श्री तुलसी दास जी इस्लाम के बारे में विचार
यहाँ न पक्ष बातें कुछ राखों। वेद पुराण संत मत भाखों।।
देश अरब भरत लता सो होई। सोधल भूमि गत सुनो धधराई।।
अनुवादः इस अवसर पर मैं किसी का पक्ष न लूंगा। वेद पुराण और मनीषियों का जो धर्म है वही बयान करूंगा। अरब भू-भाग जो भरत लता अर्थात् शुक्र ग्रह की भांति चमक रहा है उसी सोथल भूमि में वह उत्पन्न होंगे।
इस प्रकार हज़रत मुहम्मद सल्ल0 की विशेषताओं का उल्लेख करने के बाद अन्तिम पंक्ति में कहते हैं -
तब तक जो सुन्दरम चहे कोई।
बिना मुहम्मद पार न कोई।।
यदि कोई सफलता प्राप्त करना चाहता है तो मुहम्मद सल्ल0 को स्वीकार ले। अन्यथा कोई बेड़ा उनके बिना पार न होगा।
लाला काशी राम चावला इस्लाम के बारे में विचार
‘‘…न्याय ईश्वर के सबसे बड़े गुणों में से एक अतिआवश्यक गुण है। ईश्वर के न्याय से
ही संसार का यह सारा कार्यालय चल रहा है। उसका न्याय सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के कण-कण
में काम कर रहा है। न्याय का शब्दिक अर्थ है एक वस्तु के दो बराबर-बराबर भाग, जो तराज़ू में रखने से एक समान उतरें, उनमें रत्ती भर फर्क न हो और व्यावहारतः हम
इसका मतलब यह लेते हैं कि जो बात कही जाए या जो काम किया जाए वह सच्चाई पर आधारित
हो, उनमें तनिक भी
पक्षपात या किसी प्रकार की असमानता न हो…।’’
‘‘…इस्लाम में न्याय को बहुत महत्व दिया गया है और कु़रआन में जगह-जगह मनुष्य को न्याय करने
के आदेश मौजूद हैं। इसमें जहाँ गुण संबंधी ईश्वर के विभिन्न नाम आए हैं, वहाँ एक नाम आदिल अर्थात् न्यायकर्ता भी आया
है। ईश्वर चूँकि स्वयं न्यायकर्ता है, वह अपने बन्दों से भी न्याय की आशा रखता है।
पवित्र क़ुरआन में है कि ईश्वर न्याय की ही बात कहता है और हर बात का निर्णय न्याय
के साथ ही करता है…।’’
‘‘…इस्लाम में पड़ोसी के साथ अच्छे व्यवहार पर बड़ा बल दिया गया है। परन्तु इसका उद्देश्य
यह नहीं है कि पड़ोसी की सहायता करने से पड़ोसी भी समय पर काम आए, अपितु इसे एक मानवीय कर्तव्य ठहराया गया है, इसे आवश्यक क़रार दिया गया है और यह कर्तव्य
पड़ोसी ही तक सीमित नहीं है बल्कि किसी साधारण मनुष्य से भी असम्मानजनक व्यवहार न
करने की ताकीद की गई है…।’’
‘‘…निस्सन्देह अन्य धर्मों में हर एक मनुष्य को अपने प्राण की तरह प्यार करना, अपने ही समान समझना, सब की आत्मा में एक ही पवित्र ईश्वर के दर्शन
करना आदि लिखा है। किन्तु स्पष्ट रूप से अपने पड़ोसी के साथ अच्छा व्यवहार करने और
उसके अत्याचारों को भी धैर्यपूर्वक सहन करने के बारे में जो शिक्षा पैग़म्बरे
इस्लाम मुहम्मद (सल्ल॰) ने खुले शब्दों में दी है वह कहीं और नहीं पाई जाती…।’’
— ‘इस्लाम, मानवतापूर्ण ईश्वरीय धर्म’
पृ॰ 28,41,45 से उद्धृत
मधुर सन्देश संगम, नई दिल्ली, 2003 ई॰
— ‘इस्लाम, मानवतापूर्ण ईश्वरीय धर्म’
पृ॰ 28,41,45 से उद्धृत
मधुर सन्देश संगम, नई दिल्ली, 2003 ई॰
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