रोज़ा कया है और कयों ???

इंसान के #बुनियादी सवाल !!!
इस सम्पूर्ण विश्व और #इंसान का अल्लाह (ईश्वर) एक है। ईश्वर ने इंसान को बनाया और उसकी सभी आवश्यकताओं को पूरा करने का प्रबंध किया। इंसान को इस #ग्रह पर जीवित रहने के लिए लाइफ सपोर्ट सिस्टम दिया।
इंसान को उसके मूल प्रश्नों का उत्तर भी बताया।
– इंसान को क्या कोई बनाने वाला है?
अगर है, तो वह क्या चाहता है?
– इंसान को पैदा क्यों किया गया?
– इंसान के जीवन का उद्देश्य क्या है?
अगर है, तो उस उद्देश्य को पाने का तरीक़ा क्या है?
– इंसान को आज़ाद पैदा किया गया या मजबूर?
– अच्छी ज़िन्दगी कैसे गुज़ारी जा सकती है?
– मरने के बाद क्या होगा? इत्यादि।
यह इंसान के बुनियादी #सवाल हैं,जिनका जानना उसके लिए बहुत ज़रुरी है। इंसानों में से ईश्वर ने कुछ इंसानों को चुना, जो पैग़म्बर (ईशदूत) कहलाए। उन्हें अपना सन्देश भेजा, जो सभी इंसानों के लिए मार्गदर्शन है। पहले इंसान व पैग़म्बर हज़रत आदम (अलैहि॰) से लेकर आख़िरी पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) तक अनेक ईशदूत आए, जो कि हर क़ौम में भेजे गए।
सभी ईशदूतों ने लोगों को उन्हीं की भाषा में ईश्वर का सन्देश दिया।
सवाल यह है कि बार-बार अनेक पैग़म्बर क्यों भेजे गए?
वास्तव में प्राचीनकाल में परिवहन एवं संचार के साधनों की कमी के कारण, एक जगह की ख़बर दूसरी जगह पहुँचना मुश्किल थी।
दूसरे यह कि लोग ईश्वर के सन्देश को बदल देते थे, तब ज़रुरत होती थी कि दोबारा ईश्वर का सन्देश आए।
सभी पैग़म्बरों ने एक ही सन्देश दिया कि ईश्वर एक है, दुनिया इम्तिहान की जगह है और मरने के बाद जिन्दगी है। पहले के सभी पैग़म्बरों का मिशन लोकल था, मगर आख़िरी पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) का मिशन यूनीवर्सल है। आख़िरी पैग़म्बर पर ईश्वर का जो अन्तिम सन्देश (क़ुरआन) उतरा, उसकी हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी स्वयं ईश्वर ने ली है। चौदह सौ साल से अधिक हो चुके हैं, मगर आज तक उसे बदला नहीं जा सका। ईश्वर का सन्देश अपनी असल शक्ल (मूलरूप) में मौजूद है, इसलिए अब ज़रूरत नहीं है कि कोई नया ईशदूत आए।
क़ुरआन का केन्द्रीय विषय इंसान है।
क़ुरआन इंसान के बारे में ईश्वर की स्कीम को बताता है।
क़ुरआन बताता है कि इंसान को सदैव के लिए पैदा किया गया है और उसे शाश्वत जीवन दिया गया है।
ईश्वर ने इंसान के जीवन को दो भागों में बाँटा है :
१. मौत से पहले का समय, जो अस्थाई है, इंसान के इम्तिहान के लिए है।
२. मौत के बाद का समय, जो स्वर्ग या नरक के रूप में दुनिया में किए गए अच्छे या बुरे कर्मों का बदला मिलने के लिए है।
यह कभी न ख़त्म होने वाला स्थाई दौर है। इन दोनों के बीच में मौत एक तबादले (Transition) के रूप में है।
इंसान की ज़िन्दगी का उद्देश्य
क़ुरआन बताता है कि दुनिया इंसान के लिए एक परीक्षास्थल है।
इंसान की ज़िन्दगी का उद्देश्य ईश्वर की इबादत (उपासना) है। (क़ुरआन, 51:56)
इबादत का अर्थ ईश्वर केन्द्रित जीवन (God-centred life) व्यतीत करना है।
इबादत एक पार्ट-टाइम नहीं, बल्कि फुल टाइम अमल है, जो पैदाइश से लेकर मौत तक जारी रहता है।
वास्तव में इंसान की पूरी ज़िन्दगी इबादत है, अगर वह ईश्वर की मर्ज़ी के अनुसार व्यतीत हो।
ईश्वर की मर्ज़ी के अनुसार जीवन व्यतीत करने का आदी बनाने के लिए, आवश्यक था कि कुछ प्रशिक्षण भी हो, इसलिए
नमाज़,
रोज़ा (निराहार उपवास),
ज़कात और
हज को इसी प्रशिक्षण के रूप में रखा गया।
इनमें समय की, एनर्जी की और दौलत की क़ुरबानी द्वारा इंसान को आध्यात्मिक उत्थान के लिए और उसे व्यावहारिक जीवन के लिए लाभदायक बनाने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है।
इस ट्रेनिंग को बार-बार रखा गया,
ताकि इंसान को अच्छाई पर स्थिर रखा जा सके, क्योंकि इंसान अन्दर व बाहर से बदलने वाला अस्तित्व रखता है।
ईश्वर सबसे बेहतर जानता है कि कौन-सी चीज़ इंसान के लिए लाभदायक है और कौन-सी हानिकारक।
ईश्वर इंसान का भला चाहता है इसलिए उसने हर वह काम जिसके करने से इंसान स्वयं को हानि पहुँचाता, करना हराम (अवैध) ठहराया और हर उस काम को जिसके न करने से इंसान स्वयं को हानि पहुँचाता, इबादत कहा और उनका करना इंसान के लिए अनिवार्य कर दिया।
ईश्वर का अन्तिम सन्देश क़ुरआन, दुनिया में पहली बार रमज़ान के महीने में अवतरित होना शुरू हुआ।
इसीलिए रमज़ान का महीना क़ुरआन का महीना कहलाया। इसे क़ुरआन के मानने वालों के लिए शुक्रगुज़ारी का महीना बना दिया गया और इस पूरे महीने रोज़े रखने अनिवार्य किए गए।
» रोज़ा एक इबादत है।
रोज़े को अरबी भाषा में ‘‘सौम’’ कहते हैं।
इसका अर्थ ‘‘रुकने और चुप रहने’’ के हैं।
क़ुरआन में इसे ‘‘सब्र’’ भी कहा गया है, जिसका अर्थ है स्वयं पर नियंत्रण और स्थिरता व जमाव (Stability)।
इस्लाम में रोज़े का मतलब होता है केवल ईश्वर के लिए, भोर से लेकर सूरज डूबने तक खाने-पीने, सभी बुराइयों और पति-पत्नी का सहवास करने से स्वयं को रोके रखना। अनिवार्य रोज़े, जो केवल रमज़ान के महीने में रखे जाते हैं और यह हर व्यस्क मुसलमान के लिए अनिवार्य हैं।
क़ुरआन में कहा गया है— अल-कुरान: ‘‘ऐ ईमान लाने वालो! तुम पर रोज़े अनिवार्य किए गए,जिस प्रकार तुम से पहले के लोगों पर किए गए थे, शायद कि तुम डर रखने वाले और परहेज़गार बन जाओ।’’ –(क़ुरआन, 2:183)
अल-कुरान: रमज़ान का महीना जिसमें क़ुरआन उतारा गया लोगों के मार्गदर्शन के लिए, और मार्गदर्शन और सत्य-असत्य के अन्तर के प्रमाणों के साथ।
अतः तुममें जो कोई इस महीने में मौजूद हो, उसे चाहिएकि उसके रोज़े रखे और जो बीमार हो या यात्रा में हो तो दूसरे दिनों सेगिनती पूरी कर ले। ईश्वर तुम्हारे साथ आसानी चाहता है, वह तुम्हारे साथ सख़्ती और कठिनाई नहीं चाहता और चाहता है कि तुम संख्या पूरी कर लो और जो सीधा मार्ग तुम्हें दिखाया गया है, उस पर ईश्वर की बड़ाई प्रकट करो और ताकि तुम कृतज्ञ बनो।’’ –(क़ुरआन, 2:185)
रोज़ा एक बहुत महत्वपूर्ण इबादत है।
हर पैग़म्बर ने रोज़ा रखने की बात कही। आज भी रोज़ा हर धर्म में किसी न किसी रूप में मौजूद है।
क़ुरआन के अनुसार रोज़े का उद्देश्य इंसान में तक़वा या संयम (God Consciousness)
पैदा करना है।
तक़वा का एक अर्थ है  ‘ईश्वर का डर’ और दूसरा अर्थ है  ‘ज़िन्दगी में हमेशा एहतियात वाला तरीक़ा अपनाना।’
ईश्वर का डर एक ऐसी बात है जो इंसान को असावधान होने अर्थात् असफल होने से बचा लेता है।
कु़रआन की आयत (Verse) ‘ताकि तुम डर रखने वाले और परहेज़गार बन जाओ’ (2:183),
से पता चलता है कि रोज़ा, इंसान में ईश्वर का डर पैदा करता है और उसे परहेज़गार (संयमी) बनाता है।
ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया—
» मेह्फुम-ए-हदीस:
जिस व्यक्ति ने (रोज़े की हालत में)
झूठ बोलना और उस पर अमल करना न छोड़ा, तो ईश्वर को इसकी कुछ आवश्यकता नहीं कि वह (रोज़ा रखकर)
अपना खाना- पीना छोड़ दे।’’ –(हदीस : बुख़ारी)
मेह्फुम-ए-हदीस: ‘‘कितने ही रोज़ा रखने वाले ऐसे हैं, जिन्हें अपने रोज़े से भूख-प्यास के अतिरिक्त कुछ हासिल नहीं होता।’’ –
(हदीस : दारमी)» रोज़ा रखना इंसान की हर चीज़ को पाबन्द (नियमबद्ध) बनाता है।
• आँख का रोज़ा यह है
कि जिस चीज़ को देखने से ईश्वर ने मना किया, उसेन देखें।
• कान का रोज़ा यह है
कि जिस बात को सुनने से ईश्वर ने मना किया, उसे न सुनें।
• ज़ुबान का रोज़ा यह है
कि जिस बात को बोलने से ईश्वर ने मना किया, उसे न बोलें।
• हाथ का रोज़ा यह है
कि जिस काम को करने से ईश्वर ने मना किया, उसे नकरें।
• पैर का रोज़ा यह है
कि जिस तरफ़ जाने से ईश्वर ने मना किया, उधर न जाएं।
• दिमाग़ का रोज़ा यह है
कि जिस बात को सोचने से ईश्वर ने मना किया, उसे न सोचें।
• इसी के साथ-साथ यह भी है कि जिन कामों को ईश्वर ने पसन्द किया, उन्हें किया जाए।
• केवल ईश्वर के बताए गए तरीक़े के अनुसार रोज़ा रखना ही इंसान को लाभ पहुँचाता है।
• ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) कहते हैं—
» मेह्फुम-ए-हदीस: ‘‘इंसान के हर अमल का सवाब (अच्छा बदला) दस गुना से सात सौ गुना तक बढ़ाया जाता है, मगर ईश्वर फ़रमाता है —
रोज़ा इससे अलग है, क्योंकि वह मेरे लिए है और मैं ही इसका जितना चाहूँगा बदला दूँगा।’’
–(हदीस : बुख़ारी व मुस्लिम)»
रोज़े का इंसान के दिमाग़ और उसके शरीर दोनों पर बहुत अच्छा प्रभावपड़ता है।
रोज़ा एक वार्षिक ट्रेनिंग कोर्स है।
जिसका उद्देश्य इंसान की ऐसी विशेष ट्रेनिंग करना है, जिसके बाद वह साल भर ‘स्वयं केन्द्रित जीवन’ के बजाए, ‘ईश्वर-केन्द्रित जीवन’ व्यतीत कर सके।
• रोज़ा इंसान में अनुशासन (Self Discipline) पैदा करता है, ताकि इंसान अपनी सोचों व कामों को सही दिशा दे सके।
• रोज़ा इंसान का स्वयं पर कन्ट्रोल ठीक करता है। इंसान के अन्दर ग़ुस्सा, ख़्वाहिश (इच्छा), लालच, भूख, सेक्स और दूसरी भावनाएं हैं। इनके साथ इंसान का दो में से एक ही रिश्ता हो सकता है: इंसान इन्हें कन्ट्रोल करे, या ये इंसान को कन्ट्रोल करें।
पहली सूरत में लाभ और दूसरी में हानि है। रोज़ा इंसान को इन्हें क़ाबू करना सिखाता है। अर्थात् इंसान को जुर्म और पाप से बचा लेता है।
• रोज़ा रखने के बाद इंसान का आत्मविश्वास और आत्मसंयम व संकल्प शक्ति (Will Power) बढ़ जाती है।
• इंसान जान लेता है कि जब वह खाना-पानी जैसी चीज़ों को दिन भर छोड़ सकता है, जिनके बिना जीवन संभव नहीं, तो वह बुरी बातों व आदतों को तो बड़ी आसानी से छोड़ सकता है। जो व्यक्ति भूख बर्दाश्त कर सकता है, वह दूसरी बातें भी बर्दाश्त (सहन) कर सकता है।
• रोज़ा इंसान में सहनशीलता के स्तर (level of Tolerance) को बढ़ाता है।
• रोज़ा इंसान से स्वार्थपरता (Selfishness) और सुस्ती को दूर करता है।
• रोज़ा ईश्वर की नेमतों (खाना-पानी इत्यादि) के महत्व का एहसास दिलाता है।
• रोज़ा इंसान को ईश्वर का सच्चा शुक्रगुज़ार बन्दा बनता है।
• रोज़े के द्वारा इंसान को भूख-प्यास की तकलीफ़ का अनुभव कराया जाताहै, ताकि वह भूखों की भूख और प्यासों की प्यास में उनका हमदर्द बन सके।
• रोज़ा इंसान में त्याग के स्तर (Level of Sacrifice) को बढ़ाता है।
• इस तरह हम समझ सकते हैं कि रोज़ा ईश्वर का मार्गदर्शन मिलने पर उसकी बड़ाई प्रकट करने, उसका शुक्र अदा करने और परहेज़गार बनने के अतिरिक्त, न केवल इंसान के दिमाग़ बल्कि उसके शरीर पर भी बहुत अच्छा प्रभाव डालता है।ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) के शब्दों में हम कह सकते हैं —» मेह्फुम-ए-हदीस: ‘‘हर चीज़ पर उसको पाक, पवित्र करने के लिए ज़कात है और (मानसिक व शारीरिक बीमारियों से पाक करने के लिए) शरीर की ज़कात (दान) रोज़ा है।’’
तालिब ए दुआ
आले रसूल अहमद
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हजरे अस्वद यानि गुनाहों को खेचने वाला चुंबक

बिस्मिल्ला हिर्रहमानिर्रहीम
हजरे-अस्वद अरबी लफ्ज़ है जिसके मायने काला पत्थर होता है | इसे हम संगे-अस्वद भी कहते हैं | दरअसल ये जन्नत का याकुत यानी हीरा है जिसे हजरत आदम जन्नत से लेकर आये | बाद में इस पत्थर को काबा शरीफ बनाते वक्त हजरत इब्राहिम ने तवाफ करने की निशानी के बतौर दिवार में लगा दिया |

काबा शरीफ की दक्षिण दीवार के कोने में लगा ये मुक़द्दस पत्थर हजारों साल से आज भी हज और उमरा करने की निशानी की जगह हैं | इसी पत्थर के पास से काबा शरीफ का तवाफ़ शुरू और ख़त्म होता हैं | शुरू में इस पत्थर का नाप एक फीट के करीब था लेकिन प्यारे नबी के 300 साल बाद एक काफिर हमलावर ने जिसका नाम अबू ताहिर क़र्मोती था , हजरे अस्वद को निकाल कर अपने साथ ले गया और इसके टुकड़े कर दिए |

ये जन्नती पत्थर वर्तमान में एक चांदी के खुबसूरत घेरे के बीच में अढाई फीट गोलाई में आठ टुकड़ों में चस्पा है , इसका सबसे बड़ा टुकडा खजूर के बराबर है | ये जमीन से करीब साढ़े चार फीट उंचाई पर लगा हैं | इसे छूकर और चूमकर अल्लाहु अकबर कहते हुए तवाफ किया जाता है |
एक रिवायत के मुताबिक़ हजरत आदम अलैहिस्सलाम जब जन्नत में थे तब अल्लाह ने उनकी देखरेख के लिए एक फ़रिश्ता मुक़र्रर किया , उसका नाम अस्वद था | ये फ़रिश्ता आपको फल खाने से रोकता | एक दिन फ़रिश्ता गाफिल हुआ तो शैतान के बहकावे में आकर आदम ने फल खा लिया अल्लाह के गजब से अस्वद डर के मारे पत्थर बन गया | इसके बाद हजरत आदम दुनिया में तशरीफ़ लाये तो हजरे अस्वद को भी अपने साथ ले आये |
हजरे अस्वद को काबा शरीफ बनाते वक्त दक्षिणी कोने की दिवार में लगा दिया |

इस जन्नती पत्थर से निकलने वाली रौशनी जहाँ तक पहुंची उसे काबा शरीफ का हरम (बार्डर) मान लिया | काबा शरीफ का तवाफ इसी हजरे अस्वद के पास से अल्लाहु अकबर कहते हुए शुरू होता है | हज या उमरा करते वक्त इसे सीधे हाथ से छूते और चुमते है |
अगर भीड़ ज्यादा होने से इसके करीब जाना मुमकिन ना हो सके तो दूर से ही सीधा हाथ इस तरह करे कि मानो अस्वद को छू रहे हो | ऐसा करने से सुन्नत भी अदा हो जाती है | जो भी अल्लाह का घर यानी काबा शरीफ देखता है उसके सारे गुनाह माफ़ हो जाते है यही वो गुनाह खेचने वाला पत्थर है | ये पत्थर इंसानों के गुनाहों को खेंच लेता हैं यानी ये गुनाहों को खेंचने वाला चुम्बक है | इंसानी गुनाहों को खेंचने की वजह से ये काला पड़ गया |

ये जन्नती याकुत क़यामत के दिन मैदाने हश्र में दौबारा अपने असली रूप यानी फ़रिश्ते की शक्ल में आकर अल्लाह को उसके चूमने वाले की गवाही देगा कि या अल्लाह तेरे वादे के मुताबिक़ इस बंदे के गुनाह मुझे चुमते ही माफ़ कर दिए गए थे | इसे बख्श दे |
हजरे अस्वद शुरू में बहुत ही सफ़ेद था | उसकी रौशनी अल्लाह ने ख़त्म कर दी अगर उसकी रौशनी कायम होती तो ये जन्नती पत्थर पूरब और पश्चिम को जगमगाते |
इस पत्थर को प्यारे नबी ने नबूवत से पहले 606 इसवी में अपने मुबारक हाथों से काबा शरीफ में लगाया और चूमा था | जब कुरेश के ज़माने में काबा शरीफ की दौबारा तामीर हुई थी |

हदीस शरीफ है कि हजरे अस्वद को चुमते ही गुनाह माफ़ हो जाते है | अगर हजरे अस्वद को जाहिलियत की गंदगियाँ नहीं लगी होती तो उसे कोई भी बीमार छूता तो वोह ठीक हो जाता और धरती पर इसके सिवाय जन्नत कि कोई चीज़ नहीं है | ये जन्नती पत्थर दूध से भी ज्यादा सफ़ेद था हम गुनहगारों के चूमने से धीरे-धीरे गुनाहों की वजह से काला पड़ गया | ये जन्नत से आने वाला दुनिया में पहला पत्थर है दुसरा मकामे इब्राहिम है |
इसे छूना और चूमना प्यारे नबी की सुन्नत भी है और गुनाहों से बख्शीश का जरिया भी |
अल्लाह मुझे और आपको हजरे अस्वद को देखने , छूने और चूमने का मौका अता फरमाए l

जीवन साथी, शादी और औलाद

अपना जीवन साथी चुनते समय क़ुराने मजीद के सूरए नूर की 26वीं आयत को आवश्य ध्यान में रखें ।

बच्चों की परवरिश की प्रक्रिया बच्चे के जन्म के बाद या गर्भावस्था के दौरान नहीं, बल्कि उससे काफ़ी पहले शुरू हो जाती है। इसलिए कि बच्चों की आदतों और स्वभाव में केवल मां-बाप ही नहीं बल्कि पूर्वजों की कई पीढ़ियों तक की मानसिकता और आचरण का प्रभाव होता है। इसलिए यह पूर्वज ही होते हैं कि जो अगली नस्लों की परवरिश की नींव रखते हैं।

यही कारण है कि इस्लाम ने जीवन साथी के चयन को बहुत महत्वपूर्ण क़दम बताया है और इसके लिए कुछ मापदंड बयान किए हैं। इन्हीं मापदंडों में से एक पति और पत्नी के एक स्तर का होना है। जीवन साथी के समान स्तर का होने से केवल माली हैसियत में समान होना या दोनों के बीच माली स्तर में बहुत अधिक अंतर होना ही नहीं है, बल्कि दूसरी विशेषताओं और गुणों में भी दोनों के बीच बहुत अधिक अंतर नहीं होना चाहिए।

ईरानी समाजशास्त्री और धर्मगुरू डा. हुसैन दहनवी कहते हैं कि जीवन साथी के चयन के समय हमें दिल से नहीं बल्कि दिमाग़ से निर्णय करना चाहिए और हमें यह याद रखना चाहिए कि हम केवल अपने जीवन साथी का ही चयन नहीं कर रहे हैं बल्कि अपने बच्चों की होने वाली माँ और होने वाले बाप का भी चयन कर रहे हैं। वे कहते हैं कि इस्लाम ने जीवन साथी के चयन में दोनों के समान स्तर का होने पर बहुत बल दिया है।

डा. हुसैन दहनवी लड़कों और लड़कियों को संबोधित करते हुए कहते हैं कि अपना जीवन साथी चुनते समय क़ुराने मजीद के सूरए नूर की 26वीं आयत को आवश्य ध्यान में रखें। इस आयत में ईश्वर कहता है कि दुष्ट महिलाएं दुष्ट पुरुषों के लिए हैं और दुष्ट पुरुष दुष्ट महिलाओं के लिए और पवित्र महिलाएं पवित्र पुरुषों के लिए हैं और पवित्र पुरुष पवित्र महिलाओं के लिए। क़ुराने मजीद जीवन साथी के चयन के लिए एक मापदंड समानता का होना बता रहा है। इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) इस मापदंड की व्यख्या करते हुए फ़रमाते हैं कि समान स्तर का जीवन साथी वह है कि जो पवित्रता और माली हैसियत में समान हो।

जीवन साथी के चयन में अन्य जिन मापदंडों का पालन करना चाहिए उनमें से एक योग्य और अच्छा होना है। पैग़म्बरे इस्लाम (स) के एक साथी जाबिर बिन अब्दुल्लाह अंसारी का कहना है कि मैं पैग़म्बरे इस्लाम की सेवा में उपस्थित था। हज़रत ने अच्छे जीवन साथी के बारे में फ़रमाया: तुम में से बेहतरीन पत्नी वह है कि जिसमें 10 विशेषताएं पाई जाती हों। अनेक बच्चों के जन्म के लिए मानसिक और शारीरिक रूप से तैयार हो। दयालु हो। अपनी पवित्रता की रक्षा करने वाली हो। अपने परिजनों में सम्मान रखती हो। पति के लिए विनम्र हो। पति के लिए मेक-अप और सिंगार करने वाली हो। अजनबियों से ख़ुद को सुरक्षित रखे और उचित वस्त्र धारण करे। पति का पालन करने वाली हो। पति को प्रसन्न करने वाली हो। पति के साथ अपने संबंधों में संतुलन बनाए रखे और अतिवादी न हो।

जीवन साथी के चयन में एक महत्वपूर्ण मापदंड ईमान और शिष्टाचार का होना है। धर्म में गहरी आस्था और शिष्टाचार की ही छाव में पति-पत्नी के बीच गहरे और मज़बूत संबंध स्थापित हो सकते हैं। अगर जीवन साथी में यह विशेषता पाई जाती है तो काफ़ी हद तक बच्चों की सही परवरिश के लिए भूमि प्रशस्त हो जाएगी और पति-पत्नी जीवन की अनेक कठिनाईयों पर निंयत्रण करने के अलावा सही सिद्धांतों के मुताबिक़ अपने बच्चों की परवरिश कर सकेंगे।

इस परिप्रेक्ष्य में पैग़म्बरे इस्लाम (स) फ़रमाते हैं कि पत्नी का चयन उसकी सुन्दरता के आधार पर मत करो, इसलिए कि संभव है कि महिला की सुन्दरता उसके नैतिक पतन का कारण बन जाए। इसी प्रकार, उसकी संपत्ति के कारण उससे विवाह मत करो, इसलिए कि धन उसमें अहं पैदा कर सकता है, बल्कि उसके ईमान को आधार बनाओ और ईमानदार महिला से विवाह करो।

जीवन साथी के चयन में धर्म और शिष्टाचार दो ऐसे मूल सिद्धांत हैं कि जो बच्चों के पालन-पोषण के प्रत्येक चरण में बहुत अहम भूमिका अदा करते हैं। धर्म में गहरी आस्था रखने वाला या ईमानदार जीवन साथी पवित्र वैवाहिक जीवन के साथ साथ अपने बच्चों की इस प्रकार से परवरिश करेगा कि वे बड़े होकर अच्छे और ईमानदार नागरिक बनें।

दूसरी ओर धर्म में गहरी आस्था के कारण परिवार में शांति का वातावरण उत्पन्न होता है। अब यह पति और पत्नी दोनों की ज़िम्मेदारी होती है कि वे परिवार में शांत माहौल बनाए रखें ताकि उनके घर में आने वाले नए मेहमान के लिए वातावरण अनुकूल रहे। क्योंकि अगर घर के वातावरण में पर्याप्त मानसिक शांति उपलब्ध नहीं होगी तो निश्चित रूप से आने वाला नया मेहमान मानसिक शांति का आभास नहीं करेगा। इसलिए कि दुनिया में जन्म लेने वाले शिशु में छोटी से छोटी प्रतिक्रिया से प्रभावित होने और उस पर प्रतिक्रिया जताने की क्षमता होती है। हालांकि हो सकता है कि यह प्रतिक्रिया मां-बाप की नज़रों से ओझल रहे।

इस्लामी मनोविज्ञान के अनुसार, गर्भ धारण के समय से ही शिशु की मानसिक शांति का आरम्भ होता है। अगर उस समय मां-बाप को मानसिक शांति प्राप्त हो और उनके मन पर किसी तरह का कोई भार न हो तो पूर्ण मानसिक शांति के वातावरण में गर्भधारण होगा। शिशु के जन्म से पहले गर्भधारण का चरण सबसे संवेदनशील चरणों में से है। इस्लाम ने इस चरण में मानसिक स्वास्थ्य पर अधिक बल दिया है। यह चरण मानव विकास का आरम्भिक क्षण है।

इस संदर्भ में मुसलमानों के दूसरे इमाम हसन मजुतबा फ़रमाते हैं कि अगर गर्भधारण के समय दिल को सुकून, मन को शांति और शरीर में ख़ून का प्रवाह सही रहता है तो ऐसा बच्चा जन्म लेता है कि जो अपने मां-बाप की भांति होता है।

इस्लाम ने जीवन साथी के चयन के लिए जो मापदंड बयान किए हैं, उसका उद्देश्य जहां पति-पत्नी को ख़ुशहाल जीवन के पथ पर अग्रसर करना है तो वहीं आने वाली नस्लों के लिए एक बेहतरीन वातावरण उपलब्ध कराना और उनकी सही परवरिश को सुनिश्चित बनाना है। इसलिए कि विवाह का उद्देश्य मानवीय नस्ल को आगे बढ़ाना है।

मां के गर्भ में जो कमियां शिशु के ढांचे में उत्पन्न हो जाती हैं तो वह केवल शारीरिक कमियां ही नहीं होती हैं। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि मानसिक रोगों और चरित्रहीनता का सीधा असर शिशु पर पड़ता है। हज़रत अली फ़रमाते हैं कि समय छिपे हुए रहस्यों को ज़ाहिर कर देता है। इसका अर्थ यह है कि मां-बाप के चरित्र, उनकी मानसिक स्थिति और विचारों का प्रभाव बच्चों पर पड़ता है, कि जो धीरे धीरे उनमें प्रकट होने लगते हैं।

इस्लाम सिफ़ारिश करता है कि असभ्य और अशिष्ट लड़की से विवाह नहीं करो। चरित्रहीन लोगों की लड़कियों से विवाह नहीं करो। ऐसी लड़की कि जिसने अवैध संबंधों के परिणाम स्वरूप जन्म लिया हो उसे अपना जीवन साथी नहीं चुनो। ऐसी लड़की जो मानसिक रोगी है विवाह मत करो। अधिक आयु वाली महिलाओं से विवाह न करो। यही सिफ़ारिशें इस्लाम ने लड़कियों से भी की हैं। इस्लाम उनसे कहता है कि अपने पति के चयन में इन सिद्धांतों का पालन आवश्यक करें। यहां यह बात पूरे दावे के साथ कही जा सकती है कि इन समस्त सिफ़ारिशों का उद्देश्य आने वाली नस्लों की भलाई को मद्देनज़र रखना है, ताकि आने वाली नस्लें शारीरिक और मानसिक रोगों और कमियों से सुरक्षित रहें।