इंसान के #बुनियादी सवाल !!!
इस सम्पूर्ण विश्व और #इंसान का अल्लाह (ईश्वर) एक है। ईश्वर ने इंसान को बनाया और उसकी सभी आवश्यकताओं को पूरा करने का प्रबंध किया। इंसान को इस #ग्रह पर जीवित रहने के लिए लाइफ सपोर्ट सिस्टम दिया।
इंसान को उसके मूल प्रश्नों का उत्तर भी बताया।
– इंसान को क्या कोई बनाने वाला है?
अगर है, तो वह क्या चाहता है?
– इंसान को पैदा क्यों किया गया?
– इंसान के जीवन का उद्देश्य क्या है?
अगर है, तो उस उद्देश्य को पाने का तरीक़ा क्या है?
– इंसान को आज़ाद पैदा किया गया या मजबूर?
– अच्छी ज़िन्दगी कैसे गुज़ारी जा सकती है?
– मरने के बाद क्या होगा? इत्यादि।
यह इंसान के बुनियादी #सवाल हैं,जिनका जानना उसके लिए बहुत ज़रुरी है। इंसानों में से ईश्वर ने कुछ इंसानों को चुना, जो पैग़म्बर (ईशदूत) कहलाए। उन्हें अपना सन्देश भेजा, जो सभी इंसानों के लिए मार्गदर्शन है। पहले इंसान व पैग़म्बर हज़रत आदम (अलैहि॰) से लेकर आख़िरी पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) तक अनेक ईशदूत आए, जो कि हर क़ौम में भेजे गए।
सभी ईशदूतों ने लोगों को उन्हीं की भाषा में ईश्वर का सन्देश दिया।
सवाल यह है कि बार-बार अनेक पैग़म्बर क्यों भेजे गए?
वास्तव में प्राचीनकाल में परिवहन एवं संचार के साधनों की कमी के कारण, एक जगह की ख़बर दूसरी जगह पहुँचना मुश्किल थी।
दूसरे यह कि लोग ईश्वर के सन्देश को बदल देते थे, तब ज़रुरत होती थी कि दोबारा ईश्वर का सन्देश आए।
सभी पैग़म्बरों ने एक ही सन्देश दिया कि ईश्वर एक है, दुनिया इम्तिहान की जगह है और मरने के बाद जिन्दगी है। पहले के सभी पैग़म्बरों का मिशन लोकल था, मगर आख़िरी पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) का मिशन यूनीवर्सल है। आख़िरी पैग़म्बर पर ईश्वर का जो अन्तिम सन्देश (क़ुरआन) उतरा, उसकी हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी स्वयं ईश्वर ने ली है। चौदह सौ साल से अधिक हो चुके हैं, मगर आज तक उसे बदला नहीं जा सका। ईश्वर का सन्देश अपनी असल शक्ल (मूलरूप) में मौजूद है, इसलिए अब ज़रूरत नहीं है कि कोई नया ईशदूत आए।
क़ुरआन का केन्द्रीय विषय इंसान है।
क़ुरआन इंसान के बारे में ईश्वर की स्कीम को बताता है।
क़ुरआन बताता है कि इंसान को सदैव के लिए पैदा किया गया है और उसे शाश्वत जीवन दिया गया है।
ईश्वर ने इंसान के जीवन को दो भागों में बाँटा है :
१. मौत से पहले का समय, जो अस्थाई है, इंसान के इम्तिहान के लिए है।
२. मौत के बाद का समय, जो स्वर्ग या नरक के रूप में दुनिया में किए गए अच्छे या बुरे कर्मों का बदला मिलने के लिए है।
यह कभी न ख़त्म होने वाला स्थाई दौर है। इन दोनों के बीच में मौत एक तबादले (Transition) के रूप में है।
इंसान की ज़िन्दगी का उद्देश्य
क़ुरआन बताता है कि दुनिया इंसान के लिए एक परीक्षास्थल है।
इंसान की ज़िन्दगी का उद्देश्य ईश्वर की इबादत (उपासना) है। (क़ुरआन, 51:56)
इबादत का अर्थ ईश्वर केन्द्रित जीवन (God-centred life) व्यतीत करना है।
इबादत एक पार्ट-टाइम नहीं, बल्कि फुल टाइम अमल है, जो पैदाइश से लेकर मौत तक जारी रहता है।
वास्तव में इंसान की पूरी ज़िन्दगी इबादत है, अगर वह ईश्वर की मर्ज़ी के अनुसार व्यतीत हो।
ईश्वर की मर्ज़ी के अनुसार जीवन व्यतीत करने का आदी बनाने के लिए, आवश्यक था कि कुछ प्रशिक्षण भी हो, इसलिए
नमाज़,
रोज़ा (निराहार उपवास),
ज़कात और
हज को इसी प्रशिक्षण के रूप में रखा गया।
इनमें समय की, एनर्जी की और दौलत की क़ुरबानी द्वारा इंसान को आध्यात्मिक उत्थान के लिए और उसे व्यावहारिक जीवन के लिए लाभदायक बनाने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है।
इस ट्रेनिंग को बार-बार रखा गया,
ताकि इंसान को अच्छाई पर स्थिर रखा जा सके, क्योंकि इंसान अन्दर व बाहर से बदलने वाला अस्तित्व रखता है।
ईश्वर सबसे बेहतर जानता है कि कौन-सी चीज़ इंसान के लिए लाभदायक है और कौन-सी हानिकारक।
ईश्वर इंसान का भला चाहता है इसलिए उसने हर वह काम जिसके करने से इंसान स्वयं को हानि पहुँचाता, करना हराम (अवैध) ठहराया और हर उस काम को जिसके न करने से इंसान स्वयं को हानि पहुँचाता, इबादत कहा और उनका करना इंसान के लिए अनिवार्य कर दिया।
ईश्वर का अन्तिम सन्देश क़ुरआन, दुनिया में पहली बार रमज़ान के महीने में अवतरित होना शुरू हुआ।
इसीलिए रमज़ान का महीना क़ुरआन का महीना कहलाया। इसे क़ुरआन के मानने वालों के लिए शुक्रगुज़ारी का महीना बना दिया गया और इस पूरे महीने रोज़े रखने अनिवार्य किए गए।
» रोज़ा एक इबादत है।
रोज़े को अरबी भाषा में ‘‘सौम’’ कहते हैं।
इसका अर्थ ‘‘रुकने और चुप रहने’’ के हैं।
क़ुरआन में इसे ‘‘सब्र’’ भी कहा गया है, जिसका अर्थ है स्वयं पर नियंत्रण और स्थिरता व जमाव (Stability)।
इस्लाम में रोज़े का मतलब होता है केवल ईश्वर के लिए, भोर से लेकर सूरज डूबने तक खाने-पीने, सभी बुराइयों और पति-पत्नी का सहवास करने से स्वयं को रोके रखना। अनिवार्य रोज़े, जो केवल रमज़ान के महीने में रखे जाते हैं और यह हर व्यस्क मुसलमान के लिए अनिवार्य हैं।
क़ुरआन में कहा गया है— अल-कुरान: ‘‘ऐ ईमान लाने वालो! तुम पर रोज़े अनिवार्य किए गए,जिस प्रकार तुम से पहले के लोगों पर किए गए थे, शायद कि तुम डर रखने वाले और परहेज़गार बन जाओ।’’ –(क़ुरआन, 2:183)
अल-कुरान: रमज़ान का महीना जिसमें क़ुरआन उतारा गया लोगों के मार्गदर्शन के लिए, और मार्गदर्शन और सत्य-असत्य के अन्तर के प्रमाणों के साथ।
अतः तुममें जो कोई इस महीने में मौजूद हो, उसे चाहिएकि उसके रोज़े रखे और जो बीमार हो या यात्रा में हो तो दूसरे दिनों सेगिनती पूरी कर ले। ईश्वर तुम्हारे साथ आसानी चाहता है, वह तुम्हारे साथ सख़्ती और कठिनाई नहीं चाहता और चाहता है कि तुम संख्या पूरी कर लो और जो सीधा मार्ग तुम्हें दिखाया गया है, उस पर ईश्वर की बड़ाई प्रकट करो और ताकि तुम कृतज्ञ बनो।’’ –(क़ुरआन, 2:185)
रोज़ा एक बहुत महत्वपूर्ण इबादत है।
हर पैग़म्बर ने रोज़ा रखने की बात कही। आज भी रोज़ा हर धर्म में किसी न किसी रूप में मौजूद है।
क़ुरआन के अनुसार रोज़े का उद्देश्य इंसान में तक़वा या संयम (God Consciousness)
पैदा करना है।
तक़वा का एक अर्थ है ‘ईश्वर का डर’ और दूसरा अर्थ है ‘ज़िन्दगी में हमेशा एहतियात वाला तरीक़ा अपनाना।’
ईश्वर का डर एक ऐसी बात है जो इंसान को असावधान होने अर्थात् असफल होने से बचा लेता है।
कु़रआन की आयत (Verse) ‘ताकि तुम डर रखने वाले और परहेज़गार बन जाओ’ (2:183),
से पता चलता है कि रोज़ा, इंसान में ईश्वर का डर पैदा करता है और उसे परहेज़गार (संयमी) बनाता है।
ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया—
» मेह्फुम-ए-हदीस:
जिस व्यक्ति ने (रोज़े की हालत में)
झूठ बोलना और उस पर अमल करना न छोड़ा, तो ईश्वर को इसकी कुछ आवश्यकता नहीं कि वह (रोज़ा रखकर)
अपना खाना- पीना छोड़ दे।’’ –(हदीस : बुख़ारी)
मेह्फुम-ए-हदीस: ‘‘कितने ही रोज़ा रखने वाले ऐसे हैं, जिन्हें अपने रोज़े से भूख-प्यास के अतिरिक्त कुछ हासिल नहीं होता।’’ –
(हदीस : दारमी)» रोज़ा रखना इंसान की हर चीज़ को पाबन्द (नियमबद्ध) बनाता है।
• आँख का रोज़ा यह है
कि जिस चीज़ को देखने से ईश्वर ने मना किया, उसेन देखें।
• कान का रोज़ा यह है
कि जिस बात को सुनने से ईश्वर ने मना किया, उसे न सुनें।
• ज़ुबान का रोज़ा यह है
कि जिस बात को बोलने से ईश्वर ने मना किया, उसे न बोलें।
• हाथ का रोज़ा यह है
कि जिस काम को करने से ईश्वर ने मना किया, उसे नकरें।
• पैर का रोज़ा यह है
कि जिस तरफ़ जाने से ईश्वर ने मना किया, उधर न जाएं।
• दिमाग़ का रोज़ा यह है
कि जिस बात को सोचने से ईश्वर ने मना किया, उसे न सोचें।
• इसी के साथ-साथ यह भी है कि जिन कामों को ईश्वर ने पसन्द किया, उन्हें किया जाए।
• केवल ईश्वर के बताए गए तरीक़े के अनुसार रोज़ा रखना ही इंसान को लाभ पहुँचाता है।
• ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) कहते हैं—
» मेह्फुम-ए-हदीस: ‘‘इंसान के हर अमल का सवाब (अच्छा बदला) दस गुना से सात सौ गुना तक बढ़ाया जाता है, मगर ईश्वर फ़रमाता है —
रोज़ा इससे अलग है, क्योंकि वह मेरे लिए है और मैं ही इसका जितना चाहूँगा बदला दूँगा।’’
–(हदीस : बुख़ारी व मुस्लिम)»
रोज़े का इंसान के दिमाग़ और उसके शरीर दोनों पर बहुत अच्छा प्रभावपड़ता है।
रोज़ा एक वार्षिक ट्रेनिंग कोर्स है।
जिसका उद्देश्य इंसान की ऐसी विशेष ट्रेनिंग करना है, जिसके बाद वह साल भर ‘स्वयं केन्द्रित जीवन’ के बजाए, ‘ईश्वर-केन्द्रित जीवन’ व्यतीत कर सके।
• रोज़ा इंसान में अनुशासन (Self Discipline) पैदा करता है, ताकि इंसान अपनी सोचों व कामों को सही दिशा दे सके।
• रोज़ा इंसान का स्वयं पर कन्ट्रोल ठीक करता है। इंसान के अन्दर ग़ुस्सा, ख़्वाहिश (इच्छा), लालच, भूख, सेक्स और दूसरी भावनाएं हैं। इनके साथ इंसान का दो में से एक ही रिश्ता हो सकता है: इंसान इन्हें कन्ट्रोल करे, या ये इंसान को कन्ट्रोल करें।
पहली सूरत में लाभ और दूसरी में हानि है। रोज़ा इंसान को इन्हें क़ाबू करना सिखाता है। अर्थात् इंसान को जुर्म और पाप से बचा लेता है।
• रोज़ा रखने के बाद इंसान का आत्मविश्वास और आत्मसंयम व संकल्प शक्ति (Will Power) बढ़ जाती है।
• इंसान जान लेता है कि जब वह खाना-पानी जैसी चीज़ों को दिन भर छोड़ सकता है, जिनके बिना जीवन संभव नहीं, तो वह बुरी बातों व आदतों को तो बड़ी आसानी से छोड़ सकता है। जो व्यक्ति भूख बर्दाश्त कर सकता है, वह दूसरी बातें भी बर्दाश्त (सहन) कर सकता है।
• रोज़ा इंसान में सहनशीलता के स्तर (level of Tolerance) को बढ़ाता है।
• रोज़ा इंसान से स्वार्थपरता (Selfishness) और सुस्ती को दूर करता है।
• रोज़ा ईश्वर की नेमतों (खाना-पानी इत्यादि) के महत्व का एहसास दिलाता है।
• रोज़ा इंसान को ईश्वर का सच्चा शुक्रगुज़ार बन्दा बनता है।
• रोज़े के द्वारा इंसान को भूख-प्यास की तकलीफ़ का अनुभव कराया जाताहै, ताकि वह भूखों की भूख और प्यासों की प्यास में उनका हमदर्द बन सके।
• रोज़ा इंसान में त्याग के स्तर (Level of Sacrifice) को बढ़ाता है।
• इस तरह हम समझ सकते हैं कि रोज़ा ईश्वर का मार्गदर्शन मिलने पर उसकी बड़ाई प्रकट करने, उसका शुक्र अदा करने और परहेज़गार बनने के अतिरिक्त, न केवल इंसान के दिमाग़ बल्कि उसके शरीर पर भी बहुत अच्छा प्रभाव डालता है।ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) के शब्दों में हम कह सकते हैं —» मेह्फुम-ए-हदीस: ‘‘हर चीज़ पर उसको पाक, पवित्र करने के लिए ज़कात है और (मानसिक व शारीरिक बीमारियों से पाक करने के लिए) शरीर की ज़कात (दान) रोज़ा है।’’
तालिब ए दुआ
आले रसूल अहमद
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रोज़ा कया है और कयों ???
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