूबसूरत वाक्य हैं मुझे ताज्जुब होता है कि ऐसे कितने लोग हैं जो इस तरह
वाक्य बोलते है,
लेकिन
अपनी जिंदगी में अपने किरदार में अपने कहे हुए पर अमल भी करते हैं? मेरा ख्याल है इसका तसल्ली
बख्श जवाब मिलना मुश्किल है। अपने कौल की अमल से नुमाइंदगी करना हमारे
पैगम्बर (सल्लल्लाह अलैह वसल्लम) को एक खासा था। आप (सल्लल्लाह अलैह वसल्लम) जो
कहते थे उस पर अमल करते थे और जो फरमाते थे उसे अपनी जिंदगी मे नाफिज भी करते थे।
वह वाक्य जिन पर अमल नहीं किया जाए, चाहे वह कितने ही खूबसूरत और कामिल क्यों न
हों, वह खत्म हो कर ज़ाये हो जाते
हैं और गुजरते वक्त के साथ साथ उनका असर ज़ायल हो जाते है। दिलों पर वाक्य के असर
से ही जाहिर होगा, चाहे वह इंसान के वाक्य हों या खुदा के, वह कितने मजबूत हैं और अगर
उन पर अमल न किया जाए तो वह किस कदर बेहस हो जाते हैं कुरआन के एक अक्षर में भी
तबदीली नहीं आयी और नुजूल के वक्त जो ताजगी और असलियत थी वह अभी तक कायम है। यह एक
किताब रहमत व हिदायत लेकिन कमजोर इंसानी नुमाइंदगी और खला की वजह से पैदाशुदा
धुंधली फिजा की वजह सही नजर नहीं आता। जिस की बिना पर लोग कुरआन के मुतअल्लिक बहकी
बहकी बातें करते हैं। हालांकि उसमें कुरआन का कोई दोष नहीं है बल्कि उन मुआशरों को
कुसूर हैं जिन्होंने उसे अपनी जिंदगी में न लाने का जुर्म किया है। मजहब और कुरआन
जिंदगी के लिए अहम है और समझना हर की कुवत रखने के लिए बहुत जरूरी है। कुरआन की
मुकम्मल नुमाइंदगी होनी चाहिए ताकि यह वह काम कर सके जिनकी उससे मुतवक्के है।
अलमुखतसर मेरे कहने को मतलब यह है महज यह करना काफी नहीं कि हम मोहब्बत के तरस्तार
और अमन के अलमबर्दार हैं। हमें बहुत सारी रूकावटे उबूर करनी है खुलासा यह है कि
हसीन वाक्य को अमली जामा पहनाने की जरूरत है
मोहब्बत और शफकत इस्लाम के दा इंतेहायी जरीं उसूल है हमें पूरी दुनिया में उनकी नुमाइंदगी करनी चाहिए। ताहम माजी करीब के कुद मनफी वाकियात ने, बिलखुसूस, लोगों को इस्लाम के मुतअल्लिक बरअक्स सोचने पर मजबूर कर दिया है जो असल में इस्लाम में नहीं। कुछ लोगों की गल्तियों को इस्लाम के साथ जोड़ना बिल्कुल गलत है। यह सच है कि पड़ोस के मुल्क में अहम तबदीली हुई है और उससे आलम इस्लाम को सदीद नुकसान पहुंचा है लेकिन फिर भी बहुत से मसायल को मुफाहमत से हल किया जा सकता था। यह पहले इसलिए उन्हें नहीं हो सकता कि यह महज दावों के सिवा कुछ न था। यह वह अकेला मुल्क नहीं जिस ने आलम इस्लाम को गलत तसव्वुर को उजागर किया है। दुनिया में ऐसे मुमालिक और कायदीन मौजूद है जो अपने रवैयों और मालूमात से इस्लाम की गलत तस्वीर पेश कर रहे हैं। जिस से सिर्फ कुरआन दुश्मनों को फायदा हो रहा है हमें अपने कौल पर जमे रहना चाहिए और हर अमल का पूरा जज्बा होना चाहिए। हमारे दिल में दुश्मनी के लिए बिल्कुल कोई जगह नहीं होनी चाहिए। इसमें कोई शक नहीं रहे कि आने वाली सदी मोहब्बत और मुकालमा के परवान चढ़ने की सदी है। नफरतें खत्म होंगी और मोहब्बत और तहम्मुल हर तरफ फैलेगा। इसके इमकानात रौशन हैं इस लिए कि हम ग्लोबलाइजेशन देख रहे हैं। इंशाअल्लाह जब वक्त आयेगा तो मुकद्दस लोग इस काम को सर अंजाम देंगे।
हर दम हाय मोहब्बत
मोहब्बत के लोग जैसे रूमी, यसवी, और बदीउलजमा वगैरह को खुदा
से रिश्ता हमसे ज्यादा मजबूत था इस लिए उनके नाकाम होने के इमकानात कम थे। इस लिए
उन्होंने मोहब्बत, शफकत और तहम्मुल के सिलसिले में बे इंतेहा काम किए और अपने
इर्द गिर्द लोगों को आमादा व मुतासिर किया। लेकिन अगर हम उनके दौर का आगाज से
मवाजना करें तो आज उनके मुकाबले में जो हम ने देखा वह कुछ नहीं है। बदीउलजमा ने
अपने इब्तेदायी दौर को इस तरह बयान किया है।
‘क्या वह समझते है कि मैं
खूद गर्ज हों सिर्फ अपने फायदे की सोचता हूं? मुआशरे के इमान को बचाने के लिए मैंने सारी
जिंदगी कुरबान कर दी है और आखिरत को कभी सोचा भी नहीं। अपनी 80 साला
जिंदगी में मैंने दुनिया के कोई लज्जत हासिल नहीं की। मैंने अपनी जिंदगी मैदान जंग, मुल्क की जेलों, कैदो व बंद और अदालतों में
गुजार दी है। उन्होंने मेरे साथ मुजरिमों जैसा सुलूक किया और कुरिया कुरिया फिराते
रहे और मुसलमान निगरानी करते रहे। कोई ऐसी तोहमत नहीं जो मुझ पर न लगी हो। कोई ऐसा
दबाव नहीं जो मुझ पर न डाला गया हो। लेकिन अगर मुझे पता होता कि मुआशरे को इमान
महफूज है तो मुझे इस की परवाह न होती, चाहे मुझे जहन्नम की आग में भी जला दिया जाता।
इस लिए कि जब उस हालात में मेरा जिस्म सोजां होता, लेकिन मेरा दिल तो गुलाबिस्तान की तरह दमक रहा
होता” (बदीउलजमा
सैयद नूरसी Tarince-i-Hayati,
सवाने
उमरी)
इन सब मुश्किलात के बावजूद
मरदुम हाय मोहब्बत ने अपने दौर में वह कबूलियत नहीं देखी जो आज मुकालमा और तहम्मुल
के नुमाइंदों को मिल रही है। उन के पैगाम ने अवाम पर वह असर नहीं डाला जो मुकालमा
और तहम्मुल के नुमाइंदे डाल रहे हैं। मेरा ख्याल है कि अगर वह लोग इस सदी में
जिंदा होते और मुकालमा और तहम्मुल की तरफ अवाम का रूझान देखते तो जरूर पूछते “तुम दुनिया भर में मुकालमा
कराने में कामयाब कैसे हो गये। इसका क्या राज है”?
रौशनी के उन मिनारों के मुकद्दर में यह एजाज इसलिए नहीं था कि इस वक्त हालात साजगर न थे। इस एजाज को हासिल करने के लिए जरूरी है कि इस राह पर इस्तकबाल से रहा जाए। कल एक मशहूर बंदे ने मुझ से कहा “कल तक जो हल्के मुसलमानों की मुखालिफत कर रहे थे, आज उनकी मदद और तारीफ कर रहे हैं। यह इस्तेकलाल उन के एहसासात को मजहर है। इस को नजर अंदाज करना इंतिहायी न सुकरी होगा और उस को देख कर शुक्र बजा लाना एक तरह का कुफ्र होगा।
मोमिन
बनने के लिए क्या चाहिए
आज सब चीजों से ज्यादा हमें
एक नस्ल की जरूरत है जो खुदा के फरीजे को अदा करने के लिए पुर शौक हो और ऐसे
मिसाली बंदो की जरूरत है जो मुआशरे की रहनुमायी कर सकें। हमें उन मिसाली राहनुमा
की जरूरत है जो इंसानियत को शिर्क जिहालत जुल्म और तादी की लानत से छुटकारा दिला
सके और इमान,
बसीरत, मंजिले हक और अमन की तरफ
रहनुमायी कर सके। हर मौका पर तनाव के कुछ अजहान ऐसे रहे हैं जो मजहबी, जहनी, समाजी, कस्बी और एखलाकी तनाव के
दौरान लोगों की राहनुमायी करते रहे हैं। उन अजहान ने इंसानियत, कायनात, मौजूदाद और उसकी जामियत की
तशरीह नौ की है। और यहां तक कि मौजूदात की पसमंजर और हमारे ख्यालात के तरीककार की
दोबारा वजाहत की है। लोगों ने बारहा कफन से अपनी कमीस बनायी है। उन्होंने चीजों और
मजाहिर कुदरत की कई बार तशरीह की है। उन्होंने किताब मौजूदात- जोकि तंगनजर जहन
वाले अफराद के नजदीक अपना रंग और अपनी चमक खो चुकी है और हल्का रंग ले रही है। को
गायकी के अंदाज में पढ़ा और उसे गहराई तक महसूस किया है। उन्होंने उसे एक नुमाइश की
तरह देखा है। उन्होंने कायनात को मौसम ब मौसम और पैराग्राफ ब पैराग्राफ तज्जिया
करके इस के कल्ब में छुपे सच को निकाला है।
उन अजीम लोगों की सब से
नुमायां खूबी वह इमान और कोशिश हैं जो वह दूसरों को इमान को तज्जिया करने के लिए
लगाते है। उस इमान और कोशिशों के साथ उनका यहीन है कि वह हर चीज को उबूर करके खुदा
तक पहुंच जाएंगे और उन का यकीन है कि वह अमन लाएंगे। इस दुनियां को जन्नत नजीर
बनायेंगें और अदन उनका मकाम बलंद कर देंगें।
हकीकत में इस निजाम की
खुसूसियात या पेचीदगियां कितनी ही ज्यादा क्यों न हों, दुनिया का कोई दुनिया का
कोई निजाम,
तर्ज
तदरीस या फलसफा ऐसा नहीं है कि उसने इंसानियत के इमान पर इतना मुसबत असर डाला हो।
जब इमान अपनी शक्ल के साथ लोगों के कुलूब में दाखिल होता है। तो कायनात, मकासिद और खुदा के
मुतअल्लिक लोगों के ख्यालात अक्सर बदल कर, इतने गहरे और उस्अत पजीर हो जाते हैं कि यह
मौजूदा तज्जिया इस तरह करने लगते है गोया वह खुली किताब देख रहे हैं। जो कुछ यह
लोग अपने इर्द गिर्द देखते थे, जो चीजें उनकी दिलचस्पी को मदउ नहीं करती है, जो चीजें बे मानी और बे
हकीकत होती थी,
वह
अचानक बदल कर दोस्ताना और महबूबाना हो जाती हैं और गले लगाना शुरू हो जाती हैं।
दिल को गरमाने वाली इस फिजा में लोगों को अपनी कदर का दर्जा पता चल जाता है। उन को
महसूस होता है कि वह हर चीज के पर्दे के पीछे छुपे राज को पाने ही वाले थे। फिर वह
इस सह जहती दुनिया की तंग कैद से आजाद हो जाते हैं और अपने आप को हिदायत के खुले
मैदान में माने में पाते हैं।
दरअसल तमाम मुसलमान अपनी
सनाख्त की गहराईयों में छुपे ख्यालात और अपने इमान के दर्जे के मुताबिक हदूद में
लमहदूद हो जाते हैं। अगर वह जगह और वक्त की कैद में होते हैं लेकिन गैर ममनूआ
मखलूक और खूबियों का मजमूआ बन जाती हैं। और ऐसी सतह तक पहुंच जाते है जो जगह की
कैद से आजाद हो चुके होते है और जहां वह फरिश्तों के नगमे सुन सकते हैं। यह मखलूक
जा पानी की तरह बे शक्ल गूदा मालूम होती है। जो कि अहम मखलूक है, लेकिन हकीकत में जो अजीम
फायदा उसको हासिल होता है वह यह है कि उसकी इतनी अहमियत बढ़ जाती हैं कि जमीन उसके
अंदर छुपे सांस (रूह) को दरयाफ्त करने का मचान बन जाता है। वह ऐसी मखलूक बन जाते
हैं जो आसमान व जमीन के बीच समा न सके, ऐसी खलायी मखलूक जो शुमाल व जुनूब दोनों अकताब
तक पहुंच जाए।
वह हमारे मध्य बैठते है, जहां हम कदम रखते हैं वह भी
वहीं कदम रखते हैं। और दौरान नमाज सर रखते है जहां हमस रखते हैं, लेकिन वह अपने पाँव कि एक
कदम हमेशा रहमत वाले एहसासात को तरक्की देकर और फैलाकर इंफेरादियत को उबूर कर जाते
हैं। वह एक तरह से इज्तेमायी शख्सियत बन जाते हैं और तमाम मुसलमान को गले लगाते
हैं। वह हर एक की तरफ अपना हाथ बढ़ाते हैं वह जन्नत की आवाज तकरीबन हर फ्रेकवंसी पर
सन सकते हैं और महसूस करते हैं कि फरिश्तों के परों की आवाज भी सुन रहे हैं। वह
खूबसूरत को वसी जश्न, रअद के डरा देने वाली बानों से लेकर परिंदो के खुशकुन नगमों
तक, समंदर की हलाक करने वाली
लहरों से लेकर,
दरिया
की मसहूरकुन आवाज तक जो खुलूद का एहसास दिलाती है, तंहाही की लकड़ियों के तिलस्माती इंकेसाफ से
लेकर खौफ दिलाने वाली बलंदियों तक जो आसमानों को छूना चाहती हैं, सहर भरी हवाओं, जो सब्ज पहाड़ों को छूकर
गुजरती है,
से
लेकर फूटने वाली खुशबू तक जो बागात से निकल कर हर तरफ फैल जाती है, देखते, सुनते और महसूस करते हैं।
जो कहते हैं। “यही
जिंदगी होगी”
वह
नमाजों के अंदर इस्मा हुस्नी को वर्द करते हुए अपनी सांसो को उसकी मुनासबत वक्अत
देते हैं।
वह अपनी आँखों को खोलते और
बंद करते हैं,
उनकी
जबीन नियाज हमेशा जमीन पर लगी रहती हैं जिसे कि वह दरवाजे की दहलीज पर सर रख उसके
खेलने का इंतेजार कर रहे हों। वह दरवाजे की दुसरी सिम्त का इश्तियाक से इंतिजार
करते हुए देखते हैं कि फिराक और इंतेजार खत्म होगा और अमन और कुरबत उन की रूह को
मुकदस नक्श की तरह घेरेगी। वह अपनी रूहों के मिलने की ख्वाहिश में, सुकून ढूंढने की कोशिश करते
हैं। वह कभी उड़ते हुए और कभी जमीन पर रेंगते हुए, हर चीज और हर शख्स के साथ खुदा की तरफ दौड़
लगाये रखते हैं। वह हर जगह में, दोबारा मिलन के साये में ‘शबे जफाफ’ख्3, के मजे लेते हैं। एक के बाद दूसरे लगी कई तरह
की इंतेजार की आग बुझाते रहते हैं। और हर मोड़ पर एक नये शोले से आग पकड़ते हैं और
जलना शुरू कर देते हैं। किसी को क्या पता कि कितनी बा रवह अपने आप को “खुदा की कुरबत” के सांस में घिरा पाते हैं, और कितनी बार उनका दिल
तंहाई और उन लोगों के अलमिये के साथ जो उस रूहानी फैजान को महसूस नहीं करते, जख्मी होता होगा।
दरअसल वह शिर्क, जिस के साथ दुनिया लम्बे डग
भरती है, इमान के यह आली हौसला हीरो
अपने इमान के दर्जे तक, अपने रास्ते बनाते हैं जिसे वह जन्नत की वादियों के साथ घूम
फिर रहे हों और इसके सिवा कोई सांस न ले रहे हों। दूसरी जानिब खुदा के साथ तअल्लुक
की बुनियाद पर वह पूरी कायनात का मुकाबला कर सकते हैं। वह कोई भी मुश्किल पाट सकते
हैं। अगर हर तरफ उन्हें तबाही और हलाकतें नजर आएं वह अंदूह में मुब्तिला नहीं होते
चाहे उनके सामने दोजख भी आ जाए। वह हमेशा अपन सर बलंद रखते हैं और खुदा के सिवा
किसी के सामने नहीं झुकते। वह किसी के आगे झुकते नहीं, न किसी से कुछ तवक्को रखते
हैं। और न ही किसी से एहसान लेते हैं। जब वह फाते होते हैं और पैहम कामयाबियां
हासिल करते है तो यह सोच कर खौफ से दहल जाते हैं कि असल में यह इस का खुदा के साथ
वफादारी को इम्तिहान है ठीक उसी वक्त वह अजिजी से झुक जाते हैं और खुशियों के आँसू
बहाते हैं उन्होंने नाकामियों पर अज्म मसमम के साथ सब्र करना भी सीखा है। वह इरादा
को मजबूत करके दोबारा नया सफर शुरू करते हैं। किसी इंआम के मिलने पर वह मुतकब्बिर और
न शुक्रे नहीं होते। और जब महरूमी आए तो रंज व अलम में भी मुबतिला नहीं होते।
लोगों के साथ मामलात में वह पैगम्बराना दिल रखते हैं वह हर एक को प्यार और गले लगाते है। वह दूसरों की गलतियों से सिर्फ नजर करते हैं लेकिन अपनी छोटी से छोटी गलती पर भी अपनी बाजपुरस करते हैं। वह दूसरों की गलतियों को न सिर्फ आम हालात में बल्कि शदीद गुस्से के आलम में भी मुआफ कर देते हैं। वह उन लोगों के साथ भी पुरअमन रहना जानते हैं जो बहुत ज्यादा गुस्सा वाले हों। इस्लाम अपने मानने वालों को जितना मुम्किन हो माफ करना सिखाता है। और यह भी कि मुसलमान नफरत, बुग्ज और इंतिकाम के जज्बात के गुलाम न बनें। वह लोग जो अपने आप को खुदा के रास्ते पर समझते हैं कभी नहीं हो सकता कि उस मजकूरा कैफियत से मुखतलिफ हों, किसी और तरह का रवैया अपनाना या सोचना बिल्कुल मुम्किन नहीं है। बल्कि इसके बरअक्स अपने सारे आमाल में वह दूसरों को खुश करने के जराय ढूँढते हैं। वह दूसरों का भला सोचते हैं और अपने दिलो में मोहब्बत को कायम रखने की कोशिश करते हैं। ताकि बुग्ज और नफरत के खिलाफ गैर मुतनाही जंग की जा सके। वह अपने गुनाहों की तपिश, अफसोस के साथ चलते हुए महसूस करते हैं और दिन में कुछ मरतबा अपने बुरे ख्यालात को गला घोंटते हैं। वह अपना काम दिलजमई से शुरू करते हैं और अच्छाई और खूबसूरती को हर तरफ फैलाने के लिए तुख्मरेजी की जमीन हमवार करते हैं। राबिया अदूविया के नक्शे कदम पर चलते हुए वह हर चीज को मीठी शरबत समझ कर कबूल करते हैं, चाहे वह जहर ही क्यों न हो। और अगर उनसे नफरत से मिला जाए वह तबस्सुम के साथ खुश आमदीद कहते हैं। और वह बड़े बड़े लश्करों को मोहब्बत के नाकाबिल शिकस्त हथियारों से हजीमत पहुंचाते हैं। खुदा उनसे प्यार करता है और वह खुदा से प्यार करते हैं वह हमेशा मोहब्बत की खुशी से मसरूर होते हैं और मोहब्बत किये जाने पर दरखशिंदा खुशियां महसूस करते हैं। उन के अजिज के पर हमेशा जमीन पर रहते हैं। और गुलाब के फूल पैदा करने की गर्ज से मिट्टी बनना भी गवारा कर लेते हैं। जिस तरह वह दूसरों की इज्जत करते हैं वह अपनी नफस का भी ख्याल रखते हैं। वह अपनी शामिलियत, मोहब्बत, शिराफत और अच्छाई को कभी अपनी कमजोरी नहीं बनने देते। वह दूसरे लोगों की मलामत या बुरे अंदोजों को काबिलुलतफात नहीं समझते इस लिए वह इमान के मुताबिक जिंदगी गुजारते हैं। वह अपनी सोच के जाविये के नूर को जाये करने से बचाते हैं इस लिए कि उन्होंने अच्छा मोमिन बनना सीख लिया है।
खुदा
के परस्तार नफूस
वह लोग जिन्होंने खुदा की
रहमतो भरी रजा और उससे मोहब्बत करने और किए जाने के आईडियल्ज को एखतियार किया है, उनका सब से ज्यादा काबिल
जिक्र खासा यह है कि वह किसी से मादी या रूहानी तवक्को नहीं रखते। नफा, दौलत, कीमत, राहत वगैरह जैसी चीज जिन के
लिए दुनिया के लोग बहुत कुछ करते हैं, उन लोंगों के यहां न तो इतनी अहमियत व वक्अत
हे और न ही उन चीजों को वह मेआर तसलीम करते हैं।
उन परस्तारों के लिए उनके
आईडल्ज वक्अत ज़मीनी चीजों से ज्यादा होती है। इतनी ज्यादा कि उन लोगों अपनी चाहत
यानी खुदा की रजा से हटा मुश्किल होता है। आरजी और मुंतकिल हो जाने वाली चीज से हट
के यह परस्तार अपने दिल में खुदा की तरफ मुतवज्जा होने की ऐसी तबदीली पाते हैं कि
उन्हें अपने आईडियल्ज के सिवा कोई मकसद ही नजर नहीं आता, इस लिए कि लोगों के खुदा से
प्यार करने वाले और किये जाने के लिए वक्फ कर देते हैं, और अपनी जिंदगी दूसरों को
रौशन करने में लगा देते हैं और चूंकि वह अपने मकसद को उसी एक तरफ मबजूल करा चुके
होते हैं। जो एक तरह से उनके आईडियल्ज की तरफ ही पेश कदमी होती है। तो वह लोग
तफरीक का बाअस बनने वाले और मुआंदाना ख्यालाता जैसे “वह लोग”, “हम
लोग”, “दूसरों
का” और “हमारा” से इजतेनाब करते हैं। उन
लोगों को दूसरे से कोई मसला - जाहिरी या बातिनी - भी नहीं होता। उसके मुकाबिल उन
के ख्यालात को महूर यह होता कि वह मुआशरे के लिए किसी तरह कारआमद बन सकते हैं और
उस समाज, जिस के वह अजू हैं, से एखतिलाफ कैसे खत्म किए
जा सकते हैं। जब वह मुआशरे में कोई मसला देखते हैं तो रूहानी कायद, न कि जंगजू की तरह, काम करते हैं कि दूसरों को
किसी भी तरह के सियासी गल्बा या तर्ज हुकूमत से बचते हुए नेकी और पर शौकत रूहानी
की तरफ ले जाया जाए। उन जान निसार लोगों की रूहों की गहराईयों में बाकी अवामिल के
अलावा, इल्म को इस्तेमाल और
अखलाकियात को सही और मुनासिब समझना और उस की जिंदगी के हर शोबे में नाफिज करना, वफाशआरी पर मंबनी नेकी और
उससे अदम उनसूर को जानना होते हैं। वह लोग शहूत, मुफादात पर मंबनी सर्द परोपगेंडा और नुमाईश
काम और आमाल जैसी चीजे, जो मुसतकबिल में यानी आखिरत में किसी तरह भी काम आने वाली
नहीं होती,
से
खुदा की पनाह मांगते हैं। मजीद बरां अपने उसूल के मुताबिक रहते हुए वह अंथक कोशिश
करते हैं कि उन लोगों की क्यादत करें जो आला इंसानी अकदार के एहतेराम को देखें या
आगाज करे। ऐसा करते हुए यह लोग कभी भी, किसी से फायदा या नरमी के मुतमन्नी नहीं होते
और मुकम्मल कोशिश करते हैं कि उसके मुकाबिल कोई जाती फायदा या मुनाफा वसूल न करें।
वह उन चीजों से ऐसे बचते हैं जैसे सांप या बिच्छू से बचा जाता है। आखिरकार उनकी
अंदरूनी इमारात के पास मरकज जो ताकत आ जाती हैं जो किसी किस्म की तसहीर, शेखी या तमतराकी से माने
होती है। उन को मिलन सार रवैया जो कि उनकी रूहों का मजहर होता है। उस दर्जा का
होता है कि वह दिलों को मोह लेना है और दानिशमंद लोगों का उन की इत्तेबा पर लगा
देता हैं।
इस वजह से यह परस्तार कभी
नहीं चाहते कि अपने आप को उछालें, तशहीर करें या अफवाह फैलायें। न ही उनकी ख्वाहिश होती है कि
मशहूर हो या काबिले तारीफ हों। उसके मुकाबले में वह अपनी सारी ताकत और कुवत लगा कर
कोशिश करते हैं कि रूहानी जिंदगी हासिल करें। वह अपने उन आमाल को खूलूस और खुदा की
रजा के हुसूल की बुनियाद पर अंजाम देते हैं। दूसरों शब्दों में लफजों में वह चाहते
हैं कि अमल में खुदा की रजा हासिल करे और अंथक कोशिश करते हैं कि अरफा मकसद हासिल
करते हुए अपने पैगम्बराना जज्बा को दुनियावी तवक्कोआत, जज्बात और दूसरों की तरफ से
मुशताकाना तारीफात से अपने आप को शामिल न करे। चूंकि आज इमान, इस्लाम और कुरआन पर तनकीद
हो रही है और लोग मुखतलिफ तरह के सवालात कर रहे हैं, उन लोगों को चाहिए कि अपनी सानी तवानाई उन
हमलों का जवाब देने में खर्च कर दें। जरूरी है कि अफराद को उन इस्लामी एहसासात और
ख्यालात में मदद दी जाए और लोगों का बे मकसदियत से हटाकर आला आईडियल्ज की तरफ ले
जाया जाए। इस जरूरत को पूरा करना उस हद तक कि लोग किसी चीज से ममनून न हों और किसी
चीज की तमन्ना न करें, तभी मुम्किन है कि इमान को दिलों में एक बार फिर एक नये
तरीके और अंदाज से ताजा कुवत बख्शी जाए। उसको यूं भी कहा जा सकता है। कि लोगों को
रूहानी जिंदगी की तरफ दोबारा राहनुमायी की जाए। इस तरह की सोच इंतेहाई जरूरी है, खुसूसन आज के दौर में जबकि
लोग समाजी जिंदगी में तबदीली और कल्ब हैयियत पर इंहेसार कर रहे हैं और उसे नयें
अंदाज में शक्ल देने की कोशिश कर रहे हैं जब रूहानी जिंदगी की तरफ राहनुमायी की
जाएगी तो इजमा,
रजामंदी
और तजामिन होगा,
जब
कि सिर्फ तबदीली की बात होगी तो एखतेलाफात, तकसीम और हत्ता कि लड़ाई भी हो सकती है।
परस्तार कभी अपनी जिंदगी में खला या तौजीहात महसूस नहीं करते। शुक्र है वह उस
मुत्तहदा राहनुमायी को समझते हैं। दूसरी तरफ वह तौजिया, साइंस और मनतक को बतौर खास
इमान समझते हुए कबूल करते हैं। खुदा के करब - जो किसी की सलाहियतों पर मुंहसिर है
और समंदरों में जो कि इलाही इत्तेहाद की तरह है मैं घुल कर उनकी जमीनी ख्वाहिशात
और जिस्मानी लज्जते एक नया तरीका (खुदा की मर्जी से हासिल होने वाली रूहानी खुशी)
नये अंदाज से पालते हैं।
सौ परस्तार अपनी रूहानी
जिंदगी में खाकी लोगों से बात करते हैं, फरिश्तों की तरह सांस लेते हैं और दुनिया में
अपनी जिंदगी की जायज जरूरतों को पूरा करते हैं। उस वजह से यह परस्तार हाल और
मुसतकिल दोनों से मुतअल्लिक नजर आते हैं। उनका हाल जिंदगी से तअल्लुक उस हकीकत की
वजह से है कि वह जिस्मानी कुवतों को लागू करते और पूरा करते हैं। और जो चीज उनको
मुसतकिल से जोड़ती है वह है कि यह लोग हर मसले का अपनी रूहानी जिंदगी और दिल की
रोशनी में तज्जिया करते हैं। जिंदगी की ख्वाहिशात को रोकने, जो रूहानी जिंदगी से
मुम्किन होता है, से लाजिम नहीं आता कि दुनियावी जिदंगी को अकसर छोड़ दिया
जाए। उस वजह से यह लोग मुकम्मल तौर पर इस दुनिया से अकसर नफरत नहीं करते। यह लोग
दुनिया के किनारो पर खड़ा होने के बजाए उस के बीच में खड़े होकर हुकुमरानी करते हैं।
लेकिन यह मौकिफ महज दुनियावी जिंदगी के लिए नहीं, बल्कि जिस्मानी ताकतों को काम में लाने और हर
चीज को आखिरत से जोड़ने की कोशिश में होता है।
हकीकत में यही तरीका है कि
जिस्म को अपने सांचे में और रूह को उसकी आफाक में रखा जाए। दिल और रूह की सरबराही
में जिंदगी गुजारने का यही तरीका है। आरजी और चंद रोजा जिस्मानी जिंदगी सिर्फ इस
हद तक होनी चाहिए। जितना जिस्मानी जरूरत हो। जबकि रूहानी जिंदगी जो अबदियत के लिए
हमेशा खुली होती है, को हमेशा बे इंतेहायी तलब करना चाहिए। अगर कोई सिर्फ आला और
खलाई ख्यालात सोचता है, अगर कोई मालिक की रजा के मुताबिक जिंदगी गुजारता है। अगर
कोई दूसरों को रौशन करने के जिंदगी के बुनियादी उसूल समझता है। और अगर कोई हमेशा
सिर्फ नुकता उरूज तलब करे तो फिर वह फितरी तौर पर अजीम प्रोग्राम पर अमल करने वाला
बन जाता है। और फिर एक खास हद तक अपनी ख्वाहिशात और जज्बात पर काबू पा लेता है।
जाहिर है ऐसी जिंदगी
गुजारना काफी मुश्किल है लेकिन फिर भी जिन लोगों ने अपने आप को खुदा के लिए वक्फ
कर दिया है। उन के लिए यह मिशन पूरा करना आसान है। जो इस के नाम को बलंद करते हैं।
उन लोगो के लिए जो खुदा के दरवाजे से सरगर्मी से मुआवजा तलब करते है। ताकि लोगों
को पहुंचाया जा सके, जबकि उनका एक हाथ लोगों के दिलों के दरवाजों पर होता है और
दूसरा खुदा के दरवाजे पर होता है। असल में उन लोगों के लिए जो अपनी आगोश में खालिक
की गरमी को महसूस करते हों कोई मुश्किल मुश्किल नहीं होती। और जो अपने दिलों से
मुआशरे तक कभी खौफ के साथ और कभी दोस्ताना मुहब्बत के साथ इमान दाखिल करने की
कोशिश करते हैं। खुदा अपनी मेहरबानी उन पैगम्बराना कुलूब पर नाजिल फरमाता है, जो सब से पहले अपने निगाहें
सिर्फ खुदा पर लगाते और उसी को सोचते हैं ताकि उस तक पहुंचने तक कोई लम्हा जाये
किये बगैर उस पा सके। अपना मुकद्दस वजूद उनमें जाहिर करते हुए खुदा पर एक को याद
दिहानी कराता है कि उन लोगों की कदर करें और खाकियों की उस वफादारी के एक छोटे से
नमूने को एक बहुत बड़ी इलाही वफा के साथ बदला देता है। आगे खुदा की रहमतो के बहर
बेकरां का एक कतरा बतौर नमूना पेश है।
“उन लोगों का न धुतकारो जो सुबह व शाम
अपने रब को पुकारते हुए उसकी रजा के मतलाशी हैं? न उन्हें कोई आप के खाते से गर्ज है न ही
आप को उन से कोई सरोकार होना चाहिए। (अल-इंआमः52)
यहां जिन लोगों के
मुतअल्लिक अल्लाह तआला ने मुहम्मद (सल्लल्लाह अलैह वसल्लम) को हिदायत की उन को “न धुतकारें” वह लोग है जो हुजूर
(सल्लल्लाह अलैह वसल्लम) से अकसर मिलते थे और जिन्होंने अपने आप को खुदा की रजा के
लिए वक्फ कर दिया था।
अगर यह परस्तारी सदक दिल से और खुलूस के साथ हो तो बहुत ज्यादा इमकान है कि जितना ज्यादा यह लोक खुदा की रजा चाहते हैं खुदा उन पर उतनी ही ज्यादा नेमतें भेजेगा। और जितना सदक दिल से वह खुदा से जुड़ना चाहते हैं उतना ज्याद खुदा उन को कबूल करेगा और अजर देगा। और इतना ही ज्यादा इमकान है कि वह खुदा के साथ आला मुकालमात तक पहुंच जाएंगें उन लोगों को हर ख्याल, वाक्य और अमल अगले जहांन में एक रौशन फिजा की शक्ल एखतियार कर लेगा। एक ऐसी फिजा जिसे किस्मत को मुस्कुराता चेहरा भी किया जा सकता है। यह खुश किस्मत लोग अपने बादजबां को अपनी किस्मत की चमकती हवाओं से भर लेते हैं किसी और चीज से दिल लगाये बगैर खुदा की तरफ खुसूसी रहमत के साथ रवाना होते हैं। कुरआन ने उस तरह के लोगों के मुतअल्लिक जो कुछ कहा है वह देखने के काबिल है।
यह ऐसे लोग है जिन को निजात और खरीद व
फरोख्त खुदा की याद और नमाज और जकात से गाफिल नहीं करती, वह ऐसे दिन से डरते हैं जिस में दिल और
आंखें पलट जायंगी,
खुदा उनको उनके अच्छे आमाल को बदला देगा और उन पर अपनी रहमत बढ़ायेगा, इस लिए कि खुदा जिसे चाहता है बे हिसाब
देता है। (अलनूरः37-38)
सारे
गमो और मुसीबतों को भला को और खुदा के सामने सर तसलीम खम करके और हर तरह की
मुश्किलात से जान छुड़ा कर उस किस्म की आजाद रूह को किसी और चीज के दरयाफ्त करने की
जरूरत नहीं होती। इस तरह की कामयाबियों के मुकाबले में दुनिया की सारी नेमतें।
जस्बे और खुशियां गंदे मेजों पर पड़ी खाली प्लेटों के सिवा कुछ मालूम नहीं होतीं।
दुनिया और उसकी सानी चीजों के एतबार से वह खूबसूरती जिस की यह लोग अपनी रूहानी
दुनिया में आरजू करते हैं, वह समझ से बालातर है। इस से बढ़ कर बहार में जो कुछ चमकता है
और उगता है और गरमा में जो जर्द पड़ता है, यह सब उस तरह हो जाता है जिसे उन दोनों में
कोई फर्क नहीं है। इस हकीकत को जानते हुए अबद से ममासिल अरवाह हो उस चीज को बे
वक्अत समझती हैं जो अबदी अज्जा पर मुस्तिमिल न हो और अपने दिल के रास्ते के साथ
चलते हुए अंगूरों के और दूसरे बागात तक पहुंच जाते हैं और उस मध्य अपने दिल को
किसी भी तरह दुनियावी या फानी चीजो में नही लगाते।
अक्सर देखा जाता है और अक्सर सुना जाता है की इस्लाम इंसानियत के खिलाफ है , आज के तारीख में दुनिया के किसी भी हिस्से में जब इस्लाम का नाम आता है तो सबसे पहले लोगों को ख्याल आता है “इस्लाम ” , कही कुछ मोलवी शाहब या और कोई दीनी भाई दाढ़ी रखे हुए दिख जाता है तो लोगो के जेहन में ख्याल आता है “आतंकवाद “, ऐसे में जब हालात यूं आगये की दुनिया के बेहतरीन और अल्लाह (ईश्वर ) का सच्चा धर्म और दुनिया का एक मात्र धर्म इस्लाम जो इंसानियत की बेहतरीन नजरिया पेश करता है , इंसानियत का हक और इंसानियत का कानून पेश करता है, उसे ऐसे नजरो से देखा जा रहा है तो कुछ सवाल जरुर आते हैं।
हमारा मुआशरा और हमारा दीन
जरुरी है की अब संभल जाएँ,कब तक ऐसे ही सोते रहेंगे अब कुछ काम किया जाये, कुछ पॉइंट के साथ अपने विचार रखता हूँ।
एजुकेशन – जरुरत है बच्चों को पढाया जाए, इस्लामी जेहन बनाया जाए, समाज के हर क्षेत्र में पढ़ा लिखा के
भेजा जाए, एजुकेशन से ही हमारा भविष्य में सुधार
लाया जा सकता है,सिस्टम
में घुस सिस्टम से लड़ा जा सकता है।
सेक्युलर – यह एक भयानक लॉलिपोप है जिसकी वजह से
हम दीन ईमान से दूर हुए और सेक्युलर बनते बनते इस मुकाम पे आगये हैं की आज हम
इन्साफ और अपने हक के लिए तरस रहे,इसे छोड़ना होगा और ये उस वक़्त मुमकिन होगा जब हम इस्लाम के
शिक्षा हासिल करेंगे और इस बात को समझ जायेंगे की इस्लाम मानवता के खिलाफ नहीं
मानवता के हक में है और मुस्लिम से अच्छा बर्ताव गैर मुस्लिमो से कोई नहीं कर सकता।
फिरका परस्ती– ये सबसे खतरनाक पहलु है हमारे समाज का
जिसके नाम पे हम टुकड़ों बंटते जा रहे,सामाजिक और इस्लामिक जिम्मेदारियों को भूल के हम एक दुसरे
के दुश्मन बने जा रहे, वक़्त
है भाईचारगी का एक दुरे के साथ प्यार मोहब्बात का हुस्न सलूक करने का और ये तभी
मुमकिन है जब हमारे अन्दर ईमान का तक्वा होगा।
ईमान – जरुरत तक्वा पैदा करने की, ईमान को जगाने की एक अच्छे और सच्चे
मुस्लमान बनने की,बेगैरती
को छोड़ा जाए,ये तभी मुमकिन
है जब हमारे दिलों में ईमान का तक्वा हो,जब हम बेगैरती को छोड़ेंगे हमें अच्छे बुरे का अभाव होगा और
हक ओ इन्साफ के लिए लड़ने की शक्ति मिलेगी।
दीन की बेदारी– नमाज रोजे पे जोर दिया जाए,कुरान की तालीम आम किया जाए,हमारे रसूल जनाब मोहम्मद सल्लल्लाहु
अलैहे वसल्लम और शाहाबा की जिंदगियों को और उनके किरदार को पढ़ा जाए, इससे दीन की बेदारी और एक अच्छा
इस्लामिक मुआशरा बनाया जा सकता है।
इस्लामी मुआशरा– वक्ती हालात में हम साफ़ तौर पे देख
सकते हैं हमारी मुस्लिम कोम्मुनिटी में इस्लामी मुआशरा के कोई गुण नहीं दिखाई दे
रहे, वजह है तालीम और कुरान ओ हदीस से दूर
होना,इस्लामी मुआशरा बनाके ही हम एक दुसरे
दिल में मोहब्बत और इत्तिहाद पैदा कर सकते हैं।
इत्तिहाद – अगर हमारे अन्दर इत्तिहाद होगा तो हम
कुछ फैसला और अपने हक के लिए एक साथ लड़ सकते हैं,इत्तिहाद से ही हम अपनी ताक़त और ज़िम्मेदारीयों को पूरा कर सकते
हैं, इसके लिए में अपने आपसी रंजिशों को
भूलना।
आपसी रंजिश– आपसी रंजिश ये भी एक खतरनाक भूल है हमारी, हम अपने में ही लड़ते हैं, कहीं खेत और कारोबार के नाम पे तो कहीं सामाजिक तनाव में बंटकर आपस पे लड़ना बंद करना करना होगा,कभी छोटे बड़े तो कभी जाती के नाम पे लड़ना, ये सब आपसी मतभेद हमें बंद करना होगा और भाईचारगी के साथ रहना होगा।
इस्लाम की
शिक्षा और मुसलमानों के वास्तविक
प्रश्नः यदि
इस्लाम विश्व का श्रेष्ठ धर्म है तो फिर क्या कारण है कि बहुत से मुसलमान बेईमान
और विश्वासघाती होते हैं। धोखेबाज़ी, घूसख़ोरी और नशीले पदार्थों के व्यापार जैसे
घृणित कामों में लिप्त होते हैं।
उत्तरः संचार
माध्यमों ने इस्लाम का चेहरा बिगाड़ दिया है
(क) निसन्देह, इस्लाम ही श्रेष्ठतम धर्म
है किन्तु विश्व संचार माध्यम; डमकपंद्ध पश्चिम के हाथ में
है जो इस्लाम से भयभीत है। यह मीडिया ही है जो इस्लाम के विरुद्ध दुराग्रह पूर्ण
प्रचार-प्रसार में व्यस्त रहता है। यह संचार माध्यम इस्लाम के विषय में ग़लत
जानकारी फैलाते हैं। ग़लत ढंग से इस्लाम का संदर्भ देते हैं। अथवा इस्लामी
दृष्टिकोण को उसके वास्तविक अर्थ से अलग करके प्रस्तुत करते हैं।
(ख) जहाँ कहीं कोई बम विस्फोट होता है और जिन लोगों को
सर्वप्रथम आरोपित किया जाता है वे मुसलमान ही होते हैं। यही बात अख़बारी
सुर्ख़ियों में आ जाती है परन्तु यदि बाद में उस घटना का अपराधी कोई ग़ैर मुस्लिम
सिद्ध हो जाए तो उस बात को महत्वहीन ख़बर मानकर टाल दिया जाता है।
(ग) यदि कोई 50 वर्षीय मुसलमान पुरुष एक 15 वर्षीय युवती से
उसकी सहमति से विवाह कर ले तो यह ख़बर अख़बार के पहले पृष्ठ का समाचार बन जाती है।
परन्तु यदि कोई 50 वर्षिय ग़ैर मुस्लिम पुरुष छः वर्षीया बालिका से बलत्कार करता
पकड़ा जाए तो उस ख़बर को अख़बार के अन्दरूनी पेजों में संक्षिप्त ख़बरों में डाल
दिया जाता है। अमरीका में प्रतिदिन बलात्कार की लगभग 2,713 घटनाएं
होेती हैं परन्तु यह बातें ख़बरों में इसलिए नहीं आतीं कि यह सब अमरीकी समाज का
सामान्य चलन ही बन चुका है।
प्रत्येक समाज में काली भेड़ें होती हैं
मैं
कुछ ऐसे मुसलमानों से परिचित हूँ जो बेईमान हैं, धोखेबाज़ हैं, भरोसे के योग्य नहीं हैं।
परन्तु मीडिया इस प्रकार मुस्लिम समाज का चित्रण करता है जैसे केवल मुसलमान ही
बुराईयों में लिप्त हैं। काली भेड़ें अर्थात् कुकर्मी प्रत्येक समाज में होते हैं।
मैं ऐसे लोगों को भी जानता हूँ जो स्वयं को मुसलमान कहते हैं और खुलेआम अथवा छिपकर
शराब भी पी लेते हैं।
कुल
मिलाकर मुसलमान श्रेष्ठतम हैं मुस्लिम समाज में इन काली भेड़ों के बावजूद यदि
मुसलमानों का कुल मिलाकर आकलन किया जाए तो वह विश्व का सबसे अच्छा समाज सिद्ध
होंगे। जैसे मुसलमान ही विश्व की सबसे बड़ी जमाअत है जो शराब से परहेज़ करते हैं।
इसी प्रकार मुसलमान ही हैं जो विश्व में सर्वाधिक दान देते हैं। विश्व का कोई समाज
ऐसा नहीं जो मानवीय आदर्शों (सहिष्णुता, सदाचार और नैतिकता) के संदर्भ में मुस्लिम
समाज से बढ़कर कोई उदाहरण प्रस्तुत कर सकें।
कार
का फ़ैसला ड्राईवर से न कीजिए मान लीजिए कि आपने एक नए माॅडल की मर्सडीज़ कार के
गुण-दोष जानने के लिए एक ऐसे व्यक्ति को थमा देते हैं जो गाड़ी ड्राइव करना नहीं
जानता। ज़ाहिर है कि व्यक्ति या तो गाड़ी चला ही नहीं सकेगा या एक्सीडेंट कर देगा।
प्रश्न यह उठता है कि क्या ड्राईवर की अयोग्यता में उस गाड़ी का कोई दोष है? क्या यह ठीक होगा कि ऐसी
दुर्घटना की स्थिति में हम उस अनाड़ी ड्राईवर को दोष देने के बजाए यह कहने लगें कि
वह गाड़ी ही ठीक नहीं है? अतः किसी कार की अच्छाईयाँ जानने के लिए किसी
व्यक्ति को चाहिए कि उसके ड्राईवर को न देखे बल्कि यह जायज़ा ले कि स्वयं उस कार
की बनावट और कारकर्दगी इत्यादी कैसी है। जैसे वह कितनी गति से चल सकती है। औसतन
कितना ईंधन लेती है। उसमें सुरक्षा के प्रबन्ध कैसे हैं, इत्यादि। यदि मैं केवल तर्क के रूप
में यह मान भी लूँ कि सारे मुसलमान बुरे हैं तब भी इस्लाम का उसके अनुयायियों के
आधार पर फ़ैसला नहीं कर सकते। यदि आप वास्तव में इस्लाम का विश्लेषण करना चाहते
हैं और उसके बारे में ईमानदाराना राय बनाना चाहते हैं तो आप इस्लाम के विषय में
केवल पवित्र क़ुरआन और प्रामाणिक हदीसों के आधार पर ही कोई राय स्थापित कर सकते
हैं। इस्लाम का विश्लेषण उसके श्रेष्ठतम पैरोकार अर्थात हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु
अलैहि वसल्लम के द्वारा कीजिए
यदि
आप पूर्ण रूप से जानना चाहते हैं कि कोई कार कितनी अच्छी है तो उसका सही तरीकष यह
होगा कि वह कार किसी कुशल ड्राईवर के हवाले करें। इसी प्रकार इस्लाम के श्रेष्ठतम
पैरोकार और इस्लाम की अच्छाईयों को जाँचने का सबसे अच्छी कसौटी केवल एक ही हस्ती
है जो अल्लाह के आख़िरी पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम
के अतिरिक्त कोई और नहीं है। मुसलमानों के अतिरिक्त ऐसे ईमानदार और निष्पक्ष
इतिहासकार भी हैं जिन्होंने हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को श्रेष्ठतम
महापुरुष स्वीकार किया है। ‘‘इतिहास के 100 महापुरुष’’ नामक पुस्तक के लेखक माईकल
हार्ट ने अपनी पुस्तक में आप (सल्लॉ) को मानव इतिहास की महानतम विभूति मानते हुए
पहले नम्बर पर दर्ज किया है। (पुस्तक अंग्रेज़ी वर्णमाला के अनुसार है परन्तु लेखक
ने हुजूष्र (सल्लॉ) की महानता दर्शाने के लिए वर्णमाला के क्रम से अलग रखकर सबसे
पहले बयान किया है) लेखक ने इस विषय में लिखा है कि ‘‘हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का
व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली और महान है कि उनका स्थान शेष सभी विभूतियों से बहुत
ऊँचा है इसलिए मैं वर्णमाला के क्रम को नज़रअंदाज़ करके उनकी चर्चा पहले कर रहा
हूँ।’’
इसी प्रकार अनेक ग़ैर मुस्लिम इतिहासकारों ने हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की प्रशंसा की है इन में थामस कारलायल और लामर्टिन इत्यादि के नाम शामिल हैं।
एक समय में
एक से अधिक पति (Polygamy)
प्रश्नः यदि
एक पुरूष को एक से अधिक पत्नियाँ करने की अनुमति है तो इस्लाम में स्त्री को एक
समय में अधिक पति रखने की अनुमति क्यों नहीं है?
उत्तरः अनेकों
लोग जिन में मुसलमान भी शामिल हैं, यह पूछते हैं कि आख़िर इस्लाम मे पुरूषों के
लिए ‘बहुपत्नी’ की अनुमति है जबकि स्त्रियों के लिए यह
वर्जित है, इसका
बौद्धिक तर्क क्या है?क्योंकि उनके विचार में यह स्त्रि का ‘‘अधिकार’’ है जिससे उसे वंचित किया गया है आर्थात उसका
अधिकार हनन किया गया है।
उत्तर
:पहले तो मैं आदरपूर्वक यह कहूंगा कि इस्लाम का आधार न्याय और समता पर है। अल्लाह
ने पुरूष और स्त्री की समान रचना की है किन्तु विभिन्न योग्यताओं के साथ और
विभिन्न ज़िम्मेदारियों के निर्वाहन के लिए। स्त्री और पुरूष न केवल शारीरिक रूप
से एक दूजे से भिन्न हैं वरन् मनोवैज्ञानिक रूप से भी उनमें स्पष्ट अंतर है। इसी
प्रकार उनकी भूमिका और दायित्वों में भी भिन्नता है। इस्लाम में स्त्री-पुरूष (एक
दूसरे के) बराबर हैं परन्तु परस्पर समरूप (Identical) नहीं है।
पवित्र क़ुरआन की पवित्र सूरह ‘‘अन्-निसा’’ की 22वीं और 24वीं आयतों में उन स्त्रियों की सूची दी गई है जिनसे मुसलमान विवाह नहीं कर सकते। 24 वीं पवित्र आयत में यह भी बताया गया है कि उन स्त्रियों से भी विवाह करने की अनुमति नहीं है जो विवाहित हो। निम्ननिखित कारणों से यह सिद्ध किया गया है कि इस्लाम में स्त्री के लिये एक समय में एक से अधिक पति रखना क्यों वर्जित किया गया है।
1. यदि किसी व्यक्ति के एक से अधिक पत्नियाँ हों
तो उनसे उत्पन्न संतानों के माता-पिता की पहचान सहज और संभव है अर्थात ऐसे बच्चों
के माता-पिता के विषय में किसी प्रकार का सन्देह नहीं किया जा सकता और समाज में
उनकी प्रतिष्ठा स्थापित रहती है। इसके विपरीत यदि किसी स्त्री के एक से अधिक पति
हों तो ऐसी संतानों की माता का पता तो चल जाएगा लेकिन पिता का निर्धारण कठिन होगा।
इस्लाम की सामाजिक व्यवस्था में माता-पिता की पहचान को अत्याधिक महत्व दिया गया
है।
मनोविज्ञान
शास्त्रियों का कहना है कि वे बच्चे जिन्हें माता पिता का ज्ञान नहीं, विशेष रूप से जिन्हें अपने
पिता का नाम न मालूम हो वे अत्याघिक मानसिक उत्पीड़न और मनोवैज्ञानिक समस्याओं से
ग्रस्त रहते हैं। आम तौर पर उनका बचपन तनावग्रस्त रहता है। यही कारण है कि
वेश्याओं के बच्चों का जीवन अत्यंत दुख और पीड़ा में रहता है। ऐसी कई पतियों की पत्नी
से उत्पन्न बच्चे को जब स्कूल में भर्ती कराया जाता है और उस समय जब उसकी माता से
बच्चे के बाप का नाम पूछा जाता है तो उसे दो अथवा अधिक नाम बताने पड़ेंगे।
मुझे उस आधुनिक विज्ञान की जानकारी है जिसके द्वारा ‘‘जेनिटिक टेस्ट’’ या DNA जाँच से बच्चे के माता-पिता की पहचान की जा सकती है, अतः संभव है कि अतीत का यह प्रश्न वर्तमान युग में लागू न हो।
2. स्त्री की अपेक्षा पुरूष में एक से अधिक पत्नी का रूझान अधिक है।
3. सामाजिक जीवन के दृष्टिकोण से देखा जाए तो एक पुरूष के लिए कई पत्नियों के होते हुए भी अपनी ज़िम्मेदारियाँ पूरी करना सहज होता है। यदि ऐसी स्थिति का सामना किसी स्त्री को करना पड़े अर्थात उसके कई पति हों तो उसके लिये पत्नी की ज़िम्मेदारिया कुशलता पूर्वक निभाना कदापि सम्भव नहीं होगा। अपने मासिक धर्म के चक्र में विभिन्न चरणों के दौरान एक स्त्री के व्यवहार और मनोदशा में अनेक परिवर्तन आते हैं।
4. किसी स्त्री के एक से अधिक पति होने का मतलब यह होगा कि उसके शारीरिक सहभागी (Sexual Partners) भी अधिक होंगे। अतः उसको किसी गुप्तरोग से ग्रस्त हो जाने की आशंका अधिक होगी चाहे वह समस्त पुरूष उसी एक स्त्री तक ही सीमित क्यों न हों। इसके विपरीत यदि किसी पुरूष की अनेक पत्नियाँ हों और वह अपनी सभी पत्नियों तक ही सीमित रहे तो ऐसी आशंका नहीं के बराबर है। उपरौक्त तर्क और दलीलें केवल वह हैं जिनसे सहज में समझाया जा सकता है। निश्चय ही जब अल्लाह तआला ने स्त्री के लिए एक से अधिक पति रखना वर्जित किया है तो इसमें मानव जाति की अच्छाई के अनेकों उद्देश्य और प्रयोजन निहित होंगे
कुर्बानी जीव हत्या और बलिदान पुन्य!
जैसा कि आप सब लोग जानते हैं कि" ईद उल
अजहा" पर मुस्लिमों की तरफ से जानवर की कुर्बानी दी जाती है, तो कुछ लोग आपत्ति
करते हैं कि मुसलमान कुर्बानी क्यों
करते हैं? ज़ाहिर है उनमें से कुछ लोगों का मकसद इसके पीछे की
वजह जानना होता है, पर कुछ लोगों का मकसद सिर्फ और सिर्फ जीव
हत्या के नाम पर नफरत फैलाना और एक कम्युनिटी को बदनाम करना होता है।
मित्रों! जिन्हे इस कुर्बानी वाली ईद से ही
प्रॉब्लम है, और वो जीव हत्या का रोना रोते हैं और कहते हैं कि मुसलमान कुर्बानी क्यों करते
हैं? अब ये न कहें कि हमें ईद से नहीं कुर्बानी से प्रॉब्लम है,
तो साफ साफ बात ये है कि ये ईद कुर्बानी पर ही केंद्रित है, बाकि बिना कुर्बानी वाली इससे लगभग दो महीने दस दिन पहले निकल चुकी होती है,
हमारे वो भाई पहले जीव हत्या के मसले को साफ करें कि जीव हत्या की हकीकत
क्या है। जब तक जीव हत्या का मसला साफ नहीं होगा, ये ईद समझ नहीं
आएगी और मुसलमान कुर्बानी क्यों करते हैं ये भी समझ नहीं आएगा?
अगर आपने छोटे बच्चों की विज्ञान की पुस्तक
भी पढ़ी होगी तो आपको समझ आ जाएगा कि पेड़ पौधे भी जीव होते हैं, तो जीव हत्या तो सभी करते
हैं, हां ये बात अलग है कि पेड़ पौधों और जानवर में फर्क होता
है, ये हम मानते हैं, लेकिन अगर बात जीव
हत्या की ही हो, तो शाकाहारी लोग ज़्यादा जीव हत्या करते हैं
क्योंकि शाकाहार में मांसाहार से कहीं ज़्यादा जीव खत्म होते हैं, कैसे? आप जानते हैं कि एग्रीकल्चर इंडस्ट्री में क्या
होता है, कितने जीव मारे जाते हैं तो फसल तैयार होती है,
ये बेवकूफी की बात होगी कि उनका तड़पना अगर आपको नहीं दिखता तो वहां
जीव हत्या नहीं हो रही, वहां तो असंख्य जीव मरते हैं,
मांसाहार में तो एक जीव कई लोगों के लिए काफी हो जाता है। ये सिस्टम
खुदा ने ऐसे ही रखा है कि जीव जीव को ही खा सकता है, निर्जीव
को नहीं खा सकता। तो पहले तो ये तय करें कि अगर बात जीव हत्या की ही है, तो शाकाहारी लोग सबसे ज़्यादा जीव हत्या करते हैं, वो
भी उन करोड़ों जीवों की, जिनको वो खाते ही नहीं, बस पेस्टीसाइड्स के ज़रिए मार देते हैं। तो पहले तो विरोध की भाषा बदलिए। जिस
चीज़ को खाने की इजाज़त खुदा ने दी है, वो हत्या नहीं कहलाएगी,
वरना इससे कोई नहीं बचेगा, बल्कि शाकाहारी तो और
बड़े हत्यारे सिद्ध हो जाएंगे। खुदा ने शेर को मांसाहारी बनाया, हाथी को शाकाहारी बनाया, और मनुष्य को मिश्रहारी बनाया,
ये सब उसने तय किया है, मनुष्य प्राकृतिक रूप से
मिश्रहारी है, उसके शरीर की बनावट इसको सिद्ध करती है:
1- मांसाहारी जानवरों के पूरे
विकसित कैनाइन टीथ (नुकीले दांत) होते हैं, जबकि शाकाहारी जानवरों
के नहीं होते, और मनुष्य के दांतों की बनावट इनके बीच में होती
है।
2- मांसाहारी जानवरों के जबड़ों
की मूवमेंट वर्टिकल (ऊपर नीचे) होती है, शाकाहारी जानवरों की
हॉरिजॉन्टल (दाएं बाएं) होती है, जबकि मनुष्य के जबड़े दोनों
और चलते हैं।
3- मांसाहारी जानवरों के मुंह
में एसिडिक एंजाइम्स बनते हैं, शाकाहरी जानवरों के मुंह में बेसिक
एंजाइम्स बनते हैं, जबकि मनुष्य के मुंह में दोनों तरह के एंजाइम्स
बनते हैं।
4- मांसाहारी जानवरों के बच्चों
की आंखें पैदाइश पर बंद होती हैं, और लगभग 1 हफ्ते बाद खुलती हैं, शाकाहारी जानवरों के बच्चों की
आंखें पूरी तरह खुली होती है, और मनुष्य के का बच्चा कम रोशनी
में खोलता और अधिक रोशनी में बंद रखता है।
इन सब पॉइंट्स से पता चलता है कि मनुष्य इन
दोनों के दरमियान की प्रजाति है, इसको खुदा ने ऐसा ही बनाया है। और इनको खाने की इजाज़त उस खुदा
ने ही दी है, तो उसी का नाम लेकर हम इन्हें खाते हैं। अब जो लोग
जीव हत्या पर सवाल उठाते हैं उनको ग्रंथों से कुछ सबूत यहां रखूंगा।
विधि क्या है, विधि वही है कि इनको खाने की इजाज़त खुदा ने हमें दी है, खुदा के बताए हुए तरीके और उसके नाम से उनको खाया जाएगा, इसीलिए मुस्लिम जब जानवर को ज़िबह करते हैं, तो एक ख़ास विधि के साथ अल्लाह का नाम उस पर लेते हैं, अगर उस ख़ास विधि के साथ उस पर अल्लाह का नाम नहीं लिया तो वो जानवर खाना मुस्लिम के लिए "हलाल" नहीं होगा, फिर वो वाकई हत्या हो जाएगी। तो जानने वाले इस बात को जानते हैं, इसीलिए हिंदुस्तान में भी 35% शाकाहारी हैं, 65% मांसाहारी हैं, इन 65% में कौन कौन होंगे, बताने की ज़रूरत नहीं। हिन्दुस्तान के कई धार्मिक स्थलों पर कितनी बलियां दी जाती है, ये किसी से ढकी छुपी बात नहीं है।
कुर्बानी का मसला सिर्फ और सिर्फ एक विशेष
समुदाय के खिलाफ नफरत फ़ैलाने के लिए बनाया जाता है। बाकी कोई मनुष्य पसंद के ऐतबार
से शाकाहारी हो सकता है, उसे मांस अच्छा नहीं लगता, कोई मसला नहीं,
बहुत से मुस्लिम भी शुद्ध शाकाहारी होते हैं।
मनुस्मृति से कुछ और मंत्र देखिए:
प्रजापति ने जीव का सब कुछ खाने योग्य ठहराया
है, सभी स्थावर
(फल, वनस्पति आदि) तथा जंगम (पशु, पक्षी,
जलचर आदि) जीवों के भोजन हैं। ★मनुस्मृति (5:28)
प्रतिदिन भी खाने योग्य जीवों को खाने वाला
दोषी नहीं होता, क्योंकि सृष्टा ही ने भक्ष्य (खाने योग्य) तथा भक्षक दोनों ही जीवों को बनाया
है। ★मनुस्मृति (5:30)
मित्रों! आईये जानते हैं कि मुसलमान कुर्बानी क्यों करते हैं? कुर्बानी के गोश्त के तीन हिस्से होते हैं, एक अपने लिए, एक अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के लिए। और तीसरा हिस्सा गरीबों के लिए होता है, वो लोग जो अक्सर इस पौष्टिक आहार से दूर रहते हैं और उन्हें ये बहुत कम मिलता है, उनको भी अपने साथ इसमें शामिल किया जाता है, और इस त्यौहार को इस तरह मुहब्बत से आर्थिक तौर पर मजबूत व कमज़ोर सब लोग मिल कर मनाते हैं!और यहां यह सवाल उठाया जाता है कि हज़रत इब्राहिम अलैहिस्सलाम तो अपने बेटे की कुर्बानी देने गए थे, क्योंकि उनको बेटा सबसे ज़्यादा पसंद था, तो आप अपने बेटों की कुर्बानी दें, जानवरों की क्यों देते हैं, इस सवाल के जैसा एक जवाब तो ये है कि बेटे की कुर्बानी दे दें तो उस को खाया नहीं जा सकता, अल्लाह के लिए किए गए हर काम का मकसद होता है, जानवर खाए जाते हैं गरीबों को गोश्त मिलता है, और हम त्यौहार मनाते हैं, बेटे की कुर्बानी से क्या हासिल होगा?
अब विस्तार से जानकारी हासिल कीजिए:
1-मनुष्य प्राकृतिक रूप से शाक व मांस खाने वाला सर्वाहारी प्राणी है
कुछ लोग शारीरिक बनावट के आधार पर मनुष्य का
मिलान शाकाहारी पशुओं से कर के मनुष्य को शाकाहारी जानवर सिद्ध करना चाहते हैं, और मनुष्य मे मांसाहारी जानवरों
के अंग पारिस्थितिक अनुकूलता के कारण उत्पन्न होना मानते है और कुछ लोग मांसाहारी पशुओं
से मिलान कर के मनुष्य को मांसाहारी सिद्ध करना चाहते हैं क्योंकि मनुष्य मे शाकाहारी
पशुओं के समान भी कई लक्षण हैं और मांसाहारी के समान भी इसलिए बहस लम्बी खिचती जाती
है इस बहस का अंत मै इतना कहकर करना चाहता हूँ कि मनुष्य सर्वाहारी प्राणी है यानी
मनुष्य प्राकृतिक रूप से साग और मांस दोनों खाने के लिए बना है ,देखिए कि मनुष्य की बनावट सबसे ज्यादा बन्दर से मिलती है और बन्दर भी एक सर्वाहारी
जानवर है बन्दर फलों के साथ पक्षियों के अण्डे और कीड़े मकोड़े भी शौक से खाते हैं
और मनुष्यों मे मांसाहारी अंग होने का कारण पारिस्थितिक अनुकूलन को बताना भी ठीक नहीं.
आप देखेंगे कि शाकाहारी जानवरों के हाथ पैरों मे न अंगुलियां होती हैं और न नाखून जबकि
मांसाहारी जानवरों मे शिकार को चीरने फाड़ने के लिए नाखून भी होते हैं, और शिकार को पकड़ कर खाने के लिए अंगुलियां भी
अगर पारिस्थितिक अनुकूलता का ही नियम मानकर
चलें यदि मनुष्य शाकाहारी जीव था तो उसके हाथ पैरों मे अंगुली और नाखूनों की जरूरत
नहीं थी, न कभी उसे शिकार
की इच्छा होती फिर मनुष्य के शरीर मे अंगुली और नाखून कैसे बन पाए ?और बने तो बने अब जब हजारो वर्षों से जब मनुष्य को नाखूनों की कोई आवश्यकता
नहीं है, तो पारिस्थिक अनुकूलन के नियम के चलते ये नाखून लुप्त
क्यों नहीं हो जाते ?
ज़रा सोचिए!
2- जीवों पर वास्तविक क्रूरता
हैं उनका जीवन कष्टपूर्ण बनाना एक गैर मुस्लिम भाई से जब हमने उनके यहाँ की पशुओं को
लोहे की गर्म सलाख से दागने की प्रथा के विषय मे कहा कि खुदा के बनाए जीवों को अकारण
कष्ट देना पाप है, तो वे भाई बोले कि एक तरफ तो तुम मुस्लिम कहते
हो कि हर जीव पर दया करनी चाहिए, वहीं दूसरी तरफ तुम सब लोग मांस
खाते हो ॥ भला ये जीवों पर दया हुई ?हमने उन भाई से कहा :मेरे
भाई, अल्लाह की बनाई हर वस्तु को कष्ट देने से इस्लाम रोकता है,
यानी जानवरों को अकारण घायल करने की भी इस्लाम में मनाही है,
पेड़ पौधों को अकारण काटने पर भी इस्लाम मे मनाही है और यहाँ तक कि धरती
पर पैर पटक कर चलने पर भी मनाही है क्योंकि चेतना इन सभी चीजों मे होती है,
रही बात जानवरों को भोजन के लिए उनके प्राण लेने की, तो भाई ये जान लीजिए कि कुदरत ने इन्सान को बनाया ही ऐसा है कि वो अपनी भूख
मिटाने के लिए अन्य जीवों की हत्या करता है, मनुष्य के खाने की
हर चीज में प्राण होते है ,सब्जी से लेकर दूध और पानी सब मे लाखों
जीवाणुओ का वास होता है पेड़ो मे पशुओं के समान ही जान होती है और भोजन करे बिना मनुष्य
का जीवन सम्भव ही नहीं है यानि जीवों पर दया कि सम्बन्ध मनुष्य के भोजन से नहीं है
चूंकि भोजन करने के लिए व्यक्ति प्राकृतिक रूप से ही मजबूर है, यदि भोजन न करे तो उस व्यक्ति की स्वयं बड़ी दर्दनाक मौत हो जाएगी. तो मजबूरी
मे किए जाने वाला ये कार्य अत्याचार की श्रेणी मे नहीं आता बल्कि आत्मरक्षा की श्रेणी
मे आता है ॥
मनुष्य को अपना जीवन बचाने के लिए किसी न किसी
जीव हत्या करनी ही पड़ती है चाहे वो मनुष्य सम्पूर्ण शाकाहारी भोजन ही क्यों न करता
हो. ये क्रूरता नहीं है क्योंकि जीव खाना बनाने के समय ही मर जाता है और उसको बहुत
ही कम पीड़ा झेलनी पड़ती है लेकिन जीवों को घायल कर के छोड़ देने पर वो पशु महीनों
तक पीड़ा झेलते रहते हैं तड़पते रहते हैं, जबकि उन पशुओं के पीड़ा झेलने
से न तो किसी को कोई लाभ होता है न किसी के प्राण बचते हैं ,तो
इस तरह जीवों को घायल कर देना या उनके अंग भंग कर के कष्टकारी जीवन देना अथवा जानवरों
को बेदर्दी से पीटते रहना ही वास्तव मे क्रूरता है ।
3- मांसाहार से कैसे बच पाएंगे आप
1683 ईसवी मे एण्टोनी वॉन ल्यूवेनहॉक
(Antoy Von Leeuwenhoek) ने अपने बनाए सूक्ष्मदर्शी से पानी,
मुंह की लार, और दांत से खुरचे हुए मैल के अन्दर
देखा तो उन्हें उनमें असंख्य महीन कीड़े चलते नजर आए, ये जीवाणु
यानी बैक्टीरिया थे
ये महीन कीड़े हमेशा, हर मनुष्य के मुंह मे रहते
हैं, और हर खाने पीने की चीज के साथ मनुष्य इनको भी जिन्दा ही
खा डालता है
पानी मे Clostridium Butyrium नाम का जीवाणु होता है. तो जो जीवहत्या के विरोधी हैं, उन्हें निर्जल उपवास करते रहना चाहिए आजीवन, क्योंकि एक ही घूंट पानी पीने पर वो लाखों निर्दोष जीवों की हत्या के दोषी जो बन जाते हैं Bacteria जब छोटा ही होता है तभी इंसान उसे खा डालता है, यदि बैक्टीरिया का बड़ा रूप देखना है तो दही को कुछ दिन के लिए रख छोड़िए बैक्टीरिया उसमें बडे बडे कीड़े बना देगा जिन्हें आप नंगी आंख से भी देख पाओगे
दही Lactic Acid Bacteria की वजह से जमता है,
शाकाहारी लोग मजे से दही खाते हैं लेकिन अगर वो लोग अच्छी दही मे भी
सूक्ष्मदर्शी लगाकर देखें तो उसमें भी महीन कीड़े तैरते नजर आएंगे
अब अगर कोई ये सोचे कि दही छोड़ो अब से हम
दूध पिया करेंगे, तो ये भी सुन लीजिए कि दूध मे भी Bacterium Lactici
Acidi और Bacterium Acidi LactiCi नाम के ज़िन्दा
जानवर हमेशा मौजूद रहते हैं ॥
तो भाईयों, मांसाहार से कैसे बच पाएंगे आप ?
4-मांस मनुष्य के लिए अखाद्य है तो पूरे विश्व के मनुष्यो का प्रिय भोजन मांस कैसे ?
इंसान या जानवर को जिस भी खाने से सबसे ज्यादा
पोषण मिलता है एक खास कुदरती निज़ाम है कि वो उसी खाने को सबसे ज्यादा पसंद भी करता
है
जैसे बकरियों को आप हरे पत्ते दिखा दो, तो वो अपनी जान पर खेल कर
उन्हें खाने पहुंच जाएंगी, अगर जंगल मे शेर को हिरन नजर आ जाए
तो वो पूरे जंगल मे उस हिरन के पीछे दौड़ लगाकर आखिर उस हिरन को खा ही लेगा
उसी तरह अगर आप किसी गोश्त खाने वाले शख्स
से उसकी मन पसंद डिश का नाम पूछो तो वो फौरन किसी गोश्त की डिश का ही नाम लेगा , हालांकि उसने सभी तरह के फल
और सब्जियां खाए होते हैं, लेकिन उसे गोश्त से अधिक स्वादिष्ट
कुछ नहीं लगता
सबसे ज्यादा स्वास्थ्यवर्धक और पोषक खाना ही
सबसे ज्यादा स्वादिष्ट लगता है ये बात शाकाहारी लोग भी समझ सकते हैं क्योंकि उन्हें
भी उबली दाल और रूखी रोटी से ज्यादा स्वादिष्ट सब्जी पूड़ी, घी, मक्खन और तले हुए मेवे लगते हैं ,तो जब एक बकरी किसी
मुर्गी को खाने के लिए उसके पीछे नहीं दौड़ती ,कोई शेर कभी सेब
खाने के लिए पेड़ पर नहीं चढ़ता. उसी तरह अगर गोश्त आदमी के लिए अखाद्य होता तो बिरयानी
की महक नाक मे जाते ही आदमी को भूख न लगने लगती , दुनिया भर की
दावतें गोश्त के बिना अधूरी न रहतीं।
दुनिया मे पहली बार जब किसी आदमी ने शिकार
कर के गोश्त खाया होता तो वो उसे खा ही न पाता और कभी गोश्त खाने का रिवाज ही आदमियों
मे न चल पाता
लेकिन पहली बार शिकार करने वाले आदमी को गोश्त
खाना अच्छा ही लगा इसलिए वो बार बार शिकार कर के गोश्त खाने लगा. तो गोश्त खाना अप्राकृतिक
नहीं है बल्कि पूरी तरह प्राकृतिक काम है खुदा ने हमें गोश्त खाने लायक बना के पैदा
किया है
5-कुछ लोग तर्क करते हैं कि
भले ही मांस कितना ही स्वास्थ्यवर्धक हो पर मांस खाना अनैतिक है क्योंकि जानवर को मांस
पाने के लिए काटने पर जानवर को बहुत पीड़ा होती है, जबकि पौधों
में दर्द का पता चलाने वाली ग्रंथि नहीं होती इसलिए पौधों को काटे जाने पर कोई दर्द
का एहसास नहीं होता. इसलिए शाकाहार नैतिक है, जबकि मांसाहार निर्दयता
और क्रूरता है.
ये तर्क भी पूरी तरह मिथ्या पर आधारित होने
के कारण बेकार है क्योंकि चेतना तो हर जीव मे बलकि पेड़ पौधों तक मे भी बड़ी जागृत
होती है ये तथ्य तो भारत के महान वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बसु ने ही सिद्ध कर दिया था
हर जीव और वनस्पति को पीड़ा पहुंचती है पीड़ा पहुंचाए जाने पर हर जीव चीखता चिल्लाता, कांपता और भागता है.
हां ये बात और है कि उनका चीखना चिल्लाना और
कांपना वगैरह मनुष्य को नहीं दिखता,तो ऐसा कहिए कि अपनी सुनने देखने की खराब क्षमता
के कारण इन्सान कुछ जीवों को तो छोड़ देता है और उनके बदले अनेकों जीवों की क्रूरतापूर्वक
हत्या करता चला जाता है ,और फिर खुद को आदर्शवादी भी बनता है!
6- क्या भोजन के पशु हत्या का
आदेश देकर अल्लाह ने बेजुबान पशुओं के साथ बैर किया है ?
प्रश्न ये है कि अल्लाह यदि प्राणि मात्र से
प्रेम करता है तो केवल जानवरों की ही बलि क्यों लेता है, मनुष्यों की क्यों नहीं ?
ये प्रश्न अक्सर इस रूप मे पूछा जाता है कि
अल्लाह ने पशुओं को मारने की अनुमति देकर बेजुबान पशुओं से शत्रुता क्यों निभाई ??
इस प्रश्न का सीधा सा उत्तर है कि अल्लाह मनुष्य
की बलि इसलिए नहीं लेता क्योंकि अल्लाह ने मनुष्य को अपनी इबादत के उद्देश्य से बनाया
है, न कि किसी प्राणी
का भोजन बनने के उद्देश्य से, जबकि मनुष्य के अतिरिक्त सारे जीवजगत
, वनस्पतियों आदि को मनुष्य के उपभोग के लिए बनाया है ( कुछ पौधे
व पशु भोजन के लिए, शेष धरती पर मनुष्य का जीवन सुगम बनाने के
लिए बनाए ) तो जिसको बनाने का जो उद्देश्य है उसके लिए अल्लाह ने वैसा ही आदेश दिया
है । यानी मनुष्यो के लिए इबादत (सदाचार), और कुछ पशुओं के लिए
मनुष्य का भोजन बनना,साथ ही अल्लाह ने मनुष्य के हर खाद्य मे
जीव और प्राण रखकर ये कहे जाने की सम्भावना को बिल्कुल खत्म कर दिया है कि अपना पेट
भरने के लिए जीव हत्या करना क्रूरता है. जो मनुष्य इस धरती पर रहकर कुछ भी खाएगा पीएगा
वो जीव हत्यारा ही होगा ,
अल्लाह का जीव जगत के प्रति प्रेम सत्य है
जिस तरह वो मनुष्यों से प्रेम करता है और मनुष्यों को कष्ट देनेवाले पर कुपित होता
है वैसे ही समस्त जीवजगत से भी वो प्रेम करता है और इनको भी अकारण कष्ट देने वालों
पर कुपित होता है और ये कतई न समझा जाए कि कुछ पशुओं को खाने के लिए मारने की अनुमति
देकर, उन पशुओं से
कोई बैर किया है क्योंकि जिस अल्लाह के आदेश पर मनुष्य खाने के लिए पशुओं को मारते
हैं, उसी अल्लाह के आदेश पर मौत का फरिश्ता तमाम मनुष्यों को
भी मार देगा. चाहे उनमें अल्लाह के कितने ही प्रिय मनुष्य क्यो न हों,स्पष्ट है कि जीवन देने और मारने से भले हम मनुष्यों के प्रेम और बैर का आकलन
कर सकते हैं, पर अल्लाह के प्रेम और बैर का आकलन जीवन देने और
मारने से अलग रखकर किया जाना चाहिए, यानि प्राणी जब तक जिए तब
तक सुखपूर्ण परिस्थितियों मे जिए, यही व्यवस्था अल्लाह ने प्राणिमात्र
के लिए बनाई है, और ये व्यवस्था बनाए रखने का मनुष्यों को आदेश
दिया है, और यही उसका प्राणिमात्र के लिए प्रेम है , जो सबके लिए हितकारी है !!
7- पशुबलि का आदेश इस्लाम में
क्यों हैं ?
कुछ लोगों का सवाल है कि ठीक है कोई भी व्यक्ति
अपनी इच्छा से मांस खा सकता है क्योंकि जैसी जीवहत्या मांसाहार मे होती है वैसी ही
जीव हत्या शाकाहार मे भी होती है. लेकिन जब जीव हत्या अपनी इच्छा के बजाय धार्मिक आडम्बर
के रूप मे की जाए तो वही सबसे बुरी बात है, और पशुओं की कुरबानी देने से जन्नत मिलने की
बात या बकरीद मे निर्दोष जीवों की हत्या करने से अल्लाह के प्रसन्न होने की बात बड़ी
निन्दा योग्य है क्योंकि अपने बनाए जीवों की हत्या करवा के ईश्वर कभी प्रसन्न नहीं
हो सकता ।
कुछ लोग ये भी कुतर्क करते हैं कि हजरत इब्राहीम
के अपने पुत्र की कुरबानी देने की याद मनाने के लिए मुस्लिम बकरीद मनाते हैं , तो यदि वास्तव में मुस्लिम
भाई अल्लाह को खुश करना चाहते हैं तो क्यों न वे अपने पुत्र की कुर्बानी दिया करे?
इस बात का तो इतना ही जवाब है कि हजरत इब्राहीम
ने भी अल्लाह के आदेश को सर माथे लेकर अपने पुत्र की कुर्बानी का निश्चय किया था, और मुसलमान भी अल्लाह के आदेश
को सर माथे लेकर बकरीद मे जानवर जिबह कराते हैं ,मुसलमान कभी
अपनी इच्छा से उस हद से आगे नही बढ़ सकता जो अल्लाह ने उसके लिए नियत कर दी हैं वरना
मैंने ऐसे कई मूर्ख भी देखे हैं जो अपनी मूढ़
बुद्धि लगाकर अपने नहीं पर दूसरों के पुत्रों की बलि जरूर ईश्वर के प्रसन्न होने की
झूठी आशा मे कर डालते हैं ।
इन लोगों के विरोध का कारण अस्ल मे संसार के
सभी धर्मों मे फैले बलि प्रथा के विकृत स्वरूप के कारण है इन धर्मों मे ये मान्यता
थी और है कि बलि दिए गए पशु का मांस ईश्वर खाता है और तब प्रसन्न होता है ईश्वर तक बलि दिए पशु का रक्त और मांस पहुंचाने
के लिये वे लोग पशु के मांस को आग मे जला कर खत्म कर देते थे या अपने मन्दिरों में
देवता की मूर्ति के आगे बने कूप मे डाल देते थे अर्थात् मांस का कुछ भाग या सम्पूर्ण
मांस इस तरह अकारण ही नष्ट कर डालते थे, या फिर ईश्वर तक उस मांस को पहुंचाने के लिए
उन पुजारियों को खिलाते थे जिनके पेट पहले ही भरे होते थे. पशुओं के मांस की बर्बादी
के इन कर्मकाण्डों का ही अनेक महात्माओं ने विरोध किया है परंतु इस्लाम मे पशुओं की
कुरबानी का उद्देश्य अल्लाह को वो मांस खिलाकर प्रसन्न करना नहीं है बल्कि अल्लाह तो
खाने-पीने , सोने-जागने और प्रसन्न और दुखी होने जैसी मानवीय
भावनाओं से परे है
देखिए अल्लाह स्वयं पवित्र कुरान मे फरमाता
है कि कुरबानी के पशुओं के रक्त और मांस उसे नहीं चाहिए बल्कि वो तो मनुष्य को सन्मार्गी
बनाना चाहता है
" ना उनके मांस अल्लाह
को पहुंचते हैं और न उनका रक्त ही अल्लाह को पहुंचता है किन्तु उस तक तुम्हारा तक़वा
( अल्लाह के लिए सत्कार्य का वरण और दुष्कर्म का त्याग करने की प्रवृत्ति ) पहुंचता
है ॥"(पवित्र कुरान 22:37 )
हां ये है कि यदि हम अल्लाह की आज्ञा मानकर
मानवजाति की सेवा करें तो अल्लाह का आशीर्वाद हमें प्राप्त होगा जिसे मानवीय भाषा मे
हम अल्लाह का प्रसन्न होना कह देते हैं इस
के विपरीत यदि हम मनुष्यों को कष्ट दें तो उस के परिणामस्वरूप अल्लाह हमें दण्ड देगा, जिस स्थिति को हम मानवीय भाषा
मे अल्लाह की अप्रसन्नता या क्रोध कह देते हैं ।
अतः "पशुओं की कुरबानी का आशय भी यही
है कि पैसे वाला मनुष्य, उन निर्धन मनुष्यों को वो भोजन दान करे, जो मनुष्य निर्धनता के कारण कभी पौष्टिक भोजन करने की बात भी नहीं सोच पाते वे अक्सर भूखे रहते हैं, या
जब भोजन करते हैं तो न्यून पौष्टिकता वाला भोजन करते हैं ,क्योंकि
वो भोजन सस्ता होता है, ऐसे मे निर्धन लोग कुपोषण और अनेक रोगों
का शिकार हो जाते हैं
अल्लाह स्पष्ट रूप से फरमाता है कि कुरबानी
का मांस मनुष्य के स्वयं के उपयोग के लिए और गरीबों को दान करने के लिए है, न कि अल्लाह को भेंट चढ़ाने
या पण्डे पुजारियों के लिए :-
" ताकि वो उन लाभों को
देखें जो वहाँ उन के लिए रखे गए हैं, और कुछ ज्ञात और निश्चित
दिनों मे उन चौपायो पर अल्लाह का नाम लें, जो अल्लाह ने उन्हें
दिए हैं . फिर उस मे से खुद भी खाओ और भूखे तंगहाल को भी खिलाओ "(पवित्र कुरान
22:28)
तो बकरीद मे हम पशु की कुरबानी कर के न उस
का मांस जलाते हैं, न व्यर्थ फेंकते हैं, न भरे पेट वाले धार्मिक
गुरु को खिलाते है बल्कि मांस के तीन भाग करते हैं एक भाग निर्धन मोहताजो को दान करते
हैं, दूसरा भाग देने के लिए अपने कमजोर आर्थिक स्थिति वाले दोस्त
और रिश्तेदारों को वरीयता देने का आदेश है और तीसरा भाग स्वयं के खाने के लिए रखते
हैं और पवित्र हदीस मे ये आदेश है कि यदि हमारे आसपास निर्धन लोग अधिक हैं तो हमें
सारा का सारा मांस उनमें दान कर देना चाहिए ॥
तो
बकरीद की कुरबानी हमारे विचार में कोई बेकार का आडम्बर नही बल्कि मोहताज की
सेवा का एक बड़ा पुण्य कार्य है ॥
अंत मे इतना ही कहना चाहता हूँ कि खुदा की
दी हुई नेमतों को व्यर्थ नष्ट करना वाकई एक बड़ा पाप है क्योंकि दुनिया मे संसाधन सीमित
हैं , यदि हम धार्मिक
त्योहार के नाम पर अनाज की बालियां जलाकर नष्ट करते हों, त्योहार
के नाम पर पेड़ काटकर लकड़ियाँ व्यर्थ ही जला डालते हों, त्योहार
के नाम पर दूध और मिठाई जैसी खाने पीने की महंगी चीजें नदी नालों में बहाकर व्यर्थ
कर देते हों, तो उस की जरूर निन्दा करना चाहिए, क्योंकि एक तो ये सारे काम जीवहत्या भी हैं दूसरे, इन
संसाधनो को व्यर्थ नष्ट कर के हम कहीं न कहीं, किसी न किसी को
भूखा जरूर मार देते हैं पर हम पाते हैं कि
बकरीद मे ऐसी कोई संसाधनो की बरबादी नहीं है ॥
8- इस्लाम में पशुबलि : पशुओं
के साथ असमानता या मनुष्य की सेवा ?
जब इस प्रश्न कि "इस्लाम मे ईद ए अज़हा
में पशु बलि से अल्लाह खुश क्यों होता है ?" का उत्तर हमने बताया कि ये जानवर अल्लाह
को भोग लगाने के लिए नहीं, बल्कि वृहद स्तर पर निर्धन,
भूखे असहाय लोगों को भोजन दान करने के लिए है. वैज्ञानिक तथ्य से ये
बिल्कुल फल या सब्जी वितरण जैसा है, क्योंकि जान शाक भाजी मे
भी उतनी ही होती है और अल्लाह पशुबलि की बजाय गरीबों की भोजन देकर सहायता करने से आशीर्वाद
देता है जिसे मानवीय भाषा मे अल्लाह का खुश होना कहा जाता है ॥इस पर एक भाई साहब पूछते
हैं कि इस्लाम मे जानवर की कुरबानी गरीब लोगों का पेट भरने के लिए दी जाने पर अल्लाह
प्रसन्न होता है तो क्या वो अल्लाह गरीब जानवरों का पेट भरने के लिए इंसानों की कुरबानी
से भी प्रसन्न होगा ? और अगर नहीं होगा तो बेजुबन जानवरों के
साथ इतना अन्याय अल्लाह क्यों करता है ?
हालांकि मैने भाई को कई बार बताया कि जानवरों
और पौधों एक समान अक्ल और जान और पीड़ा का अनुभव होता है, तो जैसी क्रूरता मांसाहार
है वैसी ही क्रूरता शाकाहार भी है और अगर भोजन के लिए जीवहत्या की अनुमति को अल्लाह
का अन्याय माना जाए, तो आप कैसे इस अन्याय को न्याय मे बदलेंगे
वो बताइए, क्योंकि दुनिया के हर शाकाहारी खाद्य मे भी तो जीव
है, तो न्याय तो तभी हो सकता है जब आप खाना पीना और सांस लेना
भी छोड़ दें. लेकिन भाई इसके लिए राज़ी नहीं मज़े की बात ये है कि भाई को गोश्त खाने
से भी कोई परहेज़ नहीं यानी खुद तो अपने हिसाब से भी ये कोई "न्याय" नहीं
करेंगे बस सिर्फ अल्लाह से शिकायत करेंगे कि वो इन्सान की भी कुरबानी करवाए तभी वो
न्यायप्रिय अल्लाह कहलाएगा वरना नहीं. कुल मिलाकर मुझे तो ये लगा कि भाई इस्लाम मे
बकरीद वाले दिन निर्धनो को भोजन दान के नियम से खफा हैं,
या फिर लगता है भाई के मुताबिक़ धर्म का वो आराध्य सबसे ज्यादा न्यायप्रिय है जो
पशुबलि तो लेता ही है, साथ ही नरबलि भी लेकर प्रसन्न हो जाता है और अपने भक्तों की मनोकामनाओं
को पूरा कर देता है. भाई ऐसा न्याय और ऐसा आराध्य आपको ही मुबारक हो .
विज्ञान से सिद्ध है कि पशुबलि या साग-भाजी, हिंसा दोनों मे है,
लेकिन इस हिंसा बिना मानव जीवन भी असम्भव है सो बकरीद मे ढेर से पशुओं
की हत्या या किसी भी शाकाहारी भोज का आयोजन एक ही बात है और निन्दनीय बात ये होती है जब खाना फेंक कर बर्बाद
किया जाए और ये निन्दनीय काम अधिकतर शाकाहारी भोज के आयोजनों मे होता पाया जाता है
बकरीद के बहाने करोड़ों गरीबों को गोश्त दान
कर के 20-25 दिनों के
उनके भोजन की व्यवस्था कर दी जाती है, ये तो एक बहुत बेहतरीन
और पुण्य का काम है
पर उथली सोच वाले लोग बात को समझना ही नहीं
चाहते ॥
9-एक दिन मे असंख्य पशुओं की
हत्या क्यों ?
अब जबकि पशुओं की हत्या पर कोई आपत्ति बची, न मांसाहार को अनैतिक मानने
का कोई तर्क बचा, तो अजीब आपत्ति उठाई गई कि चलिए सब ठीक है लेकिन
एक दिन मे धर्म के नाम पर असंख्य पशुओं का काट डाला जाना गलत है ?
क्यों गलत है भाई ? न भोजन के लिए जीवहत्या के
सिवा कोई चारा, न गरीब भूखे लोगों को धर्मार्थ भोजन दान के काम
मे आपत्ति का कोई स्थान फिर गलत कैसे ?
जब खुद एक एक कर के पशुओं को काटकर खाना सही
मानते हो तो कुछ निश्चित दिनों मे एक साथ उन जानवरों का काटा जाना गलत और निन्दनीय
क्यों ?
ये मांस भी फेंका नहीं खाया ही जाता है, बल्कि आमतौर पर काटे गए जानवरों
से बढ़कर बकरीद मे काटे गए जानवरों का अधिकांश मांस भूखो को दान कर के पुण्य कार्य
ही किया जाता है ।ये सोच भी निरा भ्रम है कि बकरीद के कारण सामान्य से बहुत अधिक जानवरों
की हत्या कर दी जाती हैं
गौर से देखिए, बैलेन्स वहाँ भी बना हुआ है अरब मे विश्व भर से गए हजयात्रियो के कारण बकरीद के तीन दिनों मे विश्वभर की बाकी जगहों के मुकाबले सर्वाधिक जानवरों को काटा जाता है तो एक बात तो ये कि अरब और उसके आसपास के क्षेत्रों मे रेगिस्तान होने के कारण भोजन के लिए लोग मुख्य तौर पर मांस पर ही निर्भर होते हैं और आम दिनों मे भी अलग अलग स्थानों पर अच्छी खासी मात्रा मे पशु खाने के लिए काटे जाते हैं, बकरीद के दिनों मे केवल इतना ही फर्क पड़ता है कि अनेक पशु एक स्थान पर काट दिए जाते हैं तो वहाँ एक दिन मे इतने जानवर क्यों काटे गए, ये प्रश्न ही बेतुका है. जैसे कोई भारतीयों के विषय मे पूछे कि भारतीय लोग रोज खाना क्यों खाते हैं, तो ये भारतीयों के लिए शर्मिन्दगी की बात नहीं होगी, बल्कि प्रश्न पूछने वाले की मूर्खता का प्रतीक होगा. ॥
और भारत मे अव्वल तो अधिकांश मुस्लिम निम्न
आय वर्ग के हैं, कुछ ही मुस्लिम सम्पन्न हैं जो बकरीद मे पशु ज़िबह कराते हैं फिर देखिए भारत
के जिन क्षेत्रों मे मांस ज्यादा खाया जाता है जैसे रूहेलखण्ड के शहरों मे वर्ष भर
तकरीबन रोज लोग गोश्त खाते हैं तो यहाँ पर
जब बकरीद का समय आता है तो कसाई बकरीद के पहले और बाद मे मांस काटना बेहद कम कर देते
हैं क्योंकि घरों मे तकसीम का गोश्त स्टोर कर के रखा गया होता है इसलिए कसाईयों को
पता होता है कि अभी उनकी बिक्री नहीं होगी.
इसके बरअक्स जिन क्षेत्रों मे मुस्लिम लोग
मांस कम खाते हैं, उदाहरणार्थ पूर्वी उत्तर प्रदेश, जहाँ अमूमन
लोग महीने भर मे एकाध बार गोश्त खाते हैं, वहाँ बकरीद होने के
डेढ़ दो महीने बाद ही गोश्त खरीद कर खाया जाता है यानी औसत वही रह जाता है जो शेष वर्ष
भर मे मांस खाने का रहता है. ॥
अरब देश हों, या भारत जैसा गरीब मुस्लिमों
का देश, जो भी इनसान बकरीद मे जानवर कटवाता है, वो अनिवार्य रूप से 66% गोश्त बांटता है, शेष 33% अपने खाने के लिए रखता है .अरब से गोश्त के पैकेट
बनाकर अफ्रीकी देशों मे बांटे जाते हैं. विश्वभर
मे बकरीद दानपर्व के रूप मे ही मनाया जाता है, क्योंकि कुरान
और हदीस इस गोश्त के दान का आदेश देते हैं, फिर यदि ये मांस दान
न किया जा रहा होता, या फेंका जा रहा होता, तो ये बड़ी निन्दनीय बात तो होती पर इसे फिर भी कुरान और हदीस की कमी तो नहीं
कहा जा सकता था फिर धर्म से ऐसी आपत्तियों का क्या तुक ?
बड़े फालतू की ऐतराज ये भी किए जाते हैं कि
इतनी मंहगी चीज के बदले गरीब को सस्ती चीज दान की जाती तो ज्यादा दिनों तक गरीब का
पेट भरता. मतलब कि अच्छी और मंहगी चीजें खाने का कोई हक ही नहीं गरीब को ?
सारी अच्छी चीजें सिर्फ अमीरों के लिए. ऐसे
आत्मकेन्द्रित और स्वार्थी लोग फिर दया और प्रेम की बात भी करते हैं. अरे भई, इस्लाम तुम्हें एक ही दिन
के दान की शिक्षा नहीं बल्कि हर गरीब को जहाँ तक हो सके दान करने की शिक्षा देता है,
सदका,फितरा, ज़कात जैसे अनेकों
रास्ते तो अनिवार्य कर दिए हैं ताकि कठोर दिलों के लोगों को भी दान करना पड़े और समाज
मे बदहाली न पैदा हो, बाकी तो हमारे नबी ﷺ ने भूखे लाचार लोगों को खाना खिलाने और उनकी सहायता करने की बहुत सारी तालीमात
दी है
10-मंहगे गोश्त का ही दान क्यों
वो भी सुनिए.
मांस शरीर को पुष्ट करता है, और इतनी मात्रा मे गरीबों को मिल जाता है कि वो 20-25 दिन तक रखकर खा सकें यानि सेहत अच्छी करने लायक वक्त के लिए गरीबों को अच्छा खाना मिल जाता है, शेष समय मे भी दान पुण्य पर कोई रोक नहीं है इस्लाम मे जो बकरीद के दान को एक दिन की बहार समझने लगो.
अगर गरीब को गोश्त की कीमत के पैसे दे दिए
जाएं तो वो कभी मंहगी और पौष्टिक चीज खुद खरीद कर खाएगा ? बल्कि वो तो उन पैसों को सेंत
कर रख लेगा ताकि बहुत दिनों तक खाए. और कभी पौष्टिक चीज खरीद कर नहीं खाएगा .जबकि महीने
भर बकरीद मे मिला गोश्त खाने के बाद भी उसे हम मुस्लिमों द्वारा ही और खाना खिलाने
का आदेश है ,
तो क्या ये बेहतर नहीं कि उन्हें किसी उपलक्ष्य
मे मंहगा और पौष्टिक खाना खाने का भी अवसर दिया जाए ?
11- शाकाहारी व्यक्ति हर सब्जी
खाता है तो एक मुस्लिम मांसाहारी हो कर हर हर पशु का मांस क्यूं नहीं खाता
हमें हमारे मां बाप ने हमेशा ये तहज़ीब सिखाई
कि अपने शाकाहारी परिचितो के सामने मांस खाना तो क्या, हम मांस का जिक्र भी न किया
करें, ताकि उन शाकाहारी मित्रों का जी न खराब हो, हमने भी इस तहज़ीब का सदा ध्यान रखा
हालांकि शाकाहारी मित्रों ने कई बार मांस खाने
पर हमें आड़े हाथों लिया मगर हम सभ्यतावश चुप ही रहे. पर सोशल मीडिया पर जब हमने देखा
कि मांसाहार को लेकर शाकाहारी लोग पवित्र अल्लाह पर आपत्तिजनक आरोप लगा रहे हैं, तो हमें मांसाहार का लॉजिक
बताना पड़ा. !!
अब जब इस बात का विरोध न कर सके कि शाकाहार
भी जीवहत्या है, और मांसाहार इंसानी स्वास्थ्य के लिए ज्यादा लाभकारी है, तो कुछ लोग ये कुतर्क लेकर बैठ गए कि जब मुस्लिम मांस खाने को नैतिक मानते
हैं तो सूअर भी खाया करें, क्योंकि वो भी तो मांस है और अमेरिका
मे सब खाते हैं
वैसे यही कुतर्क जब एक मुस्लिम को किसी ने दिया तो मुस्लिम ने पलटकर उस भाई से पूछ लिया कि भाई तुम देश की किसी भी लड़की से शादी करने को नैतिक मानते हो तो अपनी सगी बहन से भी शादी करने का चलन भी बना लो, वो भी तो तुम्हारे देश की लड़की है, जर्मनी मे तो लोग ऐसा करते हैं , उस व्यक्ति के तर्क को मुस्लिम ने जब उसी पर लागू कर दिया, तो उस व्यक्ति को बहुत "शर्म" आने लगी, जाहिर है उसका पांसा उसी पर उल्टा पड़ चुका था अगर कोई कहता है कि मैं तो दूध दही, फल सब्जी खाने वाला इंसान हूँ और हर सब्जी खाता हूँ, तो भाई अगर तुम बकरे, मुर्गे का मांस खाते हो तो सुअर भी खाया करो, आखिर को मांस तो मांस है
उन
भाई से कहो कि भाई तुम गाय भैंस का दूध पीते हो, तो सुअर का दूध भी पी सकते हो,
अपने तर्क को सिद्ध करने के लिए, क्योंकि दूध भी
तो दूध है. लेकिन वो भाई साहब कभी सूअर का दूध पीने को राज़ी नहीं होंगे।
समस्या ये है कि ये भाई लोग जोश मे हकीकत की
बात भूल जाते हैं, कि हर समाज, हर समुदाय का रहन सहन का एक
कायदा होता है, जिस कायदे का पालन करने का उस समुदाय का हर व्यक्ति
अभ्यस्त होता है, और उस कायदे से बाहर जाने वाली कोई बात समुदाय
के लोगों के गले से हरगिज नहीं उतर सकती, जैसे हमारे देश और हमारे
धर्मो मे अपनी सगी बहन से विवाह की बात निषेध है और हमारे गले से नीचे नहीं उतर सकती,
या उत्तर भारत के लोग सूअर का दूध पीने के नाम पर ही घिना उठते हैं,
क्योंकि ये हमारी सभ्यता से बाहर की बातें हैं, उसी तरह कोई भी मुस्लिम हलाल ठहराए गए जानवरों के अलावा किसी भी जानवर का मांस
खाने की बात सोच ही नहीं सकता, क्योंकि ये उसकी सभ्यता से बाहर
की बात है. और मुस्लिमों की इस कुछ चुने हुए जीवों का मांस ही खाने की नीति के पीछे
का कारण भी स्पष्ट है कि मुस्लिम के लिए हर वो चीज खाना हराम ठहराया गया है जिस चीज
की प्रकृति दूषित है और जिसे खाने पर स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ना अवश्यम्भावी है
सूअर क्यों दूषित है, ये बताने की जरूरत नहीं है,
जल्द ही पोर्क खाने वालों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों के
बारे मे भी मैं आपको बताऊंगा. पर अभी के लिए इतना ही कहना चाहता हूँ कि वाद विवाद मे
भी अगर लोग सभ्यता और तर्क के साथ बातें करें तो ज्ञान बढ़ता है, लेकिन अगर बहस असभ्यता से, कुतर्को का सहारा लेकर की
जाए तो आप अपनी ही अशिक्षा और मूर्खता सिद्ध करते हैं, किसी और
का कुछ नहीं बिगाड़ते ॥
12- इस्लाम मे मांसाहारी पशुओं
का मांस मुस्लिम के लिए प्रतिबंधित क्यों है
कुछ लोग अक्सर ये प्रश्न करते हैं कि जब इस्लाम
मुस्लिमों को मांसाहार की अनुमति देता ही है, तो फिर आखिरकार सिर्फ कुछ पशुओं को ही खाने
की अनुमति ही क्यों देता है. विशेषकर इस्लाम कुत्ते बिल्ली जैसे शिकारी और मांसाहारी
पशुओं और सांप आदि जैसे जहरीले जीवों का मांस खाने पर रोक क्यों लगाता है जबकि विश्व
के कई भागों मे इन मांसाहारी पशुओं का मांस लोग चाव से खाते हैं, फिर मुस्लिमों पर ये प्रतिबंध क्यों
?
इस प्रश्न का बड़ा ही स्पष्ट उत्तर खुद कुरान
पाक मे सर्वशक्तिमान अल्लाह ने दिया है, सूरह मायदा की चौथी आयत मे-
“
(ऐ रसूल) तुमसे लोग पूछते हैं कि कौन कौन सी चीज़ उनके लिए हलाल की गयी
है, तुम (उनसे) कह दो कि तुम्हारे लिए साफ सुथरी चीजें हलाल की
गयीं (उन्हें खाओ)”
यानी जो चीजें साफ सुथरी हैं केवल वही चीजें
मुस्लिम के लिए खाना हलाल हैं, और दूषित चीजों को खाना निषेध है. और मांसाहारी , सर्वाहारी व जहरीले प्राणियों का मांस निश्चित ही दूषित होता है जिसको खाने
पर भयंकर बीमारियों का खतरा बना रहता है, ये तो स्पष्ट सी बात
है कि जहरीले जीवों का मांस किस तरह दूषित होता है. हां ये समझने मे लोगों को दिक्कत
हो सकती है कि भला शिकारी, मांसाहारी व सर्वाहारी जानवरों का
मांस किस तरह दूषित होता है.
बहुत से कारणों से मांसाहारी पशुओं का मांस
दूषित होता है, जैसे ये शिकारी पशु अन्य पशुओं का खून पीते हैं, और खून
मे अनेक हानिकारक कीटाणुओं का वास होता है जिस कारण मांसाहारी पशु का मांस भी दूषित
रहता है ,
आपने भयंकर जानलेवा बीमारी "रेबीज़"
के विषय मे अवश्य सुना होगा ये घातक बीमारी मुख्यतया आवारा कुत्तों के काटने या मनुष्य
के खुले घाव पर कुत्तों द्वारा चाटने से होती है , और यदि एक बार इस बीमारी के कीटाणु मनुष्य
के मस्तिष्क तक पहुंच जाएं तो मनुष्य की भयंकर मौत निश्चित है. और केवल कुत्तों मे
ही नहीं बल्कि ये बीमारी अन्य पशुओं मे भी होती है, और इस बीमारी
का विस्तार ये अन्य पशु भी करते रहते हैं, और ये रैबीज़ आम तौर
पर माँसाहारी पशुओं को ही होती है जो आवारा होते हैं, जैसे शहर
मे घूमने वाले कुत्ते बिल्ली और बन्दर, और वो मांसाहारी पशु जो
जंगल में रहते हैं जैसे लोमड़ी, चीता, सियार,
भेड़िये और चील ,गिद्ध आदि शिकारी पक्षी। यह बीमारी
जंगलों में काफी आम होती है। बहुत से जानवर हर साल इस बीमारी से मर जाते हैं,
और जो मनुष्य इन रोगी जानवरों के सम्पर्क मे आता है, वो भी रेबीज़ से ग्रसित हो जाता है .
मेडिसन विशेषज्ञों का मानना है कि रेबीज (हलक
जाना) का कोई इलाज नहीं है और रेबीज़ ग्रसित व्यक्ति की तीन महीने के भीतर मौत होना
निश्चित है।
ये बीमारी होने पर व्यक्ति के शरीर मे तेज
दर्द होता है, व्यक्ति को प्यास लगती है, पर पानी देखते ही उसे दौरा
पड जाता है, रोगी चीखने चिल्लाने लगता है, धीरे धीरे रोगी का व्यवहार बढ़ते रोग के साथ मनुष्य की बजाय एक हिंसक जानवर
की तरह का हो जाता है, व्यक्ति बोलना छोड़ देता है और कुत्ते
की तरह गुर्राना और भौंकना शुरू कर देता है, लोगों को झपटने और
काटने दौड़ता है, तदन्तर रोगी की रीढ़ की हड्डी भी किसी जानवर
की तरह मुड़ जाती है और अंतत: इसी कष्ट मे रोगी प्राण त्याग देता है, ये रोग कितना घातक है इसका अनुमान इस बात से लगाइए कि आज तक कोई भी इस रोग
से ठीक नहीं हुआ है ।
ये प्रश्न सहज दिमाग़ मे उठेगा कि रेबीज़ जानवरों
के काटने से फैलता है, लेकिन उनका मांस खाने पर सम्भवत: ये रोग न फैले,
तो सुनिए, चीन व फिलीपीन्स मे रेबीज़ ग्रसित कुत्ते
का मांस खाकर मनुष्यों के रेबीज़ की चपेट मे आने की कई घटनाओं के सामने आने के बाद
इसी वर्ष मार्च मे international public health media ने चेताया
है कि कुत्ते का मांस खाने पर रेबीज़ फैल सकता है .
वर्ष 2009 मे स्वयं चीन सरकार द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट
के मुताबिक रेबीज़ से मौत के मामले में भारत और चीन विश्व में शीर्ष स्थान पर हैं,
समझा जा सकता है कि जहाँ भारत मे गरीबी के कारण इलाज न मिल पाने पर रेबीज़
से लोग मरते हैं, वहीं जानकारों के अनुसार चीन मे विश्व भर मे
सबसे ज्यादा रेबीज़ फैलने का मुख्य कारण है कुत्ते का मांस खाया जाना और न सिर्फ खाया
जाना, बल्कि मांस के लिए कुत्ते बिल्ली को काटने, उस मांस का प्रसंस्करण करने और उसे पकाने के दौरान भी मनुष्य रेबीज़ की चपेट
मे आ सकता है , वियतनाम मे रेबीज़ के एक भयंकर प्रकोप मे अनेक
मौतों के बाद वहाँ की सरकार ने आधिकारिक रिपोर्ट जारी की थी जिसमें लिखा था कि जहाँ
रेबीज़ से 70% मौतें जानवरों के काटने या अन्य कारणों से हुईं,
वहीं 30% मौतें केवल इस कारण हुई क्योंकि वे व्यक्ति
कुत्ते बिल्लियों का मांस काटते थे जिस कारण उनमें रेबीज़ फैल गया
ध्यान दीजिए रेबीज़ के संवाहक ये वही सारे
जानवर हैं जिनका मांस खाना इस्लाम ने हराम ठहराया है. ये ठीक है कि आज हर छह महीने
पर एण्टी रेबीज़ टीके लगवा कर इन जानवरों को काफी हद तक रेबीज़ से बचाया जा सकता है, लेकिन टीके को शत प्रतिशत
इलाज मानकर इन जानवरों का मांस खाने का रिस्क लेना बहुत बड़ी मूर्खता सिद्ध होगी.
जबकि शाकाहारी जानवर को ऐसे कोई टीके लगवाने
की जरूरत नही, शाकाहारी पशु चाहे आपको जंगल मे भी मिले उसका मांस आप बिना किसी भय के खा सकते
हैं ॥
13- मुसलमानों को केवल पेड़
पोधों से भी कम बुद्धि वाले पशुओं का मांस खाने की अनुमति हैं
मैं ये तो नहीं कहता कि मांस के लिए जानवर
को काटने पर उसे पीड़ा नहीं होती, यदि मैं ऐसा कहूँ तो ये कुतर्क होगा .
पर मैं ये जरूर कहता हूँ कि जितनी पीड़ा जानवर
को काटे जाने पर होती है, उतनी ही पीड़ा पौधे को भी सब्जी भाजी के लिए काटे जाने पर होती
है
उस तरह तो पशु हत्या जैसी ही हिंसा वृक्ष हत्या
मे भी हुई
पर क्या मनुष्य के अतिरिक्त अन्य जीवों की
हत्या (चाहे वो जंतु हो या वनस्पति) मनुष्यों की हत्या के समान ही जघन्य अपराध की श्रेणी
मे रखा जा सकता है ?
मेरे विचार से तो नहीं. मनुष्य की हत्या और
जानवर की हत्या समान नहीं है.
वास्तव मे मरने वाले जीव के लिए मौत कष्ट की
पराकाष्ठा नहीं है, यहां तक की मनुष्य के लिए भी नही.
पर मनुष्य के लिए मौत को कष्ट की पराकाष्ठा
इसलिए माना जाता है क्योंकि मनुष्यों मे प्रियजनों से मोह और प्रेम और सहजाति के लोगों
से सहानुभूति का विलक्षण गुण होता है , जो मनुष्य जैसा किसी और जीव मे नहीं पाया जाता
इसलिए एक मनुष्य की मौत से उसके परिवारीजन, उसके मित्र एवं परिचित
यहां तक कि नितान्त अपरिचित लोग भी दुख महसूस करते हैं, डर से
जाते हैं ,
सो इस कारण मनुष्य की हत्या भी जघन्य अपराध
ठहरती है. पर किसी जानवर की मौत से सामान्यतः उसके किसी परिवारीजन या परिचित जीव को
कोई फर्क भी नहीं पड़ता यदि वो उसे कटते न देखे. हां हर जीव की बाल्यावस्था मे उसकी
जन्मदात्री जरूर उस जीव से वात्सल्य रखती है और उसके मर जाने पर दुख से व्याकुल हो
जाती है .
इन बातों का ध्यान रखते हुए इस्लाम ने किसी
भी अबोध बालक को नहीं बल्कि युवा जानवर को ही कुरबानी देने की अनुमति दी है. साथ ही
जानवर को ज़िबह होते दूसरे जानवर न देखें, इस बात का भी विशेष ध्यान रखने का आदेश दिया
है
और आगे देखें तो बेशक ईश्वर ने कुछ ऐसे जीव
भी बनाए हैं जो मनुष्य जितनी तो नहीं पर काफी कुछ मनुष्य जैसी ही समझ रखते हैं प्रेम
और मित्रता जैसी भावनाओं को समझने के लिए, मुख्यतया ये विशिष्ट बुद्धि के जीव कुत्ते,
बिल्ली और बन्दर जैसे मांसाहारी, शिकारी या सर्वाहारी
जानवर होते हैं. और इस्लाम ने शिकारी जानवरों का मांस खाने को भी हराम ठहराया है.
इस्लाम ने तो केवल कुछ ऐसे जानवरों का मांस
खाने की अनुमति दी है जिनमे पेड़ पौधों से भी कम बुद्धि होती है और छुईमुई जैसे पौधे
भी उन्हें मूर्ख बना देते हैं ।
तो जिन जिन आधारों पर व्यक्ति जीवित शाकाहारी
भोजन को खाने को नैतिक मानता है, मतलब पौधों मे जानवरों से कम बुद्धि होती है, और पौधे मे अनेक जीवो के मुकाबले कम करूणा होती है .
कमोबेश इन्हीं आधारों पर मुस्लिमो द्वारा भी
कुछ निर्धारित जीवों का मांस खाना नैतिक माना जाएगा .
और यदि किसी को बुद्धिमान पशुओं का मांस खाने
पर आपत्ति हो तो वो अपनी आपत्ति उन लोगों के आगे जता सकता है जो लोग अपनी जीभ के स्वाद
के लिए कुत्ते, बिल्ली, लोमड़ी और बंदर जैसे विलक्षण बुद्धि वाले जीवों
को भी नहीं छोड़ते
निसन्देह, ये लोग मुस्लिम नहीं मिलेंगे ॥
13- सूअर का मांस हराम क्यों
है
"सूअर के नाम से भी मुसलमान
नफरत करते हैं " मैं इसे एक जुमले से ज्यादा नहीं समझता, क्योंकि सूअर से यदि नफरत की बात हो तो सबसे ज्यादा पोर्क खाने वाले पश्चिम
मे भी "स्वाइन" शब्द एक गाली की तरह इस्तेमाल होता है, और हमारे ही देश मे गैर मुस्लिम समुदायों के लोग खुद गालियों मे सूअर शब्द
का बहुत प्रयोग करते हैं, सूअर को सबसे गन्दा जानवर मानकर नफरत
की राजनीति मे सूअर और सूअर के मांस का प्रयोग किया करते हैं,
तो हमारे कुछ भाई लोगों को सूअर से सिर्फ मुस्लिमों
की ही विरक्तता क्यों दिखाई देती है, ?
हां ये ठीक है कि सूअर का मांस खाना मुस्लिमों
के लिए प्रतिबंधित है और प्रतिबंधित इसलिए क्योंकि सूअर की प्रकृति गंदगी खाने की होती
है, इसलिए मुस्लिम
इस जानवर से घिन महसूस करते हैं और इसी घिन के कारण अपने घर या खाने मे इस जानवर की
कल्पना नहीं कर सकते हैं, सिर्फ मुस्लिम ही नहीं हमारे देश के
अधिकांश गैर मुस्लिम भी समान कारणों से सूअर से घिन रखते हैं
अब इस घिन या "नफरत" मे मुस्लिम
क्या करते हैं सिवाय इसके कि वो सूअर को अपने घरों से दूर रखते हैं
कहीं नफरत के चलते मुस्लिम लोग सूअरों को मार
मार कर घायल कर रहे हों, या सूअर की निर्मम हत्या कर रहे हों, ऐसा
तो कोई उदाहरण आज तक हमारे सामने नहीं आया, बल्कि सूअर को प्रकृति
का सफाईकर्मी बनाया गया है, ये बात और इस कारण सूअर के जीवित
रहने की जरूरत हम मुस्लिम अच्छी तरह से जानते हैं ॥
कुछ लोग ये तर्क देते हैं कि सूअर 1400 वर्ष पहले सिर्फ मल खाता
था, तब उसका मांस हराम ठहराया जाना ठीक था पर अब सूअर को सफाई
सुथराई के साथ साफ आहार खिलाकर पाला जाता है तो अब मुस्लिमो को सूअर का मांस हराम न
समझकर खा लेना चाहिए. पर ये तर्क देने वाले सूअर के आहार की मूल प्रकृति को भूल जाते
हैं जिस प्रकृति को बदला नहीं जा सकता, इसी प्रकृति के चलते उसे
चाहे कितनी ही सफाई से रखा जाए व साफ खाना खिलाया जाए तब भी सूअर अपना और बाड़े के
अन्य सूअरों का मल खाया करता है, इसलिए ये तर्क देने का कोई अर्थ
नहीं कि सफाई से पाले हुए सूअर का मांस खाने मे हर्ज नहीं,
सूअर की मल खाने की प्रकृति के कारण इस जानवर
का शरीर अशुद्धियों से भरा हुआ होता है, क्योंकि जाहिर है किसी भी जीव का शरीर उसके
द्वारा खाए गए भोजन के तत्वों से ही बनता बढ़ता है, तो विभिन्न
जीवों, मनुष्यों के मल को खाकर बने सूअर के मांस मे खतरनाक बीमारियां
पैदा करने वाले कीटाणुओं की भरमार रहती है, मेडिकल एक्सपर्टस
के मुताबिक पोर्क मे मौजूद किस्म किस्म के बैक्टीरिया लगभग 70 तरह की बीमारियां पैदा कर सकते हैं, जो लोग पोर्क खाया
करते हैं उनकी आंतों मे पिन वर्म, हुक वर्म और रोइण्ड्रम जैसे
कीड़े पैदा हो जाते हैं, जिनमें कदुदाना नाम का आंत मे पैदा होने
वाला कीड़ा सबसे ज्यादा घातक होता है, ये कीड़ा खून के बहाव के
साथ जिस्म के किसी भी हिस्से मे पहुंचकर हार्ट अटैक, दिमागी बीमारी,
अंधापन जैसी खतरनाक बीमारियां दे सकता है.
सूअर के मांस मे मौजूद बैक्टीरिया उसको अच्छी
तरह पकाने के बावजूद जिन्दा रह सकते हैं, अमेरिका मे किए गए एक अध्ययन मे ये बात सामने
आई कि "Trichura Tichurasis" रोग से पीड़ित 24 मे से 22 लोगों ने पोर्क को अच्छी तरह पकाकर खाया था
फिर भी वो इस रोग से पीड़ित हो गए ॥
कुछ लोग ये कह सकते हैं कि अगर सूअर का मांस
इतना ही हानिकारक है तो अमेरिका मे तो सभी पोर्क खाते हैं तो सब बीमार क्यों नहीं रहते
वहाँ ? वो लोग स्वास्थ्य
के मामले मे भारत के लोगों से बेहतर कैसे रहते हैं ?
उसका उत्तर ये है कि अमेरिका के लोग पोर्क
के साथ ही साथ बहुत सी स्वास्थ्यवर्धक चीजें, फल,मेवे, मछली, शुद्ध दूध मक्खन आदि भी भरपूर मात्रा मे खाते हैं
जिन चीजों के गुणों से इनके शरीर को जो क्षति पोर्क खाने से हुई होती है उसकी क्षतिपूर्ति
हो जाती है, ये ठीक ऐसा है जैसे एक चेन स्मोकर , सिगरेट पीने के साथ साथ खाने मे विटामिन सी से भरपूर चीजों की भी खूब मात्रा
ले रहा हो तो उस व्यक्ति की त्वचा और बाल स्मोकिन्ग के प्रभाव से बचे रहेंगे लेकिन
कोई इसका ये निष्कर्ष निकाले कि भरपूर सिगरेट पीने से त्वचा मुलायम और बाल काले घने
रहते हैं तो इसे निष्कर्ष निकालने वाले की अज्ञानता ही कहा जाएगा ॥
बहरहाल कुरान के अलावा बाइबल मे भी सूअर के
मांस पर प्रतिबंध है तो हम समझ सकते हैं कि पहले के नबियों के लिए भी ये चीज हराम थी
और अल्लाह का नियम सदा एक सा और स्पष्ट रहा है कि स्वास्थ्य के लिए हानिकर चीजों से
सदा दूर रहा जाए, अज्ञानी तो वो मनुष्य हैं जो इन बातों पर ध्यान न देकर अस्वास्थ्यकर
चीजों मे मजा ढूंढने चलते हैं और बीमारी मोल ले लेते हैं ॥
एक साहब लिखते हैं कि:
काश
कि मुझे मांसाहार का ये लाभ पहले से पता होता
बचपन मे मेरे घर की आर्थिक स्थिति कुछ अच्छी
नहीं थी. सो शारीरिक पोषण की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए शुद्ध दूध, फल, मेवे, मछली, मुर्गा, मटन आदि सुलभ नहीं थे
सिर्फ बीफ (भैंस का मांस) ही सस्ता और सुलभ
साधन था जो हम बढ़ते बच्चों की स्वास्थ्य आवश्यकताओं को पूरा कर सकता था. सब्जियां हर बच्चे की तरह मुझे भी सख्त नापसन्द
थीं
पर लगभग 7 वर्ष की अवस्था मे ही मैंने टीवी पर जीवहत्या
के विरोध के कुछ कार्यक्रम देखे जिन्होंने मेरे संवेदनशील ह्रदय पर बहुत असर डाला और
मैंने मांसाहार का पूरी तरह त्याग कर दिया.
क्योंकि मेरे ददिहाल मे काफी सदस्य गोश्त स्वाभाविक
रूप से नहीं खाते थे इसलिए मेरे गोश्त न खाने पर मेरे घरवालों ने ददिहाल का प्रभाव
मानकर कोई विशेष ध्यान न दिया हालांकि मेरे ददिहाल के वे लोग फल व सब्जियां और मेवे
तो खाते थे. पर मैं सिर्फ कुछेक दालो, आलू, भिण्डी, टमाटर जैसी एकाध सब्जी और कभी कभार अण्डे पर निर्भर होकर रह गया, शुक्र है मैंने अण्डे को मांसाहार मे सम्मिलित नहीं समझा था. वरना मेरी दशा
क्या होती
मैं वर्षों तक शाकाहारी रहा, पर तब मुझपर घड़ो पानी पड़
गया जब 11-12 वर्ष की उम्र मे मैंने स्वास्थ्य विज्ञान की कुछ
पत्रिकाओं मे संतुलित भोजन के चित्र मे अनिवार्य रूप से मुर्गा और मछली बने पाए,
डाक्टरों के मुताबिक बेहतर स्वास्थ्य के लिए मांस मछली एक उत्तम भोजन
था. विशेषकर नेत्रज्योति के लिए मछली खाने की सलाह दी जा रही थी.
ये देखकर मेरे दिमाग मे एक ही विचार कौन्धा
कि अगर अल्लाह ने मांस को इन्सान का खाद्य नहीं बनाया तो मांस मे इनसानी शरीर के लिए
इतने फायदे क्यो रख दिए. अगर कुदरत न चाहती कि गोश्त को कोई खाए तो गोश्त को भी जहर
या शराब की तरह बना देती , जिसे खाकर या तो आदमी मर ही जाता, या बुरी
तरह बीमार पड़ कर धीरे धीरे मरता. .ये ज्ञान होने पर मैंने धीरे धीरे फिर मांस खाने
की शुरूवात कर दी
लेकिन ये ज्ञान मिलते मिलते बहुत देर हो चुकी
थी. मेरी प्राकृतिक नेत्र ज्योति बहुत क्षीण हो चुकी थी. जब मैंने डाक्टर को अपनी आंखे दिखाई तो उसने कहा
था कि अच्छा हुआ जो अभी आंख चेक करा लीं कुछ देर और लगाते तो आंख की रौशनी पूरी तरह
जा सकती थी . और मैं बचपन से ही पूरे समय चश्मा लगाए रखने पर मजबूर हो गया, जबकि समान परिस्थितियों मे
रहने वाले, लेकिन मांस भी खाने वाले मेरे समवयस्क भाई बहन की
आंखे माशाअल्लाह पूरी स्वस्थ थीं ।
खैर किसी ने सही कहा है कि अनुभव वो कंघा है
जो बाल गिर जाने के बाद (उम्र बीत जाने के बाद ) प्राप्त होता है .
अगर मांसाहार सिर्फ जीभ का स्वाद होता, लेकिन शरीर के लिए पोषण या
लाभ न होता. तो फिर मैं भी मांसाहार का प्रबल विरोधी होता शायद. लेकिन मांसाहार केवल
स्वाद नही बल्कि सबसे ज्यादा पोषक खाद्य है जिसे अल्प मात्रा मे खाने पर भी शरीर की
कार्य प्रणाली काफी सुचारू हो जाती है और शरीर को शक्ति मिलती है ॥
अफसोस, कि मांस के पोषण की सबसे ज्यादा आवश्यकता जिस
निम्न वर्ग को रहती है उसी को मांस खाने को नहीं मिलता. और इसी वर्ग के अनगिनत लोग,
स्त्रियाँ, बूढ़े, बच्चे
आज दुनिया मे कुपोषण और भुखमरी से मर जाते हैं
ऐसे लोगों को खाने के लिए मांस उपलब्ध कराना
ही सच्चा जीवप्रेम होगा. मैं नही समझता कि
मनुष्यों की मौत की कीमत पर अगर कुछ जानवरों की जान बचा ली जाए तो ये कोई सत्कार्य
होगा
आज मैं हर छोटे बच्चे के अभिभावकों को यही
सलाह देता हूँ कि बच्चों को मांस मछली जरूर खिलाएं।
आत्म
हत्या की बढ़ती हुई मानसिकता
और
उसका समाधान
प्रशन: आत्म हत्या की बढ़ती हुई
मानसिकता और उसका समाधान और इसका कारण क्या है ?
उत्तर: आत्म
हत्या की बढ़ती हुई मानसिकता और उसका समाधान इस समय दुर्भाग्य से पूरी दुनिया में
आत्म-हत्या का रुजहान बढ़ता जा रहा है। पश्चिमी देशों में सामाजिक व्यवस्था के
बिखराव के कारण समय से आत्म-हत्या की बीमारी प्रचलिम है। भारत सरकार की तत्कालिन
रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर एक घंटे में आत्म-हत्या की पंद्रह घटनाएं पेश आती
हैं।
खेद
की बात यह है कि आत्म-हत्या की इन घटनाओं में एक अच्छी खासी संख्या पढ़े लिखे और
उच्च शिक्षित युवकों की है । सप्ताह में चार पाँच दिन दैनिक अख़बारों में ऐसी
ख़बरें मिल ही जाती हैं जिनमें महिलाओं की आत्म-हत्या का वर्णन होता है, यह घटनायें सामान्य रूप
में ससुराल वालों के अत्याचार और पैसों के न खत्म होने वाली मांगों के कारण पेश
आती हैं। ऐसे मां बाप की मौत भी अनोखी बात नहीं रही जो अपनी गरीबी के कारण अपनी
बेटियों के हाथ पीले करने में असमर्थ हैं और ज़ालिम समाज ने उन्हें सख्त मानसिक
तनाव में ग्रस्त किया हुआ है।
» इसका कारण क्या है? और इसका समाधान कैसे सम्भव
हो सकता है?
आइए इस्लामी दृष्टिकोण से इस विषय पर विचार करते हैं: मनुष्य पर अनिवार्य है कि वह संभवतः अपनी जान की सुरक्षा करे, क्योंकि जीवन उसके पास ईश्वर (अल्लाह) की अमानत है और अमानत की सुरक्षा करना हमारा नैतिक और मानवीय दायित्व है। इसलिए इस्लाम की निगाह में आत्म-हत्या बहुत बड़ा पाप और गंभीर अपराध है। ऐसा पाप जो उसे दुनिया से भी वंचित करता है और परलोक से भी । खुद कुरआन ने आत्म-हत्या से मना फ़रमाया हैः अल्लाह (ईश्वर) का आदेश है: अल कुरान: “(ऐ इंसानों !) अपने आप को क़त्ल मत करो” - (सूरह ४: अन निसा: आयत 29)
और
अन्तिम संदेष्टा मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के विभिन्य प्रवचनों में
आत्म-हत्या का खंडन किया गया और बहुत सख्ती और बल के साथ आत्म-हत्या से मना किया
गया है।
हदीस : आप मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमायाः “जिसने अपने आप को पहाड़ से गिरा कर आत्म-हत्या की वह नरक की आग में भी इसी तरह हमेशा गिरता रहेगा और जिस व्यक्ति ने लोहे की हथियार से खुद को मारा वह नरक में भी हमेशा अपने पेट में हथियार घोंपता रहेगा।” - (बुखारी शरीफ)
एक दूसरे स्थान पर आपका आदेश हैः हदीस: “गला घोंट कर आत्महत्या करने वाला नरक में हमेशा गला घोंटता रहेगा और अपने आप को भाला मार कर हत्या करने वाला नरक में भी हमेशा अपने आप को भाला मारता रहेगा।” (बुखारी शरीफ)
क़ुरआन
और मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के प्रवचनों से अनुमान किया जा सकता है कि
आत्म-हत्या इस्लाम की निगाह में कितना गंभीर अपराध है। यह वास्तव में जीवन की
समस्याओं और मुश्किलों से भागने का रास्ता अपनाना है और अपनी ज़िम्मेदारियों से
भाग निकलने का एक अवैध और अमानवीय उपाय है।
ऐसा
व्यक्ति कभी आत्म-हत्या की मानसिकता नहीं बना सकता :
जो
व्यक्ति अल्लाह पर विश्वास रखता हो, वह दृढ़ विश्वास रखता हो कि अल्लाह समस्याओं
की काली रात से आसानी और उम्मीद की नई सुबह पैदा कर सकता है, जो व्यक्ति भाग्य में
विश्वास रखता हो कि खुशहाली और तंगी संकट और तकलीफ़ अल्लाह ही की ओर से है । धैर्य
और संतोष मनुष्य का कर्तव्य है और जो परलोक में विश्वास रखता हो कि जीवन की
परेशानियों से थके हुए यात्रियों के लिए वहाँ राहत और आराम है। ऐसा व्यक्ति कभी
आत्म-हत्या की मानसिकता नहीं बना सकता।
आज
आवश्यकता इस बात की है कि आत्म-हत्या के नैतिक और सामाजिक नुकसान लोगों को बताए
जाएं। समाज के निर्धनों और कमज़ोरों के साथ नरमी और सहयोग का व्यवहार किया जाए। घर
और परिवार में प्रेम का वातावरण स्थापित किया जाए। बाहर से आने वाली बहू को प्यार
का उपहार दिया जाए, रिती रिवाज की जिन जंजीरों ने समाज को घायल
किया है, उन्हें
काट फेंका जाए। शादी, विवाह के कामों को सरल बनाए जाएं और जो लोग
मानसिक तनाव में ग्रस्त हों और समस्याओं में घिरे हुए हों उनमें जीने और समस्याओं
और संकट से मुक़ाबला करने की साहस पैदा की जाए।
कुत्ता चाट जाए
तो बर्तन को सात बार धोना क्यों ?
» हदीस : नबी-ए-करीम मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि
वसल्लम) के प्रवचनों में आता है कि जब “कुत्ता बर्तन को चाट जाए तो उसे सात बार
धोया जाए जिसमें पहली बार मिट्टी से।”
-(सही मुस्लिम,अत्तहारः, बाब हुक्म वुलूग़िल कल्ब, हदीस न0 279)
» वजाहत :
इस हदीस की व्याख्या बलोगुल-मराम (अंग्रेजी) में इस प्रकार की गई है:
यह स्पष्ट है कि किसी चीज़ की केवल नापाकी से सफाई के लिए उसे सात
बार धोना ज़रूरी नहीं, किसी चीज को सात बार धोने का रहस्य
मात्र सफाई करने से भिन्न है। आज के चिकित्सा विशेषज्ञ कहते हैं कि कुत्ते की
आंतों में जीवाणु और लगभग 4 मिमी लंबे कीड़े होते हैं जो
उसके फज़ले के साथ बाहर होते हैं और उसके गुदा के आसपास बालों से चिमट जाते हैं,
जब कुत्ता उस जगह को ज़बान से चाटते है तो ज़बान इन जीवाणुओं से
दूषित हो जाती है, फिर कुत्ता अगर किसी बर्तन को चाटे या
इंसान कुत्ते का चुम्बन ले जैसे यूरोपीय और अमेरिकी महिलाएं करती हैं तो जीवाणु
कुत्ते से बर्तन या औरत के मुँह में स्थानांतरित हो जाते हैं और फिर वह मनुष्य के
आमाशय में चले जाते हैं, यह जीवाणु आगे गतिशील रहते और रक्त
कोशिकाओं में घुस कर कई घातक बीमारियों का कारण बनते हैं क्योंकि इन जीवाणुओं का
निदान खुर्दबीनी टेस्टों के बिना संभव नहीं. इस्लाम ने एक आम आदेश के अंतर्गत
कुत्ते के लुआब को अपवित्र ठहराया और निर्देश दिया कि जो बर्तन कुत्ते के लुआब से
प्रदूषित हो जाए उसे सात बार साफ किया जाए और उनमें से एक बार मिट्टी के साथ धोया
जाए। (बुलूगल-मराम (अंग्रेजी) दारुस्सलाम, पृष्ठ:
16 हाशिए: 1)
समाज
में अमीरी और गरीबी क्यों ?
अल्लाह
ने रोज़ी का वितरण अपने हाथ(रझा, मर्जी) में रखा है, कुछ लोगों को अधिक से अधिक दिया तो कुछ लोगों को कम से कम, हर युग में और हर समाज में मालदारा और गरीब दोनों का वजूद रहा है, सवाल यह है कि आखिर अल्लाह ने अमीरी और गरीबी की कल्पना क्यों रखी?
इसका उत्तर यह है कि ऐसा अल्लाह ने बहुत बड़ी तत्वदर्शिता के
अंतर्गत किया। ताकि एक वर्ग दूसरे वर्ग के काम आ सके, प्रत्येक
की आवश्यकताएं एक दूसरे से पूरी होती रहें। अल्लाह ने फरमायाः » अल-कुरान : “और एक को दूसरे पर प्रधानता प्रदान किया
ताकि तुम्हें आज़माए उन चीज़ों में जो तुम को दी है. – (सूरः अनआन: 165)
मान
लें कि यदि सभी लोग मालदार हो जाते तो लोगों का जीवन बिताना कठिन होता, एक का काम
दूसरे से हासिल नहीं हो सकता था, और हर एक दूसरे पर आगे
बढ़ने की कोशिश करता, इस प्रकार देश और समाज का विनाश होता.
जबकि लोगों के स्तर में अंतर होने के कारण अल्लाह ने जिसे कम दिया है उसे कल
महाप्रलय के दिन यदि वह ईमान वाला रहा तो वहां की नेमतों से मालामाल करने का वादा
किया है।
उसी
प्रकार निर्धनों को कुछ ऐसी हार्दिक शान्ति प्रदान की है जिस से मालदारों का दामन
खाली है। इसके साथ साथ अल्लाह ने उनके प्रति लोगों के मन में दया-भाव, शुभचिंतन,
सहानुभूति की भावना पैदा की, और मानव समाज का
अंग सिद्ध किया ताकि धनवान उनका ख्याल करें, यही नहीं अपितु
मालदारों को गरीबों पर खर्च करने का आदेश दिया, और उनके
मालों में गरीबों का अधिकार ठहराया। अल्लाह तआला ने फरमायाः » अल-कुरान : अल्लाह के माल में
से तुम उन्हें (निर्धनों को) दो जो उसने तुम्हें दिया है। – (कुरआनः सूरः नूरः 33)
पता
यह चला कि इंसान के पास जो कुछ है उसका अपना नहीं है बल्कि अल्लाह का दिया हुआ है, इस लिए
यदि मनुष्य कुछ पैसे अल्लाह के रास्ते में खर्च करता है तो उसे इस पर गर्व का कोई
अधिकार नहीं है।
यह
है अल्लाह की वह हिकमत जिस से हमें समाज में निर्धनों के वजूद के प्रति संतुष्टी
प्राप्त होती है परन्तु यह कहना कि वह हीन अथवा तुच्छ हैं या उनके पापों का परिणाम
है,
या उनको किसी विशेष जाकि की सेवा हेतु पैदा किया गया है, बुद्धिसंगत बात नहीं लगती।
आज भारतीय समाज में यही विचार फैलने के कारण कुछ वर्ग पशुओं के समान
जीवन बिता रहे हैं। उनको कोई अधिकार प्राप्त नहीं है और स्वयं उन्हों ने भी इस
प्रथा को स्वीकार कर लिया है जो मावन जाति पर बहुत बड़ा अत्याचार है।
इस्लाम ऐसे वर्गों की हर प्रकार से सहायता करने का आदेश देते हुए मालदारों के मालों में उनका अधिकार रखता है और उनको निर्धन होने के कारण किसी भी मानवीय अधिकार से वंचित नहीं रखता।
» भूत, प्रेत, बदरूह:
ये नाम अकसर इन्सानी ज़हन मे आते
ही एक डरावनी और खबायिसी शख्सियत ज़ेहन मे आती हैं क्योकि मौजूदा मिडिया ने इन्सान
को इस कदर गुमराह कर रखा हैं के जो नही हैं उसको इतनी खूबसूरती के साथ ये मिडिया
वाले पेश करते हैं के इन्सान जिसकी ताक मे शैतान हमेशा हर राह मे लगा हुआ हैं वो
फ़ौरन शैतान के डाले गये इन वसवसो के तहत इन झूठी बातो पर फ़ौरन यकीन कर लेता हैं के
ये जो दिखाया जा रहा हैं वो एकदम 100 फ़ीसद सच हैं| जब कि सच तो सिर्फ़ कुरान और हदीस मे मौजूद हैं जिसे पढ़ने का किसी इन्सान
के पास शायद ही वक्त हो|
इस सच पर इन्सान यकीन नही करता| इन्सान की मसरुफ़ियात ने उसे दीन से इतना बेगाना कर रखा हैं के न उसके पास
पढ़ने का वक्त हैं न समझने का वक्त हैं| हमारे और दिगर कई
मुल्को मे ये अकीदा कायम हैं के इन्सान के साथ-साथ इस दुनिया भूत, प्रेत, बदरूहे भी मौजूद हैं जो इन्सान को अकसर
परेशान किया करती हैं और इसका इलाज सिर्फ़ कोई साधू, तांत्रिक
और ओझा ही कर सकता हैं|
जबकि
कुरान और हदीस से ये साबित हैं के मरने वाला इन्सान चाहे वो दुनिया मे अच्छा था या
बुरा वो हमेशा के लिये इस दुनिया से रुखसत हो चुका हैं और उसकी रूह आलमे बरज़ख मे
जा चुकी हैं जहा से उसकी वापसी नामुमकिन हैं बावजूद इसके लोग ये समझते हैं के हर
वो इन्सान जो खुदकुशी करता हैं या किसी का जबरन कत्ल कर दिया जाता हैं या कोई
दुश्मनी के तहत मार दिया जाता हैं वगैराह उसकी रूह दुनिया मे वापस आकर अपने कत्ल
का इन्तेकाम लेती हैं और इस जैसी और बहुत सी दकियानूसी बाते जो अकसर लोगो की ज़ुबान
पर सुनाई देती हैं| भूत, प्रेत,
बदरूह के ताल्लुक से लोगो मे ये अकीदा कायम हैं के वो किसी ज़िन्दा
इन्सान पर सवार होकर दूसरे इन्सान को परेशान करती हैं और सवार होने वाले इन्सान को
भी और जो रुहे ये करती हैं वो जब बेमौत मरती हैं तभी ऐसा करती हैं|
मौत
हर जान के लिये बरहक हैं और क्योकि हर जानदार इसीलिये पैदा होता हैं के उसे मौत
आए। जैसा के कुरान से साबित हैं के – » अल-कुरान : हर
जानदार को मौत का मज़ा चखना हैं| - (सूरह अल इमरान सूरह नं 3 आयत नं 185)
मौत
हर जान के लिये हक हैं और उसे आकर रहेगी| इन्सान की मौत का जो तसव्वुर
अल्लाह ने कुरान मे ब्यान किया हैं उस पर ज़रा गौर फ़रमाये- » अल-कुरान :
(ऐ रसूल) आप कह दीजिए कि मल्कुलमौत जो तुम्हारे ऊपर तैनात हैं वह
तुम्हारी रूहे कब्ज़ करेगा उसके बाद तुम सबके सब अपने रब की तरफ़ लौटाये जाओगे| -
(सूरह अस सजदा सूरह नं 32 आयत नं 11)
» अल-कुरान : और काश आप देखते जो फ़रिश्ते काफ़िरो
की जान निकाल लेते थे और रूह और पुश्त पर कोड़े मारते थे और कहते थे कि अज़ाब जहन्नम
के मज़े चखो| – (सूरह अल अनफ़ाल
सूरह नं 8 आयत नं 50)
» अल-कुरान : तो जब फ़रिश्ते उनकी जान निकालेगे उस वक्त उनका क्या हाल होगा कि उनके
चेहरे और उनकी पुश्त पर मारते जायेगे| - (सूरह मुहम्मद सूरह नं 47 आयत नं 27)
कुरान
की ये आयते उन बदनसीबो के लिये हैं जो दुनिया मे अल्लाह के हुक्म की नाफरमानी
करेगे और जब उनकी रूहे उनके जिस्म से निकाली जायेगी तो उन्हे निहायत ही तकलीफ़ के
साथ उनके जिस्मो से अलग किया जायेगा साथ ही मौत के फ़रिश्ते या रूह कब्ज़(निकालने)
करने वाले फ़रिश्ते उनको मारेगे भी जो बहुत ही तकलीफ़देह होगा और ऐसी बदरूहो को
सिवाये आज़ाब के और कुछ नही मिलता| नेक लोगो के ताल्लुक से
अल्लाह ने उनकी रूह कब्ज़ करने के ताल्लुक से कुरान मे जो नक्शा खींचा हैं वो इस
तरह हैं-
» अल-कुरान : वो लोग जिनकी रूहे फ़रिश्ते इस हालत मे कब्ज़ करते हैं कि वो पाक व पाकीज़ा
होते हैं तो फ़रिश्ते उनसे कहते हैं सलामुन अलैकुम(तुम पर सलामती हो) जो नेकिया तुम
दुनिया मे करते थे उसके सिले मे जन्नत मे चले जाओ| - (सूरह
नहल सूरह नं 16 आयत नं 32)
» अल-कुरान : और उनको बड़े से बड़ा खौफ़ भी दहशत मे न लायेगा और फ़रिश्ते उन से खुशी-खुशी
मुलाकात करेंगे और ये खुशखबरी देंगे कि यही वो तुम्हारा खुशी का दिन हैं जिसका
(दुनिया मे) तुमसे वायदा किया गया था| - (सूरह अल अंबिया सूरह नं 21 आयत नं 103)
कुरान की इन आयतो से अव्वल तो ये मामला साफ़
होता हैं के हर इन्सान को मौत आनी हैं और उसके अच्छे व बुरे अमल के मुताबिक उसे
मौत के बाद से ही उसके अमल का बदला मिलने लगता हैं|
किसी
इन्सान का नेक और बद होना उसके दुनिया मे किये गये अमल के मुताबिक होता हैं अगर
इन्सान अच्छा होता हैं और अच्छे काम दुनिया मे करता हैं तो लोग उसे मरने के बाद भी
याद रखते हैं| ठीक यही मामला बुरे इन्सान के साथ होता हैं
जब तक वो ज़िन्दा होता हैं लोग उसकी बुराई से नुकसान उठाते हैं और उसके मर जाने के
बाद उसकी बुराई के सबब उसे याद रखते हैं| लेकिन इन तमाम बातो
मे अक्ली तौर पे ये बात कही फ़िट नही होती के उनकी रूहे वापस दुनिया मे लौटती हैं|
कुरान करीम इस बात की खुले तौर पर दलील देता हैं-
» अल-कुरान : तो क्या जब जान गले तक पहुंचती हैं और तुम उस वक्त देखते रहो, और हम इस मरने वाले से तुमसे भी ज़्यादा करीब हैं लेकिन तुमको दिखाई नही देता, तो अगर तुम किसी के दबाव मे नही हो, तो अगर सच्चे हो तो रूह को लौटा के दिखाओ| - (सूरह वाकिया सूरह नं 56 आयत नं 83 से 87)
» अल-कुरान : यहा तक के जब उनमे से किसी
की मौत आयी तो कहने लगा मेरे रब मुझे वापस लौटा दे, के अपनी
छोड़ी हुई दुनिया मे जाकर नेक अमाल क लूं| हर्गिज़ नही होगा,
ये तो सिर्फ़ एक कौल हैं जिसका ये कायल हैं, इन
के बीच तो बस एक हिजाब हैं दुबारा जी उठने के दिन तक| - (सूरह मोमिनून सूरह नं 23 आयत
नं 99, 100)
कुरान
की इन आयत से साबित हैं के रूह दुनिया मे नही लौटा करती बल्कि उनके और कयामत के
दिन के दर्म्यान सिर्फ़ एक आड़ हैं जब वो दुबारा ज़िन्दा किये जायेंगे| कुरान की
इन खुली दलीलो के बावजूद भी अगर कोई इन्सान ये अकीदा रखे के रूहे जिस्मो मे या
किसी दूसरे के ऊपर सवार होती हैं क्योकि अल्लाह ने इन्सान के राह-ए-हिदायत और उसके
ज़िन्दगी के तमाम मामलात पैदा होने से लेकर मरने तक अब कुरान मे वाजे कर दिया हैं
और साथ नबी (सल्लललाहो अलेहे वसल्लम) के ज़रिये ज़ुबानी ये तमाम मामलात साफ़ करके बता
दिए गये तो अब इसमे कोई लाइल्मी और शक की कोई गुन्जाईश बाकि नही रहती के लोग खुद
कोई अकीदा बना कर उस पर अमल और यकीन करना शुरु कर दे|
बुरे
लोगो के ताल्लुक से अल्लाह ने दिगर और फ़रमाया » अल-कुरान : और अब तो कब्र मे दोज़ख की आग हैं कि व लोग सुबह शाम उसके सामने ला खड़े
किये जाते हैं और जिस दिन कयामत बरपा होगी फ़िराओन के लोगो को सख्त से सख्त अज़ाब
होगा| - (सूरह मोमिन सूरह नं 40
आयत नं 46)
इस
आयत से साबित हैं और दुनिया मे अकसरियत ये जानती हैं फ़िरओन एक ज़ालिम बादशाह था
जिसने खुदा होने का दावा किया था| फ़िरओन और उसके लोग जो कुफ़्र
मे उसके साथ थे इन सब पर कब्र मे आज़ाब जारी हैं जैसा के कुरान की आयत से साबित हैं
लिहाज़ा बुरे लोगो के ताल्लुक से भी अल्लाह ने फ़रमा दिया के उन पर कब्रो मे आज़ाब
जारी हैं जब बुरे लोगो पर कब्र मे आज़ाब जारी हैं तो फ़िर इन बुरे लोगो की बदरूहे
कैसे दुनिया मे वापस आकर लोगो को परेशान कर सकती हैं जबकि वो खुद अपने मरने के बाद
से अब तक और कयामत की सुबह तक कब्र के अज़ाब की परेशानी मे मुब्तला रहेगे|
इन्सान
का नेक और बद होना उसके दुनिया के अमल के मुताबिक होता हैं जिसके सबब लोग उसे
दुनिया मे उसके ज़िन्दा रहते अच्छा या बुरा जानते हैं अगर इन्सान अच्छा होता हैं तो
उसके मरने के बाद कुफ़्र और बदअकीदा लोग उसकी कब्र पर जाकर उससे अपनी हाजते और
मन्नते मांगते हैं| जबकि कुरान की रूह से मरने
वालो के ताल्लुक से अल्लाह ने कुछ और साफ़ तौर पर बताया हैं –
» अल-कुरान : बेशक न तो तुम मुर्दो को अपनी बात सुना सकते हो और न बहरो को अपनी बात
सुना सकते हो जबकि वो पीठ फ़ेर कर भाग खड़े हो| - (सूरह
नमल सूरह नं 27 आयत नं 80)
» अल-कुरान : ऐ रसूल तुम अपनी आवाज़ न
मुर्दो को सुना सकते हो और न बहरो को सुना सकते हो जबकि वो पीठ फ़ेर कर चले जाये| -
(सूरह रुम सूरह नं 30 आयत नं 52)
मुर्दा इन्सान के लिये जो इस दुनिया से रुखसत
हो चुका हैं उसके ताल्लुक से अल्लाह ने एक ही बात को दो अलग-अलग जगह दोहराया ताकि
जो इन्सान इस दुनिया मे वो इस अहकाम को, इस कुरान को पढ़े और समझे के
ज़िन्दा और मुर्दा मे फ़र्क हैं और मुर्दा सुना नही करते|
» अल-कुरान : और अन्धा और आंखवाले बराबर नही हो
सकते, और न अन्धेरा और उजाला बराबर हैं, और न छांव और धूप, और न ज़िन्दे और न मुर्दे बराबर हो
सकते हैं और खुदा जिसे चाहता हैं अच्छी तरह सुना देता हैं और ऐ रसूल तुम उनको नही
सुना सकते जो कब्रो मे हैं| - (सूरह फ़ातिर सूरह नं 35 आयत नं 19 से 22)
दूसरी जगह फ़रमाया- » अल-कुरान : लोगो एक मिसाल ब्यान की जाती हैं उसे कान लगा के सुनो कि अल्लाह को छोड़कर
जिन लोगो को तुम पुकारते हो वह लोग अगर सबके सब इस काम के लिये इकठठे भी हो जायेतो
भी एक मक्खी तक पैदा नही कर सकते और अगर मक्खी कुछ उनसे छीन ले जाये तो उसको छुड़ा
नही सकते| कितना कमज़ोर हैं मांगने वाला और वो जिससे मांगा जा
रहा हैं| - (सूरह हज सूरह नं 22
आयत नं 73)
ये तमाम कुरान की आयते इस बात कि तरफ़ इशारा करती हैं और लोगो के इस अकीदे को नकारती हैं जो भूत, प्रेत, और बदरूहो को मानते हैं| इन्सान चाहे अच्छा हो या बुरा उसकी रूह दुनिया मे उसके मरने के बाद दुबारा नही लौटती क्योकि जो लोग मर गये वो अब बरज़खी दुनिया मे हैं और वह उनके साथ उनके दुनिया मे किये गये अमल के मुताबिक वो सजा या जज़ा पा रहे हैं और ये सजा और जज़ा वो कयामत कायम होने तक उनके साथ जारी रहेगा|
» फिर ये भूत,
प्रेत कहा से आये ???
अब
सबसे अहम मसला ये हैं के जब इन्सान की रूह इस दुनिया मे नही लौटती तो ये भूत, प्रेत कहा
से आये| इस बारे मे भी कुरान मे अल्लाह ने खोल-खोल के ब्यान
किया हैं| इन्सान की लगभग 100 मे से 90
फ़ीसद मामले बेबुनियाद होते जिसे इन्सान भूत, प्रेत
या बदरूह का नाम दिया जाता हैं| 10 फ़ीसद मामले जो होते हैं
उनकी सच्चाई ये हैं के इन्सान की तरह जिन्न भी अल्लाह की मख्लूक हैं और नबी
(सल्लललाहो अलेहे वसल्लम) भी जिन्नो के नबी हैं और तमाम जिन्न कौम भी हम इन्सानो
की तरह नबी (सल्लललाहो अलेहे वसल्लम) की उम्मत हैं| जैसा के
कुरान से साबित हैं- » अल-कुरान : ऐ
रसूल कह दो कि मेरे पास वह्यी आयी हैं के जिन्नो की एक जमात ने कुरान सुना तो कहने
लगे की हमने एक अजीब कुरान सुना जो भलाई की राह दिखाता हैं तो हम सब उस पर ईमान ले
आये और अब तो हम किसी को अपने रब का शरीक न बनाऐगे| - (सूरह जिन्न सूरह नं 72 आयत
नं 2)
लुगत
मे हर वो छुपी चीज़ जो इन्सान की आंख से दिखाई न दे जिन्न कहलाती हैं| जिन्न की
जमाअ जन्नत हैं और जन्नत को भी इन्सानी आंख से देखा नही जा सकता| अलबत्ता जिन्न को अल्लाह के जानिब से ये इख्तयार हासिल हैं के जिन्न
इन्सानो के देख सकते हैं| जैसा के अल्लाह ने कुरान मे फ़रमाया-» अल-कुरान : वह और उसका कुन्बा ज़रूर तुम्हे इस तरह देखता रहता हैं कि तुम उन्हे नही
देख पाते| - (सूरह आराब सूरह
नं 7 आयत नं 27)
जिन्न भी इन्सान की तरह अल्लह की मख्लूक हैं
जिसे अल्लाह ने अपनी इबादत के लिये पैदा किया इन्सानो की तरह जिन्नो मे भी काफ़िर
और मुसलिम जिन्न होते हैं| बाज़ जिन्न अल्लाह के
फ़रमाबरदार, तहज्जुद गुज़ार, आलिम बाअमल
और शरियत इस्लाम के पाबन्द होते हैं| बाज़ सरकश और काफ़िर होते
हैं जिनका काम सिर्फ़ नस्ल इन्सानी को गुमराह करना होता हैं जैसे औरतो को छेड़ना,
मिया-बीवी मे फ़ूट डालना, अवाम मे झुठी खबरे
फ़ैलाकर फ़साद कराना वगैराह|
शैतान(इब्लीस) और जिन्न एक ही हैं, न के
अलग-अलग और इनको अल्लाह के जानिब से एक वक्त तक की मोहलत दी गयी हैं के वो इन्सानो
को गुमराह करे| इरशादे बारी तालाह हैं –
» अल-कुरान : (अल्लाह ताला इबलीस शैतान से फरमाता
है) तुझे ज़रुर मोहलत दी गयी, (इबलीस)कहने लगा चूंकि तूने
मेरी राह मारी हैं तो मैं भी तेरी सिधी राह पर बनी आदम (गुमराह करने के लिये) की
ताक मे बैठूँगा तो फ़िर इन पर हमला करुँगा और इनके दाहिने से और इनके बांए से(गरज़
हर तरफ़ से) इन्हे बहकाऊँगा और तू इनमे से बहुतो अपना शुक्रगुज़ार नही पायेगा| -
(सूरह आराफ़ सूरह नं 7 आयत नं 15 से 18)
हर
नेक इन्सान को अल्लाह की रहनुमाई और मदद हासिल हैं| ईमान
हमेशा कुफ़्र पर गालिब हैं चाहे कुफ़्र करने वालो की तादाद कितनी भी हो| हक और ईमान हमेशा गालिब होकर रहता हैं| जिन्न और
शैतान दरअसल एक ही हैं जैसा के अल्लाह ने कुरान मे फ़रमाया-
» अल-कुरान : इबलीस के सिवा सबने सजदा किया और वो
जिन्नात मे से था| - (सूरह
कहफ़ सूरह नं 18 आयत नं 50)
लिहाज़ा
ये बात वाजे हैं के काफ़िर जिन्न जो दरअसल शैतान ही हैं इन्सान को गुमराह करने मे
कोई कसर बाकी नही छोड़ते और जिहालत ने इन्सान को इतना ज़्यादा गुमराह कर दिया हैं के
वो सही गलत का फ़ैसला भी नही कर पा रहा हैं क्योकि उसे तो ये तौफ़ीक ही नही के
फ़रमान-ए-रिसालत पर भी गौर कर ले|
इन्सान
की यही गुमराही और जिहालत शैतान का काम आसान कर देती हैं और ऐसी बेबुनियाद बाते
जैसे भूत,
प्रेत, बदरूह एक से दूसरे तक और दूसरे से
तीसरे तक और तीसरे से चैथे तक और धीरे-धीरे लोगो तक एक चमत्कार की तरह तमाम मआशरे
मे फ़ैल जाती हैं के फ़ला इन्सान ने भूत देखा या फ़ला इन्सान पर बदरूह का साया हैं
जबकि ये तमाम मामलात अकसर करके दिमागी बुखार या शैतान जिन्नो की सरकशी की वजह से
होते हैं| जहा तक बीमारी का सवाल हैं अल्लाह ने कुरान मे
फ़रमाया-
» अल-कुरान :
(के अल्लाह के नबी इब्राहीम अलैही सलाम लोगों से फरमाते है) जब मैं
बीमार पड़ता हूं तो वही (अल्लाह) मुझे शिफ़ा देता हैं| - (सूरह शूरा सूरह नं 26 आयत
नं 80)
इन्सान जब बीमार होता हैं तो उस इन्सान के ज़िम्मेदार
कभी-कभी बीमारी के दूर न होने के सबब या सेहतमंद होने मे ताखीर के सबब इसे भूत, प्रेत का
चक्कर समझते हैं और अकीदा दुरुस्त न होने के सबब इधर-उधर कब्रो पर भटकते रहते हैं|
जिस
तरह हम दुनिया मे देखते हैं वक्त के साथ-साथ हर चीज़ मे ऐब ज़ाहिर होने लगते हैं तो
उसकी मरम्मत की जाती हैं और उसे फ़िर से इस्तेमाल के काबिल बना लिया जाता हैं लेकिन
बावजूद इस मरम्मत के हर चीज़ अपनी तयशुदा वक्त के साथ बार-बार उसकी मरम्मत होती हैं
लेकिन एक वक्त ऐसा आता हैं के वो चीज़ मरम्मत के भी काबिल नही बचती और खत्म हो जाती
हैं|
बहैसियत इन्सान, इन्सान के लिये हर किस्म की
तकलीफ़ होना लाज़िमी हैं कभी गम के सबब, कभी बीमारी के सबब,
कभी अहलो अयाल की फ़िक्र के सबब, कभी कारोबार
की फ़िक्र के सबब बीमार होना लाज़िमी हैं वक्त-बा-वक्त इन बीमारी का इलाज भी होता
रहता हैं और इन्सान फ़िर से तन्दुरुस्त भी हो जाता हैं लेकिन बावजूद इन सब के
बीमारिया कभी-कभी जानलेवा भी होती हैं या देर से बीमारी का इलाज करने से| हालाकि की अल्लाह ने ऐसी कोई बीमारी नही रखी जिसका इलाज न हो जैसा के
अल्लाह के रसूल की हदीस हैं-
» हदीस : हज़रत अबू हुरैरा रज़ि0 से रिवायत हैं के नबी (सल्लललाहो अलेहे वसल्लम) ने फ़रमाया – ‘अल्लाह ने कोई बीमारी ऐसी नही उतारी जिसकी दवा भी न हो|’ - (सहीह बुखारी)
इन बीमारी के अलावा अकसर इन्सान किसी सरकश
जिन्न के सबब कोई न कोई परेशानी मे मुब्तला हो जाते हैं| ये शैतान
जिन्न इन्सान के दिमाग पर हावी होकर उसके सोचने समझने की ताकत को खत्म कर देता हैं
जिसके सबब इन्सान को वो अपने तरिके से इस्तेमाल करता हैं जैसे किसी के मरने के
बारे मे बताना या पीछे की बाते बतलाना जिसे इन्सान अकसह मोजज़ा समझ बैठते हैं|
या किसी मरे हुए इन्सान के बारे मे बताना जिसे पुर्नजन्म समझा जाता
हैं वगैराह| और लोग इसे सच मान लेते हैं क्योकि मौजूदा
मिडिया ने इन्सान को ये सब इस तरह बता रखा हैं जैसे ये बाते 100 फ़ीसद सच हो|
लोग
ये समझते हैं के रूह दुनिया मे लौट आयी जबकि ये सब शैतान जिन्न की करतूत होती हैं| पुर्नजन्म
के ताल्लुक से जितनी भी बाते सुनने मे आती हैं उसमे ये बाते सिर्फ़ बच्चो से ही
ताल्लुक रखती हैं न के किसी बड़े से| जैसे-जैसे बच्चा बड़ा
होता हैं वो सारी बाते भूल जाता हैं| पुर्नजन्म के जो भी
मामले अब तक सुनने मे आये हैं उसमे सिर्फ़ बच्चो का ही ज़िक्र हैं क्योकि बच्चो पर
काबिज़ होना हर किसी के लिये आसान हैं| जब ये शैतान जिन्न
किसी बड़े पर काबिज़ होते हैं तो ये मसला किसी बदरूह या भूत, प्रेत
का बन जाता हैं या फ़िर उस इन्सान पर सवार जिन्न अपनी ताकत के सबब लोगो को मोजज़े
दिखा कर लोगो के दरम्यान ये बाते पैदा कर देता हैं के जिस इन्सान पर वो सवार हैं
उस पर किसी नेक बुज़ुर्ग का साया हैं|
सबसे
खास बात ये के जैसा के अल्लाह ने कुरान मे फ़रमाया के मोमिन बन्दो को अल्लाह की
रहनुमाई हासिल रहती हैं लिहाज़ा ये शैतान जिन्न हमेशा ऐसे लोगो से दूर रहते हैं
बल्कि डरते हैं| ये शैतान जिन्न सिर्फ़ उन लोगो पर काबिज़
होते हैं जो सिर्फ़ नाम के मुसलमान हैं और कुरान और सुन्नत से कोसो दूर हैं|
हालाकि ये बहुत तवील मौअज़ू हैं और इस बारे मे सिर्फ़ इतना कहना काफ़ी होगा के जैसा के कुरान से सबित हैं के इन्सान के मरने के बाद रूह दुनिया मे नही लौटती लिहाज़ा गर इन बातो को मान लिया जाये तो कुरान पर इल्ज़ाम लगता है क्योकि कुरान ने इस मसले को बहुत ही आसानी के साथ वाज़े कर दिया हैं| शैतान जो इन्सान का दुश्मन हैं उसे गुमराह करने मे कोई कस्र बाकि नही छोड़ता और इन्सान दीन से दूर शैतान के फ़न्दे मे बहुत आसानी आ जाता है| लिहाज़ा हर इन्सान को चाहिये के अल्लाह की रस्सी को मज़बूती से पकड़ ले और ऐसे मामलात से बचा रहे जिससे उसकी आखिरत खराब हो|
» काहिन,
नजूमी (तांत्रिक, ओझा):
काहिन, नजूमी या
झाड़-फ़ूंक करने वाले लोग अमूमन वो लोग होते हैं जो शैतान के पुजारी होते हैं|
इन लोगो का न कोई दीन होता हैं न कोई अकीदा| ये
लोग आवाम को अपनी शैतानी ताकत जो उन्हे अपने शैतान जिन्न के ज़रिये हासिल हैं से
फ़साये रखते हैं| इनमे से बाज़ तो कोई शऊर ही नही रखते और न ही
उन्हे किसी किस्म का इल्म होता हैं| और बाज़ लोगो को अपनी
शैतानी ताकत के सबब गुमराह करके नुकसान पहुंचाते हैं| नबी
(सल्लललाहो अलेहे वसल्लम) ने ऐसे लोगो के ताल्लुक फ़रमाया- » हदीस : हज़रत आयशा रज़ि0 से रिवायत हैं के कुछ लोगो ने नबी
(सल्लललाहो अलेहे वसल्लम) से काहिनो के बारे मे पूछा तो नबी (सल्लललाहो अलेहे
वसल्लम) ने फ़रमाया – ‘इसकी कोई बुनियाद नही|’ लोगो ने कहा – ‘ऐ अल्लाह के नबी (सल्लललाहो अलेहे
वसल्लम) बाज़ वक्त वो हमे ऐसी बाते बताते हैं जो सही होती हैं| नबी (सल्लललाहो अलेहे वसल्लम) ने फ़रमाया – ‘ये कल्मा
हक होता हैं| इसे काहिन किसी जिन्न से सुन लेता हैं या वो
जिन्न अपने काहिन दोस्त के कान मे डाल जाता हैं और फ़िर ये काहिन इसमे सौ झूठ मिला
कर ब्यान करता हैं| - (बुखारी)
इस
हदीस से वाज़े हैं के ऐसे अमल की कोई हैसियत नही अल्बत्ता बाज़ शैतान किस्म के लोग
जिनके राब्ते मे शैतान जिन्न होते हैं और उसके ज़रिये वो लोगो को उनके बारे मे
बताते हैं जैसे किसी इन्सान को कोई परेशानी हो और वो इससे छुटकारा हासिल करने के
लिये किसी काहिन के पास जाता हैं तो शैतान जिन्न पहले ही काहिन को उस इन्सान के
बारे मे और उसकी परेशानी के बारे मे बता देता| जब काहिन उस इन्सान को उसके
आने का सबब और परेशानीयो के बारे मे बताता हैं तो इन्सान उस काहिन को पहुंचा हुआ
समझता हैं और उससे मुतास्सिर होकर उसी का होकर रह जाता हैं हालाकि ज़ाहिरी तौर पर
वो इन्सान अपना ईमान और अकीदा खो देता हैं मगर वो यही समझता हैं के ये काहिन खुदा
का कोई नुमाइंदा हैं|
» हदीस : हज़रत सफ़िया रज़ि0
से रिवायत हैं के नबी (सल्लललाहो अलेहे वसल्लम) ने फ़रमाया –
‘जो शख्स किसी काहिन के पास जाये और इससे कोई बात पूछे तो इसकी 40
दिन तक नमाज़ कबूल न होगी|’ - (मुस्लिम)
लिहाज़ा हर इन्सान को चाहिये के अल्लाह पर भरोसा रखे और उसी से तवक्को रखे और ऐसे झूठे लोगो के फ़रेब से बचे| कोई काहिन कितनी भी सच्ची खबर क्यो न दे मगर वो खुदा नही हो सकता क्योकि तकदीर लिखने वाला अल्लाह है और तकदीर बदलने वाला भी अल्लाह ही हैं|
रोज़े को अरबी
भाषा में ‘‘सौम’’ कहते हैं।
रोज़ा
एक इबादत है। रोज़े को अरबी भाषा में ‘‘सौम’’ कहते हैं। इसका अर्थ ‘‘रुकने
और चुप रहने’’ के हैं। क़ुरआन में इसे ‘‘सब्र’’ भी कहा गया है, जिसका
अर्थ है ‘स्वयं पर नियंत्रण’ और
स्थिरता व जमाव (Stability)।
इस्लाम
में रोज़े का मतलब होता है केवल ईश्वर के लिए, भोर से लेकर सूरज डूबने तक
खाने-पीने, सभी बुराइयों (और पति-पत्नी का सहवास करने) से
स्वयं को रोके रखना। अनिवार्य रोज़े, जो केवल रमज़ान के महीने
में रखे जाते हैं और यह हर व्यस्क मुसलमान के लिए अनिवार्य हैं।
क़ुरआन में कहा गया है अल-कुरान : ‘‘ऐ ईमान लाने
वालो! तुम पर रोज़े अनिवार्य किए गए, जिस प्रकार तुम से पहले
के लोगों पर किए गए थे, शायद कि तुम डर रखने वाले और
परहेज़गार बन जाओ।’’ – (क़ुरआन,
2:183)
अल-कुरान : रमज़ान का महीना जिसमें क़ुरआन
उतारा गया लोगों के मार्गदर्शन के लिए, और मार्गदर्शन और
सत्य-असत्य के अन्तर के प्रमाणों के साथ। अतः तुममें जो कोई इस महीने में मौजूद हो,
उसे चाहिए कि उसके रोज़े रखे और जो बीमार हो या यात्रा में हो तो
दूसरे दिनों से गिनती पूरी कर ले। ईश्वर तुम्हारे साथ आसानी चाहता है, वह तुम्हारे साथ सख़्ती और कठिनाई नहीं चाहता और चाहता है कि तुम संख्या
पूरी कर लो और जो सीधा मार्ग तुम्हें दिखाया गया है, उस पर
ईश्वर की बड़ाई प्रकट करो और ताकि तुम कृतज्ञ बनो।’’ – (क़ुरआन, 2:185)
रोज़ा एक बहुत महत्वपूर्ण इबादत है। हर क़ौम
में,
हर पैग़म्बर ने रोज़ा रखने की बात कही। आज भी रोज़ा हर धर्म में किसी
न किसी रूप में मौजूद है। क़ुरआन के अनुसार रोज़े का उद्देश्य इंसान में तक़वा या
संयम (God Consciousness) पैदा करना है। तक़वा का एक अर्थ है
— ‘ईश्वर का डर’ और दूसरा अर्थ है —
‘ज़िन्दगी में हमेशा एहतियात वाला तरीक़ा अपनाना।’
• ईश्वर का
डर एक ऐसी बात है जो इंसान को असावधान होने अर्थात् असफल होने से बचा लेता है। कु़रआन
की आयत (Verse) ‘ताकि तुम डर रखने वाले और परहेज़गार बन जाओ’
(2:183), से पता चलता है कि रोज़ा, इंसान में ईश्वर का डर पैदा करता है और उसे
परहेज़गार (संयमी) बनाता है। ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) ने
फ़रमाया—
» मेह्फुम-ए-हदीस :
‘‘जिस व्यक्ति ने (रोज़े की हालत में) झूठ बोलना और उस पर अमल करना न छोड़ा,
तो ईश्वर को इसकी कुछ आवश्यकता नहीं कि वह (रोज़ा रखकर) अपना खाना-
पीना छोड़ दे।’’ – (हदीस :
बुख़ारी)
» मेह्फुम-ए-हदीस :
‘‘कितने ही रोज़ा रखने वाले ऐसे हैं, जिन्हें
अपने रोज़े से भूख-प्यास के अतिरिक्त कुछ हासिल नहीं होता।’’ – (हदीस : दारमी)
» रोज़ा
रखना इंसान की हर चीज़ को पाबन्द (नियमबद्ध) बनाता है।
• आँख का
रोज़ा यह है कि जिस चीज़ को देखने से ईश्वर ने मना किया, उसे
न देखें।
• कान का
रोज़ा यह है कि जिस बात को सुनने से ईश्वर ने मना किया, उसे
न सुनें।
• ज़ुबान का
रोज़ा यह है कि जिस बात को बोलने से ईश्वर ने मना किया, उसे
न बोलें।
• हाथ का
रोज़ा यह है कि जिस काम को करने से ईश्वर ने मना किया, उसे न
करें।
• पैर का
रोज़ा यह है कि जिस तरफ़ जाने से ईश्वर ने मना किया, उधर न
जाएं।
• दिमाग़ का
रोज़ा यह है कि जिस बात को सोचने से ईश्वर ने मना किया, उसे
न सोचें।
• इसी के
साथ-साथ यह भी है कि जिन कामों को ईश्वर ने पसन्द किया, उन्हें
किया जाए।
• केवल
ईश्वर के बताए गए तरीक़े के अनुसार रोज़ा रखना ही इंसान को लाभ पहुँचाता है।
• ईशदूत
हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) कहते हैं—
» मेह्फुम-ए-हदीस : ‘‘इंसान के हर अमल का
सवाब (अच्छा बदला) दस गुना से सात सौ गुना तक बढ़ाया जाता है, मगर ईश्वर फ़रमाता है — रोज़ा इससे अलग है, क्योंकि वह मेरे लिए है और मैं ही इसका जितना चाहूँगा बदला दूँगा।’’
– (हदीस : बुख़ारी व मुस्लिम)
» रोज़े का
इंसान के दिमाग़ और उसके शरीर दोनों पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ता है।
• रोज़ा एक वार्षिक
ट्रेनिंग कोर्स है। जिसका उद्देश्य इंसान की ऐसी विशेष ट्रेनिंग करना है, जिसके बाद वह साल भर ‘स्वयं केन्द्रित जीवन’ के बजाए, ‘ईश्वर-केन्द्रित जीवन’ व्यतीत कर सके।
• रोज़ा इंसान में अनुशासन (Self-Discipline) पैदा
करता है, ताकि इंसान अपनी सोचों व कामों को सही दिशा दे सके।
• रोज़ा
इंसान का स्वयं पर कन्ट्रोल ठीक करता है। इंसान के अन्दर ग़ुस्सा, ख़्वाहिश (इच्छा), लालच, भूख,
सेक्स और दूसरी भावनाएं हैं। इनके साथ इंसान का दो में से एक ही
रिश्ता हो सकता है: इंसान इन्हें कन्ट्रोल करे, या ये इंसान
को कन्ट्रोल करें। पहली सूरत में लाभ और दूसरी में हानि है। रोज़ा इंसान को इन्हें
क़ाबू करना सिखाता है। अर्थात् इंसान को जुर्म और पाप से बचा लेता है।
• रोज़ा
रखने के बाद इंसान का आत्मविश्वास और आत्मसंयम व संकल्प शक्ति (Will Power)
बढ़ जाती है।
• इंसान जान
लेता है कि जब वह खाना-पानी जैसी चीज़ों को दिन भर छोड़ सकता है, जिनके बिना जीवन संभव नहीं, तो वह बुरी बातों व
आदतों को तो बड़ी आसानी से छोड़ सकता है। जो व्यक्ति भूख बर्दाश्त कर सकता है,
वह दूसरी बातें भी बर्दाश्त (सहन) कर सकता है।
• रोज़ा
इंसान में सहनशीलता के स्तर (level of Tolerance) को बढ़ाता
है।
• रोज़ा
इंसान से स्वार्थपरता (Selfishness) और सुस्ती को दूर करता
है।
• रोज़ा
ईश्वर की नेमतों (खाना-पानी इत्यादि) के महत्व का एहसास दिलाता है।
• रोज़ा
इंसान को ईश्वर का सच्चा शुक्रगुज़ार बन्दा बनता है।
• रोज़े के
द्वारा इंसान को भूख-प्यास की तकलीफ़ का अनुभव कराया जाता है, ताकि वह भूखों की भूख और प्यासों की प्यास में उनका हमदर्द बन सके।
• रोज़ा
इंसान में त्याग के स्तर (Level of Sacrifice) को बढ़ाता है।
• इस तरह हम
समझ सकते हैं कि रोज़ा ईश्वर का मार्गदर्शन मिलने पर उसकी बड़ाई प्रकट करने,
उसका शुक्र अदा करने और परहेज़गार बनने के अतिरिक्त, न केवल इंसान के दिमाग़ बल्कि उसके शरीर पर भी बहुत अच्छा प्रभाव डालता
है।
ईशदूत
हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) के शब्दों में हम कह सकते हैं —
» मेह्फुम-ए-हदीस:
‘‘हर चीज़ पर उसको पाक, पवित्र करने के लिए ज़कात है और
(मानसिक व शारीरिक बीमारियों से पाक करने के लिए) शरीर की ज़कात (दान) रोज़ा है।’’
– (हदीस : इब्ने माजा)
» Urdu Words: हज़रत: आदरणीय व्यक्तित्व
के लिए उपाधि सूचक शब्द। सलल्लाहो अलैहि वसल्लम: हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि
वसल्लम) पर अल्लाह की रहमत व सलामती हो।
हदीस:
अल्लाह के अन्तिम सन्देष्टा हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) के वचनों, कर्मों और
तरीकों (ढंगों) को हदीस कहते हैं।
निकाह
औरत मर्द के साथ-साथ दरअसल दो खानदान का भी रिश्ता होता हैं ….
निकाह
दरहकीकत एक ऐसा ताल्लुक हैं जो औरत मर्द के दरम्यान एक पाकदामन रिश्ता हैं जो मरने
के बाद भी ज़िन्दा रहता हैं बल्कि निकाह हैं ही इसलिये के लोगो के दरम्यान मोहब्बत
कायम रह सके| जैसा के नबी सल्लललाहो अलेहे वसल्लम ने
फ़रमाया-
» हदीस : हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ी अल्लाहु अनहु) से रिवायत हैं के
रसूलल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया – के ‘आपस मे मोहब्बत रखने वालो के लिये निकाह जैसी कोई दूसरी चीज़ नही देखी गयी|’
- (इब्ने माजा )
» हदीसे नबवी से
साबित हैं के निकाह औरत मर्द के साथ-साथ दरअसल दो खानदान का भी रिश्ता होता हैं जो
निकाह के बाद कायम होता हैं|
इसका
अव्वल तो ये फ़ायदा होता हैं के अगर एक मर्द और औरत की निकाह से पहले मोहब्बत मे हो
तो गुनाह के इमकान हैं लेकिन अगर उनका निकाह कर दिया जाये तो गुनाह का इमकान नही
रहता. दूसरे उनकी मोहब्बत हमेशा के लिये निकाह मे तबदील हो जाती हैं जो जायज़ हैं
साथ ही दो अलग-अलग खानदान आपस मे एक-दूसरे से वाकिफ़ होते हैं और एक नया रिश्ता
कायम होता हैं|
मोहब्बत के साथ-साथ निकाह नफ़्स इन्सानी के सुकुन का भी ज़रिय हैं जिससे इन्सान सुकुन और फ़ायदा हासिल करता हैं| अल्लाह कुरान मे फ़रमाता हैं- » अल-कुरान: और उसी की निशानियो मे से एक ये हैं की उसने तुम्हारे लिये तुम्ही मे से बीवीया पैदा की ताकि तुम उनके साथ रहकर सुकून हासिल करे और तुम लोगो के दरम्यान प्यार और उलफ़त पैदा कर दी| इसमे शक नही गौर करने वालो के लिये यकिनन बहुत सी निशानिया हैं| - (सूरह रूम सूरह नं 30 आयत नं 21)
दुनिया
में इतने धर्म कैसे बने?
(इसको पढने
में आपके 10 मिनट ज़रूर लगेगे लेकिन “आपको
बहुत सारी बातें स्पष्ट” हो जाएँगी.:
मानव इतिहास का अध्ययन करने से पता चलता है कि इस धरती पर ईश्वर ने
अलग अलग जगह मानव नहीं बसाए, अपितु एक ही मानव से सारा संसार
फैला है। निम्नलिखित तथ्यों पर ध्यान दें, आपके अधिकांश
संदेह खत्म हो जाएंगे।
1. सारे मानव का मूलवंश एक ही पुरूष तक पहुंचता है, ईश्वर ने
सर्वप्रथम विश्व के एक छोटे से कोने धरती पर मानव का एक जोड़ा बसाया
2. जिनको मुस्लिम ‘आदम’(अलैहीस्सलाम) तथा ‘हव्वा’ कहते
हैं. उन्हीं दोनों पति-पत्नी से मनुष्य की उत्पत्ति का आरम्भ हुआ
3. जिनको हिन्दू मनु और शतरूपा कहते हैं तो
क्रिस्चियन ‘एडम’ और ‘ईव’.
4. जिनका विस्तारपूर्वक उल्लेख, पवित्र
ग्रन्थ (क़ुरआन (230-38)
5. तथा भविष्य पुराण प्रतिसर्ग पर्व खण्ड 1 अध्याय 4
और बाइबल उत्पत्ति (2/6-25) और दूसरे अनेक
ग्रन्थों में किया गया है। उनका जो धर्म था उसी को हम “इस्लाम”
कहते हैं,
6. जो आज तक “सुरक्षित”
है।
7. ईश्वर ने मानव को संसार में बसाया तो, अपने
बसाने के “उद्देश्य से अवगत” कराने के
लिए हरयुग में मानव ही में से कुछ पवित्र लोगों का चयन – नियुक्त
किया ताकि वह “मानव मार्गदर्शन” कर
शकें।
8. वह हर देश और हर युग में भेजे गए, उनकी
संख्या एक लाख चौबीस हज़ार तक पहुंचती है इनको इस्लाम में “ईशदूत
या पैगम्बर” या “रसूल” कहते हैं. वह अपने समाज के श्रेष्ठ लोगों में से होते थे तथा हर प्रकार के
दोषों से मुक्त होते थे। उन सब का संदेश एक ही था कि “केवल
एक ईश्वर की पूजाकी जाए, मुर्ति-पूजा से बचा जाए, तथा सारे मानव समान हैं”. उनमें जाति अथवा वंश के
आधार पर कोई भेदभाव नहीं।
9. कई ईशदूत का संदेश उन्हीं की जाति तक सीमित
होता था क्योंकि मानव ने इतनी प्रगति न की थी तथा एक देश का दूसरे देशों से
सम्बन्ध नहीं था।
10.
उनके समर्थन के लिए उनको
कुछ चमत्कारिक शक्तिया (मौजज़े) भी दी जाती थीं जैसे,
11.
मुर्दे को जीवित कर देना, अंधे की
आँखें सही कर देना, चाँद को दो टूकड़े कर देना आदि। लेकिन यह
एक “ऐतिहासिक तथ्य” है कि पहले तो
लोगों ने उन्हें ईश्दूत मानने से इनकार किया कि, उनके बारे
में कहते थे की वह तो हमारे ही जैसा शरीर रखने वाले हैं फिर जब उनमें असाधारण गुण
देख कर उन पर श्रृद्धा भरी नज़र डाली तो किसी ने उनकी बात को मान लिया. ऐसे लोग “इस्लाम” पर कायम रहे और किसी समूह ने उन्हें “ईश्वर का अवतार” मान लिया तो किसी ने उन्हें “ईश्वर की सन्तान” मान कर “उन्हीं
की पूजा” आरम्भ कर दी। ऐसे लोग “इस्लाम”
से बहार हो गए और अपने धर्म की शुरुआत, “उन्होंने
खुद की”
ईशदूत
के अलावा भी “कई अच्छे लोगों” को “ऐसी उपाधि” दे दी गई. उदाहरण स्वरूप “गौतम बुद्ध” को देखिए, बौद्ध
मत के गहरे अध्ययन से केवल इतना पता चलता है कि उन्हों ने “ब्राह्मणवाद
की बहुत सी ग़लतियों” की सुधार की थी तथा “विभिन्न पूज्यों का खंडन” किया था और कहा था की “में सिर्फ ईश्वर का रास्ता बताने वाला हूँ, “ईश्वर
नहीं”. परन्तु उनकी मृत्यु के एक शताब्दी भी न गुज़री थी कि
वैशाली की सभा में उनके अनुयाइयों ने उनकी सारी शिक्षाओंको बदल डाला और बुद्ध के
नाम से ऐसे “विश्वास” नियत किए जिस में
ईश्वर का कहीं भी कोई वजूद-अस्तित्व नहीं था।
1. फिर तीन चार शताब्दियों के भीतर बौद्ध धर्म के
पंडितों ने कश्मीरमें आयोजित
2. “एक सभा में उन्हें सामूहिक रूप से ईश्वर का अवतार मान लिया”।
3. इसी तरह “कई युग के लोगों” ने अपने “राजा-महाराजाओ” को ये
उपाधि दे दी. राजा अपने दरबार में बहुत सारे “कलाकारों के
साथ-साथ कवि” भी रखते थे,
4. “ऐसे कवि दरबार में बने रहने के लिए राजा की खूब प्रशंसा लिखा करते थे”,
5. यहाँ तक की उन्हें “ईश्वर”
से मिला दिया करते थे.
6. एक लम्बा समय बीतने के बाद, “उनकी
लिखी कविताओं” से भी लोग “अपने
स्वर्गवासी राजा को ईश्वर” समझने लगते थे.
7. इसके अलावा इन्सान जिस दुसरे इन्सान या जानवर
से डरा,
या जिसको ताकतवर पाया, या जिससे लाभ दिखा उसकी
पूजा शुरू कर दी.
8. “ईशदूत के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ”. इसे बुद्धि की
दुर्बलता कहिए कि जिन संदेष्टाओं नें मानव को एक ईश्वर की ओर बुलाया था “उन्हीं को ईश्वर का रूप दे दिया गया”
9. हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) को “यहूदी”
पूजने लगे जिनको वो मोसेस कहते हैं,
10.
हज़रत ईसा (अलेह सलाम) को “क्रिस्चियनो”
ने “ईश्वर का बेटा” मान
लिया, वो उनको “जीसस” कहते हैं, और वो उनको पूजने लगे. हालाँकि ये दोनों
भी “ईशदूत” ही थे, इसे यूं समझीये कि,
11.
यदि “कोई
पत्रवाहक” एक व्यक्ति के पास उसके “पिता
का पत्र” पहुंचाता है तो उसका कर्तव्य बनता है कि “पत्र” को पढ़े ता कि अपने “पिता
का संदेश” पा सके
12.
परन्तु यदि वह पत्र में
पाए जाने वाले संदेश को बन्द कर के रख दे, और “पत्रवाहक
का ऐसा आदर सम्मान” करने लगे कि, “उसे
ही पिता का महत्व” दे बैठे, तो इसे
क्या ? नाम दिया जाएगा….!
“आप स्वयं
समझ सकते हैं। इस तरह “अलग-अलग धर्म” बनते
गए.
आखिर
में आज से १४०० साल पहले ईश्वर ने, “भटके हुए लोगों को सही
रास्ता” दिखाने के लिए “विश्वनायक”
को दुनिया में भेजा, जिन्हें हम हज़रत मुहम्मद
(सल्लल्लाहु अलेही वसल्लम) कहते हैं, अब उनके पश्चात कोई
संदेष्टा आने वाला नहीं है, ईश्वर ने “अन्तिम
संदेष्टा”, “हज़रत मुहम्मद” को,
“सम्पूर्ण मानवजाति का मार्गदर्शक”, बना कर
भेजा, और आप मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलेही वसल्लम) पर, “अन्तिम ग्रन्थ क़ुरआन अवतरित किया” “जिसका संदेश
सम्पूर्ण मानव जाति के लिए है ना की किसी धर्मविशेष के लिए”।
हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैही वसल्लम) के, समान धरती ने न
किसी को देखा न देख सकती है।
वही “कल्कि अवतार हैं जिनकी हिन्दु (वैदिक) समाज में आज प्रतीक्षा हो रही है”.
आत्म-हत्या
की बढ़ती हुई मानसिकता और उसका समाधान
आत्म
हत्या की बढ़ती हुई मानसिकता और उसका समाधान इस समय दुर्भाग्य से पूरी दुनिया में
आत्म-हत्या का रुजहान बढ़ता जा रहा है। पश्चिमी देशों में सामाजिक व्यवस्था के
बिखराव के कारण समय से आत्म-हत्या की बीमारी प्रचलिम है। भारत सरकार की तत्कालिन
रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर एक घंटे में आत्म-हत्या की पंद्रह घटनाएं पेश आती
हैं। खेद की बात यह है कि आत्म-हत्या की इन घटनाओं में एक अच्छी खासी संख्या पढ़े
लिखे और उच्च शिक्षित युवकों की है । सप्ताह में चार पाँच दिन दैनिक अख़बारों में
ऐसी ख़बरें मिल ही जाती हैं जिनमें महिलाओं की आत्म-हत्या का वर्णन होता है, यह
घटनायें सामान्य रूप में ससुराल वालों के अत्याचार और पैसों के न खत्म होने वाली
मांगों के कारण पेश आती हैं। ऐसे मां बाप की मौत भी अनोखी बात नहीं रही जो अपनी
गरीबी के कारण अपनी बेटियों के हाथ पीले करने में असमर्थ हैं और ज़ालिम समाज ने
उन्हें सख्त मानसिक तनाव में ग्रस्त किया हुआ है।
» इसका कारण
क्या है? और इसका समाधान कैसे सम्भव हो सकता है ?
आइए
इस्लामी दृष्टिकोण से इस विषय पर विचार करते हैं: मनुष्य पर अनिवार्य है कि वह
संभवतः अपनी जान की सुरक्षा करे, क्योंकि जीवन उसके पास ईश्वर
(अल्लाह) की अमानत है और अमानत की सुरक्षा करना हमारा नैतिक और मानवीय दायित्व है।
इसलिए इस्लाम की निगाह में आत्म-हत्या बहुत बड़ा पाप और गंभीर अपराध है। ऐसा पाप
जो उसे दुनिया से भी वंचित करता है और परलोक से भी । खुद कुरआन ने आत्म-हत्या से
मना फ़रमाया हैः अल्लाह (ईश्वर) का आदेश है: अल कुरान : “(ऐ इंसानों !)
अपने आप को क़त्ल मत करो” - (सूरह ४: अन निसा: आयत 29)
और
अन्तिम संदेष्टा मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के विभिन्य प्रवचनों में
आत्म-हत्या का खंडन किया गया और बहुत सख्ती और बल के साथ आत्म-हत्या से मना किया
गया है।
हदीस : आप मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमायाः “जिसने अपने आप को पहाड़ से गिरा कर आत्म-हत्या की वह नरक की आग में भी इसी तरह हमेशा गिरता रहेगा और जिस व्यक्ति ने लोहे की हथियार से खुद को मारा वह नरक में भी हमेशा अपने पेट में हथियार घोंपता रहेगा।” - (बुखारी शरीफ)
एक दूसरे स्थान पर आपका आदेश हैः हदीस: “गला घोंट कर आत्महत्या
करने वाला नरक में हमेशा गला घोंटता रहेगा और अपने आप को भाला मार कर हत्या करने
वाला नरक में भी हमेशा अपने आप को भाला मारता रहेगा।” - (बुखारी शरीफ)
क़ुरआन
और मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के प्रवचनों से अनुमान किया जा सकता है कि
आत्म-हत्या इस्लाम की निगाह में कितना गंभीर अपराध है। यह वास्तव में जीवन की
समस्याओं और मुश्किलों से भागने का रास्ता अपनाना है और अपनी ज़िम्मेदारियों से
भाग निकलने का एक अवैध और अमानवीय उपाय है। ऐसा व्यक्ति कभी आत्म-हत्या की
मानसिकता नहीं बना सकता :
जो व्यक्ति अल्लाह पर विश्वास रखता हो, वह दृढ़ विश्वास रखता हो कि अल्लाह समस्याओं की काली रात से आसानी और उम्मीद की नई सुबह पैदा कर सकता है, जो व्यक्ति भाग्य में विश्वास रखता हो कि खुशहाली और तंगी संकट और तकलीफ़ अल्लाह ही की ओर से है । धैर्य और संतोष मनुष्य का कर्तव्य है और जो परलोक में विश्वास रखता हो कि जीवन की परेशानियों से थके हुए यात्रियों के लिए वहाँ राहत और आराम है। ऐसा व्यक्ति कभी आत्म-हत्या की मानसिकता नहीं बना सकता। आज आवश्यकता इस बात की है कि आत्म-हत्या के नैतिक और सामाजिक नुकसान लोगों को बताए जाएं। समाज के निर्धनों और कमज़ोरों के साथ नरमी और सहयोग का व्यवहार किया जाए। घर और परिवार में प्रेम का वातावरण स्थापित किया जाए। बाहर से आने वाली बहू को प्यार का उपहार दिया जाए, रिती रिवाज की जिन जंजीरों ने समाज को घायल किया है, उन्हें काट फेंका जाए। शादी, विवाह के कामों को सरल बनाए जाएं और जो लोग मानसिक तनाव में ग्रस्त हों और समस्याओं में घिरे हुए हों उनमें जीने और समस्याओं और संकट से मुक़ाबला करने की साहस पैदा की जाए।
नज़र का फ़ित्ना
नज़र
एक ऐसा फ़ित्ना हैं जिस पर कोई रोक नही जब तक कोई इन्सान खुद अपनी नज़र को बुराई से
न फ़ेर ले|
अमूमन नज़र के फ़ित्ने से आज का इन्सान महफ़ूज़ नही क्योकि टीवी,
अखबार, मिडिया के ज़रीये जिस तरह इन्सान के
जज़्बात को जिस तरह भड़काने का मौका दिया जा रहा हैं उससे कोई इन्सान नही बच सकता|
ऐसी सूरत मे अल्लाह ने जो हुक्म दिया वो इस तरह हैं – » अल्लाह के नाम से शुरू
जो बड़ा कृपालु और अत्यन्त दयावान हैं.!! (ऐ रसूल) ईमानवालो
से कह दो के अपनी नज़रे नीची रखे और अपनी शर्मगाहो की हिफ़ाज़त करें यही उनके लिये
ज़्यादा अच्छी बात हैं| ये लोग जो कुछ करते हैं अल्लाह उससे
यकीनन वाकिफ़ हैं और) ऐ रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम)! ईमानवाली औरतो से कह दो
कि वह भी अपनी नज़रे नीची रखे और अपनी शर्मगाहो की हिफ़ाज़त करे| – (सूरह नूर सूरह नं0 24 आयत नं0 30, 31)
ये आयत इस बात का खुला सबूत हैं कि हर मर्द और औरत दोनो पर
ये लाज़िम हैं की वो अपनी नज़रे नीची रखे. न के ये हुक्म कुरान के ज़रीये सिर्फ़ मर्द
या सिर्फ़ औरत को दिया जा रहा हैं| गौर करने की बात ये हैं के
क्या कोई मर्द किसी ऐसी औरत से शादी करेगा जो लूज़ केरेक्टर हो या कोई औरत किसी ऐसे
मर्द से शादी करेगी जो लूज़ केरेक्टर हो| ये सवाल अगर अवाम से
पूछा जाये तो 99% मर्द और औरत यही जवाब देगे के जिस औरत या
मर्द का कोई केरेक्टर न हो उससे कोई शादी क्यो करेगा ताकि ज़िन्दगी भर वो अपने लोगो
मे ज़िल्लत और शर्म महसूस करे| तो सवाल ये हैं के जब कोई ये
नही कर सकता तो उस पर ये लाज़िम हैं की अपनी नज़र और शर्मगाह की हिफ़ाज़त करे| इस बारे मे हदीस नबवी पर भी ज़रा गौर करें-
» हदीस : हज़रत ज़रीर बिन अब्दुल्लाह (रज़ी अल्लाहु अनहु) से रिवायत हैं के मैने
रसूलल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से अचानक नज़र पड़ जाने के बारे मे पूछा तो आप
(सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया – अपनी नज़रे फ़ेर लो|
- (मुस्लिम शरीफ)
अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की इस हदीस से साबित हैं के नज़र ज़िना (कुकर्म, बलात्कार, Rape) की ही एक किस्म हैं लिहाज़ा इस ज़िनाकारी से बचने की सूरत सिर्फ़ ये हैं के नज़रे नीची रखी जाये और अचानक पड़ जाने की सूरत मे नज़र फ़ेर ली जये|
बुज़ुर्गाने दीन के हाथ पाउ
चूमना
प्रशन: क्या बुज़ुर्गाने दीन के
हाथ पाओं चूम सकते है हदीस शरीफ से हवाला दें ?
उत्तर: हदीस 1: हज़रत ज़राअ रदीयल्लाहू अनहु
से रिवायत है की वो फरमाते है की जब हम मदीना मुनव्वरह आए तो अपनी सवारियों पर से
उतरने मे जल्दी करने लगे पस हम हुज़ूर अलैहिस्सलाम के हाथ ,पाऊँ शरीफ चूमते थे। (मिश्कात बाबुल मुसाफह वल
मुआनकह अल फस्ल सानी)
हदीस 2: मिश्कात ने बा रिवायत अबु
दाऊद और तिरमिजी से नकल किया की हुज़ूर अलैहिस्सलाम ने हज़रत उस्मान बिन मजऊन
रदीयल्लाहू अनहु को बोसा दिया हालांकि उनका इंतेकाल हो चुका था।
काज़ी
अयाज़ शिफा शरीफ मे हदीस नकल करते है कि “जिस मिंबर पर हुज़ूर अलैहिस्सलाम खुतबा फरमाते
थे उस पर हज़रत अब्दुल्लाह इबने उमर रदीयल्लाहू अनहु अपना हाथ रख कर चूमते थे”
इबने
अबी मुसन्निफ़ यमनी जो की मक्का के उलमा-ए-शाफ़िया मे से है फरमाते है कि “कुरान करीम और हदीस के
पेजों और बुज़ुर्गाने दीन की कब्र चूमना जाइज़ है”
अब अकवाल फ़िकह मुलाहिजा हो फतावा आलमगिरी किताबुल करहिया बाब ममलूक मे है- “अगर आलिम और आदिल बादशाह के हाथ चूमे उनके इल्म व अदल की वजह से तो इसमे हरज नहीं”
इसी
आलमगिरी के किताबुल कराहिया बाब जियारतुल कुबूर मे है- “अपने माँ बाप की कब्रे
चूमने मे हरज नहीं” दुर्रे
मुख्तार जिल्द पंजम किताबुल कराहिया बाब मुसाफह मे है कि “ आलिम और अदिल बादशाह के
हाथ चूमने मे हरज नहीं”
इसी
किताब मे अल्लामा इबने आबिदीन शामी ने एक हदीस नकल की कि “ हुज़ूर अलैहिस्सलाम ने उस
शख्स को इजाजत दी उस ने आप के सर और पाऊँ मुबारक को बोसा दिया”
अब
इस पर एक एतराज़ आता है की पाऊँ का बोसा झुक के लेना पड़ेगा और ये सजदा गेरुल्लाह है
लिहाजा हराम है ?
जी
नहीं अव्वलन तो हम सजदे की तारीफ (Definition) देख लेते है फिर सजदे के अहकाम फिर किसी के
सामने झुकने का क्या हुक्म है इससे ये एतराज़ खुद ही दफा हो जाएगा।
शरीयत
मे सजदा ये है जिसमे जिस्म के सात आजू (Body Parts) ज़मीन पर लगे। दोनों पंजे दोनों घुटने दोनों
हाथ और नाक और पेशानी फिर उसमे सजदे की नियत भी हो क्यूंकी बेगैर सजदे की नियत के
कोई शख्स ज़मीन पर औंधा लेट गया तो सजदा न होगा।
सजदा
भी दो तरह का है सजदा- ए- इबादत और सजदा-ए-ताजीमी
सजदा
ताजिमी तो
वो जो किसी से मुलाक़ात के वक्त उसका किया जाए |
सजदा
इबादत वो
जो किसी को खुदा मान कर किया जाए ।
सजदा-ए-इबादत
गेरुल्लाह को करना शिर्क है किसी नबी के दीन मे जाइज़ न हुआ। सजदा-ए-ताजिमी हज़रत
आदम अलैहिस्सलाम से ले कर हुज़ूर अलैहिस्सलाम के जमाने के पहले तक जाइज़ रहा।
फरिश्तों ने जो हज़रत आदम अलैहिस्सलाम को सजदा किया वो सजदा-ए-ताजिमी था। हज़रत
याक़ूब अलैहिस्सलाम और हज़रत युसुफ अलैहिसलाम की बिरादरी ने हज़रत युसुफ अलैहिस्सलाम
को सजदा किया।
दुर्रे मुख्तार मे है – “अगर ज़मीन चूमना
इबादत और ताज़ीम के लिए हो तो कुफ्र है और अगर ताज़ीम के लिए हो तो कुफ्र नहीं हा
गुनहगार होगा और गुनाह-ए-कबीरा का मुर्तकीब होगा।“
रहा गैर के सामने झुकना इसकी दो नीयतें है एक तो ये की झुकना ताज़ीम के लिए हो जैसे की झुक कर सलाम करना । लेकिन ताज़ीम के लिए इतना झुकना की रुकु के बराबर झुक गया तो हराम है इसी को उलमा मना फरमाते है । दूसरा ये की झुकना किसी और काम के लिए हो जैसे अपने शेख का जूता सही करना हो या पाऊँ का बोसा लेना हो ये सब हलाल है और अगर जाइज़ न हो तो उन हदिसो का क्या जिसमे हुज़ूर अलैहिस्सलाम के पाऊँ मुबारक चूमने की दलील है। नीज़ ये सवाल वहाबीयूँ देवबंदीयूँ के लिए भी खिलाफ होगा क्यूंकी उनके पेशवा मौलवी रशीद अहमद गंगोही ने भी हाथ पाऊँ चूमना जाइज़ लिखा है।
पांच
कलमे
पहला
कलमा तय्यब
ला
इला ह इलल्लाहु मुहम्मदुर्रसूलुल्लाहि !! (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम)
» तर्जुमा : अल्लाह के सिवा कोई माबूद
नहीं और हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अल्लाह के नेक बन्दे और आखिरी रसूल
है |
दूसरा
कलमा शहादत
अश-हदु
अल्लाह इला ह इल्लल्लाहु वह दहु ला शरी-क लहू व अशदुहु अन्न मुहम्मदन अब्दुहु व
रसूलुहु.
» तर्जुमा: मैं गवाही देता हु के अल्लाह के सिवा कोई माबूद नहीं (पूजने के क़ाबिल नहीं) वह अकेला है उसका कोई शरीक नहीं और मैं गवाही देता हूँ कि (हज़रत) मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अल्लाह के नेक बन्दे और आखिरी रसूल हैं ।
तीसरा
कलमा तमजीद
सुब्हानल्ला
हि वल् हम्दु लिल्लाहि वला इला-ह इलल्लाहु वल्लाहु अकबर, वला हौ ल वला कूव्-व-त इल्ला
बिल्लाहिल अलिय्यील अजीम |
» तर्जुमा : अल्लाह पाक है और सब
तारीफें अल्लाह ही के लिए है और अल्लाह के सिवा कोई माबूद नहीं | इबादत के
लायक तो सिर्फ अल्लाह है और अल्लाह सबसे बड़ा है और किसी में न तो ताकत है न बल
लेकिन ताकत और बल तो अल्लाह ही में है जो बहुत शान वाला और बड़ा है |
चौथा
कलमा तौहीद
ला
इला ह इल्लल्लाहु वह्-दहु ला शरीक लहू लहुल मुल्क व लहुल हम्दु युहयी व युमीतु व
हु-व हय्युल-ला यमूतु अ-ब-दन अ-ब-दा जुल-जलालि वल इक् रामि बि य दि-हिल खैर
व हु-व अला कुल्लि शैइन क़दीर |
» तर्जुमा: अल्लाह के सिवा कोई माबूद नहीं इबादत के लायक, वह एक है, उसका कोई साझीदार नहीं, सब कुछ उसी का है. और सारी तारीफ़ें उसी अल्लाह के लिए है. वही जिलाता है और वही मारता है | और वोह जिन्दा है, उसे हरगिज़ कभी मौत नहीं आएगी. वोह बड़े जलाल और बुजुर्गी वाला है| अल्लाह के हाथ में हर तरह कि भलाई है और वोह हर चीज़ पर क़ादिर है.
पांचवाँ
कलमा इस्तिग़फ़ार
अस्तग़-फिरुल्ला-ह
रब्बी मिन कुल्लि जाम्बिन अज-नब-तुहु अ-म-द-न अव् ख-त-अन सिर्रन औ अलानियतंव् व
अतूवु इलैहि मिनज-जम्बिल-लजी ला अ-अलमु इन्-न-क अन्-त अल्लामुल गुयूबी व् सत्तारुल
उवूबि व् गफ्फा-रुज्जुनुबि वाला हो-ल वला कुव्-व-त इल्ला बिल्लाहिल अलिय्यील अजीम |
» तर्जुमा : मै अपने पर-वरदिगार (अल्लाह) से अपने तमाम गुनाहो की माफ़ी मांगता हुँ जो मैंने जान-बूझकर किये या भूल कर किये, छुप कर किये या खुल्लम खुल्ला किये और तौबा करता हु मैं उस गुनाह से, जो मैं जनता हु और उस गुनाह से जो मैं नहीं जानता या अल्लाह बेशक़ तू गैब की बाते जानने वाला और ऐबों को छुपाने वाला है और गुनाहो को बख्शने वाला है और (हम मे) गुनाहो से बचने और नेकी करने कि ताक़त नहीं अल्लाह के बगैर जो के बोहोत बुलंद वाला है|
जरुरी
बातें
अक्सर देखा जाता है की कई गैर-मुस्लिम मुस्लिमो द्वारा इस्तेमाल किये जाने वाले आम शब्द जैसे माशाअल्लाह, सुभानल्लाह, इंशाल्लाह इत्यादि का मतलब नहीं पता होता. नीचे इनका मतलब और इन्हें कहाँ इस्तेमाल किया जाता है इसकी जानकारी दी गयी है. अगर कोई शब्द ऐसा है जो यहाँ न लिखा हो लेकिन आप उसका मतलब जानना चाहते हों तो वेबसाइट के फीडबैक या इस पोस्ट के कमेंट बॉक्स में पूछ सकते हैं|
बिस्मिल्लाही
रहमानीर्रहीम (Bismillah-Hirrahman-Nirrahim)
अल्लाह के नाम से शुरू जो बड़ा कृपालु और अत्यन्त दयावान हैं|
अस्सलामो
अलैकुम (Asalamo Alaikum)
यह मुस्लिमो का सबसे आम अभिवादन (Greeting) है जो वह एक दुसरे से मिलने पर कहते हैं. इसका मतलब होता है ‘अल्लाह तुम पर सलामती(peace) अता फरमाए’|
वा
अलैकुम अस-सलाम (Walaikum As-Salaam)
यह सलाम के जवाब में कहा जाता है. इसका मतलब होता है ‘अल्लाह तुम पर भी सलामती (peace) अता फरमाए’|
अल्हम्दुल्लिलाह
(Alahmdulillah)
यह
शब्द मुस्लिम अल्लाह की रिज़ा में राज़ी रहने के लिए बोलते हैं. इसका मतलब होता है “समस्त प्रशंसाएं केवल अल्लाह ही के लिए है
(सारी तारीफे सिर्फ अल्लाह ही के लिए है और शुक्र है अल्लाह का)” |
माशाअल्लाह
(MashaAllah)
यह शब्द मुस्लिम अपनी ख़ुशी, उत्साह या कोई बेहतरीन चीज़ को देखकर बोलते हैं. इसका मतलब होता है “जो भी अल्लाह चाहे..” या “अल्लाह जो भी देना चाहता है, देता है”. यानि की अल्लाह जिसको चाहता है उसे कोई अच्छी चीज़, ख़ुशी, भलाई या कामयाबी देता है. ऐसा होने पर मुसलिम माशाल्लाह कहते हैं.
इन्शा’अल्लाह (In sha Allah)
जब कोई शख्स भविष्य में कोई कार्य करना चाहता है, या उसका इरादा करता है या भविष्य में कुछ होने की आशंका व्यक्त करता है या कोई वादा करता है या कोई शपथ लेता है तो इस शब्द का उपयोग करता है. ऐसा करने का हुक्म कुरान में है. इंशाल्लाह का मतलब होता है ‘अगर अल्लाह ने चाहा’
सुबहान’अल्लाह (SubhanAllah)
इसका मतलब होता है ‘पाकी (Glory) है अल्लाह के लिए’. एक मुस्लिम अल्लाह की किसी विशेषता, उपकार, चमत्कार इत्यादि को देखकर अपने उत्साह की अभिव्यक्ति के लिए करता है|
अल्लाहु-अकबर
(AllahuAkbar)
इसका मतलब होता है ‘अल्लाह सबसे बड़ा(महान) है’|
जज़ाकल्लाह
(JazakAllah)
इसका मतलब होता है अल्लाह तुम्हे इसका बेहतरीन बदला दे| जब एक मुसलिम किसी दुसरे मुसलिम की मदद या उपकार करता है तो अपनी कृतज्ञता दिखाने के लिए एक मुसलिम दुसरे मुसलिम से यह कहता है.
अल्लाह
हाफिज़ (Allah Hafiz)
अकसर कई मुस्लिम एक दुसरे से विदा लेते वक़्त इसका इस्तेमाल करते हैं. इसका मतलब होता है ‘अल्लाह हिफाज़त करने वाला (हाफिज़) है’. इसके पीछे भावना यही होती है की ‘अल्लाह तुम्हारी हिफाज़त करे’
ला
हौल वाला कुवत इल्ला बिल्ला हिल अली इल अज़ीम :
(wa La Houla Wala Quwa’ta illaa Billah Hil
Ali Yel Azeem)
अल्लाह के सिवा कोई कुव्वत नहीं (मुसिबतो से) बचाने वाली जो के अज़ीम-तर है.
सल्ललाहु
अलै हि व सल्लम (Sallallahu Alaihi Wa sallam)
यह शब्द अल्लाह के आखरी पैगम्बर हुज़ूर अहमद मुजतबा मुहम्मद मुस्तफ़ा (सल्लाहु अलै हि व सल्लम) का नाम लेने या उनका ज़िक्र होने पर इस्तेमाल किया जाता है| यह इज्ज़त देने और आप (सल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर सलामती भेजने के लिए इस्तेमाल किया जाता है| इसका मतलब होता है ‘आप पर अल्लाह की कृपा और सलामती हो’|
मौत आए दरे नबी (सल्लल्लाहु अलैह व सल्लम) पर सय्यद
वरना थोड़ी सी जमीं हो शाहे सिमनां (किछौछा शरीफ) के क़रीब
तालिबे दुआ:……
आले रसूल अहमद
अल- अशरफ़ी अल- क़ादरी
nice post www.deeniknowledge.com
ReplyDeleteAzan Ke Baad Ki Dua अजान के बाद की दुआ हिंदी में Azan Ke Baad Ki Dua In Hindi : अस्सलामु अलैकुम वरहमतुल्लाह वबरकाताहु...
ReplyDeleteazan-ke-baad-ki-dua in hindi
Good information this is absolutely right also read this:-
ReplyDeleteDajjal कौन हैं ? और कब आएगा
this is nice blog keep it uprakat
ReplyDeleteWAZU ki niyat, WAZU ki dua, WAZU ka tarika
ReplyDeletenazar-ki-dua
ReplyDeleteBuri-Nazar-Ki-Dua buri-nazar-se-bachne-ki-dua नज़र से बचने की दुआ पूरी जानकारी हिंदी में और तरीका
Namaz Padhne Ka Tarika
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