आमतौर पर यह समझा जाता है कि इस्लाम 1400 वर्ष पुराना धर्म है, और इसके ‘प्रवर्तक’ पैग़म्बर मुहम्मद (ﷺ) हैं। लेकिन वास्तव में इस्लाम 1400 वर्षों से काफ़ी पुराना धर्म है; उतना ही पुराना जितना धर्ती पर स्वयं मानवजाति का इतिहास और हज़रत मुहम्मद (ﷺ) इसके प्रवर्तक (Founder) नहीं, बल्कि इसके आह्वाहक हैं।
आपका काम उसी चिरकालीन
(सनातन) धर्म की ओर, जो सत्यधर्म के रूप में
आदिकाल से ‘एक’ ही
रहा है, लोगों को बुलाने, आमंत्रित
करने और स्वीकार करने के आह्वान का था।
आपका मिशन, इसी मौलिक मानव धर्म को इसकी पूर्णता के साथ स्थापित कर
देना था ताकि मानवता के समक्ष इसका व्यावहारिक रूप साक्षात् रूप में आ जाए।
इस्लाम का इतिहास जानने का
अस्ल माध्यम स्वयं इस्लाम का मूल ग्रंथ ‘क़ुरआन’ है। और क़ुरआन, इस्लाम
का आरंभ प्रथम
मनुष्य ‘आदम’ से होने का ज़िक्र करता है।
इस्लाम धर्म के अनुयायियों
के लिए क़ुरआन ने ‘मुस्लिम’ शब्द का प्रयोग हज़रत इबराहीम (अलैहि॰) के लिए किया है जो
लगभग 4000 वर्ष पूर्व एक महान पैग़म्बर (सन्देष्टा) हुए
थे।
हज़रत आदम (अलैहि॰) से शुरू
होकर हज़रत मुहम्मद (ﷺ) तक हज़ारों वर्षों पर फैले
हुए इस्लामी इतिहास में असंख्य ईशसंदेष्टा ईश्वर के संदेश के साथ, ईश्वर द्वारा विभिन्न युगों और विभिन्न क़ौमों में नियुक्त
किए जाते रहे। उनमें से 26 के नाम कु़रआन में आए हैं और
बाक़ी के नामों का वर्णन नहीं किया गया है।
इस अतिदीर्घ श्रृंखला में हर
ईशसंदेष्टा ने जिस सत्यधर्म का आह्वान दिया वह ‘इस्लाम’ ही था; भले
ही उसके नाम विभिन्न भाषाओं में विभिन्न रहे हों। बोलियों और भाषाओं के विकास का
इतिहास चूंकि क़ुरआन ने बयान नहीं किया है इसलिए ‘इस्लाम’ के नाम विभिन्न युगों में क्या-क्या थे, यह ज्ञात नहीं है।
इस्लामी इतिहास के आदिकालीन
होने की वास्तविकता समझने के लिए स्वयं ‘इस्लाम’ को समझ लेना आवश्यक है। इस्लाम क्या है, यह कुछ शैलियों में क़ुरआन के माध्यम से हमारे सामने आता है, जैसे:
1. इस्लाम, अवधारणा के स्तर पर ‘विशुद्ध
एकेश्वरवाद’ का नाम है। यहां ‘विशुद्ध’ से
अभिप्राय है: ईश्वर के व्यक्तित्व, उसकी
सत्ता व प्रभुत्व, उसके अधिकारों (जैसे उपास्य
व पूज्य होने के अधिकार आदि) में किसी अन्य का साझी न होना।
विश्व का...बल्कि पूरे
ब्रह्माण्ड और अपार सृष्टि का यह महत्वपूर्ण व महानतम सत्य मानवजाति की उत्पत्ति
से लेकर उसके हज़ारों वर्षों के इतिहास के दौरान अपरिवर्तनीय, स्थायी और शाश्वत रहा है।
2.
इस्लाम शब्द का अर्थ ‘शान्ति व सुरक्षा’ और ‘समर्पण’ है।
इस प्रकार इस्लामी परिभाषा में इस्लाम नाम है, ईश्वर
के समक्ष, मनुष्यों का पूर्ण आत्मसमर्पण; और इस आत्मसमर्पण के द्वारा व्यक्ति, समाज तथा मानवजाति के द्वारा ‘शान्ति व सुरक्षा’ की
उपलब्धि का।
यह अवस्था आरंभ काल से तथा
मानवता के इतिहास हज़ारों वर्ष लंबे सफ़र तक, हमेशा
मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता रही है।
इस्लाम की वास्तविकता, एकेश्वरवाद की हक़ीक़त, इन्सानों
से एकेश्वरवाद के तक़ाज़े, मनुष्य और ईश्वर के बीच अपेक्षित संबंध, इस जीवन के पश्चात (मरणोपरांत) जीवन की वास्तविकता आदि
जानना एक शान्तिमय, सफल तथा समस्याओं, विडम्बनाओं व त्रासदियों से रहित जीवन बिताने के लिए हर युग
में अनिवार्य रहा है; अतः ईश्वर ने हर युग में
अपने सन्देष्टा (ईशदूत, नबी, रसूल, पैग़म्बर)
नियुक्त करने (और उनमें से कुछ पर अपना ‘ईशग्रंथ’ अवतरित करने) का प्रावधान किया है। इस प्रक्रम का इतिहास, मानवजाति के पूरे इतिहास पर फैला हुआ है।
4.
शब्द ‘धर्म’ (Religion) को, इस्लाम
के लिए क़ुरआन ने शब्द ‘दीन’ से अभिव्यक्त किया है। क़ुरआन में कुछ ईशसन्देष्टाओं के हवाले
से कहा गया है (42:13) कि
ईश्वर ने उन्हें आदेश दिया कि वे ‘दीन’ को स्थापित (क़ायम) करें और इसमें भेद पैदा न करें, इसे (अनेकानेक धर्मों के रूप में) टुकड़े-टुकड़े न करें।
इससे सिद्ध हुआ कि इस्लाम ‘दीन’ हमेशा से ही रहा है। उपरोक्त
संदेष्टाओं में हज़रत नूह (Noah) का
उल्लेख भी हुआ है और हज़रत नूह (अलैहि॰) मानवजाति के इतिहास के आरंभिक काल के
ईशसन्देष्टा हैं। क़ुरआन की उपरोक्त आयत (42:13) से यह
तथ्य सामने आता है कि अस्ल ‘दीन’ (इस्लाम) में भेद, अन्तर, विभाजन, फ़र्क़
आदि करना सत्य-विरोधी है-जैसा कि बाद के ज़मानों में ईशसन्देष्टाओं का आह्वान व
शिक्षाएं भुलाकर, या उनमें फेरबदल, कमी-बेशी, परिवर्तन-संशोधन
करके इन्सानों ने अनेक विचारधाराओं व मान्यताओं के अन्तर्गत ‘बहुत से धर्म’ बना
लिए।
मानव प्रकृति प्रथम दिवस से
आज तक एक ही रही है। उसकी मूल प्रवृत्तियों में तथा उसकी मौलिक आध्यात्मिक, नैतिक, भौतिक
आवश्यकताओं में कोई भी परिवर्तन नहीं आया है। अतः मानव का मूल धर्म भी मानवजाति के
पूरे इतिहास में उसकी प्रकृति व प्रवृत्ति के ठीक अनुकूल ही होना चाहिए।
इस्लाम इस कसौटी पर पूरा और
खरा उतरता है। इसकी मूल धारणाएं, शिक्षाएं, आदेश, नियम...सबके
सब मनुष्य की प्रवृत्ति व प्रकृति के अनुकूल हैं।
अतः
यही मानवजाति का आदिकालीन तथा शाश्वत धर्म है।
क़ुरआन ने कहीं भी हज़रत
मुहम्मद (सल्ल॰) को ‘इस्लाम धर्म का प्रवर्तक’ नहीं कहा है। क़ुरआन में हज़रत मुहम्मद (ﷺ) का परिचय नबी (ईश्वरीय ज्ञान
की ख़बर देने वाला), रसूल (मानवजाति की ओर भेजा
गया), रहमतुल्-लिल-आलमीन (सारे संसारों के लिए रहमत व
साक्षात् अनुकंपा, दया), हादी (सत्यपथ-प्रदर्शक) आदि शब्दों से कराया है।
स्वयं पैग़म्बर मुहम्मद (ﷺ) ने इस्लाम धर्म के ‘प्रवर्तक’ होने
का न दावा किया,
न इस रूप में अपना परिचय कराया। आप (सल्ल॰) के
एक कथन के अनुसार ‘इस्लाम के भव्य भवन में एक
ईंट की कमी रह गई थी, मेरे (ईशदूतत्व) द्वारा वह
कमी पूरी हो गई और इस्लाम अपने अन्तिम रूप में सम्पूर्ण हो गया’ (आपके कथन का भावार्थ।) इससे सिद्ध हुआ कि आप (ﷺ) इस्लाम धर्म के प्रवर्तक
नहीं हैं। (इसका प्रवर्तक स्वयं अल्लाह है, न कि
कोई भी पैग़म्बर,
रसूल, नबी
आदि)। और आप (सल्ल॰) ने उसी इस्लाम का आह्वान किया जिसका, इतिहास के हर चरण में दूसरे रसूलों ने किया था। इस प्रकार
इस्लाम का इतिहास उतना ही प्राचीन है जितना मानवजाति और उसके बीच नियुक्त होने
वाले असंख्य रसूलों के सिलसिले (श्रृंखला) का इतिहास।
यह ग़लतफ़हमी फैलने और फैलाने
में, कि इस्लाम धर्म की उम्र कुल 1400 वर्ष
है दो-ढाई सौ वर्ष पहले लगभग पूरी दुनिया पर छा जाने वाले यूरोपीय (विशेषतः
ब्रिटिश) साम्राज्य की बड़ी भूमिका है। ये साम्राज्यी, जिस ईश-सन्देष्टा (पैग़म्बर) को मानते थे ख़ुद उसे ही अपने
धर्म का प्रवर्तक बना दिया और उस पैग़म्बर के अस्ल ईश्वरीय धर्म को बिगाड़ कर, एक नया धर्म उसी पैग़म्बर के नाम पर बना दिया।
(ऐसा इसलिए किया कि पैग़म्बर के आह्वाहित अस्ल
ईश्वरीय धर्म के नियमों, आदेशों, नैतिक शिक्षाओं और हलाल-हराम के क़ानूनों की पकड़ (Grip) से स्वतंत्र हो जाना चाहते थे, अतः वे ऐसे ही हो भी गए।) यही दशा इस्लाम की भी हो जाए, इसके लिए उन्होंने इस्लाम को ‘मुहम्मडन-इज़्म (Muhammadanism)’ का और मुस्लिमों को ‘मुहम्मडन्स (Muhammadans)’ का
नाम दिया जिससे यह मान्यता बन जाए कि मुहम्मद ‘इस्लाम
के प्रवर्तक (Founder)’
थे और इस प्रकार इस्लाम का इतिहास केवल 1400 वर्ष पुराना है।
न क़ुरआन में, न हदीसों (पैग़म्बर मुहम्मद सल्ल॰ के कथनों) में, न इस्लामी इतिहास-साहित्य में, न अन्य इस्लामी साहित्य में...कहीं भी इस्लाम के लिए ‘मुहम्मडन-इज़्म’ शब्द
और इस्लाम के अनुयायियों के लिए ‘मुहम्मडन’ शब्द प्रयुक्त हुआ है, लेकिन
साम्राज्यिों की सत्ता-शक्ति, शैक्षणिक
तंत्र और मिशनरी-तंत्र के विशाल
व व्यापक उपकरण द्वारा, उपरोक्त मिथ्या धारणा
प्रचलित कर दी गई।
भारत के बाशिन्दों में इस
दुष्प्रचार का कुछ प्रभाव भी पड़ा, और वे
भी इस्लाम को ‘मुहम्मडन-इज़्म’ मान
बैठे। ऐसा मानने में इस तथ्य का भी अपना योगदान रहा है कि यहां पहले से ही
सिद्धार्थ गौतम बुद्ध जी, ‘‘बौद्ध धर्म’’ के; और महावीर जैन जी ‘‘जैन धर्म’’ के ‘प्रवर्तक’ के
रूप में सर्वपरिचित थे।
इन ‘धर्मों’ (वास्तव
में ‘मतों’) का
इतिहास लगभग पौने तीन हज़ार वर्ष पुराना है। इसी परिदृश्य में भारतवासियों में से
कुछ ने पाश्चात्य साम्राज्यिों की बातों (मुहम्मडन-इज़्म, और इस्लाम का इतिहास मात्र 1400 वर्ष की ग़लत अवधारणा) पर विश्वास कर लिया।
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