Vishambhar Nath Pandey About Islam


 विशम्भर नाथ पाण्डे (भूतपूर्व राज्यपाल, उड़ीसा)
इस्लाम के बारे में विचार 

क़ुरआन ने मनुष्य के आध्यात्मिक, आर्थिक और राजकाजी जीवन को जिन मौलिक सिद्धांतों पर क़ायम करना चाहा है उनमें लोकतंत्र को बहुत ऊँची जगह दी गई है और समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व-भावना के स्वर्णिम सिद्धांतों को मानव जीवन की बुनियाद ठहराया गया है।
क़ुरआन ‘‘तौहीद’’ यानी एकेश्वरवाद को दुनिया की सबसे बड़ी सच्चाई बताता है। वह आदमी की ज़िन्दगी के हर पहलू की बुनियाद इसी सच्चाई पर क़ायम करता है। क़ुरआन का कहना है कि जब कुल सृष्टि का ईश्वर एक है तो लाज़मी तौर पर कुल मानव समाज भी उसी ईश्वर की एकता का एक रूप है। आदमी अपनी बुद्धि और अपनी आध्यात्मिक शक्तियों से इस सच्चाई को अच्छी तरह समझ सकता इै। इसलिए आदमी का सबसे पहला कर्तव्य यह है कि ईश्वर की एकता को अपने धर्म-ईमान की बुनियाद बनाए और अपने उस मालिक के सामने, जिसने उसे पैदा किया और दुनिया की नेमतें दीं, सर झुकाए। आदमी की रूहानी ज़िन्दगी का यही सबसे पहला उसूल है।
एकेश्वरवाद के सिद्धांत पर ही आधारित क़ुरआन ने दो तरह के कर्तव्य हर आदमी के सामने रखे हैंएक, जिन्हें वह हक़ूक़-अल्लाह अर्थात ईश्वर के प्रति मनुष्य के कर्तव्य कहता है और दूसरे, जिन्हें वह हक़ूक़-उल-अबाद अर्थात मानव के प्रति-मानव के कर्तव्य। हक़ूक़-अल्लाह में नमाज़, रोज़ा, हज, ज़कात, आख़रत और देवदूतों (फ़रिश्तों) पर विश्वास जैसी बातें शामिल हैं, जिन्हें हर व्यक्ति देश काल के अनुसार अपने ढंग से पूरा कर सकता है।
क़ुरआन ने इन्हें इन्सान के लिए फ़र्ज़ बताया है इसे ही वास्तविक इबादत (ईश्वर पूजा) कहा है। इन कर्तव्यों के पूरा करने से आदमी में रूहानी शक्ति आती है।
हक़ूक़-अल्लाहके साथ ही क़ुरआन ने हक़ूक़-उल-अबादअर्थात मानव के प्रति मानव के कर्तव्य पर भी ज़ोर दिया है और साफ़ कहा है कि अगर हक़ूक़-अल्लाहके पूरा करने में किसी तरह की कमी रह जाए तो ख़ुदा माफ़ कर सकता है, लेकिन अगर हक़ूक़-उल-अबादके पूरा करने में ज़र्रा बराबर की कमी रह जाए तो ख़ुदा उसे हरगिज़ माफ़ न करेगा। ऐसे आदमी को इस दुनिया और दूसरी दुनिया, दोनों में, ख़िसारा अर्थात् घाटा उठाना होगा।
क़ुरआन का यह पहला बुनियादी उसूल हुआ।
क़ुरआन का दूसरा उसूल यह है कि हक़ूक़-अल्लाहयानी नमाज़ रोज़ा, ज़कात और हज आदमी के आध्यात्मिक (रूहानी) जीवन और आत्मिक जीवन (Spiritual Life) से संबंध रखते हैं। इसलिए इन्हें ईमान (श्रद्धा), ख़ुलूसे क़ल्ब (शुद्ध हृदय) और बेग़रज़ी (निस्वार्थ भावना) के साथ पूरा करना चाहिए, यानी इनके पूरा करने में अपने लिए कोई निजी या दुनियावी फ़ायदा निगाह में नहीं होनी चाहिए। यह केवल अल्लाह के निकट जाने के लिए और रूहानी शक्ति हासिल करने के लिए हैं ताकि आदमी दीन-धर्म की सीधी राह पर चल सके। अगर इनमें कोई भी स्वार्थ या ख़ुदग़रज़ी आएगी तो इनका वास्तविक उद्देश्य जाता रहेगा और यह व्यर्थ हो जाएँगे।

आदमी की समाजी ज़िन्दगी का पहला फ़र्ज़ क़ुरआन में ग़रीबों, लाचारों, दुखियों और पीड़ितों से सहानुभूति और उनकी सहायता करना बताया गया है। क़ुरआन ने इन्सान के समाजी जीवन की बुनियाद ईश्वर की एकता और इन्सानी भाईचारे पर रखी है। क़ुरआन की सबसे बड़ी ख़ूबी यह है कि वह इन्सानियत के, मानवता के, टुकड़े नहीं करता। इस्लाम के इन्सानी भाईचारे की परिधि में कुल मानवजाति, कुल इन्सान शामिल हैं और हर व्यक्ति को सदा सबकी अर्थात् आखिल मानवता की भलाई, बेहतरी और कल्याण का ध्येय अपने सामने रखना चाहिए। क़ुरआन का कहना है कि सारा मानव समाज एक कुटुम्ब है। क़ुरआन की कई आयतों में नबियों और पैग़म्बरों को भी भाई शब्द से संबोधित किया गया है।
मुहम्मद (सल्ल॰) साहब हर समय की नमाज़ के बाद आमतौर पर यह कहा करते थे— “मैं साक्षी हूँ कि दुनिया के सब आदमी एक-दूसरे के भाई हैं।यह शब्द इतनी गहराई और भावुकता के साथ उनके गले से निकलते थे कि उनकी आँखों से टप-टप आंसू गिरने लगते थे।
इससे अधिक स्पष्ट और ज़ोरदार शब्दों में मानव-एकता और मानवजाति के एक कुटुम्ब होने का बयान नहीं किया जा सकता। कु़रआन की यह तालीम और इस्लाम के पैग़म्बर की यह मिसाल उन सारे रिवाजों और क़ायदे-क़ानूनों और उन सब क़ौमी, मुल्की, और नसलीगिरोहबन्दियों को एकदम ग़लत और नाजायज़ कर देती है जो एक इन्सान को दूसरे इन्सान से अलग करती हैं और मानव-मानव के बीच भेदभाव और झगड़े पैदा करती हैं।

— 
पैग़म्बर मुहम्मद, कु़रआन और हदीस, इस्लामी दर्शन
(
गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति, नई दिल्ली, 1994)


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